सुरेन्द्र मोहन पाठक की जीवनी, उन्हें साहित्य की दुनिया में स्थापित करेगी
हिन्दी के लोकप्रिय जासूसी उपन्यासकार सुरेन्द्र मोहन पाठक की आत्मकथा के दो खण्ड “ना बैरी ना कोई बेगाना” (भाग एक/प्रकाशक: वेस्टलैण्ड); “हम नहीं चंगे, बुरा न कोय” (भाग दो/प्रकाशक: राजकमल); महत्वपूर्ण प्रकाशन संस्थानों से प्रकाशित हो चुके हैं। सुरेन्द्र मोहन पाठक की आत्मकथा का पहला भाग ‘न कोई बैरी न कोई बेगाना’ में, जहाँ उन्होंने अपने बचपन से लेकर कॉलेज के दिनों के जीवन … को उकेरा है। वहीँ आत्मकथा के दूसरे भाग हम “नहीं चंगे, बुरा न कोय” में उससे आगे का जीवन संधर्ष का ताना-बाना बुना है। आत्मकथा लेखन के बारे में पाठक जी का खुद का मानना है कि, “उन्हें आत्मकथा लिखने के लिए उनके पाठकों और प्रकाशकों ने मज़बूर किया। उन्हें खुद उम्मीद नहीं थी कि वो आत्मकथा लिख सकते हैं, क्योंकि उन्हें अपने जीवन में कोई खूबी नज़र नहीं आई। फिर सोचा कि 50-60 पेज लिखकर वो हाथ खड़े कर देंगे और प्रकाशक से माफ़ी मांग लेंगे कि वह आत्मकथा नहीं लिख पाएंगे। उन्हें कुछ लोगों ने समझाया कि कुछ अन्य लेखकों की आत्मकथा ले आओ और उसी हिसाब से अपनी आत्मकथा लिखो। वो साल 2017 में दर्जन भर लेखकों की आत्मकथा ले भी आये थे मगर उन्हें पढ़े बिना ही उन्होंने पचास-साठ पेज लिखने की ठानी तो वो लिखते ही चले गए और उसी रवानी में 1200 पेज लिख डाले। इसके पहले चार सौ पृष्ठ पर आत्मकथा का पहला खण्ड प्रकाशित हुआ। और बाद के चार सौ पृष्ठ को दूसरे खण्ड में प्रकाशित किया गया है।
एक बहस, एक लक़ीर हमेशा ही रही है कि लुगदी साहित्यकार को मुख्य धारा का साहित्यकार माना जाये या नहीं। महज़ मनोरंजन के उद्देश्य से रचे गए इस साहित्य से न तो पाठकों को कुछ हासिल हुआ न इसे रचकर साहित्यकारों को साहित्यिक दर्ज़ा। वेदप्रकाश काम्बोज, ओमप्रकाश शर्मा, वेदप्रकाश शर्मा आदि अन्य लेखक इस क्षेत्र के मुख्य हस्ताक्षर रहे। सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के जीवन से यह जानना वाकई दिलचस्प होगा कि उन्होंने अपने उपन्यासों द्वारा, कैसे अपने पाठकों के मध्य अपार लोकप्रियता हासिल की। 1970 में प्रकाशित, उनका उपन्यास “पैंसठ लाख की डकैती” एक ब्लॉकबस्टर थी, जिसकी अब तक कम से कम ढाई लाख (250,000) प्रतियां बिक चुकी हैं। इस उपन्यास के बाइस एडिशन निकल चुके हैं। हिन्दी के अलावा अंग्रेजी में भी प्रकाशित हो चुका है। पाठक के एक अन्य उपन्यास कोलाबा षड़यंत्र को 2014 में अमेज़न ने अपनी वेबसाइट पर सबसे लोकप्रिय पुस्तक का ख़िताब दिया था।
सुरेन्द्र मोहन पाठक जी 62 सालों से निरन्तर लिख रहे हैं, और इस लंबी और सफल पारी में, उन्होंने तीन पीढ़ियों की अनगिनित पाठकों और अपने प्रशंसकों की दुनिया तैयार की है। जो सिर्फ़ उन्हें ही आज भी उसी श्रद्धा और विश्वासके साथ पढ़ना चाहते हैं जैसा कि साठ-सत्तर-अस्सी और नब्बे के दशक में उन्हें पढ़ा जाता रहा है। हालाँकि पाठक जी खुद ही मानते हैं कि उनका साहित्य कोई कालजई साहित्य नहीं है। वह टेलीफ़ोन विभाग में 34 साल सरकारी नौकरी में भी रहे और निरन्तर लेखनशील रहे। मामूली टेलीफ़ोन मैकेनिक होने की वजह से वह नई-नई जीवन स्थितियों से गुज़रे। नए-नए लोगों से मिले यही सब कुछ उनके उपन्यासों की भूमिका और पात्र बने। यही दिलचस्प क़िस्से अब आत्मकथा के माध्यम से लोग पढ़ेंगे। पाकिस्तान में बचपन गुज़रा और जवानी तक क्या-क्या किया। पढ़ने और लिखने के प्रति दीवानगी। ये सब आत्मकथा द्वारा जानने को मिलता है। 2017 में उन्होंने जीवनी के 1200 पेज लिख दिए। जो अब पाठकों के सामने हैं। क्या पता सुरेन्द्र मोहन पाठक जी की ये जीवनी उन्हें साहित्य की दुनिया में स्थापित कर दे।