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9 Dec 2022 · 20 min read

*सुंदरकांड की विशेषताऍं : एक अध्ययन*

सुंदरकांड की विशेषताऍं : एक अध्ययन
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लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451
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नोट : इस लेख के कुछ अंश टैगोर काव्य गोष्ठी 7 दिसंबर 2022 बुधवार को प्रस्तुत किए जा चुके हैं।
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#सुंदरकांड_के_तीन_श्लोक

1. शान्तं शाश्वतम प्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं, ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्।

रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं, वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम् ॥1॥

2. नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये, सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा ।

भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे, कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च॥2॥

3. अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं, रघुपतिप्रियभक्तं

वातजातं नमामि ॥3 ॥
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हे हनुमंत प्रणाम : सुंदरकांड से प्रेरित 9 दोहे
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1
कांतियुक्त स्वर्णिम छटा, अतुलित बल के धाम
अग्रगण्य ज्ञानी गुणी, हे हनुमंत प्रणाम
2
इच्छा है केवल यही, रघुकुल भूषण राम
और नहीं कुछ चाहता, हटे हृदय से काम
3
वंदन हे श्री राम जी, हरने वाले पाप
परम शांति निर्वाण-पद, देने वाले आप
4
माया से प्रभु दिख रहे, मनुज रूप में राम
करुणा के भंडार तुम, जगदीश्वर शुभ नाम
5
दैत्य-रूप वन के लिए, अग्नि-रूप भगवान
पर्वत मानो स्वर्ण के, श्री हनुमान महान
6
देवों में सबसे बड़े, रघुकुल-श्रेष्ठ प्रणाम
मोक्ष-प्रदाता आप हैं, अप्रमेय श्री राम
7
अंतर्यामी कर कृपा, दे दें इतना दान
भक्ति मिले संपूर्णत:, हे करुणा की खान
8
राम हृदय जिनके बसे, वर दें श्री हनुमान
कर्म करें पर कर्म का, नहीं करें अभिमान
9
रामदूत की भूमिका, सीता-अनुसंधान
निरभिमानता मन-भरे, धन्य वीर हनुमान
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अप्रमेय = प्रमाण से परे
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अगर रामचरितमानस भारत की राममय संस्कृति का प्राण है, तो सुंदरकांड संपूर्ण रामचरितमानस का हृदय स्थल कहा जा सकता है। भक्ति भावना का जो चरमोत्कर्ष हमें सुंदरकांड में दिखाई पड़ता है, वह पाठकों के मन को अपार श्रद्धा भाव से भर देता है । हनुमान जी का व्यक्तित्व, चरित्र तथा उनके असाधारण कार्यों का वर्णन रामचरितमानस के इसी खंड के द्वारा सबसे प्रभावी रूप से प्रस्तुत हुआ है। भगवान राम के सेवक-भाव को सुंदरकांड ने ही तो सर्वप्रथम अपनी संपूर्णता में प्रकट किया है। इसी सुंदरकांड से हनुमान एक ऐसा कार्य कर सके, जो युगों-युगों तक केवल उनके द्वारा ही संभव किया जाने वाला एक असंभव कार्य कहलाया । इसी सुंदरकांड के द्वारा वह राम के अनन्य भक्ति-पद को प्राप्त कर सके । इसी सुंदरकांड ने उन्हें भगवान के हृदय से लग जाने का अनुपम आशीष प्रदान किया । भगवान राम के सर्वाधिक निकट अगर कोई पहुंच सका, तो वह सुंदरकांड के द्वारा हनुमान जी ही पहुंच पाए हैं ।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना में अनेक प्रकार से अपनी काव्य-प्रतिभा को चमत्कारी रूप से सिद्ध किया है । चौपाइयों पर आपका असाधारण अधिकार है। 16 मात्राओं का एक चरण होता है तथा चौपाई में 4 चरणों में इन 16 – 16 मात्राओं का निर्वहन संपूर्ण रामचरितमानस के साथ-साथ सुंदरकांड में भी भली प्रकार हुआ है । काव्य शिल्प की दृष्टि से विविधता लाने के लिए कुछ चौपाइयों के बाद एक दोहे के प्रयोग से काव्य का सौंदर्य द्विगुणित करने में भी तुलसीदास जी को सफलता प्राप्त हुई है । जब हम सुंदरकांड का पाठ करते हैं तो कुछ चौपाइयों के बाद ही एक दोहा आता है, जिससे रस परिवर्तन भी हो जाता है तथा पाठकों और श्रोताओं को एक नया उत्साह भी मिल जाता है। इससे यह भी पता चलता है कि जो अधिकार कवि का चौपाई की रचना पर है, वही अधिकार दोहा रचना में भी है। छंद में भी तुलसीदास जी को पारंगतता प्राप्त है । उनके छंद बेजोड़ हैं। उसमें लयात्मकता का अद्भुत प्रवाह है । लगता है, संगीत बज रहा है । पाठक छंद की संगीतात्मकता में खो जाते हैं।
सुंदरकांड वास्तव में राम कथा का एक महत्वपूर्ण प्रसंग है। हनुमान जी इस कथा के नायक और महानायक हैं । यह अलग बात है कि वह भगवान राम के सेवक बनकर अपनी भूमिका में संतुष्ट हैं । वह स्वयं को रामदूत कहलाने में प्रसन्न हैं। भगवान राम के चरणों में स्थान प्राप्त करना ही उनके जीवन की सर्वोच्च अभिलाषा है । इस तरह वह अनन्य भक्ति के एक स्त्रोत बन जाते हैं।
प्रश्न यह उठता है कि जिस अपारशक्ति, अद्भुत साहस तथा बुद्धि-चातुर्य का परिचय हमें सुंदरकांड में देखने को मिलता है, वह भूमिका हनुमान जी के द्वारा निर्वहन किए जाने में किसकी प्रेरणा रही ? हर कार्य के मूल में एक प्रेरणा होती है, जिसके द्वारा कार्य सफल और संभव हो पाता है।
हनुमान जी का चरित्र भी संसार के सामने उजागर करने में एक प्रेरणा जामवंत की रही। सुंदरकांड की पृष्ठभूमि में हम इस प्रेरणा का बहुत स्पष्ट रूप से दर्शन कर सकते हैं । हनुमान जी से जामवंत कहते हैं :-

