#सुर आज रे मन कुछ ऐसे जगा
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★ #सुर आज रे मन कुछ ऐसे जगा ★
पथिक नयनों से रस्ते को
कुछ यों भी बुहारा करते हैं ।
आनेवाला व्यथित न हो
बीते को पुकारा करते हैं ।।
सुर आज रे मन कुछ ऐसे जगा
जीवन उजियारा हो जाए
प्राणों में प्राण खिलें ऐसे
जगतार हमारा हो जाए
सुर आज रे मन कुछ ऐसे जगा . . .
अपनी न हों अपनी-सी लगें
दिवस और रातें धुली-धुली
समय यूं साध हथेली में
संसार यह सारा खो जाए
सुर आज रे मन कुछ ऐसे जगा . . .
सपनों की नाव मचलती हो
सुधिसागर न्यारा हो जाए
कर जतन थाम थपेड़ों को
मंझधार किनारा हो जाए
सुर आज रे मन कुछ ऐसे जगा . . .
वयवीथिका के धागे कच्चे
उलझ रहे अब हाथों में
सुबह का उड़ता पंछी कहीं
थकान का मारा सो जाए
सुर आज रे मन कुछ ऐसे जगा . . .
मिलन की मनसा मन में रहे
और चाँद बिचारा खो जाए
प्रेमसंदेसा पहुंचे बिना ही
सांझ का तारा सो जाए
सुर आज रे मन कुछ ऐसे जगा . . .
आँख खुले और सपने टूटें
उसके पहले तू जाग तनिक
पतवार पवन मतवारी को दे
बहती धार सहारा हो जाए
सुर आज रे मन कुछ ऐसे जगा . . .
घात नहीं प्रतिघात नहीं
डरने की कुछ बात नहीं ।
धीरज पर धर तू टेक रे मन
दिन काला है यह रात नहीं ।।
#वेदप्रकाश लाम्बा
यमुनानगर (हरियाणा)
९४६६०-१७३१२