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20 Apr 2018 · 4 hour read

:: सांग / स्वांग विधा का स्वरूप, परम्परा एवं उसकी देंन :: सन्दीप कौशिक [+91-8818000892 / 7096100892]

:: सांग / स्वांग विधा का स्वरूप, परम्परा एवं उसकी देंन :: सन्दीप कौशिक
(Saang Vidha / Swaang Vidha Ka Swaroop, Prampara Evam Uski Den – Sandeep Kaushik [+91-8818000892 / 7096100892]

सांग / स्वांग विधा की परम्परा:-
उत्सव के आधार पर भारतीय समाज में अनेक सांस्कृतिक व धार्मिक लोक कलाएँ प्रचलित हैं। साँग भी उन्ही कलाओ में से हरियाणवी व उतरप्रदेश भाषा की एक प्रसिद्द लोक कला है जो हरियाणा व उतरप्रदेश ही नहीं इनके समीपवर्ती क्षेत्रों में भी लोकप्रियता के साथ प्रचलित है। सांग एक रचना, संगीत और न्रत्य का अनूठा कला संगम है। जिस तरह श्रावण मास की समीर और फाल्गुनी मौसम की महक जनमानस में तरंगे पैदा करती है, ठीक उसी तरह सांग का संगीत भी मन और आत्मा को आन्दंदित करके एक शमा बाँध देता है। इस विधा में सांग और रागिनी कला की अभिव्यक्ति होने के साथ साथ जनसमुदाय का एक मनोरंजक साधन भी है। समाज के किसी भी वर्ग में चाहे धनी हो या कंगाल , उच्च हो या पिछड़ा, नौजवान या बुजुर्ग, नारी या पुरुष, साधू फ़क़ीर सभी वर्ग तो सांग मंच को मानवदर्शक मानकर समानाभुती का रसपान करते है। सांग केवल मनोरंजन का साधन ही नहीं अपितु सांगीतकार मनोरंजन के साथ साथ श्रोताओं को परोपकार, सहिष्णुता, त्याग, भाईचारे का पाठ भी पढ़ाते है। इसलिए सांग एक लोक व्यवहार व संस्कार निर्माण की विधा है।
मूल रुप से “सांग” शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है “स्वाँग भरना”। यह एक लोकनाट्य के रूप में बहुत ही पारम्परिक विधा है जिसमे लोकनाट्यकारो के मंचन द्वारा प्रचलित धार्मिक, सामाजिक, पौराणिक अथवा समान्य सी लोककथा को माध्यम बनाकर लोककवियों ने बेहद खूबसूरत अंदाज में उपदेशक, नैतिक, मनोरंजक एवं जीवन मूल्यों की अनमोल शिक्षा प्रस्तुत की है। एक प्रकार से साँग काव्य एवं गद्य का मिलाजुला रूप होता है। वैसे तो सांग विधा की लोकनाट्य परम्परा सम्पूर्ण भारत में काफी प्रचलन में है, जिस प्रकार हरियाणा में सांग एवं रागिनी का प्रचलन है। ठीक वैसे ही उतरप्रदेश में नोटंकी, राजस्थान में तमाशा तुर्री कलगा, बिहार में बिरहा, ब्रज में भगत, मालवे में मांच, पंजाब में ख्याल, गुजरात में भवाई, पश्चिमी उ.प. व हरियाणा में सांग के रूप में प्रचलन मिलता है। अतः सांग एवं रागनी भारत में पुरातन काल से ही चले आ रहा है।
कला की दृष्टि से इसे तीन प्रकार से समझा जा सकता है, अभिनय कौशल, नृत्य कौशल, संगीत कौशल। जिसमे ‘सांग संगीत’ के पात्रों का चयन उनके गायन की क्षमता के आधार पर किया जाता है और प्रत्येक पात्र को गायन काल की शिक्षा दी जाती है।

सांग / स्वांग विधा का स्वरूप एवं विधा :
स्वांग परम्परागत तरीके से नाटक की भांति मंच पर आयोजित किया जाता है तथा संवाद योजना के अंतर्गत भी स्त्री पात्रों की भूमिका पुरुषों ही द्वारा निभाई जाती है। वस्तुतः गीत संगीत, वाद्य यंत्रों की सप्तरंगी धुन, नृत्य एवं अभिनय की त्रिवेणी का नाम ही “साँग” होता है और इस मंचन में प्रमुख साँगी नायक के रूप में अपनी भूमिका अदा करता है तथा अन्यतम मुख्य कलाकार को नायिका की भूमिका निभानी पड़ती है। अब इन दोनों मुख्य अभिनेताओं के बाद तीसरे नंबर का प्रमुख कलाकार एक हास्यस्पद रुप में नकली (विदूषक की भूमिका में) होता है जो अपने अभिनय में हाजिरजवाबी एवं चुहलबाजियों से दर्शकों को हँसाता हुआ अपनी कला द्वारा खूब वाहवाही लुटता है। वास्तविकता के रूप में देखा जाए तो इस विधा में नकली उस साँग मंडली की जान होता है जिसके बिना सांग मंचन बिल्कुल अधुरा सा माना जाता है। इस अनूठी विधा की मंचित कथा में कलाकारों द्वारा बोले जाने वाले संवाद लिखित रूप में भी नहीं होते तथा सभी संवाद कलाकार की अभिनय कुशलता से तत्काल ही बनाऐ जाते हैं। इनके तीनो मुख्य कलाकारों के बाद अन्यतम भूमिकाओं को करने के लिए कलाकारों की संख्या मुख्यतः सात आठ होती है। सांग विधा में लोककथा के मंचन के समय साँग मंडली में सारंगी, हारमोनियम, ढ़ोल, तबला, शहनाई, खड़ताल जैसे सभी वाद्य यंत्रों की सुरीली धुने श्रोताओं को आकर्षित करती है। इन वाद्यान्त्रो के प्रयोग हेतु सांग मण्डली में विशेष एवं कुशल वादकों को रखा जाता है। इस विधा का उल्लेख एक रचना में कवि शिरोमणि प. मांगेराम ने भी कुछ इस प्रकार किया है।

हरियाणे की कहाणी सुणल्यो, दो सौ साल की,
कई किस्म की हवा चालगी, ये नई चाल की।। टेक ।।

एक ढोलकिया एक सारंगिया, खड़े रहै थे,
एक जनाना एक मर्दाना, दो अड़े रहैं थे,
पन्द्रह सोलहा कुंगर, जुड़कै खड़े रहैं थे,
गली और गितवाड्यां के म्हैं, बड़े रहैं थे,
सब तै पहलम या चतुराई, किसनलाल की।।1।।

एक सौ सत्तर साल बाद, फेर दीपचंद होग्या,
साजिन्दे तो बणा दिये, घोड़े का नाच बंद होग्या,
निच्चै काला दामण ऊपर, लाल कन्द होग्या,
चमोले को भूल गये, न्यू न्यारा छन्द होग्या,
तीन काफिए गाये, या बणी रंगत हाल की।।2।।

हरदेवा दुलीचंद चतरू, भरतू एक बाजे नाई,
घाघरी तो उसनै भी पहरी, और आंगी छुटवाई,
तीन काफिए छोड़के, या कहरी रागनी गाई,
उनतै पाछै लखमीचन्द नै, फेर डोली बरसाई,
बातां ऊपर कलम तोड़ग्या, जो आजकाल की।।3।।

मांगेराम पाणची आला, मन मैं करै विचार,
घाघरी के मारे मरग्ये, ये मूर्ख मूढ़ गंवार,
शीश पै दुपट्टा जम्फर, पाया मैं सलवार,
इब तै आगै देख लियो, के चौथा चलै त्यौहार,
जब छोरा पाहरै घाघरी, किसी बात कमाल की।।4।।

इस विधा में सांग मंचन का नजारा भी अद्भुत होता है सभी कलाकार मंच पर वृताकार की भांति बैठते हैं, जिनके बाह्य तरफ मुख्य अभिनेता उनके चारो तरफ घूमते हुए अपना अपना अभिनय करते हैं। सांग मंचन आज भी परम्परागत रूप में लकड़ी के तख्तों पर किया जाता है तथा मंच के चारों तरफ श्रोतागणों एक जमावड़ा होता है। सांग मंचन या आयोजनो के मुख्य कारण प्राचीनकाल से मनोरंजन के तौर पर सार्वजनिक कार्यों व हर्षोल्लास के लिए ही होते रहे है क्योंकि साँग मंचनो के माध्यम से दानरूप में आर्थिक स्थिति को बहुत ज्यादा मजबूती मिलती थी। उस प्राप्त धन राशि से एक निर्धारित भाग सांगीत बेड़े के भागीदारो को उनके मेहनताने के रूप मे बाँट दिया जाता था और शेष के रूप में एकत्रित धन सामाजिक कार्यों के प्रयोग हेतु रह जाता। सांग मंचन के रूप में आज भी देहातो में यह परंपरा ज्यों की त्यों बनी हुई है जिससे सामाजिक निर्माण हेतु परम्परागत तौर पर धन इकठ्ठा करके गौशाला, धर्मशाला, मंदिर, बाग़ बगीचों का निर्माण किया जाता है। इस अत्याधुनिक दौर में भी यह सामाजिकता की एक अद्भुत मिशाल है जिससे हमारे देहाती समाज को वर्तमान में भी सामूहिक निर्माण कार्यों के लिए सरकारी खजाने पर निगाहे नही फैलानी पड़ती।

सांग विधा की परम्परा की देंन :
सांग प्रचलन के विषय में लोककवि रामकिशन व्यास का कहना था की यह विधा 12 वीं शताब्दी में 1206 ई. के आसपास शुरू हो गयी थी और हरियाणा प्रदेश में नारनौल के एक ब्राहमण बिहारी लाल ने शुरू की थी जो एक गुजराती ब्राहमण थे। लेकिन मुगलों के समय में सांग मंचन पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया था क्यूंकि सांगो के माध्यम से अपनी संस्कृति व देशभक्ति का ज्ञान कराया जाता था। प. बिहारी लाल के बाद उनके शिष्य चेतन ने सांग शुरू किये थे। 17 वी शताब्दी में सांगो का दौर पुनः आरम्भ हुआ जिसको आरम्भ करने वाले प. बालमुकुन्द गुप्त थे। उसके पश्चात् फिर प. बालमुकुन्द के शिष्य प. किशनलाल भाट हुए जिन्होंने इस विधा को अत्यंत महत्वता दी।

बहुत पुराणी कहाणी, सुणियो हरियाणे की,
घग्गर यमना बीच की, धरती हरी समाणे की।। टेक ।।

रचना कर ऋग्वेद की, महिमा यहां पर गाई थी,
…………………………………………………………………
…………………………………………………………………
…………………………………………………………………
शिव शादी से रीत चली, म्हारी नाचणे गाणे की।।

नारनौल का गुजराती, ब्राह्मण बिहारीलाल था,
सांग शुरू करया, सन 1206 का साल था,
नाचै गावै चेतन चेला, करै कमाल था,
……………………………………………………………..
वो कुतुबुद्दीन ऐबक सोचै था, सांग कराणे की।।

1709 म्य बालमुकुंद नै, फेर सांग छेड़या,
उसके चेले गिरधर नै भी, बांध लिया बेड़ा,
शिवकुमार शिष्य बणया, यमुनानगर के पास खेड़ा,
और चेला बण किशनलाल भाट नै, लाया था गेड़ा,
गामा म्य चौपाल मिलै थी, जगाह ठिकाणे की,

दो सौ वर्ष के बाद म्य, सांगी दीपचंद आग्या,
तख़्त बिछा साजिन्दे बिठा, आसमाने तणवाग्या,
देश चमोले तीन बोल के, इसे काफिये गाग्या,
…………………………………………………………
सरकार करै थी पूछ, दीपचंद सांगी स्याणे की।।

हरदेव चतरू भरथू बाजे, भगत कुहाग्ये थे,
कमीज घागरी पहरै थे, आंगी छुट्वाग्ये थे,
देश चमोले इकैहरी टेक की, रागनी गाग्ये थे,
दोहरी टेक की रागनी, लख्मीचंद चलाग्ये थे,
तीन सान्गीयों ने कर दी, तबदीली बाणे की।।

मांगे व्यास धनपत नै, गढ़ पै सलाह मिलाई थी,
घाघरी छोड़ चुन्नी जम्फर, सिलवार पहनाई थी,
पांच नचाये चारो तरफ, दे आवाज सुनाई थी,
………………………………………………………..
धनपत सिंह नै बाण थी, ऊँगली आँख चलाणे की।।

हिस्टरी टीचर दयाल सिंह, लाहौर म्य खास था,
वेद शास्त्र से लिया, हिन्द का इतिहास था,
हाल सांग का दादा गुरु, शिवदत के पास था,
सोला करोड़ करया चंदा, नारनौन्दिया व्यास था,
गुरु माईराम जैसी कविताई, ना किते पाणे की।।

18वीं तथा 19वीं शताब्दी में यह कला हरियाणवी भाषीय क्षेत्रों में लोकरंजन का एकमात्र माध्यम बन चुकी थी परंतु इसके सर्वाधिक लोकप्रिय एवं विद्वान कवि 20वीं सदी में हुऐ। साँग की इस परंपरा का पुर्णतः प्रभाव 18 वीं शताब्दी में श्री किशनलाल भाट के द्वारा माना जाता है। प. किसनलाल भाट के समय से सांग मंचनो के अवसर मुख्यतः विवाह, त्यौहार, मेले, कुश्ती दंगल और पूजन आदि ही होते थे, जिनका मूल उद्देश्य मनोरंजन के साथ साथ सामाजिक धन इकठ्ठा भी करना था।

इनके बाद उन्नीसवी सदी में श्री बंसीलाल सांगी ने एक कुशल शुरुआत की। श्री बंसीलाल के सांग मंचन का क्षेत्र अम्बाला व जगाधरी था। उनके बाद सांगी अलिबक्श का आगमन हुआ जिसके मंचन क्षेत्र धारूहेड़ा, रेवाड़ी, मेवात व भरतपुर आदि थे। इनके प्रसिद सांगों में पदमावत, कृष्णलीला, निहालदे, चंद्रावल और गुलाबकली थे। उनके बाद श्री बालकराम सांग मंचन में उतरे जिन्होंने कुरुक्षेत्र में ब्रह्मसरोवर की परिधि में भगत पूर्णमल, गोपीचंद और शीलादे जैसे चर्चित सांगो की रचना की। इस संघर्षी दौर में फिर मेरठ के पंडित नेतराम का भी आगमन हुआ। फिर 20वी सदी में सांग कला के सूत्रधार रहे लोककवि छज्जूराम के शिष्य खांडा सेहरी (सोनीपत ) निवासी प. दीपचंद का वर्णन मिलता है जिसमें अंग्रेजी शासन ने भी उनके सांगो को सैनिक भर्ती में इस्तेमाल किया। जो उनकी साक्ष्य रूपी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार है।

भर्ती होले रे, थारे बाहर खड़े रंगरूट,
आड़ै मिलै पाट्या पुराणा, उड़ै मिलै फुल बूट।।

सांगी दीपचंद के प्रसिद्द सांग के रूप में सरणदे, सोरठ, राजा भोज, हरिश्चंद्र, नल दमयंती, उतानपात, गोपीचंद, ज्यानी चोर है।
इनके बाद फिर मो॰ अहमद बख्श, श्री स्वरूपचंद, श्री हरदेवा स्वामी (गोरड), सोहन कुंडलवाला, सरुपचंद (दिसोर खेडी ), मानसिंह (सैदपुर ), निहाल (नाँगल), सूरजभान (भिवानी), हुकमचंद (किसमिनाना ), धनसिंह (पुठी ), अमर सिंह और चितरु लोहार। इन्होने अपने सांगो में छंदों का भी प्रयोग किया जिनमे भजन, रागनी, दोहे, चौपाई, सवैया, चमोले, शेर और ग़ज़ल आदि। ये सभी 19वीं शताब्दी तक इस सांग विधा रूपी यज्ञ में अपनी आहुतियाँ डालते रहे। इनके बाद फिर 20 वीं शदी के प्रारम्भ में श्री बाजे भगत जो गोरड निवासी श्री हरदेवा के शिष्य थे, एक सुप्रसिद्ध साँगी हुए हैं जिन्होने साँग कला को न केवल नैतिक एवं सामाजिक ऊंचाईयों के संबंध मे ही समृद्ध किया, बल्कि इसमें काव्यात्मक शुद्धता को भी महत्त्वपूर्ण स्थान दिया। फिर इन्ही के समकालीन सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ सुर्यकवि प. लख्मीचंद ने इस सांग विधा के ऐसे आयाम स्थापित किये जिससे इस कला में सदा सदा के लिए अमरत्व की आहुति डाल दी। इनके समकालीन व बाद में इस परंपरा को आगे बढ़ाने वालों में प. हरिकेश पटवारी, पं. मांगेराम, प. सुल्तान, प. माईचन्द, प. रतिराम, श्री धनपत सिंह, श्री चंद्रलाल भाट (बादी), श्री खेमचंद, जनकवी फौजी मेहरसिंह, श्री रामकिशन व्यास, महाशय दयाचंद, आजाद कवि मुंशीराम जांडली, प. जयनारायण, मास्टर नेकीराम, प. तुलेराम, प. जगन्नाथ व प. राजेराम संगीताचार्य आदि के नाम सर्वविख्यात हैं।

दीपचंद, हरदेवा, बाजे, उनका भी घर गाम देख्या,
फेर चल्या जा सिरसा जांटी, धोरै जमना धाम देख्या,
लख्मीचंद नै नौटंकी, मीराबाई का बणाया सांग,
मांगेराम नै शिवजी गौरा, ब्याही का बणाया सांग,
राजेराम नै भाई, गंगेमाई का बणाया सांग,
पास किया सरकार नै, कविता निराली, कैसी चक्र मै डाली,
खूब रची करतार नै, या दुनिया मतवाली, कैसी चक्र मै डाली ।।टेक।।
(काव्य विविधा : प. राजेराम संगीताचार्य)

वर्तमान समय में अनेकों साँग मंडलियाँ हैं जो इन्हीं सांगियों की परंपरा को टेलीविज़न और सिनेमा के युग में जीवित रखने के लिए संघर्षरत हैं।

निष्कर्ष :
‘सांग संगीत’ हरियाणा व उतरप्रदेश के समृद्ध लोक रंगमंच का अंश है। भारतीय रंगमंच में इस शैली का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है तथा भारतीय नाट्यकार आधुनिक रंगमंच के लिए इसका प्रयोग कर रहे हैं।
हरियाणा व उतरप्रदेश लोकनाट्य की एक सशक्त एवं दीर्घ स्वस्थ परम्परा रही है। उतरप्रदेश व हरियाणावासी सांगों के माध्यम से मनोरंजन, ज्ञान, जीवन के संचित अनुभव समुच्चय का ज्ञान प्राप्त करते है। विशेषतः ग्रामीण भूखण्डों में रागनियों से झंकृत इस नाट्यशैली का अपना ही वर्चस्व है।
सांग विधा के ज्ञात-अज्ञात सांग सर्जक एवं सांगी :
अब मै यहाँ कुछ इतिहासकारों, अध्ययेताओं, बुजुर्गों, रुचिकरों जैसे शंकरलाल यादव, साधुराम शारदा, राजाराम शास्त्री, देवीशंकर प्रभाकर, कृष्णचन्द्र शर्मा (आई.ऐ.एस. ऑफिसर) राजेंद्र स्वरूप वत्स, डॉ. पूर्णचंद शर्मा, लक्ष्मीनारायण वत्स, डॉ. बाबूलाल, डॉ लालचंद गुप्त, डॉ. रामपत यादव, रोशन शर्मा आदि के संशोधित अध्यनों, सहायक पुस्तकों व सोशल मीडिया स्त्रोतों की सहायता से सांग विधा के अंतर्गत कुछ लोककवियों व सांगीयों की अनुमानित तौर पर मुख्य जानकारी के रूप में कालक्रमानुसार प्रकाश डालने की कौशिश कर रहा हूँ, जो निम्न में इस प्रकार है।

