सुख – एक अहसास ….
सुख – एक अहसास
मैं
बातें करती रही
एक अनजानी डोर के
गुम सिरे से
देर तक
मैं
बातें करती रही
अपने हाथों में लगी
तेरे नाम की हिना से
चुपके-चुपके
देर तक
मैं
बातें करती रही
ज़ह्न की कफ़स में कैद
सिसकते जज़्बात से से
देर तक
मैं
बातें करती रही
तेरे हिज़्र में डूबे
अफ़सुर्दा लम्हात से
देर तक
मैं
बातें करती रही
सुकून को मुट्ठी में दबाये
बिखरे सिन्दूर में
कहकहे लगाते
टुकड़े-टुकड़े हुए
सुख के अक्स से
देर तक
मैं
रुक गयी
बातें करते-करते
सुख की कँवारी सेज की
तड़पन देखकर
बू-ए-हिना की
उलझन देखकर
सुख के हिज़ाब में
दुख की दुल्हन देखकर
मैं
रुक गयी
बातें करते-करते
सुख और दुख के बीच
महीन यकीन की टूटी
छत देखकर
सोचने लगी
यदि सुख और दुख के बीच की
ये छत
न टूटी होती
तो क्या होता
शायद फिर
सुख और दुख का अहसास
शून्य का
आकाश होता
सुशील सरना