सिमटी ख्वाईश
क्या कमी बोलो ज़िन्दगी की है
ख़ुद बुने जाल में ये उलझी है
छोड़ आधी को धावे पूरी को
सिमटी ख़्वाहिश न आदमी की है
क्यों परेशां हों सोच कल की भला
आज तो ठीक ठीक गुज़री है
सुर्खियों में हुआ है डाटा अब
भूख अब हाशियों में छपती है
नाप ले आज आसमां तू भी
जां परों में हमारे कितनी है
सुशान्त वर्मा।