अ.क्र. लोककवि का नाम जन्म (ई.) मृत्यु (ई.) टिप्पणी

1 ब्राहमण बिहारीलाल 1200 1200 ई. के आसपास
2 चेतन शर्मा 1200 बिहारीलाल जी के शिष्य
3 प. बालमुकुन्द 1700 1700 ई. के आसपास
4 श्री गिरधर 1700 बालमुकुन्द जी के शिष्य
5 शिवकुमार 1700 गिरधर जी के शिष्य
6 प. किशनलाल भाट 1700 बालमुकुन्द जी के शिष्य
7 हजरत सादुल्ला 1750 आकहेड़ा, नुह, मेवात
8 बंसीलाल 1802
9 आशुकवि प. महोर सिंह 1809 साल्हावास
10 अम्बाराय 1819
11 सेढूसिंह
12 लक्ष्मणदास मऊ खास
13 शीशगोपाल
14 स्वामी शंकरदास 1833 1912 जिठौली, मेरठ
15 पंडित बस्तीराम 1841 1958
16 आशुकवि प. रविस्वरूप 1843 1942 निन्दाना, रोहतक
17 चितरु सांगी 1843 1927 गढ़ी सांपला
18 पंडित नेतराम 1850 1850 ई. के दशक मे
19 रामलाल खटीक 1850 1850 ई. के दशक मे
20 अहमद बख्श 1850 1895 1850 ई. के आसपास
21 योगेश्वर बालकराम 1850 1920 करनाल निवासी
22 अलीबख्श 1854 1899 मुण्डावर, अलवर
23 आशुकवि गुणी सुखीराम 1857 1905 स्याणा, महेंद्रगढ़
24 सरदारी बेगम (मर्दाना भेष) 1860 कलायत, कैथल (प्रथम महिला सांगी थी)
25 हरिदास उदासी 1861 लाडवा
25.1 बाबू बालमुकुन्द गुप्त 1865 गुडियाणी
26 सूरजभान वर्मा 1869 1922 भिवानी
27 जमुआ मीर 1869 1922 सुनारिया, रोहतक
28 ताऊ सांगी 1878 1878 ई. अनुमानित
29 पंडित बख्तावर 1879 1949 बीजणा, चरखी दादरी
30 जसवंत सिंह वर्मा 1881 1957 टोहावनी
31 हरदेवा स्वामी 1881 1926 गोरड, सोनीपत
32 पंडित दीपचंद 1883 1942 खांडा सेहरी सोनीपत
33 ब्राह्मण मानसिंह 1885 1955 बसौधी
34 श्री मानसिंह सैदपुर
35 श्री निहालचंद 1887 1995 नांगल
36 कविरत्न पंडित माईराम 1884 1964 अलेवा, जींद
37 संगीताचार्य श्री रामसहाय जैतडवास
38 मास्टर मूलचंद 1889 1958 जैतडवास
39 पंडित शादीराम 1889 1973 सीवन, कैथल
40 पंडित सरुपचंद 1884 1927 दिसौर खेड़ी, झज्जर
41 प. भोलाराम 1894 अलीपुर खालसा, करनाल
42 झंडू मीर 1895 देहरा (बाद में पाकिस्तान स्थानांतरण)
43 बाजे भगत 1898 1936 सिसाना, रोहतक
44 पंडित हरिकेश पटवारी 1898 1954 धनौरी, जींद
45 सोहन कुंडलवाला कुंडल
46 पंडित नत्थुराम 1902 1990
47 पंडित लख्मीचंद 1903 1945 सिरसा जांटी, सोनीपत
48 प. साधुराम 1904 1989 पबनावा, कैथल
49 श्रीराम शर्मा 1907 1966 बली ब्राह्मणान, भैन्सरू कला, रोहतक
50 मोजीराम स्वामी 1908 सिसाना, रोहतक
51 देवीसिंह 1912 नौरंगाबाद
52 राय धनपत सिंह 1912 1979 निन्दाना, रोहतक
53 पंडित केशोराम पात्थरआली, भिवानी
54 पंडित कुंदनलाल पात्थरआली, भिवानी
55 पंडित नन्दलाल 1913 1963 पात्थरआली, भिवानी
56 पंडित बेगराज पात्थरआली, भिवानी
57 पंडित नन्दलाल मुनिमपुर
58 श्री नन्दलाल ढोकिया गाँव
59 महाशय दयाचंद मायना 1915 1993 रोहतक
60 आजाद कवि चौ. मुंशीराम 1915 1950 जांडली, फतेहाबाद
61 पंडित जगदीशचन्द्र वत्स 1916 1997 ऐन्चरा, कुराना, करनाल
62 पंडित जयनारायण कुराड़
63 श्री दयाचंद गोपाल 1916
64 पंडित रामानंद आजाद 1917
65 सुल्तान शास्त्री 1919
66 सांग सम्राट मास्टर नेकीराम 1915 1996 जैतडवास
67 पंडित भगवत स्वरूप 1915 खरखौदा, सोनीपत
68 खेमचंद स्वामी 1923 गोरड (श्री हरदेवा सुपुत्र)
69 चंद्रलाल भाट (चन्द्र बादी) 1917 2004 दतनगर
70 श्री कृष्णचन्द्र नादान 1922 2000 सिसाना, रोहतक
71 ज्ञानीराम शास्त्री 1923 अलेवा, जींद
72 बंदा मीर 1924 1988 महम, रोहतक
73 प. रघुवीर 1925 चरखी दादरी
74 पंडित रामकिशन ब्यास 1925 2003 नारनौंद, हांसी
75 मास्टर दयाचंद आजाद 1925 1945 सिंघाना निवासी
76 जोगी सेवाराम 1930 बखेता, रोहतक
77 पंडित सुबेराम 1930 आटा, पानीपत
78 पंडित तेजराम 1931 खैरमैंण
79 सांगी देईचंद 1931 1981 सांखोल, झज्जर
80 भारत भूषण सांघीवाल 1932 सांघी, रोहतक
81 बनवारी लाल ठेल 1932 1983
82 पंडित कामसिंह 1932 रामनगर, जींद
83 श्री झम्मनलाल 1935
84 पंडित आशाराम 1936 क्वारी, हिसार
85 महाशय सरूपलाल 1937 2013
86 पंडित जगन्नाथ 1939 समचाना
87 पंडित तुलेराम 1939 2008 सिरसा जाटी
88 हरदेवा सिंह मकडौली, रोहतक
89 प. किशनचंद शर्मा 1941 खुंगाई, झज्जर
90 पंडित लख्मीचंद 1945 भम्भेवा निवासी
91 अद्भुत सांगी जीयालाल 1946 2004 बुआणा, जींद
92 श्री झम्मन लाल 1948
93 पंडित राजेराम संगीताचार्य 1950 लोहारी जाटू, भिवानी
94 हरिपाल गौड़ 1954 रमंडा
95 मास्टर राजेन्द्र 1957 2003 जैतडवास
96 प. रामप्रकाश 1957 भैन्सरू कला, सोनीपत
97 चौ. रामशरण रोड़ 1963 2011 अलीपुर खालसा, करनाल
98 श्री चन्दगी सांगी भगाणा
99 ठहरो श्याम धरौदी
100 काच्चा श्याम शोरों
101 प. हुकमचंद (हुकमी खुंडा) मनाणा
102 श्री हुकमचंद किसमिनाना
103 धनसिंह पुठी
104 प. गुलाबचंद उमरावत, भिवानी
105 पंडित देवीराम पहरावर निवासी
106 शुभकरण मांडी
107 प. मोलकराम उचाना
108 मलखान सिंह दुपैड़ी, करनाल
109 कस्तर सांगी
110 सुखदेव गौड़ गोठडा, रेवाड़ी
111 हिशमसिंह राजपूत कोयर, करनाल (एकमात्र राजपूत सांगी थे)
112 कस्तूरी बाई बेरी
113 श्री नत्थूलाल उतरप्रदेश
114 श्री मांगेलाल उतरप्रदेश
115 श्री मंगलचंद उतरप्रदेश
116 प. मानसिंह जांवली, उतरप्रदेश
117 श्री दिन्ना उतरप्रदेश
118 श्री रामसिंह खेकड़ा, उतरप्रदेश
119 प. बलवंत (बुल्ली) उतरप्रदेश
120 प. रघुनाथ उतरप्रदेश
121 गुरु शरणदास उतरप्रदेश
122 ज्ञान अडिमल उतरप्रदेश
123 श्री जयकरण उतरप्रदेश
124 श्री जनार्दन उतरप्रदेश
125 श्री हरवीर टिल्ला टिल्ला, मेरठ, उतरप्रदेश
126 श्री बुन्दुमीर उतरप्रदेश
127 श्री रघुबीर सूप, बागपत, उतरप्रदेश
128 श्री लक्ष्मीचंद सूप, बागपत, उतरप्रदेश
129 प. रामरत्न टिल्ला, मेरठ, उतरप्रदेश
130 प. गौरीशंकर उतरप्रदेश
131 श्री पीरु पीर मिलक, मेरठ, उतरप्रदेश
132 श्री लड्डन सिंह मुजफ्फरनगर, उतरप्रदेश
133 बलजीत जोगी (पाधा) उतरप्रदेश

निम्नलिखित में प्रबुद्ध कवि, सांगी एवं पं लख्मीचंद शिष्य प्रणाली

134 पंडित मांगेराम 1905 1967 पाँणछी
135 पंडित रतीराम हीरापुर ( श्री लख्मीचंद के मामा के लड़के)
136 पंडित माईचन्द 1916 1990 बबैल, पानीपत
137 पंडित सुल्तान 1918 1969 रोहद, झज्जर
138 शहीद कवि मेहरसिंह 1918 1945 बरोणा, सोनीपत
139 पंडित रामचंद्र खटकड़
140 पंडित चंदनलाल बजाणा
141 पंडित रामस्वरूप सिटावली, सोनीपत
142 पंडित ब्रह्मा शाहपुर बड़ौली
143 श्री धारासिंह बड़ौत
144 श्री धर्मे जोगी डीकाणा
145 श्री जहूरमीर बाकनेर
146 श्री सरूप बहादुरगढ़
147 श्री तुंगल बहदुगढ़
148 श्री हरबंश पथरपुर – यू.पी.
149 श्री लखी धनौरा – यू.पी.
150 श्री मित्रसेन लुहारी – यू.पी.
151 श्री चन्दगीराम 1926 अटेरणा
152 श्री मुंशीराम मिरासी खेवड़ा (बाद मे पाकिस्तान स्थानांतरित)
153 श्री गुलाब रसूल पिपली खेड़ा (बाद मे पाकिस्तान स्थानांतरित)
154 श्री हैदर नया बांस (बाद मे पाकिस्तान स्थानांतरित)

अल्पज्ञात लोककवि, सांगीतकार एवं भजनी:
1 पंडित मुसद्दीलाल शिष्य श्री पं. महोरसिंह (श्री के सी शर्मा के पिताश्री, लोहारी जाटू, भिवानी), 2 पं चिरन्जी लाल शर्मा मिताथल, 3 श्री रामफल गौड़ धनौरी, 4 लहणासिंह अत्री, 5 पृथ्वी सिंह सांगी बडाला, 6 महान सांगी लहरी माली आला, 7 उर्दू भाषीय कवि प्रताप शर्मा बोहर, 8 कवि व गायक साधूराम व्यास मानहेरू, 9 पण्डित रामदत्त कवि बोहर, 10 कवि प. हवासिंह बोहर, 11 लोककवि व गायक दयाचंद हरेवली दिल्ली (पंडित मानसिंह के शिष्य), 12 पंडित रतिराम, 13 आशुकवि पंडित चिम्मन लाल जी सुपुत्र पंडित महोर सिंह जी, 14 पंडित बद्री प्रसाद सुपुत्र पंडित महोर सिंह साल्हावास, 15 पंडित मंशाराम सुपुत्र पंडित चिम्मनलाल, 16 आशुकवि पंडित मुनीराम शिष्य पंडित महोर सिंह खरकड़ा राजस्थान, 17 आशुकवि पंडित दुलीचंद सुपुत्र पंडित मुनीराम, 18 पंडित वसुदेव जी सुपुत्र पंडित मुनीराम, 19 आशुकवि श्री संजय पाठक शिष्य पंडित महोर सिंह, 20 पंडित वृद्धिचंद जी कवि व गायक नारनौल शिष्य पंडित महोरसिंह, 21 श्री गणेशा, 22 श्री लेखराम, 23 पंडित बख्तावर, 24 श्री गनपत राम, 25 श्री निहालचंद नांगल ठाकरान, 26 श्री लालचंद बजीणा, 27 श्री मामचंद बजीणा, 28 श्री श्योनारायण, 29 श्री ताराचंद, 30 श्री भोतराम, 31 पंडित देविदत, 32 पंडित देवीराम, 33 श्री परमानंद झगडौली, 34 भीष्म स्वामी, 35 दादा बस्तीराम, 36 श्री रामजीलाल,37 रामकुमार खालोटीया, 38 कवि ब्रहमानंद, 39 श्री दतुराम, 40 कवि शम्भुदास दादरी, 41 श्री मुखराम, 42 श्री रिसाल, 43 श्री मोलडचन्द, 44 श्री हरनाम, 45 श्री नत्थुराम गौड़, 46 श्री पदमैया, 47 श्री शिवकरण, 48 श्री धोकलराम, 49 श्री रामसहाय लाम्बी, 50 श्री आशाराम गादली, 51 श्री जगदीशचंद्र डैरोली, 52 श्री ताराचंद, 53 श्री कालूराम, 54 वैज्ञानिक कवि हेमचन्द्र, 55 श्री हीरालाल, 56 जमुनादत जी, 57 श्री रिछपाल आलमपुर, 58 श्री मुखराम, 59 श्री बद्रीप्रसाद, 60 श्री रिछपाल वैद्य, 61 श्री मानसिंह मानेहरू, 62 पंडित हरिराम बहू झौल्ररी, 63 श्री चंदूलाल मिर्जापुर, 64 श्री मुंशीराम मानहेरु, 65 श्री अमरसिंह, 66 श्री प्रेमसुख, 67 श्री चन्द्र भाठ तालु, 68 श्री रांझा सांगी, 69 आशुकवि पंडित बालमुकुंद, 70 जाखोद गुणी सुखीराम अखाड़ा, 71 आशुकवि सीताराम, 72 विराट नगर कोटपुतली राजस्थान, 73 हरिनाम शर्मा भजनी सेहलंग, 74 उदमी राम जाँगिड सेहलंग, 75 पण्डित रामेहर सिंह सांगी गद्दी खेङी, 76 श्री कल्लूराम गांव टांकडी, 77 श्री हरिराम गौड नालपुर, 78 श्री रामजीलाल गांव कादमा, 79 श्री लख्मीचंद पाथरआली, 80 गायक पं हुक्मीचंद लालावास, 81 श्री घनश्याम पाथरआली, 82 श्री आसकरण पिपली, 83 श्री बेगराज बिंजावास, 84 श्री रामप्रताप खरकडी, 85 हुक्मीचन्द, 86 पंडित गंगाराम भाट पुण्डरी (कैथल), 87 सुल्तान सिंह फरमाणा, 88 उदेराम फरमाणा, 89 श्री चन्द्र बीबीपुर, 90 प. मेवाराम (करहंस) 91 श्री मांगेराम मोर ‘निर्भय, 92 जयसिंह राणा कलायत (कैथल) 93 पंडित भरथू सांगी भैन्सरू (सोनीपत), 94 पंडित जियाचंद ब्राह्मणवास, 95 पंडित बलवंतसिंह, 96 महाशय छज्जूलाल सिलाणा, 97 पंडित रामेश्वर दत बधनारा (करनाल), 98 श्री केशोराम, 99 श्री गणेशा, 100 श्री लेखराम तीन गुरू भाई थे (स्वामी शंकरदास जी के शिष्य)।

लोकनाट्यो / सान्गीतों का वर्गीकरण :
प्रत्येक सांग अपने आप में कुछ विशिष्टा रखता है और सांग बहुतायत में उपलब्ध है। ऐसी स्थिति में सांगों का वर्गीकरण करना अनिवार्य लगता है। इस अध्ययेता से पूर्व भी अन्य अध्ययेताओं ने अपने अपने हिसाब से विभिन्न लोककवियों के सांगों का वर्गीकरण किया है। वर्गीकरण का आधार ढूंढने की कठिनाई सभी के सामने रही है और हमारे सामने भी, क्योंकि सांगों की कथावस्तु बहुआयामी है, इसलिए उनकी अपवर्जी श्रेणी (उच्च से निम्न वर्ग अन्तराल) बनाना कठिन था। फिर भी यहां उसका प्रयास किया गया है। मुझे डॉ. पूर्णचन्द शर्मा के पं. लखमीचंद सांगों के वर्गीकरण के संबंध में उनकी इस टिप्पणी से बल मिला है कि “ऐसी परिस्थिति में प्रतिपाद्य (साबित करना) की मूल प्रवृतियों (रुझान) के आधार पर ही उनके सांगों को वर्गीकृत करने का प्रयास किया जा सकता है” और सांगों की मूल प्रवृतियों के आधार पर ही उन्हें वर्गीकृत करने का प्रयास किया है।

कथावस्तु की मूल प्रवृति के आधार पर :
सांगीतों के वर्गीकरण के कई आधार विद्वानों व अध्ययेताओं ने किए जैसे श्रृंगार एवं प्रेम प्रधान, धर्म एवं नीति प्रधान, ऐतिहासिक, सामाजिक, धार्मिक, काल्पनिक, प्रेममूलक, ऐतिहासिक, सामाजिक लोकधर्मी, लोक परम्परा पर आधारित, लोककथाओं पर आधारित, मूल काल्पनिक आदि पक्षों पर वर्गीकृत किया। कथावस्तु की मूल प्रवृति के आधार पर सांगों का वर्गीकरण मैंने भूतपूर्व आई.ऐ.एस. ऑफिसर व कला परिषद के अध्यक्ष स्व. के.सी. शर्मा के अनुज डा. शिवचरन के मार्गदर्शन में निम्नलिखित ढंग से किया है।

पौराणिक / एतिहासिक धार्मिक / आध्यात्मिक राष्ट्रीय व सामजिक चेतना सामाजिक / समस्यामूलक श्रृंगार एवं प्रेम प्रधान
शकुंतला दुष्यंत मीराबाई वीर हकीकत राय सेठ ताराचंद नौटंकी
राजा भोज सरणदे कृष्ण सुदामा भगत सिंह रूप बसंत चापसिंह सोमवती
सरवर नीर ध्रुव भगत महात्मा बुद्ध पृथ्वीसिंह किरणमई ज्यानी चोर
राजा हरिचन्द्र भूप पुरंजन सुभाष चन्द बोस जयमल फता पद्मावत
चिर पर्व गोपीचंद भरथरी बल्लबगढ़ नाहर नौरत्न शाही लकडहारा
विराट पर्व नरसी भगत महर्षि दयानंद सरस्वती रूपकला जादूखोरी खाण्डेराव परी
नल दमयंती धर्मजीत महात्मा गांधी नजमा अजीतसिंह बाला
सत्यवान सावित्री प्रह्लाद भगत महाराणा प्रताप कमली शरणदे नाई की
शिवजी का ब्याह भगत पूर्णमल छत्रपति शिवाजी रामरत्न का ब्याह हिरामल जमाल
रुक्मणि का ब्याह शिरड़ी सत साई शहीद उधमसिंह बादल शशिकला सुखबीर
कृष्ण जन्म श्रवण कुमार झाँसी की राणी सूरज चंदा प्रीतकौर चंद्रपाल
अंजना पवन राजा मोरध्वज भारत की जीत चम्पा चमेली लीलो चमन
चंद्रहास चमन ऋषि सुकन्या सहकारिता की खोज फुलझड़ी रणबीर चान्दकौर
सीताहरण महात्मा बुद्ध बदलती दुनिया कान्ता देवी चंद्रपाल सुमित्रा
गौहरण ध्रुव भक्त रामू भगत नौ बहार प्रेमपाल चंद्रपाल
धर्मजीत सती विपोला जयमल फता शाही सुहागन का दुहाग पिंगला भरथरी
कृष्ण भात रामायण वृतांत त्रिया चरित्र मालदेव का आरता हीर राँझा
शांति पर्व बादल सिंह सैनबाला कम्मो कैलाश
गीता उपदेश अमरसिंह राठौड़ समरसिंह राजपूत धर्मपाल शांताकुमारी
भीष्म पर्व पिंगला भरथरी पृथ्वीराज संयोगिता
द्रौण पर्व वीर विक्रमाजीत रूपवती चुडावत
जयद्रथ वध देवयानी शर्मिष्ठा परीक्षित नवल्दे
नहुष भूप नौरत्न सुल्तान निहालदे
द्रौपदी स्वयम्वर प्रेमलता
चित्र विचित्र लैला मजनू
द्रौपदी चीरहरण हंसबाला राजबाला
वन पर्व हूर मेनका
लवकुश काण्ड
कीचक वध
भीम का ब्याह
देवयानी शर्मिष्ठा

:: सांगीत मंच की तर्ज एवं उसकी प्रमुख किस्में ::
तर्ज एक अरबी शब्द है जिससे अभिप्राय है कि काम आदि करने की बँधी हुई शैली अर्थात बनावट या रचना प्रणाली के विचार से किसी वस्तु के बनने या बनाने का भाव या ढंग। आकार प्रकार, किस्म, तरह या किसी वस्तु को स्वरूप देने का विशिष्ट ढंग। यह अरबी के शब्द कालिब और क्लब से बना है जिसका अर्थ होता है, ढालना अथवा मोड़ना।

तर्ज = बनावट, रीति/शैली, स्वरूप/किस्म/प्रकार।

तर्ज को सरल शब्दों में ये कहे कि एक ही तरह की अथवा एक ही मूल से उत्पन्न वस्तुओं, जीवों आदि का ऐसा वर्ग जो उसे दूसरी वस्तुओं या जीवों से अलग करता हो।
प. रघुनाथ ने फ़िल्मी तर्जों, अन्य सांग सर्जकों की तर्जों व स्वयं की निजी तर्जों सहित अपने काव्य को 200 के आसपास भिन्न भिन्न तर्जों द्वारा विविधतम आकार दिया जिसमें कुछ इक्के दुक्के ही कवि इस 200 तर्जों की श्रृंखला में शामिल हो पाये। उनके काव्य से संग्रिहित मुख्य तर्जे निम्नलिखित में कुछ इस प्रकार है।

प्रमुख तर्जे :-

(1)
तर्ज: दोचश्मी
काली अन्धेरया तै झुकरी, बरसे मूसलधार,
कैसे देवकी अब उतरूं, मैं जमना के पार।। टेक ।।

याणा कुंवर कन्हैया है, न्यू मौसम ठीक नहीं सै,
बाट विकट कंकर पत्थर, गोकल नजदीक नहीं सै,
मेरी बात में फीक नहीं सै, करले तू ही विचार,
तेरे कहने से मैं, सब कुछ करने को तैयार।।1।।

(2)
तर्ज: दादरा
आज हम भिक्षा अनमोल री,
माता उठकै किवाड़ जल्दी खोल दे।। टेक ।।

मन में भारी हुई उमंग, जीत लिया कैरों से जंग,
रंग आनन्द के छाये, झका झोल री,
राजा हो के तू, आशीर्वाद बोल दे।।1।।

(3)
तर्ज: दादरा तीन ताल
विमल यश गालो, रघुनन्दन का।। टेक ।।

जिसने भी गाया, आनन्द पाया,
हिरदे का सब, भरम मिटाया,
सर का भूत भगाया,
काट दिया जाल, पाप बन्धन का।।1।।

(4)
तर्ज: ठेका तीन ताल
जिन्दा हूँ इस तरह से, गमे जिन्दगी नहीं
जलता हुआ चिराग हूँ, पर रोशनी नहीं।। टेक ।।

ये चांद ये हवा ये फिज़ा, सब है मातमां,
जो इनमें तू नहीं तो, कोई दिलकशी नहीं।।1।।

(5)
तर्ज: दादरा बरेली का तीन ताल
शिव चौदस में बरती, सावण बरसै था,
बुढिय़ा लगी थी, पूजा पाठ में।। टेक ।।

चालै परवा पवन रसीली, झूम रही नारी छैल छबीली,
हो रही गिल्ली, धरती इंद्र बरसै था,
पाणी-पाणी चमकै था घर-घाट में।।1।।

(6)
तर्ज: हिन्डोल तीन ताल
रूप मेरा देखे सै दूणा हो।। टेक।।

रण का भार रहै क्षत्री पै, आत्मनिष्ठ गीता गायत्री पै,
जैसे पथरी पै, उस्तरा टेके सै दूणा हो।। 1।।

(7)
तर्ज: ख्याल तीन ताल
बोल बोल अपशब्द निकम्मे, वृथा जिगर जलावै सै,
मेरी करी कराई भगती में, वो विघ्न गेरना चाहवै सै।। टेक ।।

पतिव्रता अबला नारी का, सत धर्म लुटने वाला है,
इन्द्रासण पै बैठा है, अब नहुष उठने वाला है,
पूरा घड़ा पाप का भर लिया, समय फूटने वाला है,
पृथ्वी गर्क होण वाली है, आसमान टूटने वाला है,
व्यभिचारी बेईमान भूलकै, फूंक सै पहाड़ उड़ावै सै।।1।।

(8)
तर्ज: सांगीत ताल कहरवा
श्री शंकर जी को, अर्जुन ने शीश झुकाया,
अपने मन का हाल भाव से, ब्यौरेवार बताया।। टेक ।।

आप तो घट घट की जाणे, महादेव मैं क्या कहूँ,
जयद्रथ रहेगा जिन्दा तो, मैं ना फिर जिन्दा रहूँ,
ममता और लालच में जाणें, और कितने कष्ट सहूँ,
मेरे दुख को पशुपति, आप हो देखने वाले,
हृदय के घाव को स्वामी, प्रेम से सेकने वाले,
धर्म और अधर्म का ध्यान, सत्य पै टेकने वाले,
भगत जाल में घिरा हुवा, जी माया ने भरमाया।।1।।

(9)
तर्ज: खड़ी ताल
हो गया घोर अन्धेरा, जी भरत खण्ड में।। टेक ।।

पूर्णमल मरने का, जनता के रंज भतेरा,
स्यालकोट के बाग सूख गये, ऊजड़ हो गया डेरा।।1।।

(10)
तर्ज: चौकलिया
एक हन्डी दो पेट, एक में खीर एक में दलिया,
देख लई श्रवण ने एक दिन, बहू बणी हुई छलिया।। टेक।।

आप बड़े बलवान पिया, थारी नारी हारी पाषण है,
उसके बिल में बडऩे वाली, काले मुंह की सांपण है,
सीख चमेली की खोगी, लङ्का री नाक लुचापण है,
गुरु मानसिंह न्यूं कहगे, रघुनाथ में घणा सुधापण है,
लहदारी स्थापण है, न्यूं भजन बणा चौकलिया,
सेवा करने वाले होते, जग में जीव सुफलिया।।4।।

(11)
तर्ज: ख्याल
तेरे कहे से आ नहीं सकता, राजा पागलपन में,
मरने का दिन दुखिया पापी, आता बड़े विघन में।। टेक ।।

पृथवी और पाताल कांपते, कोई भी बोल नहीं सकता,
मेरी आज्ञा बिन नभमण्डल में, सूरज डोल नहीं सकता,
तलवार मेरे कब्जे में है, कोई बल को तोल नहीं सकता,
शरीर मेरा बज्जर का है, हथियार भी छोल नहीं सकता,
मेरी इच्छा से तीनों मौसम, चलती चाल पवन में।।1।।

(12)
तर्ज: शामिल ख्याल
अभि०- रण में लडऩे की आज्ञा जल्दी, उत्तरा मेरी नार करो,
उत्तरा- मेरी दसों इन्द्री काबू में, मेरी चिंता मत भरतार करो।। टेक ।।

अभि०- ग्यारहवां मन और बारहवीं बुद्धि, तत्वज्ञान से शुद्ध करो,
उत्तरा- थारी शान मेरी सुरती में, पिया यश पाणे को युद्ध करो,
अभि० धर्म के विरुद्ध काम दुनिया में, कोई करै मत खुद करो,
उत्तरा- सुरती के स्वामी मन में, मंगल करदो या बुध करो,
अभि०- मंगल रहे सदा सुरती में, सत्य सुभद की कार करो,
उत्तरा- वचन आपका मान लिया, साजन पूरा इतवार करो।।1।।