कहइ रीछपति सुनु हनुमाना
का चुप साधि रहेहु बलवाना
पवन तनय बल पवन समाना
बुद्धि विवेक विग्यान निधाना
कवन सो काज कठिन जगमाहीं
जो नहिं होई तात तुम पाहीं
राम काज लगि तव अवतारा
सुनतहिं भयउ पर्वताकारा

इस प्रकार प्रेरणा ने हनुमान जी की सोई हुई शक्ति को जगा दिया। उन्हें अपनी सामर्थ्य का स्मरण दिला दिया और फिर सुंदरकांड इन पंक्तियों के साथ आरंभ हुआ :-

जामवंत के वचन सुहाए
सुनि हनुमंत हृदय अति भाए

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सुंदरकांड की कथा
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सुंदरकांड की कथा नाम के अनुरूप ही बहुत सुंदर ढंग से आगे बढ़ती है । सीता जी का अपहरण लंकापति रावण के द्वारा किया जा चुका है और राम उनकी खोज में व्याकुल होकर चारों दिशाओं में प्रयत्न कर रहे हैं । सीता जी का कहीं पता नहीं चल पा रहा है । मुख्य प्रश्न यह है कि रावण सीता को कहां लेकर गया और उसने उनको कहां ले जा कर रखा ? इस बात का पता लगाना था, इसके लिए ही हनुमान जी अकेले लंका जाने के लिए तत्पर हो गए । उनमें अपार साहस और बल भर गया । अपनी शक्ति को उन्होंने संजोया और समुद्र की यात्रा में एक छलांग लगाकर लंका पहुंच तो गए लेकिन रास्ते में अनेक राक्षसी बाधाओं का उन्हें सामना करना पड़ा । अपनी बुद्धि, विनम्रता, चातुर्य और बल से उन्होंने समस्त बाधाओं पर विजय प्राप्त की । लंका पहुंचकर वह सबसे पहले रावण के महल में गए । उनका अनुमान यही था कि निश्चित रूप से सीता रावण के महल में बंदी होंगीं। किंतु जब सारा महल खोजने पर भी उन्हें सीता जी के दर्शन नहीं हुए, तब उन्होंने लंका में एक-एक घर की तलाश करनी शुरू कर दी ।
इसी क्रम में उन्हें विभीषण का महल भी दिखाई दिया । यहां पर रामभक्ति के कुछ चिन्ह उपस्थित थे । हनुमान जी को यह देखकर कुछ आशा बॅंधी। विभीषण से भेंट करने पर उन्हें यह पता चल गया कि सीता जी को रावण ने अशोक वाटिका में बंदी बनाकर रखा हुआ है। विभीषण से बातचीत में ही यह भी स्पष्ट हो गया कि विभीषण यद्यपि रावण का भाई है, तथापि वह रावण की नीतियों-नीतियों से सहमत नहीं है तथा रामभक्त है। विभीषण से ही यह भी पता चला कि रावण ने सीता जी को अशोक वाटिका में बंदी बनाकर रखा हुआ है।
इसके बाद हनुमान जी अशोक-वाटिका में जाकर सीता जी से मिलते हैं और उन्हें भगवान राम द्वारा भेजी गई अंगूठी प्रदान करते हैं, जिससे सीता जी को विश्वास हो जाता है कि हनुमान जी को भगवान राम ने ही अपने दूत के रूप में भेजा है।
अशोक वाटिका में हनुमान जी का राक्षसों से युद्ध होता है। अक्षय कुमार को वह पराजित कर देते हैं, किंतु जब इंद्रजीत से उनका युद्ध हुआ तब उन्होंने ब्रह्मास्त्र का सम्मान करने के लिए स्वेच्छा से स्वयं को बंदी बनाने के लिए प्रस्तुत कर दिया । वह रावण के दरबार में उपस्थित हुए । उनका परिचय रामदूत के रूप में स्वयं उन्होंने ही प्रस्तुत किया। इसके बाद भी उनकी पूंछ में आग लगाकर उन को अपमानित करने का प्रयास किया गया । आपदा को अवसर में बदलते हुए हनुमान जी ने अपनी पूंछ में लगी आग से समूची लंका को जला डाला। संपूर्ण लंका भयभीत हो उठी तथा उसके मन में राम की वानर सेना के प्रति गहरा डर बैठ गया।
लंका जलाने के बाद हनुमान जी लौटकर अशोक वाटिका में आए । सीता जी को सारे समाचार सुनाए। सीता जी अत्यंत प्रसन्न हुईं। हनुमान जी ने वापस समुद्र के पार जाने की इच्छा प्रकट की और सीता जी से मिलने के प्रमाण के रूप में कोई वस्तु मांगी । इस क्रम में सीता जी ने उन्हें अपना आभूषण चूड़ामणि प्रदान किया । इस भेंट को प्रमाण स्वरूप लेकर हनुमान जी हवा की गति से समुद्र को पार करते हुए पुनः रामचंद्र जी के समक्ष उपस्थित हो गए ।
उनके इस साहसिक कार्य ने उन्हें भगवान राम का अत्यंत प्रिय बना लिया । रामचंद्र जी ने उन्हें अपना सर्वाधिक प्रिय स्वीकार किया । अपने बल, बुद्धि, चातुर्य तथा लक्ष्य के प्रति अनन्य समर्पण भाव के कारण समूचे संसार में अद्वितीय माने गए।
