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16 Sep 2017 · 1 min read

सिमटी ख्वाईश

क्या कमी बोलो ज़िन्दगी की है
ख़ुद बुने जाल में ये उलझी है

छोड़ आधी को धावे पूरी को
सिमटी ख़्वाहिश न आदमी की है

क्यों परेशां हों सोच कल की भला
आज तो ठीक ठीक गुज़री है

सुर्खियों में हुआ है डाटा अब
भूख अब हाशियों में छपती है

नाप ले आज आसमां तू भी
जां परों में हमारे कितनी है

सुशान्त वर्मा।

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