(13)
तर्ज: ख्याल छोटा
पार लगादे नैया मैया, जन को तेरा भरोसा है,
तुम्हीं करो कल्याण जन्म दे, तुमने ही पाला पोसा है।। टेक ।।

त्रिगुण माया माह दीख रही है, लक्ष्मी-विष्णु के संग में,
ब्रह्माणी सरस्वती वेद की विद्या, ब्रह्मा के अंग में,
दुर्गे पार्वती के ढंग में, शिवजी तेरा नासा है।।1।।

(14)
तर्ज: ख्याल लावनी
इसी धनुष का चाप चढ़ाकै, ठीक निशाना मारूंगा,
फिरती मीन की आंख बींधकै, तलै तेल में तारूंगा।। टेक ।।

जो ना उतरी मीन मेरे पै, फेर ना श्यान दिखाऊंगा,
इस फिरते यन्त्र में अपना, मारकै बाण दिखाऊंगा,
विद्या बाण लक्ष वेदी का, पूरा ज्ञान दिखाऊंगा,
राजा द्रुपद का निर्भय, बणकै मेहमान दिखाऊंगा,
दानी कर्ण बाण विद्या मैं, ऊंचा नाम उभारूंगा।।1।।

(15)
तर्ज: ख्याल मिलवा
अर्जुन- प्यार पुत्र का मान के बोलूं, अब अभिमन्यु घर को चल,
अभि.- पुत्र कोई ना किसी का जग में, आज पुत्र और पिता है कल।। टेक ।।

अर्जुन भूल गया अभिमन्यु बेटा लाड चाव से पाला था,
अभि.- कर्म करे के भोग मिले, तू कौण पालने वाला था,
अर्जुन जो चाहा सो हुवा तेरा कभी कहा हुवा ना टाला था,
अभि.- समय-समय की बात जन्म का नाता नैम निराला था,
अर्जुन घी और दूध पिलाये थे और गिरी छुवारे मेवा फल,
अभि.- अपनी-अपनी जगह चले गये, आग आकाश पवन पृथ्वी जल।।1।।

(16)
तर्ज: ख्याल दोचश्मी
हीर- रांझे फाटक खोलदे, मनै जाडा लागै सै,
रांझा- रांझा पाली सोया, जा तू अक्खन जागै सै।। टेक ।।

हीर- राजी होके पाली, पीले दूध मलाई है,
रांझा- जहर गेर के लाई, तू मारण आई है,
हीर- बिना खता के पाली, देरया मनै बुराई है,
रांझा- मैं जाणूं तनै हीरे, छल की भरी लुगाई है,
हीर- कुछ ना खता बताई है, मनै सहम दुहागै सै,
रांझा- दो खसमों की बीर, दिल ले भागै सै।।1।।

(17)
तर्ज: ख्याल सादा
सत्यधर्म दया दान तपस्या, शूरवीर का काम,
राजी होके आरा ठाले, कर दुनिया में नाम।। टेक ।।

तेरे धर्म की आज पीरक्षा, बहुत घणी तकड़ी सै,
खुल के खेल खिलाड़ी, काया माया में जकड़ी सै,
तेरा सत तोडऩ खात्तर, जिद्द सन्तों ने पकड़ी सै,
मन सै खाती बनजा, बेटा बणा खड़ा लकड़ी सै,
काया कर्म की मकरी सै, एक हाड मांस का चाम।।1।।

(18)
तर्ज: ख्याल बड़ा
चम्पकलाल एक बाबू था, उसकी नार चमेली,
माता जीवै थी चम्पक की, कथा बड़ी अलबेली।। टेक ।।

चम्पक की माता ठाकुर की, पूजा रोज करै थी,
बेटे बहू नास्तिक थे, न्यू मन में घणी डरै थी,
चंचल सुभा चमेली का, वो फैशन नये भरै थी,
बस बेटे के आगे बुढिय़ा, नौकर बणी फिरै थी,
हुक्म चलावै बहू, काम सब बुढिय़ा करै अकेली।।1।।

(19)
तर्ज: ठेठ हरियाणवी
पांडों की नार, गावें मिलके मंगलाचार,
अर्जुन कुंवार, आज लडऩे चला।। टेक ।।

रण का बाजा बजा, भय वीरों ने मन में तजा,
सजा आरते का थाल, रखा दीया चौमुक्खा बाल,
हरे हरे दूब के नाल, रोली मेंहदी में मिला।।1।।

(20)
तर्ज: हरियाणवी देशी
मेरे कृष्ण की मेरे सामने, और बुराई मतना करिये,
प्रण तोडक़ै अभी मारदूं, घणी अंघाई मतना करिये।। टेक ।।

अब मनै माला मन में जपणी, एक दिन श्यान सभी की खपणी,
अपणे मुख से मूर्ख अपणी, आप बड़ाई मतना करिये,
अपने सिर पै बिना बात की, खड़ी तवाई मतना करिये।।1।।

(21)
तर्ज: गुजरू हरियाणा
इन्द्रप्रस्थ में नित्य नेम से, कथा कराऊं था,
ऋषि महात्मा विप्रों को, दे दान जिमाऊं था।। टेक ।।

जमना जी नहाकर हर का, ध्यान धरा करते थे,
सत्संग भजन कीर्तन मिलके, नित्य करा करते थे,
चोर उचक्के ठग डाक वहां, घणे डरा करते थे,
साधू ब्राह्मण गऊ हो निर्भय, छिके फिरा करते थे।।
मेवा चावल मिष्ठान दूध की, खीर बनाऊं था।।1।।

(22)
तर्ज: गुजरू मिलवा (हरियाणवी)*
अर्जुन द्रोपदी क्यूं खड़ी हो गई, पीठ फेर कै,
द्रोपदी हिजड़े क्यूं बोल्लै, मेरा आगा घेर कै।। टेक ।।

अर्जुन म्हारा तेरा पीछे आगे का, भेद खुलग्या,
द्रोपदी राणी सुनती होगी, क्यूं बेशर्मी पै तुलग्या,
अर्जुन म्हारे तेरे कर्मो का भाव, स्वयम्बर में बुलग्या,
द्रोपदी पिछली बात कहै मतना, घाव दबा हुआ छुलग्या,
अर्जुन गांठा रुल गया चमक लागगी, गेहूंओं के ढेर कै,
द्रोपदी दाना दाना करा इकठ्ठा, पैर सकेर कै।।1।।

(23)
तर्ज: गुजरू (उतरप्रदेश)
मिलके बोले देव धुनी, नभ गूंज उठा किलकारों से,
सब ब्रजमण्डल कांप उठा, जब कंस के अत्याचारों से।। टेक ।।

द्वापर युग मथुरा नगरी में, उग्रसैन के कंस हुआ,
उसके कुकर्म से ब्रज में, धर्म का नाम विध्वंस हुआ,
उग्रसैन थे भगत कंस कोई, राक्षस रूपी अंश हुआ,
गुप्त पाप करने से लौकिक, लुप्त भयानक वंश हुआ,
ऋषि महात्मा बाला गऊ, छुप छुप मारे तलवारों से।।1।।

(24)
तर्ज: भजन रूपी
जमना पार ऋषि दुर्वासा, मन में लगी मिलन की आशा
सखी रल मिलकै चलो साथ में,
हे! सोरण थाल खीर का ठालो हाथ में।। टेक ।।

पवन अहारी दुर्वासा को, कृष्ण जी बतावें कृष्ण जी बतावें,
अचम्भे की बात आज हम, अजमानी चाहवें हम अजमानी चाहवें,
तिर जावें बिना नाव के, रंग आनन्द भरे चाव के,
भारी खुशी हुई म्हारे गात में।।1।।

(25)
तर्ज: भजन रूपी अन्यतम
चित्त राम चरण में लग, ये जाने वाला जग।। हरे ।।

किसको फिरे ढूंढता जग में, रहा रात दिन भग,
जीव आत्मा तेरे तन में ज्यूं गूंठी में नग।।1।।

(26)
तर्ज: भजन रूपी अन्यतम

दु:ख दूर हुए दर्शन से, मनमीत प्रीत प्रसन्न से।। टेक ।।

सत्य चित्त आनन्द है, सुख चैन,
जीव की इच्छा है, दिन रैन,
पुलकित नैन, सलिल बरसन से।।1।।

(27)
तर्ज: भजन रूपी अन्यतम
पछतावें मन, मत वृथा डोलिये,
जय शिव जय शिव, जय शिव, ॐ मुँह से बोलिए।। टेक ।।

शिवजी के गले में, देरा शेषनाग घेरा,
गोरा, गंगा, गैल बैल, नादिया लेरा,
मिट जागा अन्धेरा, मन की आंख खोलिये,
राग द्वेष के दाग, पाप मैल धोलिये।।1।।

(28)
तर्ज: मस्तानी
क्रोध में आंख फेर के, बोला हाथ से बाण गेर के
मेरा हृदय सच्चा साफ है, मैं जाण गया पापी,
तेरे मन में पाप है।। टेक ।।

गुरु पै दोष धरै, तेरी बुद्धी पागलपन में,
शेर सदा गरजै, ना कभी डरै बन में,
म्हारा रण में मेल बतांवे, गुरु शिष्य का खेल बतावे,
तेरा कहना घणा खिलाफ है।।1।।

(29)
तर्ज: मस्तानी मिलवां
मेरी प्यारी घर पै रहिये, मेरे पिया कुछ मत कहिये,
मैं चालूंगी तेरे साथ में,
तेरा महावारी मनिआर्डर, आजा महल में।। टेक ।।

मेरी गैल प्यारी, मेरे कन्धे पर रैफल रहे री,
मनै सिंहनी जान लिये, वो शेर सिपाही केहरी,
तू मेरी बात मान ले, मेरा अपना गात जान ले,
सदा रहूंगी आपकी टहल में,
तू मन मन के गोले सुण सुण, मरजा दहल में।।1।।

(30)
तर्ज: सांगीत
वो जब सै देखा गात बात दो, साथ करा चाहूँ मैं।। टेक ।।

छाती नै उभार बाहर, सार दो खिलावण लगी,
तिरछी नजर कटार मार, धार सी चलावण लगी,
होली कैसा त्यौहार नार, तार से मिलावण लगी,
बिजली सी चमकै तन में, दिन में घन पाटण लगी,
कर कै गेरा लोट-पोट, होंठ से फेर चाटण लगी,
हंस बोली बतलाई आई, दरद दवाई काटण लगी,
दई डार नैन की चोट घोट, गल जोट फिरा चाहूँ मैं।।1।।

(31)
तर्ज: सांगीत चलत
बन्दे सोच समझ कै देख,
यू माया काया गैल ना चलै।। टेक ।।

मनुष्य जन्म पाया जैसे, नदी नाव संयोग,
काम क्रोध अहंकार, काया में अनेकों रोग,
गुरु की शरण में जाके, मिटते हैं सारे सोग,
चतराई चलै ना कोई, उन्नति या उद्योग,
पैदा सो नापैद जग में, अमर नहीं कोई लोग,
करमों के अनुसार जीव, भोगता समय पै भोग,
लिखे करम के लेख, होणी कभी टाली ना टलै।।1।।

दोहा
सुन कासिद की बात को सभी रहे चुपचाप।
शोक मोह के चक्कर में चित्त चंचल प्रताप।।

(32)
तर्ज: कली सांगीत
प्रतापसिंह ने खोल लिया परवाणा,
बांचन लाग्या हाथ कांप गये, रोवण लगा महाराणा।। टेक ।।

पहले तो नमस्ते ओ३म् राम राम लिखी पाई,
दूसरे खुश राखे सबको माता श्री गंगे माई,
तीसरे पिता जी समय शादी की नजदीक आई,
आप तो जाणो हो मेरे सिर पै जो कुछ पड़ी तवाई,
मेरे बस की बात नहीं आप करियो मन की चाही,
और क्या लिखूं मैं ज्यादा मिलती नहीं रोशनाई,
मुश्किल तै कागज पाया, मेरा हो लिया निर्वाणा।।1।।

(33)
तर्ज: बहर-ऐ-तवील
ताना मारा था हंसके, मेरी छाती में चसके,
तू नागन सी डसके, बिल में बड़ी हो।। टेक ।।

वो कड़वी थी बोली, लगी छाती में गोली,
तारा दाम और चोली, तू नंगी खड़ी हो।।1।।

(34)
तर्ज: बहर-ऐ-तवील अन्यतम
बचन जो लिये हैं इसी वास्ते, करना पड़ेगा ये ही काम हो,
मना करदो हम चले जायेंगे, हम साधू हैं रमते राम हो।। टेक ।।

ज्ञान घट में भरो, ध्यान मन में धरो,
आप क्षत्री हो, मरने से मतना डरो,
दान राजा जी हंस के, सुत का करो,
तेरा दुनिया में, सबसे बड़ा नाम हो।।1।।

(35)
तर्ज: बहर-ऐ-तवील (हरियाणवी)
नाव जल में पड़ी, माया सन्मुख लड़ी, चार आंखे लड़ी, राजा चकरा गया,
बात कैसे कहूं, केसे चुपका रहूं, तेज तन का कहूं, आग लगते ही नया।। टेक ।।*

भोली भाली शकल, दीखे सोना भी नकल, कुछ ना रही अकल, जी जाल फया,
जो ये राणी बणे, तो सुहाणी बणे, खुशी प्राणी बणे, रंग होजा नया।।1।।

(36)
तर्ज: बहर-ऐ-तवील (हरियाणवी अन्यतम)
तू रहती महल में, दासी टहल में,
म्हारी गैल में, तेरा गुजारा नहीं है।। टेक ।।

होजा दुख सहना, सुनले ये कहना,
म्हारा कुटिया में रहना, चुबारा नहीं है।।1।।

(37)
तर्ज: नाटकीय
महलों में ये रंग हो रहा, और अब रंग सुनो दरबार का,
बाजी जुवे की लो लगा, कहना धर्म औतार का,
आवो राजा एक बाजी, लगायेंगे दिल बहलायेंगे,
एक दो चाल जुवे की बनायेंगे।।

(38)
तर्ज: नाटक वार्ता
द्रोपदी कहा पति जी ब्याह का कोई इन्तजाम है, आपके पास कोई छदाम है,
ब्याह में लुटाये जाते दाम है, आपके पास राम का नाम है,
अर्जुन क्यों नहीं! सब बात की बहार है, राजा कंवलनैन राज देने तक तैयार हैं,
फिर क्या देर दार है, द्रोपदी बता तेरा कैसा विचार है,
द्रोपदी शर्म करो शर्म, जिसका अन्न खाया, मोज में समय बिताया,
डाका डालना उसी के घर चाहया, कायरता का लालच हृदय में समाया,

(39)
तर्ज: लोकगीत
आइयो री लुगाइयों, म्हारे गाईयो गीत,
बेटा आया म्हारा, कैरों ने जीत।। टेक ।।

गंगाजल का लोटा और, कंचन का लेके थाल,
आरता सजालो दिया, चौमुखा धरो बाल,
मेंहदी रोली हल्दी चावल, हरी दूब के नाल,
गिरी छुवारे लाल कलावे, पान मिठाई माल,
खंवे और उठावें म्हारे, कुल की है रीत।।1।।

(40)
तर्ज: लोकगीत अन्यतम
न्हाले री लाडो बटना मल के,
तेरी चाची बुआ, बाहण गावें गीत।। टेक ।।

तडक़े बरात तेरे, पिया जी की आवेगी,
हे बनड़ी बनके, दर्शन उनके पावेगी,
चला री लाडो पांया नै संभलके, हो बेटी की जात,
पराई बेटे वाले को जीत।।1।।

(41)
तर्ज: शामिल/उपरातली/मिलवा
राणी- मान चाहे मत मान पियाजी, मेरा तो ठीक विचार रहै,
राजा- मनसा पाप करे तू राणी, बुद्धि पै भूत सवार है।। टेक ।।

राणी- भूत आपके घर में साजन, नैम धर्म सब भंग हुआ,
राजा- तेरी बात सुणके राणी, मेरा बोलता तंग हुआ,
राणी- रंग ढंग बदरंग हुआ, थारी माता को इश्क का ओजार है,
राजा- ऐसी बात सोचना प्यारी, ख्याल कतई बेकार है।।1।।

तर्ज: शामिल/उपरातली/मिलवा (चौकलिया)
(42)
सत्यवान बियाबान में, सावित्री तनै कष्ट उठाणा होगा,
सावित्री पतिव्रता नै पति प्रेम से, दु:ख बटाना होगा।। टेक ।।

सत्यवान: मेरे दुख नै सावित्री, तू किस तरियां बांटैगी,
सावित्री: जो कुछ आज्ञा आप करो, ना सावित्री नाटैगी,
सत्यवान: नाजुक हाथ मुलायम तेरे, तू कैसे लकड़ी काटैगी,
सावित्री: चल कटी कटाई आली, सूकी अलग अलग छांटैगी,
सत्यवान: भारी बांध भरोटा लक्कड़ सिर पै ठाणा होगा,
सावित्री: मजदूरी का काम किसी का, नहीं उल्हाणा होगा।।1।।

(43)
तर्ज: राधेश्याम / दौड़ / वार्ता / सरडा
गुलाबसिंह के सर सेहरा, बड़े जोर का काम किया,
कंचन कवच और कड़ा कटारा, घोड़ा एक इनाम दिया,
बंटी मिठाई घर-घर में, और ज्ञान ध्यान की बात हुई,
सो सो के टैम सभी सोगे, और घोर अन्धेरी रात हुई,
परवा पवन चले बादल में, ठिमक ठिमक बरसात हुई,
राजबाला के मन में कुछ, काम रूप की चाहत हुई,
देखके श्यान पति की एकदम, आंखों में आंसू बहन लगी,
पेट की पन्हा जवान सती, न्यूं हाथ जोड़के कहन लगी।।

नोट:- व्याकरण आचार्य श्री सत्यवान शर्मा साल्हावासिया के अनुसार उपरोक्त इन दोनों छंद कलाओ (राधेश्याम/दौड़) के माहिर शम्भुदास, प. रतिराम, प. महोरसिंह, प. गुणी सुखीराम, प. नंदलाल आदि थे, लेकिन जहाँ तक सर्वप्रथम इस छंद के गायन का प्रमाण मिलता है वो शम्भुदास जी का ही मिला और इस छंद की गायनता से सबसे ज्यादा प्रभावित प. नंदलाल जी- पाथरआळी ने किया था। जिस प्रकार घड़वे बैंजु के साज की शुरुआत तो हमारे बुजुर्गो ने खेतो में गाते बजाते की लेकिन सबसे ज्यादा प्रभावित प. जगन्नाथ ने किया था। ठीक उसी प्रकार नंदलाल जी ने इस दौड़ या राधेश्याम कला को मुख्यतः प्रभावित किया। शम्भुदास जी की जकड़ी या दौड़ रूपी कुछ पंक्तिया निम्नलिखित है –

पंडित बेग बुलाय, लग्न लिखो शुभ घड़ियाँ ।।टेक।।

दोषरहित शोधो शुद्ध साहा,
दौ दिश सब बिध रहे उछाहा,
जोशी कहत सुनो महारानी,
साहा शुद्ध सदा सुख दानी,
इतनी चूक शूक जी आड़े,
यूँ कह गये ज्योतिषी ठाड़े,
बोले सुनत कंवर अभिमानी,
रुक्मराज मंत्री से बानी,
सुर सत भाट पठाय जत्न करो तड़भड़ियां।।
– (शम्भुदास जी)

साहित्य और संगीत दोनों को साथ साथ प्रचलित शंभुदास ने किया। पं रतिराम और शंभुदास दोनों गुरुभाई थे। पं रतिराम ने भी जंगम और जकडी को शंभुदास के साथ खूब गाया। ये संगीत की शैली हैं जिन्हें द्रुत लय में गाया जाता है। बाद में अल्प शिक्षित लोक गायकों ने इसे दौड नाम दे दिया जो एक ग्राम्य शब्द था जिसे देसी लोग बोलते थे। कालान्तर में यह शब्द प्रचलित हो गया। इसी दौड को त्रिभंगी छंद के रूप में सर्वप्रथम बांधकर गाना शुरु किया फिर दादा महोर सिंह ने।

(44)
तर्ज: चलती (दौड़ / राधेश्याम / वार्ता / सरडा)
नहीं समझ में आती, सुन-सुन पाटै छाती,
आज भरे दरबार बीच, अपना अपमान कराती।। टेक ।।

एक दिन था माता नै, कोख में सुवाई तू,
नौ महीने तक कष्ट झेल, फेर लड़की जाई तू,
लाड चाव प्रेम करकै, गोदी में खिलाई तू,
गर्म सर्द पानी करा, साबुन सै नहलाई तू,
आज कड़वी बात कहै, री मुझे नहीं भाई तू,
मानी नहीं बात तनै, बहुत सी समझाई तू,
क्यों पत्थर को चाहती, आज पति बनाती,
इसकी गैल कहै, आज मैं ब्याह रचाती ।।1।।

मेरा कहना मानजा तो, सही वर तलाश करूं,
राजपाट शक्ति देख, फेर लड़का पास करूं,
जोड़ी का भरतार देख, तनै ना उदास करूं,
मेरी बात मान छोरी, तेरे सै अरदास करूं,
बराती रंगदार और, कृष्ण कैसा रास करूं,
लाड चाव करकै राखे, ऐसी तेरी सास करूं,
सजकै चले बराती, रेडियो भी गाती,
नई नई फिल्मों की, रंगत चलै सुनाती।।2।।

डस ले काली नागिन, मेरी आन तोड़ रही,
शत्रु जो मेरा उससे, अपनी प्रीति जोड़ रही,
मानै नहीं कहन मेरा, अपनी किस्मत फोड़ रही,
मेरी बेटी होकै आज, मेरे सै मुँह मोड़ रही,
रजपूती दंगल के म्हा, कर इतनी मरोड़ रही,
पत्थर की तस्वीर देख, जिसके साथ दौड़ रही,
आज नहीं मन को भाती, पिता को नीचा दिखाती,
ये पत्थर की तस्वीर, साथ में जिसके जाती।।3।।

कुल मर्यादा मेरी, करकै आज भंग चली,
क्षत्री घर की लड़की, बनकै पाप की पतंग चली,
दरवाजे पै पहरेदार, जिसके छोरी संग चली,
मुँह ना दिखावें राजा, करकै ऐसा ढंग चली,
हृदय में कटारी मार, करकै ऐसा जंग चली,
पत्थर की तस्वीर को, तू बनाकै नै किंग चली,
रघुनाथ धर्म का नाती, क्यूं नहीं बुलाती,
आपस की फूट जा लूट, रहे ना कोई हिमाती।।4।।

(45)
तर्ज: मल्हार
रात अंधेरी जी जलै, मौत भी टलै,
पर बैरन जोट ना टलै।। टेक ।।

पांव भी ना फैलें, मेरी पतली रिजाई,
जोट पै चला गया, मेरी ननदी का भाई।।
जाडा पड़े कसाई, काया ओला सी गलै।।1।।

(46)
तर्ज: राग मल्हार
घोड़े का देखा असवार, संयोगिता नै फूल बखेरे, शर्मा गई।। टेक ।।

साजन जो पास आये, रंग में रघुनाथ छाये,
गाये राग मल्हार, संयोगिता नै राग के सपेरे, शर्मा गई।।4।।

(47)
तर्ज: दोहा (छंद रूपी)
बड़ी खुशी हुई गात में, हो गई जै जै कार,
दान धर्म कर राव जी, और खुश हुये सरदार।।

(48)
तर्ज: काफिया (छंद रूपी)
न्यूं तो मै भी जाणु हूँ, ईश्वर काज सारता देख्या,
चाहे क्षत्री का शरीर कटज्या, ना वचन हारता देख्या,
पिता पुत्र अपने को कभी,नहीं मारता देख्या,

(49)
तर्ज: सवैया (छंद रूपी)
पूजा करी बड़े भाव से, प्रसाद चरणामृत पिया,
आपकी कृपा हुई उपकार, दुखिया का किया,
ऐसे समय पर आन कर, मुझे सहारा पूरा दिया,
नैन पुलकित हो गये, और उमड़ कर आया हिया।।

