सांप सीढ़ी का खेल, ज़िंदगी..
अक्सर सोचता हूंँ, मेहनतकश लोगों के बारे में,
सिर्फ़ तक़दीर वाले ही, पनपते हैं एक इशारे में।
हम न हुए ख़ास, तो यही वजह रही होगी कि,
उसूलों को निभाने की बुरी लत होगी हमारे में।
आड़े वक़्त, कोई न कोई हाथ बढ़ाता ज़रूर है,
भरोसा बना रहता है, उसकी लाठी के सहारे में।
कई बार उलझी, तूफान के मंझधार में कश्ती,
जाने कौन बचाकर ले आया, मुझे किनारे में।
सांप सीढ़ी का खेल, ताश का जुआ है ज़िंदगी,
वरना हुनर तो ज़्यादा होते हैं मुक़द्दर के मारे में।