विशेषता यह रही कि इतना सब होते हुए भी हनुमान जी ने निरभिमानता का ही परिचय दिया । जो बात उन्होंने रावण के दरबार में कही थी कि वह रामदूत हैं, अपनी इसी भूमिका को उन्होंने राम के सेवक के रूप में सदा-सदा के लिए अंगीकृत कर लिया ।
अब रावण के विरुद्ध युद्ध के केंद्र बिंदु ही नहीं, अपितु सब प्रकार से अपार परिणामों के स्रोत श्री हनुमान जी बन गए । उनकी कहानी लोकगाथा बन गई । उनका चरित्र, कार्य तथा कार्यशैली संपूर्ण मनुष्यता के लिए एक आदर्श और प्रेरणा के अक्षय स्रोत के रूप में स्थापित हो गई।
सुंदरकांड के पाठ के द्वारा हनुमान जी की शुभ भूमिका का भक्तिभाव से पठन-पाठन इसी बात को दर्शाता है कि हमारे जीवन में लक्ष्य के प्रति समर्पित होना भी आवश्यक है तथा उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हमें स्वयं की महत्ता को स्थापित करने के स्थान पर बुद्धि-चातुर्य से लक्ष्य की सफलता के लिए कार्य करने में ही श्रेष्ठता निहित है ।
अब चुनौती यह थी कि समूची वानर-सेना को लेकर समुद्र को कैसे पार किया जाए तथा युद्ध लड़कर सीता जी को रावण की कैद से कैसे छुड़ाया जाए ? इसके लिए सर्वप्रथम भगवान राम म ने तीन दिन तक समुद्र को अनुनय, विनय और प्रार्थना के द्वारा मनाने का प्रयास किया । लेकिन जब विनय से बात नहीं बनी, तब भगवान राम ने अपना धनुष उठा लिया और यह स्थिति आते ही समुद्र ने अपने हथियार डाल दिए । वह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया तथा स्वयं पर रुष्ट होने लगा । उसका कहना था कि अनुनय-विनय से सब प्रकार के लोग संतुष्ट नहीं होते। यह केवल श्रेष्ठ व्यक्तियों के ऊपर कार्य करने वाली शैली मात्र ही है। तदुपरांत नल और नील की कला जिसके द्वारा समुद्र पर पत्थरों को तैयार जा सकता है, से समुद्र द्वारा सब का परिचय कराया गया। इसके साथ ही सुंदर कांड की समाप्ति होती है।
सुंदरकांड का आरंभ तीन संस्कृत श्लोकों से हुआ है। तीसरे श्लोक में हनुमान जी की प्रार्थना है। संस्कृत के यह श्लोक रामचरितमानस में अथवा यह कहिए कि सुंदरकांड में इस बात को प्रतिबिंबित करते हैं कि तुलसीदास जी का संस्कृत-ज्ञान अपार था, लेकिन उन्होंने जन सामान्य तक रामकथा तथा हनुमान जी की भक्ति भावना का अमृत पहुंचाने के लिए सरल लोकभाषा हिंदी का उपयोग किया। यह उनकी जनाभिमुखता को दर्शाने वाली प्रवृत्ति है।
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सुंदरकांड की विशेषताऍं
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सुंदरकांड की विशेषताओं को निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत कोष्ठको में विभाजित किया जा सकता है :-
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हनुमान जी की निरभिमानता
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सुंदरकांड में हनुमान जी की विनम्रता और अभिमान से रहित उनका आचरण देखने योग्य है। कठिन से कठिन कार्य को करने के उपरांत वह जरा-सा भी अभिमान नहीं करते। बड़े से बड़े वीर को जीतने में लघुता का आश्रय लेने में भी वह प्रवीण हैं। जब समुद्र के मार्ग में उन्हें सुरसा मिली और सुरसा की तुलना में उन्होंने अपना शरीर बढ़ाना शुरू किया तब अंत में उन्होंने विनम्रता का आश्रय लेकर इस युद्ध को जीत लिया । स्वरूप छोटा कर लिया और सुरसा के मुख से बाहर आ गए । इसके उपरांत सुरसा को सिर झुका कर प्रणाम करना नहीं भूले । हनुमान जी के इस आचरण में उन्हें वास्तव में बहुत बड़ा बना दिया । बड़प्पन व्यक्ति की अहंकार-शून्यता में ही निवास करता है । सुंदरकांड में हनुमान जी का चरित्र इसी बात को दर्शाता है :-
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा ।
मागा बिदा ताहि सिरु नावा ।।