(50)
तर्ज: चौबोला/चमोला (छंद रूपी)
दोहा- जाता बालम देख के, आई पिछली याद,
पूरा मेरा पर्ण हो, तेरह साल के बाद।।
सवैया- उत्तरा कंवारी बात सुन, द्रोपदी ने रिष भरके कही,
जाता गुरु लडऩ तेरा, कुछ कसर बाकी ना रही,
खेली नहीं गुडिय़ा कभी, बालक अवस्था खो लई,
दुर्योधन का तू सेला मंगा, गुडिय़ा बनाऊँगी नई।।

(51)
तर्ज: गजल (छंद रूपी)
फुरकत में जो खामोश हुवे, पलकों से इशारा करते हैं,
इश्क में जिसने पुर दिया, गम खाकर गुजारा करते हैं।। टेक ।।

ऐश अशरत चाहने वाले, हैं नाज जिन्हें ऐमालों पर,
तदबीर इरादा फेल करे, तकदीर से हारा करते हैं।।1।।

(52)
तर्ज: चौपाई (छंद रूपी)
उबरे अन्त ना होय निभाऊं, काल नैम जिमि रावण राह।।

(53)
तर्ज: अन्यतम छंद
इतना दुख था सीता जी को, कवि कोई नहीं लिख सकता है।
जो मुँह से रोज महेश कहैं, तो वाक्य ना ताकत रखता है।।
उस वन में बाल्मीकि जी, चौमासे मैं तपते थे।
योग समाधि लगाकै माला, हरी के नाम की जपते थे।।
आठ महीने गंगाजी पर, कुटी बनाके रहते थे।
चार मास श्री हरनन्दी के पास, बालैनी मैं कहते थे।।
उसी समय कुटिया के बाहर, आकर पवन पान करते थे।
जो रोती फिरती थी, वो आवाज ध्यान में धरते थे।।

(54)
तर्ज: कव्वाली
जहां राजा भी अन्याई हो, और प्रजा भी दुखदाई हो,
जहां भाई का दुश्मन भाई हो, उस राज में रहना ठीक नहीं।।
जहां मां बेटे को खाती हो, और झूठे पलम लगाती हो,
और राजा भी उसका साथी हो, उस राज में रहना ठीक नहीं।।
जहां धर्म की नहीं रवा हो, साबूत भी बिना गवाह हो,
और पाप इश्क की चली हवा हो, उस राज में रहना ठीक नहीं।।
जहाँ दया धर्म का साथ नहीं, और विद्या की करामात नहीं,
रघुनाथ वहाँ गोरखनाथ नहीं, उस राज में रहना ठीक नहीं।।

(55)
तर्ज: शायरी
शुक्र किया राव ने मन में, शौक था फकीर का।
आज मैं बूझूंगा उनसे, हाल कुछ तकदीर का।।
भोजन का कर प्रबन्ध सब, भण्डारा हलुवा खीर का।
कर दिया प्रश्र तुरंत, दिल की लगी तहरीर का।।

(56)
तर्ज: कीर्तन रूपी
उठ जल्दी जाग, सहम सोता
मन धोले दाग, लगा गोता।। टेक ।।

चलो सत्संग में, सत की कहानी सुनैं,
बात पूर्ण धर्म की, पुराणी सुनै,
ऋषि मुनियों से, अमृत की वाणी सुनै,
ताल भैरो तराणा, तराणी सुनै,
सुनै ग्यान वैराग भला होता।।1।।

(57)
तर्ज: पद
सुरपति इन्द्र महाराज का डिगा मन, अहिल्या नारी पै।। टेक ।।

अहिल्या के रूप की, सब देवों ने बड़ाई करी,
गठीला शरीर नारी, जवानी मस्ती में भरी,
नैन हैं कटाक्ष बाण, बोली है कोयल सै खरी,
तीन लोक में दूसरी ना, और कोई ऐसी बीर,
गर्दन है सुराहीदार, आता जाता दीखै नीर,
नाजनी नमकीन सुभा, सादी भोली गम्भीर,
हो! आशिक दिल आवाज का, लगै झलक स्यान प्यारी पै।।1।।

(58)
तर्ज: शब्द
चली चली रे चली रे एक नीत बदी में,
ना करी कार भली रे।। टेक ।।

वहम का भयानक भूत, बहता रहा बैल हुया,
अहंकारी अंकुश पक्का, हाँकने को गैल हुया,
पाप का पुजारी पेट, पालने को फैल हुया,
मामता मरोड़ माया मन में, मन का ख्याल हुया,
सैलानी सपाटा पक्का मैं, इरादा सैल हुया,
स्यान का सिंगार करके, सुथरा बांका छैल हुया,
गली गली रे गली रे, घूमा गदा गदी में,
गल में जंजीर घली रे।।1।।

(59)
तर्ज: वाणी
गुरु की शिक्षा दीक्षा तैं, शरीर का साज सजे है,
त्रिकुट नगरी शून्य महल में, अनहद साज बजे है।। टेक ।।

या ब्रज में रास करने वाले, रूकमण राधेश्याम दिखा,
या श्रीशुकदेव भजन करते, सैर गंगाजी का धाम दिखा,
नल नील राम की सेना में, करते शिल्पकारी का काम दिखा,
नीच बादशाह मुसलमान का, फोटू ठावे मतना।।1।।

(60)
तर्ज: मंगलाचार
गावें सखी झूम आज, म्हारे ललना हुआ।। टेक ।।

नन्हा सा बच्चा, है अलबेली जच्चा,
मौसम सुहाना हुआ, है कैसा अच्छा,
पायल बाजें झूम झूम, आज म्हारे ललना हुआ।।1।।

दोहा
राम नाम लड़वा, गोपाल नाम घी।
हर के नाम मिश्री, तू घोल-घोल पी।।
(61)
तर्ज: कहरवा
लूटो-लूटो नसीबों वाले, ये राम नाम लुट रहा जी।। टेक ।।

राम नाम की लूट है, लूटी जा सो लूट,
फिर पीछे पछतायेगा, जब प्राण जायेंगे छूट,
ढूंढ़ो ढूढ़ो नसीबों वालों, के देव धाम छुट रहा जी।।1।।

(62)
तर्ज: रंगत ठेस
ख्याल हुवा सुणकै, बात स्वयम्बर में,
क्रोध में काया कांप उठी।। टेक ।।

लागी चोट जिगर सेही का, यहां आणा बेहा बेही का,
ढंग पारथ की देही का बेहाल हुवा,
अब योद्धा अव्वल नम्बर में, यहां हम सबकी लाज लुटी।।1।।

(63)
तर्ज: झूलना मंडावर

सुनके फेर माली की बात, एकदम भरग्या खुशी में गात,
लेकर मंत्री को साथ, चला था महलों में खबर ये पहुंचाने।। टेक ।।

सब नगरी हो लई तैयार, सन्त से मिलन चला सरदार,
शहर के सभी चले थे नर नार, बच्चे वृद्ध पुरुष और नारी।।1।।

(64)
तर्ज: कड़ा
धीरज धर्म शान्ति करके, दिल नै करले ढेट,
सतगुरु की माया ने, थारा दिया कष्ट सभी का मेट,
पूर्णमल की शक्ल का सुथरा, तेरे माता हो जागा बेटा।।

(65)
तर्ज: सोहनी
तेरे कष्ट मिट जांगे, अभी गेरूं दवाई आंख मे ।। टेक ।।

जब ख्याल आया मात का, करा ध्यान गोरखनाथ का,
जस राख के इस हाथ का, यूं फेरी सलाई आंख में।।

(66)
तर्ज: सर्राफा
भरा नैन में नीर, मोरध्वज राजा का एकदम कांपन लगा शरीर।
पड़ा गश खाके, मैं बहुत घणा पछताया छल में आके।
फेर कालजा भींच, न्यूं बोला दो साधू आये दरबार के बीच।
शेर हैं संग में, तेज रूप हैं अजब निराला ढंग में।
आज मुझे बहकाय, शेर जिमाने के वचन लिये तीन भरवाये।
करा ना धड़ का, शेर के खावण खातर मांगे लडक़ा।
धीरध्वज का मांस, मांग रहे दो साथ होलिया मेरे धर्म का नाश।
अटक गया रोड़ा, ये संत नहीं छलिया हैं सत् के तोड़ा।।
चतुर हुए मतहीन, शेर जिमाने को रानी मैंने वचन भरे हैं तीन।

(67)
तर्ज: देहाती
तेरे हाथ में बात, आबरू डाटिये रानी,
भर लिये वचन भूल में, तू बेशक नाटिये रानी।। टेक ।।

बेटे के देणे हो, होजा जग में अन्धेरा,
जिसके लागे वो ही जाणे, और नै के बेरा,
मेरा तेरा बेटा, आज बांटिये राणी।।1।।

(68)
तर्ज: मोहनी
उस दिन भेट में ना गये, जिस दिन चढ़े थे बरात में।। टेक ।।

तू तेग लेके ना तणा, और चाव रंग था में घणा।
और शौक में बनड़ा बणा बटणा मला था गात में।।2।।

(69)
तर्ज: आड़ी
चली ढाल ढाल सावित्री, धर्मराज की गैल,
अपने ध्यान में लगी।। टेक ।।

ये संसार रूप बड़ा सुन्दर, माया नाच रही मन अन्दर,
पड़ी बीच समन्दर जल कतरी, करती आसमान की सैल,
झाल तूफान में लगी।।1।।

(70)
तर्ज: टेस की
कवि गन्धर्व गावेंगे तेरी करनी, लोक गीत होली
धर्मराज गया हार सती, सावित्री तेरी जीत होली।। टेक ।।

विषय वासना सब तजने से, जग में पूरा कर्म मिलै,
सब में आत्मा एक समझले, उसके धोरै धर्म मिलै,
भगती से भगवान मिलाया, भाव का भारी भरम मिलै,
शिरोमणि सतियों में ऊंची, सावित्री तेरी शर्म मिलै,
सत्यवान के साथ जिन्दगी, पूरी प्यार प्रीत होली।।1।।

(71)
तर्ज: विहाग
आरी मेरी जान बचाले मेरी माँ,
लाल तेरा खा लिया काले नाग नै।। टेक ।।

पाणी कैसा बुलबुला था, एक फटके में फूट लिया,
बोला कोना जाता, मेरा साँस अधम में टूट लिया,
काले फण वाले ने मेरा, पाँ लेटे का चूंट लिया,
अब तो मेरी आँखा में, अन्धेरी गई छा,
दिया फूँक जहर की आग नै।।1।।

(72)
तर्ज: डैरू (तराना)
कर्म घटादे कर्म बढ़ादे, राम सभी के प्यारे,
एक बाप के दो बेटे, और कर्म बणा दिये न्यारे।। टेक ।।

एक बेल और फूल हैं कितने, कर्म अलहैदा लेरे,
ऋषि मुनि और कविजनों ने, दिये मिशाल भतेरे,
कितने ही फूल चढ़े सर ऊपर, बणे बने के सेहरे,
कितने ही फूल उठा किस्मत नै, ल्या अर्थी पै गेरे,
दाने देव मनुष्य गण चातर, कर्म के आगे हारे।।1।।

(73)
तर्ज: खड़ी जावली वाली
शीश गेरा गर्दन में, चला चूड़ावत सरदार।। टेक ।।

वस्त्र लाल लहूँ में हो गये, रोया धो धो धार,
आँसू पूँछ जोश मैं भरकै, घोड़े पै हुआ सवार।।1।।

(74)
तर्ज: कवि की निजी
जवान बीर की गैल, क्यूं कर रहे तंगी
तर तर तर तर बोलन वाली, बोल गई घनी
तेरे हो रहा नशा जवानी का, तू बावली बनी
इश्क में होरी सै अन्धी, बात क्यूं सोचली गंदी।। टेक ।।

लहू तू मेरे तन का चाटन वाली, रंग पाप का छांटन वाली,
बेटे का सर काटन वाली, तेग सी तनी,
अच्छा बुरा देखने वाला, एक सी घनी,
उसने मत भूले बन्दी, बात क्यूं सोचली गंदी।।1।।

(75)
तर्ज: कवि की निजी
दिल के बैन, सुण नहीं चैन, मेरे फूटे नैन देख लेगी,
अब सभा में आनन्द रंग बरसे।। टेक ।।

इतनी खोटी बात कही, सुन धरती भी डोल गई,
चित्त में चक्कू चुभो दिया, और चलने जी को छोल गई,
मैं जाणूं या मामा जाणे, तरंग में त्रिया बोल गई,
इज्जत और आबरू सारी, बिना तोल बेमोल लई,
बिना भाव, बिक लिया राव, मेरे दिल का घाव, सेक लेगी,
बीमार पड़ा पल पल तरसै।।1।।

(76)
तर्ज: कवि की निजी
राम राम करकै, जोश में भरकै, धीरज धरकै,
चल पड़ा, दया धर्म वालों का, हृदया हल पड़ा।। टेक ।।

कोरा बोली मेरे लाल को, क्यूं मारो बिना खोट,
मजहब की अदावत नै, दिया धर्म का गला घोट,
बोला भी ना जाता मेरे सै, सूख लिये प्यासी के होट,
चाटे ना सहकै, रोवे रह रह कै, बहकै आंखों सै जल पड़ा।।1।।

(77)
तर्ज: अज्ञात रागनी तर्ज
कौन खड़ी रै, तले नै लखावै सै
रंग बेतोल हंस के बोल घूंघट खोल, घणी क्यूं शरमावे सै।।टेक।।

उठे प्रेम की हूक, गया काया की सुध बुद्ध भूल,
फूलझड़ी रै आग सी उछठावे सै,
जणै पूर्णमासी की रात, कोय ना चांदणे की चाहत,
तेरा गोरा गोरा गात, गोरी चन्दा नै घटावे सै।।1।।

(78)
*तर्ज: अन्यतम अज्ञात रागनी तर्ज *
ऐ रै रै तेरै ताली ।। टेक ।।

ना भरूं दूध में घूँट, झूठ नै लूट लिया पाली,
जा टूट रही सै तुण, लिया जिक्र ब्याह का सुण,
बण आशिक खाई गाली,
लूट लिया निर्भागण आज, तू हीर नाग काली।।1।।

साहित्यिक भेंटवार्ता एवं बातचीत

लोककवि व लोकगायक प. राजेराम संगीताचार्य से सन्दीप कौशिक की भेंटवार्ता के रूप मे बातचीत।

लोककवि प. राजेराम की अमूल्य निधि का उतरदायित्व सौंपने की एवज मे, मै किन शब्दों मे आभार व्यक्त करूँ, मेरे लिए ये यक्ष-प्रश्न बन गया है। जितना भी प्रयास हो सकता था, उतना मै नहीं कर पाया। यह एक छोटा सा प्रयास है और यदि इस प्रयास को आगे बढ़ाना पड़ा तो मुझे अति प्रसन्नता होगी। पंडित राजेराम जी के ज्ञान और भक्ति के योग से रचे गए सांग, भविष्य मे अमरत्व प्राप्त करे– यही मेरी शुभ आकांक्षा है।
सांस्कृतिक वातावरण मे बसने वाला हरियाणा प्रदेश के लोक संगीत एवं लोक साहित्य के संरक्षण हेतु सांग व रागनी विषय पर अतीत एवं वर्तमान दोनों का गहनता से अवलोकन करें तो संगीत के जादूगर प. रामकिशन ब्यास के अनुसार ‘‘यह विधा 12वीं शताब्दी के आस-पास शुरू हो गई थी और नारनौल के एक ब्राहाण बिहारी लाल ने शुरू की थी, लेकिन मुगलों के समय में सांग मंचन/खेलने पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया गया था, क्योंकि सांगों के माध्यम से अपनी संस्कृति का ज्ञान और देशभक्ति का ज्ञान कराया जाता था। बिहारीलाल के बाद उनके ही एक शिष्य चेतन ने सांग शुरू किये। 17वीं शताब्दी में सांगों का दौर पुनः आरम्भ हुआ, परन्तु इसको आरम्भ करने वाले प. बालमुकुन्द गुप्त थे, उसके पश्चात् उनके शिष्य गिरधर तथा कुछ समय बाद शिवकुमार ने सांग किये। फिर प. बालमुकुन्द जी के ही शिष्य पंडित किशनलाल का आगमन हुआ। जिन्होंने सांग विधा को अत्यंत महत्वता प्रदान की। उसके बाद तो लगभग 200 ई. बाद हरियाणा प्रदेश के सर्वकालीन व सर्वश्रेष्ठ सुर्यकवि प. लख्मीचंद जी ने इस सांग विधा के ऐसे आयाम स्थापित किये, जिनमे सदा-सदा के लिए अमरत्व की आहुति डाल दी। इस तरह वर्तमान के इस अत्याधुनिकरण दौर में अनेकों नाम मनुष्य के हर्दय पटल पर बार-बार दस्तक देते है और वे नाम है- प. दीपचंद, जमुआ मीर, बाजे भगत, प. नन्दलाल, प. मांगेराम, प. सुल्तान, महाशय दयाचंद, चौ. मुंशीराम जांडली, प. माईचंद, प. रघुनाथ, राय धनपत, फौजी मेहरसिंह, चंद्रलाल भाट, मास्टर नेकीराम, प. जयनारायण, प. जगन्नाथ, प. तुलेराम व प. राजेराम संगीताचार्य आदि। साहित्य, संगीत और कला के बिना पशु तुल्य जीवन बिताने से परहेज करने वाले पंडित राजेराम जीवन के प्रत्येक क्षण को लेखन एवं गायन के साथ भोगते रहे और उनके जीवन का यही परम आनंद रहा है। कवियों व सांगियो की परम्परा को गतिशीलता प्रदान करने मे इनका बहुत बड़ा योगदान माना जा सकता है। हरियाणा साहित्यिक क्षेत्र मे ‘‘संगीताचार्य” के नाम से जाने वाले लोककवि प. राजेराम से सवाल-जवाब कर रहे हैं स्वयं हरियाणवी साहित्य संग्रह में निरंतर प्रयासरत रहने और दबे साहित्य को उजागर करने वाले सन्दीप कौशिक-

पेश है दोनों के बीच 2010 में सम्पन्न हुई, ये बातचीत…

सन्दीप कौशिक: विशेष तौर पर सबसे पहले कृपया आप अपने जन्मदिन, जन्म स्थान, कर्म भूमि एवं बचपन के बारे में कुछ बताएं?

प. राजेराम: मेरा जन्म 01 जनवरी, सन 1950 ई0 (वार-रविवार, तिथि-त्रयोदशी, मास-पोष, शुक्ल पक्ष- बदी, विक्रम-संवत 2006) को गांव- लोहारी जाटू, जिला- भिवानी (हरियाणा) के एक मध्यम वर्गीय ‘गौड़ ब्राह्मण परिवार’ मे हुआ। बचपन में हम हाली पाली रहते हुये कृषि कार्य के साथ साथ गाव-गुहांड में मेले-ठेले व सांग आदि देखते थे।

सन्दीप कौशिक: आपके माता-पिता का नाम व उनका व्यसाय?

प. राजेराम: मेरे पिता का नाम पं. तेजराम शर्मा व माता का नाम ज्ञान देवी था, जो प्रारंभ से ही खेती बाड़ी किया करते थे।

सन्दीप कौशिक: आपको कर्णरस व गीत श्रवण की ललक कब और कैसे लगी?

प. राजेराम: जब मैं कुछ पढने योग्य हुआ तो कुछ समय स्कुल मे भेजकर, बाद मे मुझे पशुचारण का कार्य सौंपा गया, परन्तु गीत-संगीत की लालसा मुझमे बचपन से ही थी। इसलिए ग्वालों-पाळियों के साथ-साथ घूमते हुए, उनके मुखाश्रित से हुए गीतों की पंक्तियों को गुन-गुनाकर समय यापन करता रहता था। उसके बाद 10-12 वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते मुझे कर्णरस एवं गीत श्रवण की ऐसी ललक लगी कि अपने गाँव और आसपास की तो बात ही क्या, मै कोसों-मीलों दूर जाकर भी सांगी-भजनियों के कर्ण-रस द्वारा उनके कंठित भावों के आनंद को अपने अन्दर समाहित करता रहा।

सन्दीप कौशिक: आपको कर्णरस व गीत श्रवण की लालसा को कब और कैसे पूरी करते थे अर्थात इस प्यास को बुझाने हेतु आप क्या-क्या शतरंजी चाल चलते थे?

प. राजेराम: फिर उम्र बढ़ने के साथ-साथ सांग के प्रति मेरी आसक्त भावना मे इस प्रकार वृद्धि हुई कि सांग देखने के लिए बिना बताएं और कभी-कभी लड़-झगड़कर, कई-कई दिनों तक घर से गायब रहने लगा।

सन्दीप कौशिक: आपके जीवन मे इस नये अध्याय के अंकुर कब, कहाँ और कैसे अंकुरित हुए अर्थात साहित्यिक रूचि कैसे बनी?

प. राजेराम: इन्ही दिनों फिर मेरे जीवन मे एक नए अध्याय के अंकुर अंकुरित हुए। सौभाग्य एवं सयोंगवश मैं 14 वर्ष की किशोरावस्था मे सन 1964 मे एक दिन सुबह-सुबह ही घर से बिना बताये, सुर्यकवि पंडित लख्मीचंद के परम शिष्य सुप्रसिद्ध सांगी पंडित मांगेराम का सांग सुनने के लिए गाँव-पांणछी, जिला-सोनीपत (हरियाणा) मे ही पहुँच गया, क्यूंकि बचपन से ही गाने-बजाने के शौक के कारण मैं पंडित मांगेराम जी के सांगों को सुनने का बड़ा दीवाना था। जिसका जिक्र मैंने मेरे दवारा रचित सांग ‘कृष्ण-लीला’ मे भी कुछ इस प्रकार किया है-

म्हारे घरक्यां तै होई लड़ाई, चाल्या उठ सबेरी मै,
सन् 64 मै मिल्या पांणछी, मांगेराम दुहफेरी मै,
न्यूं बोल्या तनै ज्ञान सिखाऊ, रहै पार्टी मेरी मै,
तड़कै-परसूं सांग करण नै, चाला खाण्डा-सेहरी मै,
राजेराम सीख मामुली, जिब तै गाणा लिया मनै।।
(सांग:11 ‘कृष्ण-लीला’ अनु.-13)

सन्दीप कौशिक: उनके सरस्वतीमयि कंठमाधुर्य ने आपकी किशोरावस्था को किस प्रकार झंकझोर कर दिया और उनकी कौनसी विशेषता ने आपको लालायित कर दिया?

प. राजेराम: बचपन से ही गाने-बजाने चाव एवं लगाव के कारण उस समय के सुप्रसिद्द सांगी पंडित मांगेराम जी के प्रति आकर्षित होना स्वाभाविक था। फिर उस दिन पंडित मांगेराम जी ने सांग-मंचन करते हुए उनके सरस्वतिमयी कंठ-माधुर्य ने मुझ किशोरायु अबोध का ऐसा मन मोह लिया कि वहीँ पर मैंने पंडित मांगेराम जी को अपना गुरु धारण करके उसी समय उनके सांग बेड़े मे शामिल हो गया।

मांगेराम पाणछी मै रहै, था यो गाम सुसाणा,
कहै राजेराम गुरू हामनै, बीस के साल मै मान्या,
सराहना सुणकै नै छंद की, खटक लागी बेड़े-बंद की,
लख्मीचंद की प्रणाली का, इम्तिहान हो गया ।।
(सांग:3 ‘चमन ऋषि-सुकन्या’ अनु.-24)

सन्दीप कौशिक: आपने अपनी सतत साधना व आत्मीय पिपासा को किस प्रकार संतुष्ट किया और कितने दिन मे आप संतुष्टि की चरम सीमा को छू गए?

