#सुलोचना
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★ #सुलोचना ★
रवि सागर-तल जब लीन हों
दिवस बीते और साँझ आए
फिर साँझ ढले और तारागण
झिलमिल-झिलमिल मुस्काएं
चँदा जोत बिखेरे फिर भी
रात रानी के हों केश घने
आने वाला राह न भूले
इस कारन
देहरी दीप जला री सुलोचने !
हँसकर बोली सुलोचना . . .
मेरे नीरज नयना बावरे
कहें नीरव पंथ निहार
दीप जलें उसके घर में
जो बैठा मुझे बिसार . . . !
●१३-११-१९७४ के दिन यह पंक्तियाँ लिख चुकने के बाद लेखनी उठाकर एक ओर धर दी। चालीस बरस बीत गए। तब की डायरियाँ कहाँ गईं, कुछ पता नहीं? बस यही एक अधूरी-सी डायरी और कुछ पन्ने ही शेष रहे?
अनुज समान इंद्रजीतसिंह, (संपादक, पंजाबी मासिक ‘सत समुंदरों पार’), जब भी मिलते यही कहते कि “आपने लिखना क्यों छोड़ दिया? आप कुछ भी लिखिये, मुझे दीजिये, मैं अपनी पत्रिका में प्रकाशित करूंगा “।
मैं हँसकर टाल देता।
परंतु, एक दिन संपादक महोदय विजयी हुए। दिसम्बर २०१३ से फिर से लिखना आरंभ किया।
आप मित्रगण, जो मेरी रचनाएँ पढ़ा करते हैं, तो इसका एकमात्र श्रेय मेरे संपादक, इंद्रजीतसिंह को है।
धन्यवाद !
#वेदप्रकाश लाम्बा
यमुनानगर (हरियाणा)
९४६६०-१७३१२