इसी तरह जब हनुमान जी सीता का पता लगाकर समुद्र के तट पर वापस आकर रामचंद्र जी से मिले तथा सब समाचार सुनाए, तब भी हम उनकी विनम्रता तथा अभिमान-शून्यता का असाधारण दर्शन करते हैं । वह इस बात को बहुत विनम्रता से कहते हैं कि जो कुछ भी कार्य उन्होंने किया है, वह सब प्रभु राम जी के प्रताप से ही हुआ है तथा यह सब उनकी ही प्रभुताई है :-
सो सब तव प्रताप रघुराई
नाथ न कछू मोरि प्रभुताई

हनुमान जी उन व्यक्तियों में नहीं है जो अपने व्यक्तित्व को बढ़ा-चढ़ाकर कहीं प्रस्तुत कर रहे हों। वह तो सदैव स्वयं को भगवान राम का सेवक और दूत ही मानते हैं । इसलिए जब रावण के दरबार में उन्हें उपस्थित किया गया, तब उन्होंने अपना परिचय ‘रामदूत’ कहकर ही रावण को दिया । यह जहॉं एक ओर बुद्धिमत्ता को दर्शाता है, वहीं सेवक-भाव को भी प्रदर्शित करता है:-

रामदूत मैं मातु जानकी
सत्य सपथ करुणानिधान की

हनुमान जी की निरभिमानता को ही हम उस समय भी देखते हैं जब इंद्रजीत ने उन्हें अशोक वाटिका में ब्रह्मास्त्र से पराजित करने का निश्चय किया और हनुमान जी ने इस बिंदु पर अपनी महत्ता स्थापित करने के स्थान पर ब्रह्मा जी की महत्ता को स्थापित कर दिया । स्वयं छोटा बनकर अन्य को बड़ा बना देने की कला तो केवल हनुमान जी को ही आती है । तुलसीदास जी ने इस अवसर के अनुकूल बहुत सुंदर दोहा लिखा है, जिसमें बताया गया है कि हनुमान जी ब्रह्म-पाश में केवल इसलिए बॅंध गए ताकि ब्रह्मा जी के अस्त्र की महिमा कम न होने पाए :-

ब्रह्म अस्त्र तेहिं सॉंधा कपि मन कीन्ह विचार
जौं न ब्रह्मसर मानउॅं महिमा मिटई अपार

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हनुमान जी का बुद्धि चातुर्य
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सुंदरकांड में स्थान-स्थान पर हनुमान जी की बुद्धि-चातुर्य की छटा बिखरी हुई है । उनकी समझदारी अनुपम है । वह उचित निर्णय लेने में सब प्रकार से सक्षम हैं । उनकी कार्य करने की शैली उनकी बुद्धिमत्ता को दर्शाने वाली है । अगर उनके स्थान पर कोई दूसरा व्यक्ति समुद्र पार कर भी लेता, तो भी वह इतने प्रभावशाली ढंग से लंका पहुंचकर अपना पक्ष प्रस्तुत नहीं कर पाता, जो असाधारण बुद्धि-चातुर्य के कारण हनुमान जी प्रस्तुत कर सके। लंका पहुंचकर हनुमान जी सबसे पहले रावण के निवास पर गए । उनका यह अनुमानजन्य निर्णय सब प्रकार से सही था तथा उन्होंने सर्वप्रथम रावण के महल की खोजबीन भली प्रकार करना उचित समझा । इसमें उनके युद्ध-कौशल का गुण भी परिलक्षित हो रहा है, क्योंकि शत्रु के सबसे महत्वपूर्ण ठिकाने की खोज खबर ले लेना स्वयं में बड़ी उपलब्धि होती है ।