प. राजेराम: फिर एक-दो दिन के बाद मैं वहीँ से गुरु मांगेराम के साथ प्रथम बार उनके सांगी-बेड़े मे शामिल होकर, गाँव खाण्डा-सेहरी मे सांग मंचन के लिए चला गया। उस दिन के बाद फिर गुरु मांगेराम ने मेरी उम्र के लिहाज से उस ईश्वर की दी हुई स्मरण शक्ति एंव मेरी सांगीत कला को परखते हुए, उन्होंने मुझे अपनी गुरु कृपा से बहुत जल्द ही इस साहित्यिक कला मे निपुण कर दिया।
फिर मै गुरु मांगेराम की इस बहुत ही सहजता एवं कोमल हर्दयता को देखकर अपनी गीत-संगीत की प्यास को बुझाने हेतु गुरु मांगेराम जी के साथ ही रहने लगा। उसके बाद मैंने 6 महीने तक निरंतर पूरी निष्ठां एवं श्रद्धा से गुरु की सेवा करके गायन-कला मे प्रवीण होकर ही अपनी इस सतत साधना और संगीत की आत्मीय पिपासा को पूरा किया।

राजेराम उम्र का बाला, मिलग्या गुरू पाणछी आला,
ताला दिया ज्ञान का खोल, किया मन का दूर अंधेरा सै,
ज्ञान की लेरया चाबी री।।
(सांग:-15 ‘पिंगला-भरथरी’ अनु.-5)

सन्दीप कौशिक: फिर संगीत की आत्मीय पिपासा पूरी करने के बाद प. मांगेराम जी के बेड़े मे कब तक रहे और उसके बाद अपनी पार्टी कब बनायीं और कब तक चलायी?

प. राजेराम: फिर गुरु मांगेराम के सत्संग से मैं बाद मे अपनी संगीत, गायन, वादन और अभिनय कला मे धीरे धीरे पारंगत होता गया। इस प्रकार मैंने लगभग 6 महीने तक गुरु मांगेराम के संगीत-बेड़े में रहा। उसके बाद प्रथम बार मैंने ये भजन पार्टी सन् 1977-78 ई0 से 1980-81 तक लगभग 4-5 वर्ष रखी।

कर्जा उधार लिया, देणा मूल ब्याज करके,
देणै कै बख्त रोवै, पिछ्तावा नाजाज करके,
राजेराम लुहारी आला, गावै अपणा साज करके,
रोवै टक्कर मार जणू, साहुकार जा लिकड़ दिवाले।।
(सांग: 7 ‘सत्यवान-सावित्री’ अनु.-28)

संदीप कौशिक:- आपके संगीताचार्य के तौर पर पूछना चाहूंगा कि आपने कौनसे कौनसे वाद्य यंत्र बजाना जानते है और पहले मुख्य साजबाज क्या क्या था।

पँ राजेराम:- ……………..

संदीप कौशिक:- आपने जिन जिन कवियों, सांगियों व गायकों को देखा व सुना, कृपया उनकी कुछ मुख्य विशेषता बताने का कष्ट करें।

पँ राजेराम:- ……………..

संदीप कौशिक:- आपके गुरु की प्रणाली के बारे में ज्यादा से ज्यादा बताने का कष्ट करें क्योंकि ये प्रणाली सबसे ज्यादा प्रभावी रही हैं, जैसे गुरु के शिष्य और आपके साथ कौन कौन शिष्य रहे।

पँ राजेराम:- ……………..

सन्दीप कौशिक: आपके साहित्यिक लेखन या मंचन मे कोई पारिवारिक परिस्थितियों का बोझ व पारिवारिक सदस्यों का अटकाव कभी जीवन मे रोड़ा बना और जिसने आपका साहित्यिक लेखन या गायन का संतुलन बिगाड़ दिया हो?

प. राजेराम: वैसे तो आपने ये बात पूछकर मेरी अंतरात्मा मे एक बार फिर दर्द भरी दास्ताँ के प्रति दोहराव का कार्य करवा दिया, आशा है कि आप ये बात अपने तक ही सिमित रखकर अपने कर्तव्य की ओर ही अग्रसर रहेंगे, फिर भी मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि मैंने समय को बलवान मानते हुए पारिवारिक परिस्थितियों के बोझ तले दबकर किसी निजी कारणवश अपनी भजन-पार्टी को छोड़ गया, परन्तु साहित्य सृजन का कार्य शुरू रखा, जिसकों मैंने इस कार्य को आज तक विराम नहीं दिया।

सन्दीप कौशिक: वैसे मैंने आपकी इस विशेषता के बारे मे सुना भी है और स्वयं साक्ष्य भी बारम्बार देखे है कि आपको अपने सम्पूर्ण रचित साहित्य या सांगीतों मे से किसी भी रचना को किसी भी समय अपने मुखारविंद द्वारा बिना किसी बाधा के उसका सार सार ग्रहण करवा सकते है। आपकी इस स्मरण शक्ति व जबरदस्त मजबूती पकड़ वाली प्रतिभा के बारे मे क्या बताना चाहेंगे?

प. राजेराम: देखिये बेटा! मैं स्वयं तो ये बात नहीं कहना चाहूँगा क्यूंकि….

अपणे मुहं तै करै बड़ाई, माणस छोटा होया करै,
चतुर से लड़ना भला, मुर्ख तै मेल मै टोटा होया करै,
मतलब कारण झुठ बोलदे, वो माणस खोटा होया करै,
मोह का जाल भ्रम की फांसी, न्यूं गल-घोंटा होया करै,
माया गेल फिरै चक्र मै, देख जमाना लिया मनै।।

लेकिन मुझे मेरी इस स्मरण शक्ति ने न तो आज तक कभी धोखा दिया है और न ही ये कभी कम हुई, इसलिए मुझे दृढ विश्वास है कि उस माँ सरस्वती की ये देंन शायद आगे भी मंद नहीं पड़ेगी, माँ भगवती की कृपा व उस प्रभु के आशीर्वाद से इसी आत्मीय बल और स्मरण शक्ति के कारण ही ये गृहस्थ जीवन मे अपार जिम्मेदारियों के साथ व्यस्त होकर भी एक साधारण मनुष्य का जीवनयापन करते हुए, इस साहित्यिक यात्रा पर अपने कदम बढ़ा पाया।

सन्दीप कौशिक: मेरे विचार से izsj.kk और mRlkg euq”; ds gkFk esa os gfFk;kj gS, ftuds lgkjs euq”; vius y{; dks izkIr dj ldrk gS और सभी जानते है कि अधिकतर izsj.kk :ih ;s हथियार ckgj से ही feyrs हैA इसलिए साहित्य रचना की प्रेरणा व प्रभाव के बारे मे अपनी साक्ष्य रूपी पंक्तियों के साथ आप अपने इस सौभाग्य के बारे मे क्या कहना चाहेंगे?

प. राजेराम: निःसंदेह ही आपका ये विचार उचित व उत्तम है क्यूंकि ये प्रेरणा व उत्साह रूपी हथियार ही सर्वप्रथम किसी कला को उभारने मे सक्ष्म करते है और प्रेरणा व उत्साह रूपी हथियार किसी कलाकार की जन्मजात प्रतिभा से भी ज्यादा प्रभावशाली व प्रतिभावान होते है। अतः प्रेरणा ही एक मनुष्य के जीवन का आधार होती है अर्थात सम्पूर्ण जीवन की नीवं ही जीवन मे प्राप्त प्रेरणा पर टिकी हुई होती है।

चौबीसी के साल, बणी रागणी तमाम,
गाम हमारा लुहारी सै, जमीदारा काम,
पांणछी सै पुर कै धोरै, गुरू जी का धाम,
अवधपुरी का राजा सूं, शर्याति मेरा नाम,
कहै राजेराम माफ करदे, सुकन्या दूंगा ब्याह।।
(सांग:3 ‘चमन ऋषि-सुकन्या’ अनु.-8)

सन्दीप कौशिक: साहित्य ys[ku व मंचन dh dyk आपकी प्रणाली esa gh fo|eku Fkh] cl ftls पवित्र, प्रेरणादायक, और प्रभावशाली शीतल gok ds ,d >ksads dh t:jr Fkh vkSj oks >ksadk fn;k, सन 1964 मे आपके गुरु श्रेष्ठ प्रसिद्ध सांगी कवि शिरोमणि प. मांगेराम जी usA इस प्रेरणा रूपी झोंके का उल्लेख आपने अपनी रचनाओं मे कैसे उद्घाटित किया है?

प. राजेराम:
राजेराम झंग झोया, मांगेराम पाणछी टोह्या,
होया सांगी बड़ा मशहूर, मिल्या था 64 के सन् मै,
गौड़ ब्राहमण जात मै।।
(सांग:13 ‘सरवर-नीर’ अनु.-5)

मांगेराम पाणछी मै रहै, था यो गाम सुसाणा,
कहै राजेराम गुरू हामनै, बीस के साल मै माना,
सराहना सुणकै नै छंद की, खटक लागी बेड़े-बंद की,
लख्मीचंद की प्रणाली का, इम्तिहान हो गया।।
(सांग:3 ‘चमन ऋषि-सुकन्या’ अनु.-24)

सन्दीप कौशिक: अतः कहते है कि izR;sd euq”; esa dksbZ u dksbZ #fp अवश्य gksrh gS tks fd mls viuk le; O;rhr djus esa lgk;rk djrh gSA इसलिए lkfgR; सृजन पंडित राजेराम की eq[; #fp मे शुमार gSA वैसे तो उनकी ये रूचि उनके स्वरचित सम्पूर्ण हरियाणवी लोक साहित्य / स्वरचित ग्रंथावली मे देख सकते है, उसके बावजूद भी हम उनकी साहित्य के रूप मे मुख्य रूचि की कुछ निम्नलिखित भिन्न-भिन्न रचनाओं की कुछ पंक्तियाँ आपके समक्ष रखना चाहेंगे, जो इस प्रकार है-

मानसिंह तै बुझ लिये, औरत सूं हरियाणे आली,
लख्मीचंद तै बुझ लिये, गाणे और बजाणे आली,
मांगेराम तै बुझ लिये, गंगा जी म्य नहाणे आली,
भिवानी जिला तसील बुवाणी, लुहारी सै गाम मेरा,
कवियां मै संगीताचार्य, यो साथी राजेराम मेरा,
मै राजा की राजकुमारी, सुकन्या सै नाम मेरा,
कन्या शुद्ध शरीर सूं, च्यवन ऋषि की गैल, ब्याही भृंगु खानदान मै।।
(सांग:3 ‘चमन ऋषि-सुकन्या’ अनु.-14)

मानसिंह नै सुमरी देबी, धरणे तै सिखाए छंद,
लखमीचंद नै सुमरी देबी, सांगी होये बेड़े-बंद,
मांगेराम नै सुमरी देबी, काट दिए दुख के फंद,
या शक्ति परमजोत, करूणा के धाम की,
बेद नै बड़ाई गाई, न्यूं देबी तेरे नाम की,
राखदे सभा मै लाज, सेवक राजेराम की,
शुद्ध बोलिए वाणी री, सबनै मानी शेरावाली री।।
(काव्य विविधा: अनु.-2)

सन्दीप कौशिक: गुरु यानी शिक्षक की महिमा अपार है। उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता, क्यूंकि माता-पिता तो हमारे जन्म के साथी है, न की कर्म के साथी, क्यूंकि आपके दादा गुरु प. लख्मीचंद जी ने भी अपनी पंक्तियों मे कितना सटीक कहाँ है-

पणमेशर नै दिवा दिया धन, जो कुछ खो राख्‍या था, बालकपण मैं दया लई, क्‍यूंके सब दुख रो राख्‍या था, मानसिंह सतगुरू के आगै, न्‍यूं जंग झो राख्‍या था, लखमीचन्‍द तू काट लिये, तनै जो कुछ बो राख्‍या था, काटण खातिर खेत बता दिया, दे दी ज्ञान दरांती,
सतगुरु ज्ञान विचार बिन्या, कोए बणता नहीं हिमाती।
मात-पिता हो जन्म देण के, नहीं कर्मा के साथी।।

संगीताचार्य जी, वास्तव मे हमारे सही हिमाती तो सदगुरू ही है, जो हमारी ज्ञान ज्योति को प्रज्वलित करते है। वेद, पुराण, उपनिषद, गीता, कवि, सन्त, मुनि आदि सब गुरु की अपार महिमा का बखान करते हैं। इसलिए उपरोक्त सभी ने गुरु की समता को बारम्बार स्थापित किया है, इसलिए आप अपनी पंक्तियों के साथ गुरु की समता तो किस प्रकार स्थापित करेंगे?

प. राजेराम:
मांगेराम गुरु का पाणंछी, ल्यूं धाम समझ कांशी मै,
देख्या भाला कृष्ण-काला, तेरा श्याम ब्रजबासी मै,
छः चक्र, दस दिशा बताई, एक माणस की राशि मै,
राजेराम नै जोड़ रागनी, गाई सन् छ्यासी मै,
लख्मीचंद की प्रणाली कै, गावण का सिर-सेहरा।।
(काव्य विविधा: अनु.-11)

या लख्मीचंद की जांटी देखी, आके दुनियादारी मै,
फेर उड़ै तै गया पाणंछी, बैठके मोटर-लारी मै,
वा जगाह ध्यान मै आई कोन्या, देख्या सांग दोह्फारी मै,
राजेराम घूमके सारै, फेर आया गाम लुहारी मै,
मनै सारै टोह्या किते पाया, मांगेराम जिसा गुरु नहीं।।
(सांग:17 ‘बाबा-जगन्नाथ’ अनु.-7)

प. राजेराम: हरियाणा के सभी सांगी, कवि, या रचनाकार गुरु-वन्दना से ही अपनी कला-कृतियों का प्रदर्शन प्रारंभ करते हैA इसलिए मैंने भी पदे-पदे गुरु को स्मरण किया हैA मैंने अपने लोक साहित्य मे गुरु भक्ति को इस प्रकार सर्वश्रेष्ठ दर्शाने की कौशिश की है कि जैसे नदियों मे गंगा, मंत्रो मे गायत्री मंत्र, पक्षियों मे बाज, पशुओं मे शेर, फूलों मे पुष्पराज गुलाब, फलों मे आम, आदि को श्रेष्ठ माना जाता है। अतः अगर गुरु की समता का कोई पर्यायवाची शब्द है तो वो है भगवान, अन्यथा कोई ऐसा शब्दकोष नहीं जिसमे ‘गुरु-समता’ शब्द की अन्य कोई शब्दोत्पति हुई हो। इसलिए मैंने गुरु की श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए मेरे साक्ष्यार्थ सांगों की निम्नलिखित भिन्न-भिन्न पंक्तियों मे गुरु श्रेष्ठता को प्रस्तुत करने की बारम्बार पुरजोर कौशिश की है, जो इस प्रकार है-

राजेराम क्वाली, गावै तर्ज निराली,
गुरू मांगेराम रूखाली, लख्मीचंद की प्रणाली,
ब्रहमज्ञान धरया, शीश पै सेहरा सै,
होग्या दिल मै दूर, जो मेरा अंधेरा सै।।
(सांग:11 ‘कृष्ण-लीला’ अनु.-10)

सोनीपत की तरफ ननेरे तै, एक रेल सवारी जा सै,
जांटी-पाणची म्हारे गुरू की, मोटर-लारी जा सै,
दिल्ली-रोहतक भिवानी तै, हांसी रोड़ लुहारी जा सै,
पटवार मोहल्ला तीन गाल, अड्डे तै न्यारी जा सै,
राजेराम ब्राहम्ण कुल मै, बुझ लिए घर-डेरा।।
(सांग:5 ‘कंवर निहालदे-नर सुल्तान’ अनु.-29)

अतः पंडित राजेराम अपने गुरु के प्रति बहुत ही श्रद्धान्वित है और उन्होंने अपने सामाजिक जीवन एवं साहित्यिक जीवन दोनों मे ही ‘गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः’ के प्रमुख मंत्र को जगह-जगह प्रतिष्ठापित किया है। वे अपने काव्य के अन्दर तो समय-समय पर अपने गुरु को श्रद्धा-सुमन समर्पित करने से नहीं चूकते है। उन्होंने अपने अन्तर्मन की भावना को काव्य के अन्दर इस प्रकार अभिव्यक्त किया है- कि

मानसिंह कै हर्दय बस्या, सच्चा भगवान बणकै
लख्मीचंद कै हर्दय बस्या, सच्चा ब्रह्मज्ञान बणकै,
मांगेराम कै हर्दय बस्या, साधु पहुंचवान बणकै,
लुहारी मै रहया बाबा, दर्शन देंगे जगन्नाथ,
मिरगिरी नाम पडय़ा, गौड़ सै ब्राहम्ण जात,
ब्रह्मरूप अग्नि मुख, कंठ पै सरस्वती मात,
राजेराम सिकंदरपुर मै, जाकै डेरा लाया।।
(सांग:19 ‘मीरगिरी महाराज’ अनु.-1)

मानसिंह नै दया-धर्म का बेरा, लख्मीचंद नै ल्हाज-शर्म का बेरा,
गुरू मांगेराम नै म्हारे मर्म का बेरा, राजेराम ना तनै ब्रह्म का बेरा,
तनै ब्रह्म सताया, बणकै अत्याचारी,
के मिलग्या रे! कंस तनै अहंकारी,
मेरे फिरते जी पै, चोट कसूती मारी।।
(सांग:10 ‘कृष्ण-जन्म’ अनु.-27)

सन्दीप कौशिक: मैं पूर्णतया ये तो नहीं कहूँगा की मैंने आपके साहित्य का कोई अंग अछूता न छोड़ा हो, लेकिन मैंने साहित्यिक रूचि के वशीभूत होकर आपके साहित्यिक जीवन के परिवेश को जानने हेतु आपकी साहित्यिक ज्ञान गंगा मे बारम्बार गोते लगाकर एक पुरजोर कौशिश की तो उसमे पाया कि आपके साहित्यिक समागम मे आपने किसी भी पहलु को अनछुऐ नहीं छोड़ा। जिसमे पौराणिक संदर्भ या शास्त्र मंथन, प्रकृति चित्रण, संवाद योजना, बहरे तवीलो सहित विविध धुन व स्वतः निर्मित तर्जे, विविध शब्दावली व भाषा विविधता, छंद योजना मे दोहा, काफिया, सवैया, चौबोला, गजल, अलंकृत पंक्तियाँ, सर्व रस प्रधानता, नारी सशक्तिकरण, त्रिया चलित्र, भौगोलिक व खगोलशास्त्र द्रष्टिकोण, अध्यात्म, प्रमाणिकता, धर्म, नीति शास्त्र, गंगा महिमा, संतवाणी, संगीताचार्य दृष्टिकोण- जो सबसे ज्यादा प्रभावी महसूस हुआ। इसलिए मैं इस विविधतम साहित्य समावेश पर आशिक होकर तथा इस विशाल व विविध साहित्य सागर मे डूबते हुए सामाजिक पर्यावरण से ऊपर उठकर, आपके मुखारविंद द्वारा आपके साहित्य की बारिश मे एक बार फिर भीगना चाहता हूँ। आशा है कि आप मुझे निराश न करते हुए, इस विविधतम साहित्य की विविध रूप से कुछ पंक्तियों द्वारा यहाँ बखान करेंगे?

प.राजेराम:
बूआँ की बेटी बहाण चचेरी, सगी बहाण मां जाई,
चौथी बहाण गुरूं की बेटी, बेदों नै भी गाई,
यार की पत्नी बहाण धर्म की, साली ठीक बताई,
तेरा बेटा सै बालकपण का, मेरा यार धर्म का भाई,
सेठ तेरे बेटे की बोढ़िया नै, सोचूं बहाण मै।।
(सांग:15 ‘पिंगला-भरथरी’ अनु.-18)
9 दरवाजे 10 ढयोढ़ी, ये बैठे 4 रुखाली,
20 मिले, 32 खिले फूल, 100 थी झुलण आली,
खिलरे बाग़ चमेली-चम्पा, नहीं चमन का माली,
बहु पुरंजनी गैल सखी, दश बोली जीजा साली,
शर्म का मारया बोल्या कोन्या, रिश्तेदारी करके।।
(सांग:1 ‘महात्मा बुद्ध’ अनु.-12)
सामण का महिना बेबे, उठै सै बदन म्य लोर,
बिजली चौगरदै खेवै, काली घटा घन-घोर,
तीजा का त्यौहार झुलै, बाकी झूलण आवै और,
बेल-फूल लता-पात, फलों से झुकी थी डाल,
अबंर घटा टोक दिखै, तीतरपंखी बादल चाल,
कोए-2 फूंहार पड़ै, सीळी-सीळी चालै बाल,
रूत बरसण आली।।
(सांग:5 ‘कंवर निहालदे-नर सुल्तान’ अनु.-10)

भरथरी- सांझी तन का तेरे मन का, कौणसा ख्याल जता राणी,
करती नखरे नाज आज, के होगी कोए खता राणी,
सै फिका चेहरा क्यूं तेरा, मनै बेरा नहीं बता राणी,
पिंगला- बिछड़या कृष्ण राधे प्रसन्न, कोन्या दर्शन करे बिना,
झगड़े-टण्टे चौबीस घण्टे, मै उमण-धुमणी तेरे बिना,
बदन फूल सा मुर्झाया, ना छाया दरखत हरे बिना,
(सांग:15 ‘पिंगला-भरथरी’ अनु.-10)

तेरे केश पकड़कै, बोल्या कंस अकड़कै, काटू शीश जकड़कै, निकालूंगा दम,
जब आवै सबर, पटज्या सबको खबर, तूझे मारूं जबर, आज बणकै नै जमं।।
(सांग:10 ‘कृष्ण-जन्म’ अनु.-13)

बादशाह आलम, जहांपना मुगलेआज़म, मुजरा करूंगी सलावालेकम,
मेरी दुहाई, सुणो पनाह इलाही, नृत करने आई, मै चाहती हुकम।।
(सांग:14 ‘चापसिंह-सोमवती’ अनु.-31)

हूर पद्मनी चित्र सुशीला, सुंदर सै घणी श्यान की,
हजरत पनाह बादशाह मोहे, बेगम हिन्दुस्तान की,
न्यूं बोले मांग इनाम, कितै आई नहीं बताई, कौण नगर घर-गाम।।
(सांग:14 ‘चापसिंह-सोमवती’ अनु.-30)

रणसिंहा, वायलिन, तमूरा, बिगूल और गिटार,
सारंगी, हारमोनियम, शहनाई, विणा, सितार,
इकतारा, दूतारा, बीण, बासंली मै सुर की मार,
तबला और नगाड़ा, ढोलक, पखावज और मृदंग,
डमरू, ढप, खड़ताल, ताशा और मंजीरा चंग,
शंख, तुर्री, घड़रावल, बजावण का जाणु ढंग,
पत्थर का पाणी पिंघलके, मिलकै गाऊं साज के तार मै।।
(सांग:14 ‘चापसिंह-सोमवती’ अनु.-29)

56 हजार लाख योजन, पृथ्वी से चांद बताया,
चंद्रमा से तीन लाख योजन, यो सूर्य कहलाया,
सूर्य से 13 लाख योजन, ध्रुवलोक परमपद पाया,
1700 योजन परमलोक, ब्रहमा नै जगत रचाया,
आसमान का अंत फेर भी, लिख्या नहीं प्रमाण मै।।
(सांग:3 ‘चमन ऋषि-सुकन्या’ अनु.-20)

राजेराम कहै जति-सती का, धर्म बराबर हो सै,
हंस नै ताल गऊं नै बछड़ा, इसा बांझ नै पुत्र हो सै,
सर्प नै बम्बी, पक्षी नै आल्हणा, इसा गृहस्थी नै घर हो सै,
धनमाया संतान-स्त्री, माणस की पर हो सै,
बुढ़ा माणस ब्याह करवाले, बण्या फिरै घरबारी।।
(सांग:6 ‘सारंगापरी’ अनु.-17)

तप मेरा शरीर, तप मेरी बुद्धि, तप से अन्न भोग किया करूं,
तप से सोऊं, तप से जागू, तप से खाया-पिया करूं,
तप से प्रसन्न होके दर्शन, भगतजनों नै दिया करूं,
मै अलख-निरंजन अंतरयामी, तप कै सहारै जिया करूं,
तप से परमजोत अराधना, तप से बंधू वचन के म्हां।।

तप मेरा रूप, तप मेरी भगती, तप तै सत अजमाया करूं,
तप मेरा योग, तप मेरी माया, तप तै खेल खिलाया करूं,
कोए तपै मार मन इन्द्री जीतै, जिब टोहे तै पाया करूं,
मै ब्रहमा, मै विष्णु, तप से मै शिवजी कहलाया करूं,
निराकार-साकार तप तै, व्यापक जड़-चेतन के म्हा।।
(काव्य विविधा: अनु.-4)

मदनावत तै बिछड़ गया, हटके रोहताश मिल्या था,
मात पोलमा तै शुक्राचार्य, आके पास मिल्या था,
परसुराम रेणुका की सुणके, अर्दाश मिल्या था,
सत्यवती नै याद करया, बेदब्यास मिल्या था,
बणकै राम का दास मिल्या था, अंजनी नै हनुमान।।
(सांग:5 ‘कवर निहालदे-नर सुल्तान’ अनु.-4)

पहली माता जन्म देण की, दूजी सांस बता राखी,
तीजी माता गुरू की पत्नी, न्यूं वेदां नै गा राखी,
चौथी कहैं सै राजमाता, जो राजा के संग ब्याह राखी,
पृथ्वी मात पांचवी जिसपै, सकल जहान रचा राखी,
अग्न-पवन जल-गगन साक्षी, सूर्य-चांद करै उजियाला।।
(सांग:2 ‘श्री गंगामाई’ अनु.-24)

भादुआ-आसोज गया दशहेरा, कातक कोतक करै भतेरा,
मेरै मंगसर-पोह की चास, मांह की बसंत पंचमी खास,
गए छोड हंसणी नै हांस, ये उडारी लेगे गगन म्य,
जिसका कंथ रहै ना पास, कामनी रहती रोज उदास।
छः रूत बारा मास, बिचारी दुखिया मन मै।।
(सांग:16 ‘गोपीचंद-भरथरी’ अनु.-26)

सन्दीप कौशिक: प्रारंभिक शिक्षा की कुछ यादें, उस समय शैक्षिक वातारण कैसा था?

