सांवली सलोनी रजनी
चंदा ओ चंदा !
कहां से आती है यह रजनी ।
शाम ढलते ही जो ,
बन संवार कर आती है सजनी ।
हर प्राणी को निद्रा के नशे ,
में सराबोर कर कहां जाती है दीवानी?
क्या इसने आसमान में कोई ,
मधुशाला खोल रखी है?
जहां से भर भर के प्याले मुफ्त में
पिलाती है मस्तानी ।
तारों की ओढ़नी में छुपाकर मुख अपना ,
फिर चली जाती है वापिस दिन चढ़ते ही ,ये अनजानी ।
चंदा ओ चंदा !
कुछ तो बता कहां रहती है तेरी मनमोहनी ।
अपने मोहक रूप का माया जाल बिछाकर ,
क्यों लुप्त हो जाती है परियों की रानी ।
नाज़ नखरों में अव्वल है तेरी सांवली सलोनी ।
घूंघट की ओट से तमाशा देखती है अपने दीवानों का ,
और धीरे धीरे से चुपके से ओझल हो जाती है ,
मस्त चाल में चलती हुई यह गज गामिनी।
चंदा ओ चंदा !
बड़ी नटखट है तेरी सजनी ।