गयउ दसानन मंदिर माहीं
अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं

हनुमान जी की बुद्धिमत्ता का एक प्रमाण तब मिलता है, जब वह रावण के दरबार में उपस्थित हुए और उन्होंने एक दूत के रूप में रावण से सर्वप्रथम विनती करने की बात कहकर अपना निवेदन प्रस्तुत किया। केवल इतना ही नहीं, उन्होंने रावण को उसके उज्जवल कुल का भी स्मरण दिलाया । यह दोनों बातें नीति की दृष्टि से बड़ी महत्वपूर्ण होती हैं। सर्वप्रथम विनती का ही आश्रय लिया जाना चाहिए तथा शत्रु को उसके पूर्वजों के सम्मान का स्मरण दिलाकर सही रास्ते पर ले आना सबसे अच्छा मार्ग होता है। सुंदरकांड में हनुमान जी ने इसी सोची-समझी रणनीति का आश्रय लिया है :-

बिनती करउॅं जोरि कर रावन
सुनहु मान तजि मोर सिखावन

रिषि पुलस्ति जसू विमल मयंका
तेहि ससि महुॅं जनि होहु कलंका

बुद्धि चातुर्य का ही प्रमाण तो था जब हनुमान जी ने अशोक वाटिका में सीता जी से विदा लेते समय प्रमाण स्वरूप कोई वस्तु प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की। उनका कहना था कि जिस तरह प्रभु राम ने उन्हें अंगूठी प्रमाण स्वरूप दी थी, ठीक वैसे ही अब सीता जी भी कोई वस्तु उन्हें प्रदान कर दें ताकि उसे दिखा कर समुद्र के तट पर लौटने के बाद उसे प्रभु राम जी को दिखा कर संतुष्ट किया जा सके । यद्यपि महापुरुषों का कथन ही स्वयं में प्रमाण होता है, लेकिन फिर भी अतिरिक्त प्रमाण को जुटाना बुद्धि चातुर्य को दर्शाता है :-

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा
जैसे रघुनायक मोहि दीन्हा
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ
हर्ष समेत पवनसुत लयऊ

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लक्ष्य प्राप्ति की तत्परता
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जीवन में सफल वही व्यक्ति हो सकता है, जो लक्ष्य की दिशा में एक क्षण भी गॅंवाए बिना निरंतर गतिशील रहे । हनुमान जी की कार्यशैली सुंदरकांड में उनकी इसी विशेषता को दर्शाती है । इस प्रकार का नायक का आचरण संसार में सबको प्रेरणा का स्रोत बनने वाला होता है । इसीलिए हनुमान जी सुंदरकांड के आरंभ में ही यह कह देते हैं :-

राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहॉं विश्राम

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व्यक्तित्व-चित्रण
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सुंदरकांड में गोस्वामी तुलसीदास जी ने व्यक्तित्व चित्रण में अद्भुत पारंगतता प्राप्त की है। मात्र दो पंक्तियों में उन्होंने अशोक वाटिका में उदास बैठी हुई सीता जी का मानो चित्र ही खींच दिया :-

कृस तनु सीस जटा एक बेनी
जपति हृदयॅं रघुपति गुन श्रेनी

इसी तरह भगवान राम का चित्रण भी सुंदरकांड में देखने में आता है । जब विभीषण राम जी से मिलने के लिए समुद्र के तट पर आते हैं तब वह रामजी को देखते हैं और उनकी झांकी को मन में बसा लेते हैं ।तुलसीदास जी ने विभीषण के माध्यम से भगवान राम के व्यक्तित्व का एक सुंदर चित्र मात्र दो पंक्तियों में उपस्थित कर दिया है :-

भुज प्रलंब कंजारुन लोचन
श्यामल गात प्रनत भय मोचन

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अवतारी राम
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तुलसी के राम भगवान के अवतार हैं ।वह दुष्टों का विनाश करने के लिए तथा सज्जनों की रक्षा करने के लिए मनुष्य रूप में धरती पर अवतरित हुए हैं ईश्वर का अवतार लेना एक प्राचीन विश्वास है जिसका संबंध इस धरती को सुखमय जीवन जीने के योग्य बनाए रखना है जब साधारण रीति से दोस्तों पर विजय प्राप्त नहीं हो पाती तब असाधारण रूप से परमात्मा अपनी बनाई हुई सृष्टि को उचित रूप देने के लिए स्वयं धरती पर अवतरित होते हैं राम का जन्म इस नाते एक अद्वितीय ईश्वर अवतार की घटना है राम के अवतार की प्रासंगिकता को सुंदरकांड में विभीषण के श्री मुख से तुलसीदास जी ने करवाया है विभीषण रावण को सद्बुद्धि देने के लिए राम के अवतारी स्वरूप को वर्णित करता है और इस क्रम में श्री राम गुण गौरव का गाना कवि कुलगुरू की लेखनी से अत्यंत प्रवाह के साथ मिश्रित हो रहा है । विभीषण अपने भाई रावण से कहते हैं :-

तात राम नहीं नर भूपाला
भुवनेस्वर कालहु कर काला
ब्रह्म अनामय अज भगवंता
व्यापक अजित अनादि अनंता
गो द्विज धेनु देव हितकारी
कृपासिंधु मानुष तनु धारी
जन रंजन भंजन खल ब्राता
वेद धर्म रक्षक सुनु भ्राता