प.राजेराम: शिक्षा की तो कोई ख़ास स्मृतियाँ नहीं है क्यूंकि निरक्षरता के उस दौर मे बड़ी मुश्किल से दूसरी-तीसरी कक्षा तक कभी-कभी ही स्कूल/मदरसे मे गऐ। वैसे शैक्षिकता का पैमाना उस समय मध्य स्तर को भी पार नहीं कर पाया था, अतः दुर्भाग्यवश उच्चतम शिक्षा मेरे नसीब से कोसो दूर ही थी।

सन्दीप कौशिक: आप अपने प्रारम्भिक रचना कर्म में प्रवृत होने के लिये किन बातों, परिस्थितियों या व्यक्तियों को श्रेय देना चाहेंगे?

प. राजेराम: समय यापन के लिए मनोरंजन की रोचकता और कर्णरस घुंटने की लालसा हेतु, निरंतर प्रयास का कर्म ही प्रारंभिक रचनावृत का दावेदार होता है और फिर रचनावृत के उत्साहदेय मे प्रारंभ से अंत तक का श्रेयी गुरु जी है।

सन्दीप कौशिक: शुरूआती समय में किन की रागनियों एवं लोकनाट्यकारो ने आपको ज्यादा प्रभावित किया?

प. राजेराम: प. लख्मीचंद व प. मांगेराम

सन्दीप कौशिक: पहली रचना किस उम्र में और कौन सी लिखी, कुछ बताएं?

प. राजेराम: मैंने पाळी रहते हुये पहली रचना 11 साल की उम्र मे हीर-रांझे सांग की फुटकड़ रचना के रूप मे लिखी और सभी पालियों के बीच सुनाई, जो इस प्रकार है-

ईश्क-मोहब्बत भी तोड़के जा, हीर तनै एकला छोड़के जा,
सदा की संग रहणे आली, हो रांझे पाली।। टेक ।।

सन्दीप कौशिक: वर्तमान समय में जो लोग रागनी लिख रहे हैं या गा रहे हैं, उनके काम से क्या आप संतुष्ट है?

प. राजेराम: हाँ मै बिल्कुल संतुष्ट हूँ, इस पारम्परिक विधा के संरक्षण के प्रति अगर इनका उद्देश्य अश्लीलता व फूहड़ता से भिन्न है तो इस विरले साहित्यिक कर्म के लिए सहर्द्य से बधाई भी देना चाहूँगा क्यूंकि इस सांस्कृतिक विधा की जड़ो को शाखाओं व फूल-पत्तियों मे बदलने का मुख्य कार्य यही करेंगे बाकी इस सांग विधा की सांस्कृतिक जड़ो को सिंचना तो अगली पीढ़ी व श्रोताओं का काम है।

सन्दीप कौशिक: लगभग कितने किस्से एंव रागनियां आप द्वारा रचित हैं?

प. राजेराम: वैसे तो बहुत सी रचनाये काल के भेंट मे चढ़ गयी क्यूंकि परिस्थितियों के बोझ तले किसी भी कवि के साहित्य का दबना हर कवि का दुर्भाग्य होता है, जिससे शायद ही कोई साहित्यकार बच पाया हो।

टेम टेम की बात, टेम कै गैल पुराणी हो सै।
टेम घडी ना टलै, समो तै आणी-जाणी हो सै।।

लेकिन अभी फ़िलहाल 19 सांगीत व असंख्य फुटकड़ भजन ही है, जो आपने ही संकलित किये है।

सन्दीप कौशिक: भविष्य में आप अपनी किस साहित्यिक योजना को प्रारूप देने की इच्छा मन में रखते हैं?

प. राजेराम: भविष्य पर तो इन्सान क्या भरोसा करेगा क्यूंकि दादा गुरु प. लख्मीचंद के अनुसार-

अपरम्पार तेरी माया सै, के करदे एक छन म्य।
मन की सोची बणती कोन्या, जो माणस के मन म्य।।

मगर फिर भी माँ सरस्वती व ग्रामदेव बाबा जगन्नाथ का आशीर्वाद रहा तो हो सकता है अब तक जो लिखा, उसका दूसरा-तीसरा हिस्सा और लिख सकूँ।

सन्दीप कौशिक: वर्तमान परिदृश्य में रागनी का भविष्य क्या देखते हैं आप?

प.राजेराम: देखिये! प्रकृति व सृष्टि के परिवर्तन को स्वीकार करना पड़ेगा, आज नहीं तो कल, अगर परिवर्तन रुक गया तो ब्रहमांड चक्र भी रुक जाएगा क्यूंकि अगर ये परिवर्तन रोकना मृतलोक के वासियों के हाथ मे होता तो इस परिवर्तन के 22वे-23वे चक्र को अबतक कौन घुमने देता। अतः रागनियों का जो अतीत था वो भी सही था, वर्तमान भी सही है और अगली पीढ़ी को हम क्या दे पाते है? वही रागनियों का भविष्य रहेगा।

कर्म इंद्री कर्म करण नै, इस काया म्य डोल रही,
ज्ञान इंद्री ज्ञान करण नै, तिकछिक बाणी बोल रही,
इंगला पीड़ा पिंगला नाड़ी, द्वार दशमा खोल रही,
सत का नर्जा नाम द्रष्टि, पाप-पुन्न को तोल रही,
बेद अनादि प्राचीन मूर्ति, कहै कर्म प्रधान तेरा।।

सन्दीप कौशिक: शायद आपने तो इस साज पे न गाया हो, लेकिन जो आज के रागनी कार्यक्रम या कॉम्पीटिशन मे जो प्रचलित व प्रभावित साज है, जो लगभग अस्सी के दशक में प्रभाव मे आया जिसे घड़वा-बैंजू साज के नाम से जानते है। क्या वर्तमान समय के प्रसिद्ध लोककवि व सांगी प. जगन्नाथ-समचाणा ने ही ये वाद्य के रूप में स्थापित कर पहचान दिलाई। क्या यही सच है?

प. राजेराम: वैसे तो घड़वा/मटका साज हाथ, पट्टी, चप्पल या अन्य उपयोगी वस्तु द्वारा हमारे बुजुर्ग अपने मनोरंजन हेतु गांव मे न बजाकर, फसल कटाई/लामणी के समय अक्सर खेतो मे ही बजाया करते थे क्यूंकि ऐसा काफी समय से प्रचलित था। लेकिन दोबारा से सही रूप मे अस्तित्व मे लाकर जनसामान्य तक स्थापित किया प. जगन्नाथ समचाणीया ने। जिस प्रकार सांग/भजनों मे दौड़/वार्ता/राधेश्याम तर्ज के सर्वप्रथम सृजीयन प. शम्भुदास सुनने में आया लेकिन उसको आम आदमी तक पूर्णतया स्थापित कर दोबारा अस्तित्व मे लाने कार्य गंधर्व कवि प. नन्दलाल ने किया जिसका कोई सानी नहीं है। ठीक इसी प्रकार इस साज को पुनः स्थापित करने मे प. जगन्नाथ का भी कोई सानी नहीं है। शायद भविष्य मे प. जगन्नाथ जी का ये प्रिय साज इस पारम्परिक सांग विधा के लिए जीवनदान बन जाए। जिसका लोगो ने उस समय मे काफी विरोध किया था क्यूंकि किसी परिवर्तन को स्वीकारना रुढ़िवादियों के लिए कभी आसान नहीं होता।

सन्दीप कौशिक: आपकी स्वयं की आवाज में तो नहीं सुनी, लेकिन सामान्य गवैयों द्वारा साध-संगत @ बाबा जगन्नाथ के भजन और आपकी एक सुप्रसिद्ध प्रचलित रागनी “चालै तो मेरी साथ म्य, तनै दुनिया की सैर कराऊँ” को हमने बचपन में कईं-कईं बार सुना है। अतः आपके और कौन-कौन से किस्से ज्यादा चर्चित रहे हैं?

प. राजेराम: वैसे मैंने जवान अवस्था के बाद मेरे कंठ से तो कम ही गाया जिसका कारण केवल आपको स्वतः ही मेरे द्वारा ज्ञात है लेकिन सृजन काफी किया है। जिसमे से कुछ मेरे नव सृजनात्मक और कुछ कम प्रचलित सांग रहे, जैसे- गंगामाई, सारंगापरी, नारद विषयमोहनी, महात्मा बुद्ध, चमन ऋषि सुकन्या व संतवाणी के रूप में बाबा जगन्नाथ, बाबा छोटूनाथ, बाबा मिरगिरी आदि।

सन्दीप कौशिक: पुराने समय का अगर जिक्र करे तो सांग विधा व रागनी कम्पीटीशनो की किसी समय पूरे हरियाणा में लहर थी। वर्तमान समय का आंकलन करे और भविष्य का अनुमान लगायें तो आज प्रदेश के कौन-कौन से विशेष क्षेत्रों मे इस विधा की ज्यादा प्रचलन की संभावनाएँ नजर आती है और क्यों?

प. राजेराम: अगर प्राचीनतम समय की ओर ध्यान आकर्षित करे तो ये पुरे हरियाणा, पंजाब, उतरप्रदेश तथा राजस्थान के अर्ध क्षेत्र तक फैली हुई विधा थी तथा इस विधा की धूम किसी समय तो भारत भर मे भी मची हुई थी। उसके बाद फिर सिमित क्षेत्रो मे आकर सिमट गयी जो आज भी कुछ विशेष क्षेत्रों मे ही कायम है, जैसे- हरियाणा या पुरे भारत मे अब सबसे ज्यादा छोटी कांशी भिवानी मे प्रचलन मे है क्यूंकि प्राचीन समय से ही ये सांगीयों व कवियों का सर्वोत्तम क्षेत्र रहा है, जिसके लिए साक्ष्यार्थों की भी जरुरत नहीं है। अतः ये असर आज भी भिवानी क्षेत्र मे साक्षात् ज्यों का त्यों दिखाई पड़ रहा है, उसके बाद रोहतक, हिसार, जींद, झज्जर, बहादुरगढ़ और राजधानी दिल्ली के समीपवर्ती क्षेत्रों मे भी काफी सक्रीय है। उसके बाद इस विधा का प्रचम अभी भी हरियाणा के निकटवर्ती प्रदेशों मे लहरा रहा है, जैसे- सबसे पहले दिल्ली, उतरप्रदेश, राजस्थान, पंजाब आदि और अगर भारतवर्ष या भारत से बहार की बात करे तो पाकिस्तान मे सबसे ज्यादा यह सांग विधा प्रचलित है, उसके बाद जहाँ-जहाँ हरियाणवी जनमानस भारत के अन्य क्षेत्रों मे रोजगार हेतु बसे हुए है, मुख्य रूप से हमारे ट्रांसपोर्टर भाई जहाँ है, वहां भी ये रागनी कम्पीटीशन काफी होते रहते है।
अगर वर्तमान के इस विधा के प्रचलित क्षेत्रों मध्य नजर रखकर भविष्य की और द्रष्टि फैलाई जाए तो इस विधा के प्रचलन की निरंतर संभावनाए हरियाणा के भिवानी क्षेत्र मे ही नजर पड़ती है क्यूंकि सबसे ज्यादा श्रोताओं का जमावड़ा इसी क्षेत्र मे दिखाई पड़ता है। इसी क्षेत्र मे बच्चे, बड़े, बुजुर्ग, महिलाएं आदि सभी श्रोता इस विधा के कर्णरस हेतुं भारी मात्रा मे एकत्रित होते है। उसके बाद रोहतक, हिसार, जींद, झज्जर व देश की राजधानी दिल्ली के निकटवर्ती क्षेत्रों मे भी अभी काफी सम्भावनाये बची है।

संदीप कौशिक: आपको इस विधा के किस-किस कवि या सांगी से मिलने, सुनने, देखने या साथ गाने का अवसर आपको मिल पाया?

प. राजेराम: प. मांगेराम, प. रामकिशन व्यास, राय धनपत, चन्द्र बादी व कुछ अन्य सांगी-सांग सर्जक।

दीपचंद, हरदेवा, बाजे, उनका भी घर-गाम देख्या,
फेर चल्या जा सिरसा-जांटी, धोरै जमना धाम देख्या,
लख्मीचंद नौटंकी, मीराबाई का यो बणाया सांग,
मांगेराम नै शिवजी-गौरा, ब्याही का बणाया सांग,
राजेराम नै भाई, इब गंगेमाई का बणाया सांग,
पास किया सरकार नै, कविता निराली, कैसी चक्र मै डाली।
खूब रची करतार नै, या दुनिया मतवाली, कैसी चक्र मै डाली ।। टेक ।।

संदीप कौशिक:- पँ जगन्नाथ, पँ तुलेराम व मास्टर सतबीर या अन्य कोई सांगी व गायक आपके समकालीन रहे है, उनके साथ हुई कोई बातचीत?

पँ राजेराम:- ………

संदीप कौशिक:- आकाशवाणी केंद्र से कोई नई रचना या सांग बनाने की फरमाइश हुई जब आप वहां जाते थे।

पँ राजेराम:- …..

सन्दीप कौशिक: हरियाणा सरकार ने आपको कुल कितनी बार सम्मानित किया है एवं सरकार के अलावा मिले अन्य सम्मानों के बारे में कुछ बताएं?

प. राजेराम: मुझको आकाशवाणी केंद्र रोहतक ने अनेको बार सम्मानित किया, जिसके एवज मे उन्होंने मेरा “गंगामाई सांग” का बारम्बार प्रसारण और उस समय तक किसी भी सांग की सबसे लम्बी अवधि “3.5” घंटे तक की रिकॉर्डिंग करना। आकाशवाणी केंद्र-रोहतक मे अनेको बार ‘हरियाणवी कविता पाठ’ के रूप मे आमंत्रित किया गया और अनुबंध-पत्र प्रदान करना तथा भेंटवार्ता के रूप मे कई बार साक्षात्कार भी लिया गयाA आकाशवाणी केंद्र रोहतक द्वारा आज भी कला के सम्मान के तौर पर मुख्य सरकारी अनुदान/सुविधाये प्रदान की जा रही है, जिसमें पेंशन/भत्ता, फ्री बस सेवा इत्यादि शामिल है।
वर्तमान समय के इस हरियाणवी संस्कृति व साहित्य के सबसे प्रभावित संरक्षक व मर्मज्ञ आई.ऐ.एस. ऑफिसर के.सी. शर्मा ने बारम्बार ईनाम देकर सर्वदा सम्मानित किया। वैसे तो कई बार अन्य संस्थाओं द्वारा भी पुरस्कृत किया गया, जिसमे पंजीकृत संस्था ‘म्हारी संस्कृति-म्हारा स्वाभिमान’ द्वारा ‘हरियाणवी संस्कृत रत्न’ से सम्मानित करना भी शामिल है।

सन्दीप कौशिक: अगर सोचा जाए तो कवि एवं रचनाकार की प्रत्येक रचना अतुल्य व अमूल्य होती है। फिर भी आपकी किसी रचना बारे मे हमें बताये, जिसे लोगों के अनुरोध पर वह बारम्बार गाई जाती हो?

प. राजेराम: मेरे “सरवर-नीर” सांग से 19 नंबर रचना “चालै तो मेरी साथ म्य, तनै दुनियां की सैर कराऊँ” सबसे ज्यादा प्रचलित व गाई जाती है।

सन्दीप कौशिक: एक रचनाकार, कवि सांगी के रूप मे कविता के रचनाकर्म को ध्यान मे रखते हुए, किन-किन नियमों के पालन बिना कविताई या सांगी की कोई अवेहलना? आज के होनहार कवियों को कोई विशेष परामर्श?

प. राजेराम: मैं समय अभाव और अनुचित स्थान पर यहाँ ज्यादा कुछ तो नहीं कहना चाहूँगा, फिर भी जिस कवि, सांगी, रागनी गायक को आत्मज्ञान व अनुभव, साज-बाज, गंधर्व नीति, पिंगल व गायन विधा का पूर्ण ज्ञान नहीं है अर्थात मुख्यतः वाद्यान्त्रो का सम्पूर्ण ज्ञान नहीं, वो कवि सही मायने मे कवियों के दायरे से स्वतः ही बहार है और वह एक बिना डोर की पतंग है। जब सुरों, तर्जो, धुनों, छंदों, मात्राओं, फिकरो, लय, ताल, मल्लहार, राग-रागनी, कवि नीतियों आदि की, जिसको उच्चकोटि की जानकारी नहीं वह कभी कवि के दर्जे तक नहीं पहुँच सकता। अतः किसी भी कवि को कम से कम संगीत मे आचार्य होना तो बहुत जरुरी है अर्थात साज-बाज का पूर्णतया ज्ञान होना जरुरी है, नहीं तो नित दिन नये-नये अनेकों कवि व गायक आते रहेंगे और कुछ दिन के मेहमान बनकर जाते रहेंगे। जैसा की आज बखूबी प्रचलन मे है।

संदीप कौशिक:- आपने अब तक अपनी निजी तर्ज अर्थात नई धुन कितनी बनाई है जो अबतक किसी भी सांगी ने नही बनाई। कृपया उनमें से एक-दो गाकर भी सुनाए।

पँ राजेराम:- 40 के आसपास……………………………

सन्दीप कौशिक: इस अत्याधुनिक दौर मे नवयुवक सांस्कृतिक दायरे से बाहर जाकर अनुचित कार्यो को अंजाम दे रहे है जैसे – सम गोत्रो व अन्य वर्णों या जातियों मे कोर्ट विवाह, अन्य बहन बेटियों का अनादर, अश्लील नृत्य व गायन, रूढ़िवादिता के तौर पर निशदिन नये-नये कुकर्म आदि। अतः क्षेत्रवाद व जातिवाद के आधार पर पारिवारिक एवं सामाजिक ढांचा टूटने की कगार पर है। आपके कवि हर्दय के क्या उदगार है इस बारे में?

प. राजेराम: मै इसे प्रकृति या सांस्कृतिक परिवर्तन को उस ईश्वर की माया समझकर, यहाँ पर इसका उतर स्पष्ट नहीं करना चाहूँगा क्यूंकि मानव जीवन मे घटित, इन क्रियाओं पे काबू रखना जन साधारण के नियंत्रण मे नहीं है।

सन्दीप कौशिक: किसी भी लोककवि या लोकगायक के जीवन मे सम्मान के रूप मे या उससे ज्यादा महत्वपूर्ण कमाई क्या है अर्थात मंच पर एकत्रित श्रोताओं का जमावड़ा या मंच पर मिला अन्य कोई पुरुस्कार?

प. राजेराम: सही अर्थो मे किसी सच्चे कलाकार के लिए सम्मान के रूप मे उसकी सफल कमाई तो श्रोताओं का प्रेम व शांति बनाये रखकर, उनके द्वारा सार-सार ग्रहण करना है, अन्यथा पैसे की कमाई या आर्थिक सम्मान तो अंत मे व्यर्थ ही है।

संदीप कौशिक:- अंत मे कोई सांग विधा, रागनियों के प्रति व सामाजिक, सांस्कृतिक के प्रति आपका कोई संदेश, सुझाव, निर्देश देने का कष्ट करें।

पँ राजेराम:- …………………………………..


