सूरज दादा छुट्टी पर (हास्य कविता)
सूरज ने भी सोचा है, ये कैसा काम का लोचा है।
उठता हूँ जल्दी सुबह, ढलने तक का खोंचा है।। सूरज ने भी–
कुछ तो मै आराम करू, कुछ घण्टे विश्राम करू।
लेता हूँ अंगड़ाई सुबह, अब देर सवेरे भोर भरू ।।
जल्दी के इस आलम ने, कुछ तो जीवन को नोचा है।। सूरज ने भी–
सबसे पहले उठ कर ही, निपटाया था काम अभी,
दौड़ लगाई थी पूरब से, पश्चिम तक की शाम कभी।
भागम भाग के जीने में, कुछ तो मन में कोंचा है।। सूरज ने भी —
करती दुनिया मेरे चक्कर, मेरी सेर हुई है कक्कर,
रात दिन करे जो डटकर, मैं तो हो गया घनचक्कर।
चक्कर के इस चक्कर मे, अब अल्पविराम की सोचा है।। सूरज ने भी—
जल्दी घर को मैं जाऊँगा, खूंटी टांक अब सो जाऊँगा,
उठ पाऊंगा देर सवेरे, रजाई में ही सुस्तताऊंगा ।
नहीं बरसु अब शोले जैसा, अब शीतल की सोचा है।। सूरज ने भी—
छोटा सा अब दिन रहेगा, कुछ तो काम का बोझ हटेगा,
मेरी अर्ध छुट्टियों से ही, लोगों का बोझिल मन बंटेगा।
बड़े दिनों में आकर ही, मन मे हर्ष रोमांच कोंचा है। सूरज ने भी —
ऊगता रहता देता रहता, अन्न जल यह धरती भरता,
जीव जगत में ऊर्जा करता, धरा पर सुन्दर सुषमा झरता।
ख़ुद में भी अब खुद को खोजूं ,सोच सोचकर ये सोचा है।। सूरज ने भी—-
(लेखक-डॉ शिव लहरी)