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नीति विषयक विचार
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सुंदरकांड में नीति विषयक विचारों की भरमार है । व्यक्ति अगर प्रेरणा ग्रहण करे, तो उसे बहुत कुछ प्राप्त हो सकता है। जीवन में सदाचार तथा सदाचरण को आत्मसात करने के लिए सुंदरकांड में प्रेरणाओं का अपार भंडार है । वास्तव में सुंदरकांड सद्विचारों की खान है। सत्संग के महत्व को आरंभ में ही सुंदरकांड में प्रतिपादित किया गया है तथा सत्संग के आनंद को स्वर्ग के सुख से भी बढ़कर बताया गया है :-

तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग
तूल न ताहि सकल मिलि, जो सुख लव सतसंग

इसी तरह अच्छी बुद्धि को सब प्रकार की संपत्तियों का स्रोत माना गया है तथा खराब बुद्धि को सारी विपदाओं का स्रोत बताया गया है ।

जहॉं सुमति तहॅं संपति नाना
जहॉं कुमति तहॅं बिपति निदाना

जीवन में मन की निर्मलता को सुंदरकांड ने विशेष स्थान दिया है। अगर व्यक्ति ने बाकी सब कुछ साध लिया, लेकिन मन की निर्मलता नहीं साधी तो वह रामजी का प्रिय नहीं हो सकता। अतः राम जी के श्री मुख से ही तुलसीदास जी सुंदरकांड में छल-कपट के विरुद्ध दृढ़ मत प्रतिपादित करते हैं । चौपाई इस दृष्टि से उल्लेखनीय है

निर्मल मन जन सो मोहि पावा
मोहि कपट छल छिद्र न भावा

नीति के विषय में सबसे महत्वपूर्ण बात तुलसीदास जी ने एक दोहे के माध्यम से सुंदरकांड के अंतिम भाग में यह बताई कि बिना भय के प्रीति नहीं होती। प्रसंग यह है कि तीन दिन तक अनुनय-विनय करने पर भी समुद्र ने रास्ता नहीं दिया, तब रामचंद्र जी ने अपना धनुष-बाण उठा लिया और इस अवसर पर बिल्कुल सटीक दोहा, नीति की बात बताते हुए तुलसीदास जी ने लिख डाला :-

बिनय न मानत जलधि जड़, गए तीनि दिन बीति
बोले राम सकोप तब, भय बिनु होइ न प्रीति

जहॉं तक नीति की बात है, स्वयं भगवान राम के श्री मुख से सुंदरकांड में अत्यंत सटीक टिप्पणियॉं लोकजीवन के संदर्भ में तुलसीदास जी कह रहे हैं । इन चौपाइयों में संसार का कड़वा सच सामने आता है और व्यक्ति को यह पता चल जाता है कि जीवन में सिर्फ अच्छी-अच्छी बातें कहने से ही काम नहीं चल पाता अपितु किस व्यक्ति से किस प्रकार की नीति अपनानी चाहिए, इसका भी अच्छा मार्गदर्शन प्राप्त होता है। कुछ पंक्तियों में दुष्ट के साथ विनय तथा कुटल के साथ प्रीति की निरर्थकता को बताया गया है । लोभी व्यक्ति वैराग्य नहीं जानता। तुलसीदास जी नीति की बात बताते हुए भगवान राम के श्री मुख से कहलवाते हैं

सठ सन विनय कुटिल सन प्रीती
सहज कृपन सन सुंदर नीती
ममता रत सन ग्यान कहानी
अति लोभी सन बिरति बखानी
क्रोधिहि सम कामिहिं हरि कथा
ऊसर बीज बऍं फल जथा

नीति का बल्कि कहिए कि राजनीतिक चातुर्य का अनूठा दृश्य तब उपस्थित होता है, जब विभीषण राम जी से मिलने के लिए आते हैं और उस पहली मुलाकात में ही भगवान राम द्वारा विभीषण को ‘लंकेश’ कहकर राम जी द्वारा संबोधित किया जाता है। सुंदरकांड में यह संबोधन राजनीतिक निपुणता को दर्शाता है । इसका अर्थ सीधे-सीधे विभीषण को लंका का राजपद सौंपने का आश्वासन है। तुलसीदास जी रामचंद्र जी के श्रीमुख से विभीषण को कहलाते हैं

सुनु लंकेस सकल गुन तोरें
तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें
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शरणागति-भाव
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सुंदरकांड में भगवान राम के प्रति शरणागति का भाव बहुत प्रबलता से प्रकट हुआ है । शरणागति का अर्थ यह है कि व्यक्ति किसी की शरण में जाता है और फिर उस पर संपूर्ण विश्वास उड़ेल देता है। उसकी आशा और आकांक्षा का एकमात्र स्रोत तब उसका आराध्य ही बन जाता है । विभीषण ने हनुमान जी से पहली मुलाकात में ही कहा :-