मानव मूल्यों के अपसरण को अपने इस शब्द कर्म में उन्होंने करीब तीन-चार दशक पहले ही महात्मा बुद्ध के सांग मे बुद्ध की भविष्यवाणी द्वारा महसूस करा दिया था, जो वर्तमान परिदृश्य में भी प्रासंगिक है…

किया बखान महात्मा बुद्ध नै, ऐसा कलयुग आवैगा,
बिन मतलब ना कोए किसे कै, पास बैठणा चाहवैगा ।।टेक।।

मां जाए भाई का भाई, करै कदे इतबार नही,
बेटी लड़ै बाप के हक पै, मां-बेटे का प्यार नही,
भीड़ पड़ी मै साथ निभावै, मित्र-रिश्तेदार नही,
ब्याही वर नै छोड़ चली जा, जोट मिलै एकसार नहीं,
कोर्ट केश मुकदमा जीतै, फेर दुसरी ब्याहवैगा।।

छत्री का छत्रापण घटज्या, झुठ ब्राहमण बोलैंगे,
गऊ फिरैंगी सुन्नी घर-घर, संत सुआदु डोलैंगे,
पुन्न की गांठ पाप का नर्जा, घाट व्यापारी तोलैंगे,
ये शुद्र होंगे राजमंत्री, फेर बाकी धूल बटोलैंगे,
जातपात का भेद रहै ना, कौण किसतै शरमावैगा।।

पैसा पांह का भाई भा का, सब मतलबी जहान होज्या,
मदिरा-मांस बिकै घर-घर मै, मध्यम खानपान होज्या,
मात-पिता हो कर्महीण, दुख देवा संतान होज्या,
आपा धापी बेईन्साफी, या दुनिया बेईमान होज्या,
कर्म का खेल भविष्यवाणी, कोए करै उसा फल पावैगा।।

वोट का राज नोट की दुनिया, घर का राज रहै कोन्या,
मात-पिता-गुरू-छोटे-बड़े की, शर्म ल्हाज रहै कोन्या,
हर इंसान करया धन चाहवै, कोए मोहताज रहै कोन्या,
राजेराम फूट घर-घर मै, यो सुखी समाज रहै कोन्या,
हेरा-फेरी बेईमाना, न्यू माणस नै लोभ सतावैगा।।

सन्दीप कौशिक भेंटवार्ता के अंतिम चरण की ओर………..
मेरे तुच्छ साहित्यिक-संकलन अनुभव के अनुसार लोककवि-परिभाषा के रूप मे हर कवि की सामाजिक व्यवहार की जो शैली होती हैं वो थोड़ी अजीब व पृथक सी लगती हैं और हमेशा रही भी है, क्योंकि मैंने तो स्वयं कई कवियों के मुखाश्रित से ही उनका संकलन किया है, जैसे प. राजेराम संगीताचार्य, होनहार कवि ललित भाई व कुछ अन्य।
उसका कारण हैं कि कवि एक सामाजिक प्राणी तो जरूर है, मगर वो एक सामाजिक आचरण व व्यवहार से बहुत ऊपर उठा हुआ होता हैं, क्योंकि एक सामान्य मनुष्य और साहित्यकार में सिर्फ इतना फर्क होता है कि दोनों ही भरे हुए बादलों की तरह होते हैं। परन्तु सामान्य मनुष्य बिना बरसे आगे चलता जाता है, लेकिन साहित्यकार या लेखक खुद को हल्का कर देता है अर्थात् जो अनुभव करता है उसे शब्दों में व्यक्त करता है। जिस समाज और युग में वह जी रहा है, वह समाज और युग उसके व्यक्तित्व को एक विषेष सांचे में ढालता है। भारतीय संस्कृति में रचना और रचनाकार को पृथक नहीं देखा गया है। किसी भी रचना के अंतर्गत को समझने के लिए यह नितांत आवश्यक है कि हम रचनाकार को अच्छी तरह जाने और उसके परिवेश से परिचित हो, तभी हम किसी कृति को पूर्ण रूप से समझ सकेंगे।
सामान्य मनुष्य की तरह साहित्यकार भी सामाजिक प्राणी है। एक साहित्यकार और सामान्य व्यक्ति में अंतर सिर्फ इतना है कि सामान्य व्यक्ति अनुभव तो करता है, लेकिन उसमें अपने अनुभव को शब्दों में व्यक्त करने की कला नहीं होती है, पर साहित्यकार जो अनुभव करता है, उसे शब्दों में व्यक्त कर सकता है। वास्तव में अभिव्यक्ति की यह कुशलता ही एक साहित्यकार को सामान्य व्यक्ति से अलग करती है।
साहित्यकार की सर्जन एवं उसके द्वारा रचित साहित्य के मूल व तथ्य को जानने, परखने और उसे गहराई से समझने के लिए यह आवश्यक है कि हम उसके व्यक्तित्व से भली भांति परिचित हो, क्योंकि रचनाकार के व्यक्तित्व तथा रचना में परस्पर वैसा ही संबंध होता है, जैसे चंद्र का अपनी रश्मियों से और पुण्य का अपने सौरम्भ से। कवि की श्रेष्ठता उसके व्यक्तित्व के सम्यक् विश्लेषण के बिना, हम उनके सर्जक के प्रति पूर्ण न्याय नहीं कर सकते।

कवि परिभाषाएं तो और भी हैं, लेकिन यही मुख्य परिभाषा थी मेरी छोटी सी, कवियों के सामाजिक व्यवहार व काव्य परिवेश के बारे में। हो सकता हैं किसी कवि या जनसामान्य को पसंद आये या न आये।

हरियाणवी लोककवियों के संक्षिप्त जीवन परिचय :-

कविकुल गुरु पं शंकरदास जीवन्चारित:-
इनको कविकुल गुरु इसलिए कहा जाता हैं, क्योंकि इनकी साहित्यिक वंशबेल इतनी फली-फूली है कि जिसके बिना सम्पूर्ण सांग विधा अर्थात हरियाणवीं साहित्य के ग्राफ को शून्य छूते देर न लगेगी या दूसरे शब्दों में यूँ कहे कि सांग विधा औचित्यहीन ही बनकर रह जायेगी। अगर पं शंकरदास कविकुल के साहित्यिक योगदान के दृष्टिकोण पर ध्यान केंद्रित करें तो आज उनके योगदान को शब्दों में बयां करना बड़ी टेढ़ी खीर होगी। फिर भी हमारा दायित्व हैं कि इस पर एक नजर अवश्य डाले जो युवा पीढ़ी व शोद्धकर्ताओं को भी प्रेरित करेगी।

महाकवि शंकरदास का जन्म यद्यपि आधुनिक काल के प्रारम्भिक दिनों में हुआ था, तथापि उनकी रचनाओं में भक्ति, ज्ञान और वैराग्य की अद्भुत त्रिवेणी का अभूतपूर्व समन्वय हुआ था। पश्चिमी भारत के हरियाणा, पंजाब और मेरठ मण्डल के अनेक क्षेत्रों तक इनकी काव्य प्रतिभा का प्रसार प्रचुरता से हुआ था। भक्ति काल में निर्गुण काव्य का जो उत्कर्ष कबीर और तुलसी की रचनाओं में दिखाई देता है, उसका उज्ज्वलतम रूप महाकवि शंकरदास की रचनाओं में पूर्णतः साकार हो उठा था। यद्यपि उनका काव्य-काल भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से लगभग २५ वर्ष पूर्व था, किन्तु उनकी रचनाएँ इस बात की साक्षी हैं कि खड़ी बोली हिन्दी के काव्य में लोक-संस्कृति कितने उदात्त रूप में मुखरित हो सकती है। उनकी रचनाओं में इस क्षेत्र के जन-जीवन में प्रयुक्त होने वाले अनेक मुहावरे और लोकोक्तियाँ इतनी सहजता के साथ प्रयुक्त हुई हैं कि उनमें यहां की संस्कृति का परिष्कृत रूप देखने को मिलता है। उनकी प्रायः सभी रचनाओं में आध्यात्मिकता, नैतिकता और सांस्कृतिक समन्वय की जो धारा प्रवाहित हुई है उससे इस क्षेत्र की अनेक परम्पराओं का परिचय भी हमें भली-भाँति हो जाता है।

पं शंकरदास की कृति के संदर्भ में इनका जन्म मेरठ से सात मील पूर्व में गढ़मुक्तेश्वर को जाने वाली सड़क पर बसे जिठौली नामक ग्राम के एक वशिष्ठ गोत्रीय ब्राह्मण परिवार में सन् १८२४ ईसवी को पण्डित कल्याणदत्त उर्फ कलुआ के यहाँ हुआ था। उनकी माता का नाम श्रीमती दानकौर था। अपने पारिवारिक परिवेश का परिचय शंकरदास ने एक पद में इस प्रकार दिया है।

मकरुत दुतियाने का निकास हुआ,
पिलखुवा में बसे बड़े अन्न जल प्रकाश का।
कल्याणदत्त नामदेह, पिता का विख्यात हुआ,
दानकौर माता, फन्दा टूटा यम-त्रास का।
आदि गौड़ विप्र और गोत्र तो वशिष्ठ म्हारा…?,
मेरठ का जिला, डाकखाना मऊ खास का।
गढ़ को सड़क जात, मौजे का जिठौली नाम…?, छोटा-सा स्थान, जिसमें बना शंकरदास का॥

लेकिन वास्तविक रूप में इनका जन्म एक दूसरे गाँव रामपूर (रम्मपुर) के जंगली क्षेत्र में हुआ था जो पिलखुवा के पास है, उनके नाना का गाँव जिठौली था, उनकी माता का कोई भाई न था। इस कारण वे बचपन में ही माता के साथ नाना के पास आकर जिठौली बस गये थे और नाना के वर्चस्व हेतु जिठौली को ही हमेशा जन्मभूमि माना।

20-22 वर्ष की अवस्था में ही आपने कवित्व में पूर्ण प्रखरता प्राप्त कर ली थी और उनके निर्गुण भक्तिपरक गीतों का प्रचार इस क्षेत्र में इतना अधिक हो गया था कि गंगा तटवर्ती मेरठ अंचल से लेकर पश्चिम के सभी क्षेत्रों तक इनकी शिष्य परम्परा हो गई थी। वे बालब्रह्मचारी, सत्यशोधक और ब्रह्म-ज्ञानी के रूप में न केवल इस क्षेत्र में ही विख्यात हुए, बल्कि उनकी रचनाओं की ख्याति देश में दूर दूर तक फैल गई। पूर्वी पंजाब, हरियाणा और मेरठ मण्डल में तो उनकी रचनाओं ने इतनी जागृति उत्पन्न की कि सर्वत्र उनकी शिष्य-परम्परा स्थापित हो गई। उनकी प्रमुख रचनाएँ प्रकाशित रूप में उपलब्ध होती हैं उनमें–
१. ‘भक्ति मुक्ति प्रकाश, २. ‘भजन शब्द वेदान्त’, ३. ‘ब्रह्म ज्ञान प्रकाश’, ४. ‘बुद्धि प्रकाश’, ५. ‘धर्म सनातन’, ६. ‘बारह खड़ी’, ७. ‘रुक्मिणी मंगल’ ८ कृष्ण जन्म’, ६. ‘ध्रुव भगत’, १०. ‘प्रह्लाद भक्त’, ११. ‘हरिश्चन्द्र’ १२. ‘नरसी का भात’, १३. ‘श्रवणकुमार’, १४. ‘मोरध्वज’, १५. ‘सती सुलोचना’, और १६. महा भारत (भीष्म पर्व) आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

सन्त शंकरदास की इन रचनाओं में से ‘ब्रह्म ज्ञान प्रकाश’ लक्ष्मी वेंकटेश्वर प्रेस बम्बई से सन् १९२१ में प्रकाशित हुई थी। ‘महाभारत’ (भीष्म पर्व ) भी उन्हीं दिनों छपा था। ‘ब्रह्म ज्ञान प्रकाश’ में उनकी फुटकर रचनाएँ समाविष्ट हैं और ‘महाभारत’ प्रबन्ध-काव्य है। लगभग २५०० पदों के शंकरदास के समग्र काव्य-साहित्य पर दृष्टि डालने से हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उनमें ज्ञान, भक्ति, वैराग्य, अष्टांग योग, आयुर्वेद, कर्मयोग एवं समाधि-विषयक विविध विधाओं का विकास प्रमुखता से हुआ है। देशज शब्दों, मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रचुर प्रयोग के कारण उनकी भाषा अत्यन्त सहज तथा सरल बन पड़ी है। इसका उदाहरण उनके इस पद से मिलता है

नारी नहीं, नर चेत, कपट छल माया है।

दिल का भेद कहीं ना खोले, हँस-हँस वाणी मीठी बोले।
समझे है कोई अन्त, जगत् भरमाया है।
नारी नहीं, नर चेत, कपट छल माया है।

वे किसी विशेष सिद्धान्त, पन्थ और मान्यता में बंधकर नहीं चले। वास्तविक भक्ति ही उनकी साधना का मार्ग था बुरी बात का विरोध करना और अच्छी बात को ग्रहण करना ही उनका एक मात्र लक्ष्य था। अपने पंथ का वर्णन करते हुए वे कहते हैं

दादू पंथी नहीं गरीबदासी, चरणदामी नहीं निमले उदासी

नहीं कबीर, नहीं घीसा घासी, भैरव चक्र नहीं कूड़ा पन्थी
अब दई तोड़ भरम की ग्रन्थी, जो तुम बूझो सच-सच सारा।
कुफर तोड़ है पन्थ हमारा ॥

अपनी ‘भक्ति मुक्ति प्रकाश’ नामक काव्य-कृति में उन्होंने मुक्ति-साधना और आध्यात्मिकता का जो अद्भुत समन्वय प्रस्तुत किया है वह उनकी काव्य प्रतिभा का ज्वलन्त प्रमाण है। वे कहते हैं कि

जन्म लिया फिर सुख नहीं पाया, विषय-भोग ने मुझे फंसाया,
अब तक नहीं समझ में आया, ये मेरा सकल कसूर है,
दिल उड़ता फिरै सतानी।

घेर-पार बुद्धि को लाता, मन तुरंग बाजी बन जाता,
फिर अनंग मध आन सताता, एक तृष्णा उर-बिच हूर है,
बनी बैठी वो इन्द्राणी।

इसके उत्तर में उन्होंने अपने शिष्यों को विषय भोगों को छोड़कर मन को वश में करके साधना करने का जो उपदेश दिया है वह भी उनकी काव्य प्रतिभा और भक्ति-चेतना का परिचायक है। वे कहते हैं-

सैरा करले दसों द्वार का, दिल रोक अटल बंगले में।।

तू न किसी का, ना कोई तेरा, सुपन समान समझ ये डेरा
चिड़िया कैसा रैन बसेरा, ये जीवन दिन चार का
जैसे रोशनाई बंगले में ।

मन स्थिर कर शोध पीव को, जद सुख उपजै तरे जीव को
जैसे पैर से मथे घीव को, तज दे छाछ विकार का
क्यों भरमै तू बंगले में ।

मन को स्थिर करके पिया की खोज करने का जो उपदेश शंकरदास जी ने अपने शिष्यों को दिया है, वास्तव में उसी के मार्ग पर चलकर उन्होंने विकारों की छाछ छोड़कर वास्तविक तत्व को प्राप्त किया था।

वे साम्प्रदायिक भावनाओं के भी अत्यन्त विरोधी थे। उनकी दृष्टि में मानव मात्र सभी समान थे। परमात्मा, अल्ला और गुरु आदि के नामों की समानता पर जोर देते हुए उन्होंने इसके लिए झगड़ने वाले व्यक्तियों को किस प्रकार फटकारा था, यह उनके इस पद से प्रकट होता है।

होती बेसमझों में तकरार, वो ही ईशु, राम, खुदा है।

मक्के, मदीना, गिरजा अन्दर, मस्जिद, ठाकुरद्वारे, मन्दर
कस्बे, ग्राम, सहर और बन्दर, ये सब हैं इकसार
समझो फिर कौन जुदा है।

धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में अनेक मतों, पन्थों और पाखण्डों पर चोट करते हुए वे कहते हैं-

क्यों अजब तरह के लोग हैं, ऐसे अब पन्थ चलें जी |

कलजुग प्रबल पाप प्रचण्डा जी, अनेक मतों के चले पखण्डा जी
किसी पे तुम्बा, माला डंडा जी, सिर पे रखते बहुत जटा जी,
………………………………

कोई जोगी है कनफटा जी, वैरागी भी खेलें पटाजी
कोई सिर मूंडत, मूंछ कटा जी, कोई ताप का सार्धं योग है। क्या अजब तरह के लोग हैं।

रहस्यवाद की दृष्टि से भी शंकरदास का काव्य कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। साधनागत रहस्यवाद और पट्चक्रों के वर्णन-सम्बन्धी उनके अनेक पद इसके प्रमाण हैं। राम नाम की खेती वे किस प्रकार करते हैं, इसका वर्णन भी उन्होंने अपने एक पद में इस प्रकार किया है।

श्री राम नाम की खेती, हमने अभी के बोई है।

हिम्मत का हल बँधवाया है, प्रीत का पाथा चढ़वाया है??????????

कान्ति की कात दई जड़वाय, करतब का दिया करवा गढ़वाय,
क्षमा की फाली दई बनाय, नेह की नाड़ी लई मँगवाय
रहम की रस्सी दुजोई है, सब मत के बैल दो सेती,
श्री राम नाम की खेती ।

मोक्ष फल लगे अमर हरियाली, जिसमें बीज मूल न डाली
समता रहे जहाँ रखवाली, कथना शंकरदास निराली
इसका तो महरम कोई है, सुमति-निवृत्ति चेती ।
श्री राम नाम की खेती हमने अभी के बोई है।

एक बार शंकरदास को अचलानन्द ब्रह्मचारी नाम के सन्त का उपदेश सुनकर जब वैराग्य हो गया और उन्होंने पूर्णतः संन्यासियों के वेश को अपना लिया, तब उन्होंने अपने नाते-रिश्तेदारों को समझाते हुए जिन भावनाओं को प्रकट किया था उनसे उनकी सांसारिक विरक्ति का प्रकटीकरण होता है। उन्होंने कहा था कि

मनै भर लिया भेष फकीर का, क्या आभूषण धारूंगा।।

विधि लिखी सब सत्य हो जाती, अब भैया नहि पार बसाती
मेरी एही समझ में आती, लिया भोगूंगा तकदीर का,
अब क्या भगवे तारूँगा।

बांधी भगवा आज लंगोटी, सिर मुंडवाय कटा ली चोटी
घर-घर होय मांगनी रोटी, पूजन करूं कृष्ण तस्वीर का,
इस मनुवा को मारूंगा।

मुझको मत भैया समझाना, अब धारा सन्तों का बाना
‘शंकर’ कहे अब लगा निशाना, ब्रह्म ज्ञान के तीर का,
अब सब दुविधा बारूँगा।

मनै भर लिया भेष फकीर का, क्या आभूषण धारूंगा।।

शंकरदास की रचनाओं में हमें जहाँ ज्ञान, भक्ति और वैराग्य का सुन्दर परिपाक देखने को मिलता है, वहाँ सांसारिक क्रिया-कलापों, लोक-व्यवहारों और उत्सव पर्वो का वर्णन भी उन्होंने पूर्ण तन्मयता से किया है। अपनी ‘नरसी का भात’ नामक कृति में नरसी के विवाह की धूमधाम और घुड़चढ़ी के अवसर पर बजने वाले गाजों-बाजों तथा दूल्हे के सिर पर सजे मौड़ का वर्णन उन्होंने जिस स्पष्टता से किया है वह देखते ही बनता है। वे कहते हैं

नक्कारे, नफीरी, खेल, तुरी तासे रहे बाज,
घुड़चढ़ी करने लगे, सिर पर मौड़ रहा साज
छत्र की तो छाया किन्हीं, धान बोए लेके छाज जी ।
………………………………………………

भेर वाला शब्द करता, मंगल सारी गाव नार
सती, शक्ति, देव पूजे, करते सब जै जै कार
नरसी की माता तब, देत है निछावर तार
नहि फूली समाती गात में, सब मिल-मिल करते हाँसी।।

एक बार शंकरदास की अपने समकालीन सन्त कवि गंगादास से नोक-झोंक हो गई। गंगादास की मान्यता थी कि साधना का पन्थ अत्यन्त कठिन है। साधक को भगवान् की प्राप्ति के लिए कभी-कभी अनेक बलिदान करने पड़ते हैं और उसे अपना सिर तक भी भेंट चढ़ाना पड़ता है। गंगादास ने जब इसकी अभिव्यक्ति अपने एक पद में इस प्रकार की-

सतगुरु तुझे पार लगावे, सिर तार दे उतराई में

तब शंकरदास ने इसका उत्तर इस प्रकार दिया था-

सतगुरु वे इच्छा है भाई, नहीं चाहता सिर उतराई।।
सिर तो चाहते करद कसाई, तुमने बे-समझे क्यों गाई।।

ऐसे अनेक प्रसंग उनके काव्य में देखने को मिलते हैं जिनमें उन्होंने भक्ति और वराग्य के क्षेत्र में उठने वाली अनेक समस्याओं का समाधान सहज और सुबोध शैली में प्रस्तुत किया है। शंकरदास के पदों की भाषा में ठेठ खड़ी बोली की शब्दावली और मेरठ तथा हरियाणा-अंचल में प्रचलित साधुजन भाषा का व्यावहारिक रूप अत्यन्त परिष्कृत एवं परिनिष्ठित रूप में दिखाई देता है। उनका यह पद इसका उत्कृष्ट उदाहरण है।

राज मिला राजा क्यों रोया, जोग मिला रोया क्यों जोगी
भोग भजे भोगी क्यों रोया, रोग भजे रोया क्यों रोगी ।।
एक जगह यह कुछ अलग तरह लिखा है-

राज मिले राजा क्यूँ रोया,रोग कटे रोया क्यूँ रोगी ।पुत्तर जन्मत क्यू रोयी त्रिया, भोग करें क्यूँ भाज्या भोगी॥

इस विषय मे पं राजेराम संगीताचार्य (पं मांगेराम) ने बताया कि-

राज मिलने से भरत रोया था,
रोग कटने से दशरथ रोया था,
पुत्र जन्मने से देवकी रोई थी,

संसार के अनेक कष्टों को वर्णित करने की जो विद्या उन्होंने अपनाई, वह उनकी सर्वथा अनूठी प्रतिभा की द्योतक है। ‘भोग’ के साथ ‘भजे’ शब्द का प्रयोग भोगने के अर्थ में और ‘रोग’ के साथ उसका प्रयोग भागने अर्थात् दूर होने के अर्थ में किया गया है। शंकरदास के ऐसे अनेक पद इस प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में आज भी श्रुति परम्परा से चले आ रहे हैं और उन्होंने लोकप्रियता के चरम शिखर को छू लिया है। इनकी प्राय: सभी रचनाओं में कहीं-कहीं जायसी जैसा रहस्यवाद कबीर जैसी साधना और तुलसी जैसी भक्ति के दर्शन सहज भाव से हो जाते हैं। खेद है कि ऐसे समर्थ कवि की हमारे इतिहासकारों ने सर्वथा उपेक्षा की है और उन्हें मात्र लोककवि समझकर ही उनकी साहित्यिक गरिमा के महत्त्व को नकार दिया है। आज जब हरियाणा और मेरठ के विश्वविद्यालयों में हिन्दी की विविध आयामी शोध हो रही है, तब ऐसे समर्थ कवि के व्यक्तित्व और कृतित्व पर विशद शोध करने की महती आवश्यकता है।

पं शंकरदास से संबंधित एक चमत्कारिक प्रसंग:-

दादा शंकरदास जी की एक पुत्री थी जिसका नाम था चमेली। चमेली का विवाह मेरठ उ.प्र. के गांव भूडबराल के पाराशर गोत्रीय ब्राह्मण सागरमल से हुआ था। विवाह के कई वर्षों के बाद भी चमेली को कोई सन्तान न हुई तो चमेली काफी चिन्तित हो गयी। शंकरदास जी सन्यासी हो चुके थे, सन्यासी पिता की उस पुत्री की जब पिता से भेट होती थी, तो सन्यासी आशीर्वाद देता था कि फलो-फूलो।
खूब दवाई गोली चलने के बाद भी चमेली को कोई संतान हुई, अन्त में उसने पति सागरमल को दूसरी शादी करने की सलाह दी। सागरमल ने मना कर दिया, खूब जोर डाला गया परन्तु सागरमल ने साफ इंकार कर दिया।

कुछ समय बाद चमेली बीमार हो गयी और अपने पति से जिद करदी कि संतान उत्पति हेतु दूसरा विवाह करले मगर उनके पति सागरमल ने साफ बता दिया कि वह चमेली के साथ ही खुश और संतुष्ट है, वे चमेली के लिए सौतन लेकर नहीं आयेंगे।

चमेली कुछ अधिक बीमार पड़ गयी, फिर जब एक दिन शंकरदास जी साधुरूप मे भ्रमण करते हुए अपनी पुत्री का हालचाल पूछने हेतु उनके ससुराल पुत्री के घर पहुंचे, तब उनकी पुत्री चमेली ने अपने पिता शंकरदास से कहा, आज अगर आप घर आये हो तो मुझ आशीर्वाद रूप में कुछ देकर जाओ। उन्होंने कहा “बोलो क्या चाहती हो? तब उनकी पुत्री चमेली ने कहा ” मैं काफी बीमार हूँ और मेरा स्वर्गवास नजदीक हैं ” ऐसा कहकर चमेली ने अपने पति सागरमल का हाथ शंकरदास जी को पकडा दिया और कहा,”मुझे वंशवृद्धि चाहिए, मेरे कुल में मुझे कोई पानी देने वाला पैदा होना चाहिए।”
सागरमल का हाथ शंकरदास जी के हाथों में देकर चमेली ने हिदायत दी, “हे पिता! मेरे पति को मेरी मृत्यु के बाद साधू मत बना देना, उसे ग्रहस्थ बनाना, किसी भी प्रकार से चमेली को पानी देने वाला जन्मना ही चाहिए और वो चमेली के पति की ही सन्तान होगी” इतना कहकर पुत्री चमेली ने पति व पिता के हाथों में ही पैर पसार दिए, शरीर त्याग दिया। कुछ दिन बाद शंकरदास जी बुलंदशहर के सामई गांव में गये जहां उनके एक घनिष्ठ प्रेमी ब्राह्मण थे जिसके सात पुत्र थे और एक पुत्री थी, शिवदेई। शंकरदास जी ने गोद रूप में मांग लिया, और पुत्री के रूप मे ग्रहण किया, अपने दामाद सागरमल के साथ शिवदेई की शादी करवादी।
फिर कुछ समय बाद तक शिवदेई को भी संतान न हुई। सागरमल बीमार पड़ गये और एक दिन शाम 4 या 4 बजे के आसपास निःसंतान ही निष्प्राण होकर प्राणरहित हो गए। शंकरदास जी वचनहारी हो रहे थे क्योंकि उन्होंने अपनी बेटी चमेली व दामाद को पुत्ररत्न का आशीर्वाद दे रखा था।
जब गांव वाले उनके दामाद को दाह संस्कार के लिए तैयारी करने लगे तो उनकी दत्तक पुत्री शिवदेवी ने ये कहते हुए मना कर दिया कि जब तक मेरे धर्मपिता पं शंकरदास जी नही आएंगे, तब तक मैं दाह संस्कार नही करने दूंगी। गांव वालों ने शंकरदास जी को ढूंढना शुरू किया, जिठौली पहुंचे, परन्तु मगर वे नही मिले।
फिर सुबह चार बजे ब्रह्ममुहूर्त में शंकरदास जी वहां पहुंचे, जहां शिवदेई मृत पति के शव को सम्भाले बैठी थी। शंकरदास जी को देखते ही शिवदेई अधीर होकर उनसे लिपट पडी, “पिताजी महाराज” चमेली रोकर कह रही थी, “अब तो यू भी गया, तेरा दामाद भी गया, अब क्या होगा?”
“मैं देख तो लूं, बेटी” शंकरदास जी अपने मृतक दामाद सागरमल के मृतक शव के पास गये, सिर पर हाथ फेरा और चमत्कार हो गया, मृतक बैठा हो गया अर्थात पुनर्जीवित!
जिससे पं शंकरदास का आशीर्वाद रूपी वचन पूरा हुआ। कुछ और समय बीतने के पश्चात उनके दामाद सागरमल व उनकी दत्तक पुत्री शिवदेवी को पुत्ररूप में संतान प्राप्ति हुई, बाद में एक पुत्री भी हुई, सागरमल-चमेल-शिवदेई की वंशबेल आज भी भली प्रकार फल फूल रही हैं।
इस प्रकार शंकरदास जी ने अपनी आत्मजा चमेली की वंशबेल फलने फूलने का जो वचन दिया था, वह पूरा किया।

