सिलसलेवार सिलसिले
कुछ सिलसिले
सिलसलेवार चले
रुक न सके
कम नहीं हुये
खत्म होते भी तो कैसे
हो गये हम इतने पढ़े लिखे.
अनपढों ने खिंचा जिसे
उस आस्था को तोड़ते कैसे ?
शिक्षित हुये पट न खुले,
दर दर भटकते रहे,
आखिर जो मिला
उसे भी गँवा चले
भेड़ चाल जो थी
उसे तोड़ न सके
सिलसलेवार सिलसिले
किसका ऐतबार
कौन कृष्ण कैसे राम
हुई न जिनसे
खुद की पहचान.
कल का पाखंड
आज की परंपरा
तोड़ दो ऐसे संस्कार
महेन्द्र सिंह हंस