*साहित्यिक चोरी : एक कला (व्यंग्य)*
साहित्यिक चोरी : एक कला (व्यंग्य)
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कई बार मुझे दुख होता है कि मेरी कोई भी रचना किसी साहित्यिक चोर ने नहीं चुराई। कुछ भी कहो ,इससे रचना की गुणवत्ता तो प्रभावित होती ही है । कोई भी मूल्यांकन करते समय कह सकता है कि इनकी कोई भी रचना कभी भी किसी ने नहीं चुराई अर्थात वह साहित्यिक चोर को चुराने योग्य नहीं लगी । आपके सामने इस मूल्यांकन का उत्तर देते समय सिवाय मुँह लटका कर मायूसी के साथ खड़े रहने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचेगा । मैं सोचता हूँ कि साहित्यिक चोर को तो कुछ न कुछ चुराना ही था । किसी न किसी का चुराना ही था ,मेरा ही चुरा लेता तो उसका क्या बिगड़ जाता ? उसे चोरी करना थी, कर लेता । मेरी रचना को थोड़ा सा प्रचार – प्रसार और कीमत मिल जाती। मैं भी गर्व से चार लोगों से कह सकता था कि हमारी भी रचना एक बार चोरी हो चुकी है । कई लोग भाग्यशाली होते हैं कि उनकी रचनाएँ बहुत बार चोरी हो चुकी होती हैं । कई लोगों की रचनाएँ हर तीसरे – छठे महीने चोरी होती रहती हैं ।उनका नाम साहित्यिक – चोरी होने वाले लोगों में टॉप टेन में आ जाता है। ऐसे में किस मुँह से आदमी उन लोगों के बीच खड़ा हो ,जिनकी रचनाएँ बहुतायत में चोरी होती रहती हैं ।
यह तो मानना पड़ेगा कि साहित्यिक – चोरी एक कला है । कला की श्रेणी में मैं इसको इसलिए रख रहा हूँ कि काम भले ही बुरा है लेकिन हेरा – फेरी के लिए आखिर कला की जरूरत है । आप उन लोगों पर दृष्टिपात करिए ,जिन्होंने पीएचडी इसी साहित्यिक चोरी के बल पर प्राप्त कर ली है । अपनी थीसिस अर्थात शोध प्रबंध वह ऐसे छुपा कर रखते हैं ,जैसे कोई धनवान व्यक्ति अपनी तिजोरी में सोने के जेवर रखता है । कोई देख न ले कि इन्होंने अपने शोध – प्रबंध में क्या लिखा है ? जैसे ही सार्वजनिक हुआ ,पोल खुल जाएगी । मिलीभगत से यह साहित्यिक चोरी हिंदी साहित्य के इतिहास में खूब फल-फूल रही है। शोध- प्रबंध केवल तीन लोगों के पास रहता है । एक शोधकर्ता, दूसरा निर्देशक और तीसरा विश्वविद्यालय । चौथे को मजाल क्या कि शोध- प्रबंध की जरा – सी हवा भी लग जाए !
साहित्यिक -चोरी जब विशुद्ध रूप से की जाती है तो उसमें थोड़ा दिमाग लगाना पड़ता है। यह नहीं कि कोई अच्छी रचना देखी और उसको दौड़कर चुरा लिया । महान साहित्यकार भी साहित्यिक चोरी करते हुए पकड़े गए हैं। कारण यह है कि लिखने में परिश्रम करना पड़ता है ,दिमाग लगाना पड़ता है और कई बार पत्र-पत्रिकाओं से जब अच्छा पारिश्रमिक मिलने लगता है तब इस बात का दबाव भी रहता है कि एक रचना दी जाए । अब रचना अगर नहीं लिखी है तो कहीं से तो चुरा कर देनी ही पड़ेगी। बहुत से महान साहित्यकार छोटे-छोटे लेखकों की छोटे -छोटे अखबारों में लिखी हुई रचनाओं को चुरा कर अपने नाम से छपते हुए देखे गए हैं ।
इसी तरह छुटभैया चोर होते हैं । छुटभैया चोर दोनों प्रकार की चोरियाँ करते हैं । कई बार मशहूर लेखकों की रचनाएँ चुराते हैं ,कई बार छुटभैया लेखकों की रचनाएँ ही चुरा लेते हैं । छुटभैया लेखकों की रचनाएँ प्रायः छुटभैया चोरों के अनुकूल रहती हैं । लोग समझते हैं कि यह रचना ज्यादा अच्छी नहीं है ,इसलिए चोर महाशय ने ही लिखी होगी । अगर किसी प्रसिद्ध साहित्यकार की रचना की साहित्यिक – चोरी की जाती, तब पकड़ में आ जाती क्योंकि लोग समझ जाते कि इतना अच्छा तो यह आदमी नहीं लिख सकता था। इसलिए साहित्यिक – चोरी करते समय जो समझदार चोर होते हैं, वह इस बात का ख्याल रखते हैं कि चोरी हमारे स्तर की ही हो । बहुत ऊँचे दर्जे की न होने पाए ।
कई बार चोर और भी शातिर होते हैं। वह रचना में इस प्रकार से काट – छाँट कर देते हैं कि फिर सीधे – सीधे उनके ऊपर साहित्यिक चोरी का आरोप नहीं लग पाता। लेकिन कुछ लोग मूर्ख – टाइप होते हैं । वह पूरे के पूरे पैराग्राफ ज्यों का त्यों उतार देते हैं और रँगे हाथों पकड़े जाते हैं । इसलिए बुजुर्ग साहित्यिक-चोर नौसिखियों को हमेशा यह समझाते हैं कि जब चोरी करो तो उसमें अपनी अक्ल का इस्तेमाल अवश्य करना। ऐसा न हो कि पकड़े जाओ और तुम्हारे पास अपने बचाव के लिए कहने को कुछ भी न हो ।
कुछ लेखक साहित्यिक – चोरी करने के साथ-साथ अपने स्तर पर भी मौलिक लेखन करते हैं ,जबकि कुछ साहित्यिक- चोर ऐसे होते हैं जो पूरी तरह साहित्यिक चोरी के बल पर ही लेखक बनते हैं।
एक साहित्यिक-चोर का जब अभिनंदन हुआ, तब उस चोर ने अपने भाषण में कहा कि ” मेरी जो भी रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं, वह मैंने बड़े परिश्रम और कलाकारी के साथ एकत्र की हैं । इसमें मेरे जीवन की साधना प्रकट हो रही है ।”जो लोग साहित्यिक चोर को भीतर से जानते थे ,वह बात का मतलब समझ गए लेकिन जिन लोगों को अंदरखाने की बात नहीं पता थी ,वह कुछ नहीं समझ पाए ।
साहित्यिक चोरी अपने आप में एक पीएचडी के शोध -प्रबंध का विषय है। लेकिन मुश्किल यह है कि “साहित्यिक चोरी : एक कला ” विषय पर अगर शोध- प्रबंध स्वीकृत हो भी जाए तो इस बात की क्या गारंटी कि वह मौलिक होगा ? हो सकता है कि वह भी साहित्यिक चोरी करके ही पूरा कर दिया जाए ! ऊँचे दर्जे के साहित्यिक- चोर इतने अनुभव – समृद्ध होते हैं कि अगर वह साहित्यिक – चोरी पर अपने संस्मरण लिखें तो दो सौ-चार सौ प्रष्ठ की किताब तो बड़ी आसानी से लिखी जा सकती है। वह अत्यंत प्रेरणादायक तथा नई पीढ़ी के साहित्यिक – चोरों के लिए मार्गदर्शक भी सिद्ध होगी।
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लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451