तात कबहुॅं मोहि जानि अनाथा
करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा

शरणागति का भाव सीता जी के व्यक्तित्व में भी उभर कर आया है। इस भावों को तुलसीदास जी ने सुंदरकांड में इतनी प्रबलता के साथ प्रस्तुत किया कि यह केवल सीता जी की भावना ही नहीं रही, यह संपूर्ण रामचरितमानस का मुख्य स्वर बन गया । हर भक्त-हृदय सीता जी के समान ही भगवान राम से अपने जीवन की बाधा को दूर करने का निवेदन कर उठा । अशोक-वाटिका में सीता जी ने भगवान राम को उनके सुयश की याद दिलाते हुए दीनों पर दया करने वाला बताया और कहा कि हे नाथ ! जो मेरे ऊपर बड़ा भारी संकट आ पड़ा है, उसे आप दूर करने का कष्ट करें । अद्भुत चौपाई में तुलसीदास जी लिखते हैं :-

दीन दयाल बिरिदु संभारी
हरहु नाथ मम संकट भारी

यहां ‘संभारी’ का तुकांत ‘भारी’ से किया जाना भी एक महत्वपूर्ण आयाम है।
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जीवन में सलाहकार का महत्व
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सलाहकार का कितना महत्व होता है, इस बात को सुंदरकांड से अधिक शायद ही कहीं समझाया गया । एक अच्छे सलाहकार की भूमिका जीवन को उत्कर्ष की ओर ले जाती है जबकि गलत सलाहकार किसी व्यक्ति के समूचे जीवन को ही पराजित कर देता है। अच्छा सलाहकार वह है जो खरी बात कहता है, निडर होकर कहता है तथा शासक को सही लगे अथवा गलत लगे, लेकिन सलाहकार अपने सत्य पथ से विचलित नहीं होता । सलाहकार के इसी गुण को सुंदरकांड में तुलसीदास जी ने एक दोहे के माध्यम से व्यक्त किया है । सचिव, वैद्य और गुरु -इन तीनों को सही सलाह देने के लिए प्रेरणा देने वाला यह दोहा व्यक्ति और समाज सबके लिए एक आदर्श बन गया :-

सचिव वैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस
राज धर्म तन तीनि कर होइ वेगिहि नास

गृहस्थ जीवन में पत्नी की भूमिका भी एक सलाहकार की होती है। सुंदरकांड में रावण की पत्नी मंदोदरी उसे कुपथ से हटाने के लिए उचित सलाह देती है । यह बात अलग है कि रावण उस सलाह को अनसुनी कर देता है और अपने लोभ तथा अहंकार के पाश में बॅंधा रहता है । तुलसीदास जी ने सलाहकार के रूप में पत्नी की भूमिका को दर्शाते हुए मंदोदरी के मुख से रावण को यह कहलवाया है कि वह सीता जी को वापस श्री राम को सौंप दे, इसी में उसका हित है :-

सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें
हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें
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खलनायक के विचार
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यह कहना कठिन है कि तुलसीदास जी ने सुंदरकांड में खलनायक के निजी विचार को प्रकट करके अच्छा किया अथवा एक भूल कर दी ? भूल तो नहीं की, लेकिन फिर भी कुछ लोग बात का बतंगड़ बनाते हैं तथा खलनायक के विचार पर विचार करने से पूर्व इस बात को विस्मृत कर देते हैं कि यह खलनायक के विचार हैं । समुद्र एक खलनायक के रूप में तुलसीदास जी ने सुंदरकांड में प्रस्तुत किया है ।अतः खलनायक के मुख से उन्होंने यह शब्द कहे हैं :-

ढोल गवॉंर सुद्र पशु नारी
सकल ताड़ना के अधिकारी

उपरोक्त पंक्तियां खलनायक समुद्र की हैं। यह समुद्र-खलनायक समाज में स्त्रियों आदि के प्रति जो विकृत विचार रखता था, वह उसने व्यक्त किया है । इन सब विचारों के प्रतिकूल जाकर सुधार करना ही तो नायक का कर्तव्य होता है। इन दोषों को ध्यान में रखते हुए एक श्रेष्ठ जीवन पद्धति खड़ी की जा सके, इसी के लिए तो रामचरितमानस की रचना हुई है। अतः समाज में जो बुराइयां विद्यमान थीं, उन्हें अगर खलनायक के माध्यम से तुलसीदास जी ने अभिव्यक्ति दे भी दी, तो शायद इसमें गलत कुछ नहीं है । बस इतना अवश्य है कि हम सुंदरकांड पढ़ते समय इस बात का ध्यान रखें कि नारी के संबंध में जो अवधारणा समुद्र के मुख से व्यक्ति हुई है, वह एक खलनायक के विचार हैं तथा उन विचारों से मुक्ति पाना तथा उन विचारों में सुधार करना ही हमारा लक्ष्य भी होना चाहिए।

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शकुन-अपशकुन
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रामचरितमानस में सुंदरकांड के अंतर्गत शकुन और अपशकुन का भी वर्णन देखने को आता है। तुलसीदास जी ने इस संदर्भ में सीता जी के साथ शकुन का होना तथा रावण के साथ अपशकुन का होना दर्शाया है । इससे पता चलता है कि शकुन और अपशकुन का अपना महत्व होता है ।

जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई
असगुन भयउ रावनहि सोई

केवल शकुन और अपशकुन ही नहीं, स्वप्न का भी महत्व सुंदरकांड में दर्शाया गया है। “त्रिजटा” नाम की राक्षसी ने सीता जी को अपना यह सब सपना अशोक वाटिका में सुनाया कि भगवान राम ने लंका को जीत लिया है । यह सपना सुनकर परिणाम यह निकला कि बाकी सारी राक्षसियॉं डर गई और सीता जी के चरणों में गिर पड़ीं। इस तरह गोस्वामी तुलसीदास जी ने स्वप्न के माध्यम से दो बातें बताई हैं । एक तो यह कि स्वप्न सत्य का पूर्वाभास होते हैं तथा दूसरी यह कि स्वप्न का एक बड़ा भारी मनोवैज्ञानिक प्रभाव होता है। इसके द्वारा शत्रु के मनोबल को क्षीण भी किया जा सकता है। स्वप्न की सत्यता और उसके मनोवैज्ञानिक प्रभाव -दोनों की दृष्टि से त्रिजटा का स्वप्न अत्यंत प्रभावशाली रहा । त्रिजटा सीता जी से कहती हैं :-

सपनें बानर लंका जारी
जातुधान सेना सब मारी
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अलंकार का सौंदर्य
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अलंकार से काव्य का सौंदर्य बढ़ता है । जो बात अलंकारिकता के साथ कही जाती है, वह सुंदर तो होती ही है प्रभावशाली भी बन जाती है । एक स्थान पर तुलसीदास जी ने विभीषण की व्यथा को यह कहकर समझाया कि विभीषण की स्थिति दांतो के बीच में रहने वाली जीभ के समान है । इस प्रकार उदाहरण देने से अथवा तुलना करने से बात में वजन बढ़ जाता है :-

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी
जिमी दसनन्हिं महुॅं जीभ बिचारी

एक अन्य स्थान पर सीता जी ने रावण से कहा कि जुगनुओं के प्रकाश से कभी कमल नहीं खिलता । इस प्रकार की अलंकार युक्त भाषा का सौंदर्य भी अलग ही रहता है :-

सुनु दसमुखी खद्योत प्रकासा
कबहुॅं कि नलिनी करइ बिकासा

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लोकभाषा को वरीयता
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रामचरितमानस का सौंदर्य लोकभाषा में रहता है । इस दृष्टि से तुलसीदास जी ने सुंदरकांड में मूल संस्कृत शब्दों को लोकभाषा-बोली के अनुरूप ही प्रस्तुत किया है । उन्होंने तर्क को तरक, क्षण छन, कल्प को कलप, अक्षय कुमार को अच्छ कुमार तथा योद्धा को जोधा कहकर लिखना ही उचित समझा । इसमें लोकमानस को वरीयता देने का भाव प्रकट होता है । ऐसे शब्द यत्र तत्र सर्वत्र सुंदरकांड में बिखरे हुए हैं।
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संवादों की निरंतरता
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‘संवाद’ अलग से शीर्षक देकर प्रस्तुत किए जाने की एक शैली रहती है, लेकिन तुलसीदास जी ने इस शैली का आश्रय नहीं लिया। उन्होंने कथा के प्रवाह को बाधित किए बगैर संवाद प्रस्तुतीकरण जारी रखा । इसलिए एक चौपाई में एक व्यक्ति का कथन होता है तथा दूसरी चौपाई में बिना कोई अतिरिक्त शीर्षक दिए हुए दूसरे व्यक्ति का कथन आरंभ हो जाता है । इस शैली को अपनाने का कारण यह है कि रामकथा से सब परिचित हैं । वह प्रसिद्ध है तथा तुलसीदास जी जानते हैं कि उन्हें कोई नई बात भारतीय लोकसमाज के सामने प्रस्तुत नहीं करनी है । महर्षि वाल्मीकि द्वारा लिखी गई रामायण की रामकथा को ही उन्हें प्रस्तुत करना था। अतः कथा में संवाद किस पात्र द्वारा बोला जा रहा है, इसे समझने में किसी को जरा-सी भी दिक्कत नहीं आती ।
कुल मिलाकर हर दृष्टि से सुंदरकांड एक ऐसा प्रवाह पूर्ण प्रसंग है, जो कविकुलगुरु गोस्वामी तुलसीदास जी के अद्भुत काव्य कौशल के साथ प्रस्तुत होता है । हनुमान जी के प्रति जन-जन के मन में भक्ति-भावना भर देता है तथा भगवान राम के लोकनायकत्व को स्थापित करता है । इसका पढ़ना-पढ़ाना और सुनना सब प्रकार से लोक-कल्याण की प्रवृत्ति का द्योतक है।

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