पं शंकरदास कविकुल के काव्यरत्न व कोहिनूर इस प्रकार हैं-

A) कविकुल सूची – प्रणाली के अनुरूप

गुरु:- पं शंकरदास
शिष्य:- श्री मवासीनाथ
पौत्र शिष्य:- पं मानसिंह बसौधी
पड़पौत्र शिष्य:-
पं लखमीचंद, जैली उर्फ पं जयलाल, श्री दयाचंद गोपाल
सड़पौत्र शिष्य:-
पं मांगेराम पांणछि, पं सुल्तान रोहद, चौ. मेहरसिंह, पं देबीराम परहावर, पं माईचन्द बबैल, पं रतीराम हीरापुर, पं रामस्वरूप सिटावली, श्री चन्दनलाल बजाणा
सड़पौत्र शिष्य से अगली पीढ़ी:-
पं जयनारायण, पं तुलेराम, प. राजेराम संगीताचार्य, पं कृष्णचंद नादान
सड़पौत्र शिष्य से अगली से अगली पीढ़ी:-
विष्णु दत्त कौशिक, सत्ते कथुरवाल, यशवंत दत्त

B) कविकुल सूची – प्रणाली के अनुरूप

गुरु:- पं शंकरदास
शिष्य:- पंडित नेतराम
पौत्र शिष्य:- सोहनसिंह कुंडलवाला,
पड़पौत्र शिष्य:-
पंडित दीपचंद, रामकुमार खालेटिया, सरूपचंद
सड़पौत्र शिष्य:-
हरदेवा स्वामी गौरड़, श्री नंदलाल मुनीमपुर
सड़पौत्र शिष्य से अगली पीढ़ी:-
श्री बाजे भगत, श्री चतरू सांगी गढ़ी
सड़पौत्र शिष्य से अगली से अगली पीढ़ी:-
श्री खिम्मा स्यामी, सुल्तान सिंह फरमाणा

C) कविकुल सूची – प्रणाली के अनुरूप

गुरु:- पं शंकरदास
शिष्य:- पं नत्थूलाल जांवली
पौत्र शिष्य:- पं मानसिंह जावली, श्री मंगलचंद
पड़पौत्र शिष्य:-
पं रघुनाथ-फिरोजपुर, श्री बलजीत पाधा, श्री चंद्रलाल बादी
सड़पौत्र शिष्य:-
पं बद्रीप्रसाद, ठा. मंगलसिंह, मा. रामकुमार शर्मा, ईश्वर त्यागी, सूरज बेदी, बाबू दानसिंह सांगी
सड़पौत्र शिष्य से अगली पीढ़ी:-
योगेश त्यागी, चौ. सतेंद्र, राकेश त्यागी

D) कविकुल सूची – प्रणाली के अनुरूप

गुरु :- पं शंकरदास
शिष्य:- पं केशवराम
पौत्र शिष्य:- पं कुन्दनलाल
पड़पौत्र शिष्य:- पं नंदलाल पाथरआली
सड़पौत्र शिष्य:- पं बेगराज
सड़पौत्र शिष्य से अगली पीढ़ी:-
पं श्यामलाल गोलपुरिया
सड़पौत्र शिष्य से अगली से अगली पीढ़ी:-
अमित अटेला

E) कविकुल सूची – प्रणाली के अनुरूप

गुरु:- पं. शंकरदास
शिष्य:- मांगे दयाल सुनारियां
पौत्र शिष्य:- जमनादास (जमुआमीर)
पड़पौत्र शिष्य:- धनपत सिंह निंदाणा
सड़पौत्र शिष्य:- बन्दामीर महमिया, चंदगीराम भगाणा, बनवारी ठेल, श्याम धरौधी
सड़पौत्र शिष्य से अगली पीढ़ी:-
धर्मबीर सांगी भगाणा,
सड़पौत्र शिष्य से अगली से अगली पीढ़ी:-
सोनू सांगी भगाणा

F) कविकुल सूची – प्रणाली के अनुरूप

गुरु:- पं शंकरदास
शिष्य:- मवासीनाथ
पौत्र शिष्य:- गुलाब नाथ
पड़पौत्र शिष्य:- सांवत नाथ
सड़पौत्र शिष्य:- हरिश्चन्द्रनाथ
सड़पौत्र शिष्य से अगली पीढ़ी:-
मुंशीराम जांडली, गोपीराम सिंघवा, रामकुमार जांडली कलां,जीत सिंह जांडली कलां, बलबीर नाथ, महावीर जांडली।
सड़पौत्र शिष्य से अगली से अगली पीढ़ी:-
चौ. मुंशीराम के शिष्य-
जीत सिहं नहला, तेलू गोरखपुर, जुगला पंडित, पूर्ण, मान सिहं, मोलू राम, मिशरी
गोपीराम सिंघवा के शिष्य-
रौशन सांगी खेदड़, कृष्ण सिंघवा
रामकुमार जांडली के शिष्य-
प्रदीप जांडली, औमप्रकाश, सतपाल, हनुमान

G) कविकुल सूची – प्रणाली के अनुरूप

गुरु:- पं शंकरदास
शिष्य:- रामजीलाल धारडु
पौत्र शिष्य:- घिसासिंह नौरंगाबाद
पड़पौत्र शिष्य:- लाखासिंह
सड़ पौत्र शिष्य:- देवीसिंह
सड़पौत्र शिष्य से अगली पीढ़ी:-
गिरवरसिंह नौरंगाबाद-भिवानी

जीवन परिचय के मुख्यांश:-
पुस्तक ‘जाने-अनजाने’ (खेमचंद शर्मा ‘सुमन’)
चमत्कारिक-प्रसंग सूचनार्थी:-
श्री योगेश पाराशर

पंडित गुणी सुखीराम:-
ये बहुत ही महान कवि हुए है जो शंकरदास जी के समकालीन थे, उस समय से कवि प्रणाली की दो धाराएं निकली थी,

एक तो गुणी सुखीराम जी की जिसमे प.हरिकेश पटवारी जी, हरदेवा जी, रामकिशन ब्यास जी आदि कवि। और भी बहुत ही महान सांगी व भजनी, वैरागी हुए है सभी के नाम लिख पाना संभव नही है।

दूसरी धारा में शंकरदास जी की प्रणाली में नंदलाल जी, लख्मीचंद जी, मांगेराम जी, हुए।

सुखीराम जी के 25 नामी शिष्य हुए।सबसे कम उम्र के शिष्य रहे नाजर (कलकत्ता) रहते थे, जो मुसलमान थे। फिर भी गुणी जी की तस्वीर की पूजा करते थे। नाजर ने फिल्मी दुनिया में संगीत की नई-नई धुन बनाने में माहिर हुए। गुणी जी के सभी शिष्य आशुकवि हुए हैं। वहीं पौत्र शिष्यों में भी ज़्यादातर आशुकवि हुए हैं। प्रपौत्र शिष्यों में भी ज़्यादातर आशुकवि हैं जिनमें हरिकेश पटवारी जी का नाम सुना होगा। गुणी जी के सड़पौत्र शिष्यों में आज भी परमानन्द जी गांव झाडोली (महेन्द्रगढ़) व बालमुकुंद जी गांव-जाखोद जनपद-झुन्झनु (राजस्थान)आशुकवि हैं।

गुणी सुखीराम जी का जन्म विक्रमी संवत1914को सावन शुक्ल तीज को गांव स्याणा जनपद महेन्द्रगढ़ में पं लेखराम के घर हुआ।उनका स्वर्गवास विक्रमी संवत् १९६२ को सावन शुक्ल तीज को ऋषि उद्दालक की तपोभूमि स्याणा जनपद महेन्द्रगढ़ में हुआ।

शिष्य:
नाज़र बुवाना,
शिवत रामचंद्र,
श्री मंगल,
श्री जयलाल हिसार,
श्री खूबीराम चिड़िया
श्री मुखराम स्याणा,
श्री नेतराम कोटिया,
श्री मामराज स्वामी,
श्री चंदूलाल मिर्ज़ापुर,
श्री भगवान सिवाड़ा,
श्री गोरधन बिरण,
श्री तुलसीराम बहु झोलरी,
श्री शिवलाल निहालावास,
श्री जयलाल सतनाली,
श्री बौरा जी,

पौत्र शिष्य:
पँ रविस्वरूप,
श्री मुखराम कनीना
श्री रामप्रसाद पेटवाड़,

पड़ पौत्र शिष्य:
पंडित गुलाबचंद उमरावत,
श्री बदरी
पंडित हरिकेश पटवारी,
रिछपाल तालू,
श्री मनफूल शर्मा,
श्री चिरंजी लाल जाखोद,
श्री बालमुकुंद जाखोद,
श्री गुगन राम भडफ़,
श्री प्रह्लादराम सैनी,
श्रवण कुमार भिवानी
श्री देवकीनंदन भिवानी

सड़ पौत्र:
पँ तोताराम -पुर, भिवानी वाले
श्री परमानंद झगड़ौली
श्री बालमुकुंद

पं मानसिंह बसौधी:-
कथाकार पंडित मानसिंह ब्रह्मचारी का जन्म सन 1885 में गाँव बासौदी, जिला सोनीपत-हरियाणा में हुआ। ये जन्मांध के साथ साथ अशिक्षित भी थे। ये पं शंकरदास प्रणाली में श्री मवासीनाथ के शिष्य थे। अशिक्षित होते हुए भी इन्हें परमज्ञानी माना जाता था। वैसे तो पं मानसिंह अपने जमाने के साधारण कवि थे, परन्तु शिष्यो का लगाव और श्रद्धा इतनी गहरी थी कि गुरु प्रभाव उतना ही फलदायक हुआ, जितना सीधे-सादे सुकरात का प्रभाव अपने शिष्य प्लेटो आदि पर। ये घोड़ी पर सवार होकर एक गाँव से दूसरे गाँव जाकर भजन किया करते थे। मानसिंह अन्धे होने के कारण गांव-गांव घोड़ी पर सवार होकर चलते। शिष्य लोग बारी बारी घोड़ी की लगाम पकड़ कर उन्हें जगह-जगह ले जाते। यही शिष्य रात के समय भजन मंडली के सदस्यों के रूप में गुरु का गाने में साथ देते। खड़ताल और इकतारे पर श्रोताओं के लिए भजन सुनाए जाते। मानसिंह गृहस्थ नही थे। शिष्य और श्रोताओं को ही अपनी संतान समझते। जब कभी थोडे पैसे जोड़ पाते, मिठाई खरीद कर तुरन्त गांव के बच्चों को खिलाते और उन्हें दुलारते। साथ ही पं मानसिंह काम के समय अपने शिष्यों से अनुशासनप्रिय होने की अपेक्षा करते। गाने के समय शिष्यों को थप्पड़ की सज़ा भी मिलती। कला के प्रति श्रद्धा पं मानसिंह के हृदय में असीम थी। पं लखमीचन्द का अपने साज़िन्दों, कलाकारों और श्रोताओं पर सांग के समय कठोर अनुशासन और अवकाश के समय प्रगाढ़ अनुराग ये दोनों सम्भवतः गुरु संसर्ग का ही परिणाम थे।
*उन्होंने कुछ कथाओं की काव्य रचना भी की, जैसे-मदनपाल-प्रभावती, राजा हरीशचन्द्र, सत्यवान-सावित्री तथा नल दमयन्ती आदि। उन्होंने अपने जीवन के अन्तिम समय में भजनोपदेश ही किया। पं मानसिंह बड़े दूरदर्शी थे। उनके शिष्य श्री दयाचन्द गोपाल के अनुसार- ’’गुरू जी भविष्यद्रष्टा थे और उनकी वाणी शत-प्रतिशत फलीभूत होती थी। उन्हें अपनी मृत्यु के समय का पता था। मरने से पहले सत्रह दिनों तक गोरी गाय के दूध की खीर खाई। मैंने गुरू दक्षिणा के रूप में उन्हेें पांचों वस्त्र भेंट किए। मृत्यु से एक महीना पहले गुरू जी ग्राम बखेता, जिला रोहतक की चौपाल में प्रचार कर रहे थे। भरी सभा में उन्होंने अपने स्वर्ग सिधारने की तिथि व समय की घोषणा करते हुए कहा था-यजमानों! अगली अमावस्या को प्रातःकाल सात बजे यमुना घाट पर यह शरीर पूरा हो जाएगा और यही हुआ भी। यह घटना सन् 1955 में श्रावण मास की अमावस्या की है। ठीक एक मास बाद भादों की अमावस्या को यमुना तट पर स्नान करने के बाद भजन कर रहे थे। फिर उन्होने समाधि लगाकर प्राण त्याग दिए। समय भी प्रातः लगभग सात बजे का था। डॉ. प्रेमचन्द पतंजलि में इनकी आयु 100 वर्ष की मानी है। पं. तुलेराम ने इनकी आयु 70 वर्ष बताई है और इनकी मृत्यु सन् 1955 ही बतायी है।

पं. मानसिंह की शिष्य प्रणाली में कुछ प्रमुख सांगियों का योगदान भी बड़ा अविस्मरणीय हैं जो निम्नलिखित है-

जैसे पं लख्मीचंद, जैली उर्फ़ पं जयलाल, श्री दयाचंद गोपाल आदि।

पं लख्मीचंद व श्री दयाचन्द गोपाल के सांगों की लोकप्रियता से एकबार गुरु पं. मानसिंह अत्यन्त प्रसन्न हुए। पं मानसिंह ने अपने दोनों शिष्य पं लख्मीचंद व श्री दयाचन्द गोपाल के प्रशंसकों के सामने हर्ष व्यक्त करते हुए कहा- ’’पहले तो आंधी छोड़ रखी थी (साँग के क्षेत्र में आंधी के समान तीव्र गति से यश प्राप्त करने वाले पं. लख्मीचन्द) तथा अब चूलिया और छोड़ दिया अर्थात् श्री दयाचन्द जी गोपाल चक्रवात की भाँति ख्याति के शिखर पर पहुँच गए। लगभग 12 वर्ष तक आंधी और चूलिया अर्थात पं. लख्मीचन्द और श्री दयाचन्द गोपाल पूरे हिन्दी भाषी क्षेत्र में अपने साँगों द्वारा धूम मचाते रहे।

अब तक पं मानसिंह की निम्नलिखित रूप में सिर्फ एक ही रचना मिल पाई हैं।

जगत सै यो, रैन का सपना रे ॥ टेक ।।
(The world is a short-lived dream)
………………………………………………..

नां तू किसे का, नां कोए तेरा,
None is yours and you belong to none.

सपने समान, समझ घर डेरा,
You should treat your life merely as a short-lived dream. What you treat as your belonging.

चिड़िया कैसा, रैन बसेरा, जिसने तू सोचता अपना रे ॥1।।
Your home, is like a nest of sparrow meant purely for a night’s stay.
………………………………………………….

पांडव निर्भय, डोल्या करते,
The Pandvas who fearlessly.

जो पृथ्वी नैं, तोल्या करते,
treaded the earth and weighed it with their strength.

सबतै आग्गै, बोल्या करते, होया बड़े योद्धां का खपना रे ॥2।।
And fearlessly look lead in finding their way Along with all the big warriors, are down the earth.
………………………………………………..

दंतवक्र, शिशपाल कित गए,
Where are Dantvakra and Shispal?

जिनके भरे, खजान्ने रित गए,
Their full coffers lie emptied.

वे भी काल के, मुख मैं चित गए, होया ज्यू चांद सा छिपना रे ॥3।।
They also entered the jaws of death and disappeared like the waning moon.
………………………………………………….

काल अचानक, मारै छन मैं,
The death would suddenly overtake one in a moment.

सब रहज्या, तेरे मन की मन मैं,
All aspirations lying cancelled in one’s heart.

सोचै *मानसिंह, * चौथेपन मैं, चाहिए ॐ नाम, जपना रे ॥4।।
Mansingh preaches that Om Nam is a must atleast at the wane of life.

“The world is a short-lived night dream. None is yours and you belong to none. You should treat your life merely as a short lived dream. What you treat as your belonging, your home, is like a nest of sparrow meant purely for a night’s stay. The Pandavas who fearlessly treaded the earth and weighed it with their strength and fearlessly ook lead in finding their way, along with all the big warriors, are down the earth. Where are Dant Bakar and Shishpal? Their full coffers lie emptied. They also entered the jaws of death and disappeared like the waning moon. The death would suddenly overtake one in a moment, all aspirations lying concealed in one’s heart. Man Singh preaches that OM NAM is a must atleast at the wane of life.”

1 सुर्यकवि पं0 लख्मीचन्द

हरियाणवी भाषा के प्रसिद्ध कवि व सांग कला की अमर विभूति पंडित लख्मीचंद हरियाणा लोक संस्कृति का अभिन्न अंग है। सांग कला को अनेक महान शख्सियतों ने अपने ज्ञानए कौशलए हुनर और परिश्रम से सींचकर अत्यन्त समृद्ध एवं गौरवशाली बनाया। ऐसी महान शख्सियतों में से एक थेए सूर्यकवि पंडित लख्मीचन्द। उनका जन्म हरियाणा के सोनीपत जिले के गाँव जांटी कलां में पंडित उदमी राम के घर 15 जुलाईए 1903 को हुआ.

लख्मीचंद बसै थे जाटी जमना के कंठारै,
नरेले तै तीन कोस सड़के आजम के सहारैए ;पण् मांगेरामदृसांग नौरत्नद्ध

उनके दो भाई व तीन बहनें थीं। वे अपने पिता की दूसरी संतान थे। परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण बालक लख्मीचंद पाठशाला न जा सके तथा आजीवन अशिक्षित रहे। सात-आठ वर्ष की बाल्यावस्था में इन्हें पशु चराने का काम सौंपा गया। गायन की ओर इनका रूझान बचपन से था। जब कभी आसपास के गांव में भजन, रागनी अथवा सांग-मंचन का कोई कार्यक्रम होता, वे वहां अवश्य जाते थे। भले ही वे गरीबी एवं शिक्षा संसाधनों के अभावों के बीच स्कूल नहीं जा सकेए लेकिन ज्ञान के मामले में वे पढ़े.लिखे लोगों को भी मात देते थे। उन्होंने अपने एक सांग ष्ताराचन्दष् में अपनी अनपढ़ता का स्पष्ट उल्लेख करते हुए कहा है.

लख्मीचंद नहीं पढ़रया सैए गुरु की दया तै दिल बढ़रया सैए
तेरै बनड़े कैसा रंग चढ़रया सैए रूप म्हारे मन भाग्याए
सच्चे मोतियाँ का जुड़ा हाथ कड़े तै लाग्या।
भली करी थी पनमेशर नैए तूं राजी.ख़ुशी घर आग्या।।

सात आठ वर्ष की उम्र मे ही उन्होंने अपनी मधुर व सुरीली आवाज से लोगो का मन मोह लिया और ग्रामीण उनसे हर रोज भजन व गीत सुनांने की पेशकश करने लगे द्य फिर कुछ ही समय मे लोग उनकी गायन प्रतिभा व सुरीली आवाज के कायल हो गए द्य अब उनकी रूचि सांग सिखने की हो गई थी द्य उसके बाद दस-बारह वर्ष की अल्पायु में ही बालक लख्मीचंद ने बसौदी निवासी श्री मानसिंह जो कि अंधे थेए उनके भजन कार्यक्रम से प्रभावित होकर उनको ही अपना गुरू मान लिया। ष्साँगष् की कला सीखने के लिए लख्मीचन्द कुण्डल निवासी सोहन लाल के बेड़े में शामिल हो गए। अडिग लगन व मेहनत के बल पर पाँच साल में ही उन्होंने ष्साँगष् की बारीकियाँ सीख लीं। उनके अभिनय एवं नाच का जादू लोगों के सिर चढक़र बोलने लगा। उनके अंग अंग का मटकनाए मनोहारी अदाएंए हाथों की मुद्राएंए कमर की लचक और गजब की फूर्ती का जादू हर किसी को मदहोश कर डालता था। जब वे नारी पात्र अभिनीत करते थे तो देखने वाले बस देखते रह जाते थे। इसी बीच फिर एक दिन सोहनलाल सांगी ने लख्मीचन्द के गुरु पंडित मानसिंह सूरदास के बारे में कुछ असभ्य बात मंच पे कहदी तो लख्मीचन्द गुरु भक्ति के कारण इस कटु वचन को सह न सके और उन्होंने सोहन लाल का बेड़ा छोडऩे का ऐलान कर दिया। इससे बाद कुछ संकीर्ण मानसिकता के लोगों ने धोखे से लख्मीचन्द के खाने में पारा मिला दियाए जिससे लखमीचन्द का स्वास्थ्य खराब हो गया। उनकी आवाज को भी भारी क्षति पहुंची। लेकिनए सतत साधना के जरिए लख्मीचन्द ने कुछ समय बाद पुनः अपनी आवाज मे सुधार किया और उसके बाद उन्होंने स्वयं अपना बेड़ा तैयार करने का मन बना लिया द्य फिर पंडित लख्मीचंद ने अपने गुरु भरी जैलाल उर्फ़ जैली नदीपुर माजरावाले के साथ मिलकर मात्र 18.19 वर्ष की उम्र में ही अलग बेड़ा बनाया और ष्साँगष् मंचित करने शुरू कर दिए। अपनी बहुमुखी प्रतिभा और बुलन्द हौंसलों के बल पर उन्होंने एक वर्ष के अन्दर ही लोगों के बीच पुनः अपनी पकड़ बना ली द्य फिर उनकी लोकप्रियता को देखते हुए बड़े.बड़े धुरन्धर कलाकार उनके बेड़े मे शामिल होने लगे द्य सांग के दौरान साज.आवाज.अंदाज आदि किसी भी मामले मे किसी भी तरह की लापरवाही लख्मीचंद को पसंद नहीं थी द्य उन्होंने अपने बेड़े मे एक से एक बढ़कर कलाकार रखे और ष्साँगष् कला को नई ऐतिहासिक बुलन्दियों पर पहुंचाया। अब यहाँ ऐतिहासिक सांग ष्नल.दमयंतीष् के अन्दर से उनकी एक बहुचर्चित सहज रचना इस प्रकार पेश है कि .

छोड चलो हर भली करैंगेए कती ना डरणा चाहिएए
एक साड़ी मै गात उघाड़ाए इब के करणा चाहिए ।। टेक ।।
गात उघाड़ा कंगलेपण मैए न्यूं कित जाया जागाए
नग्न शरीर मनुष्य की स्याहमीए नही लिखाया जागाए
या रंगमहलां के रहणे आळीए ना दुख ठाया जागाए
इसके रहते मेरे तै नाए खाया.कमाया जागाए
किसे नै आच्छी.भुंडी तकदी तोए जी तैं भी मरणा चाहिए ।।
फूक दई कलयुग नै बुद्धि न्यूं आत्मा काली होगीए
कदे राज करूं था आज पुष्कर केए हाथं मै ताली होगीए
सोलह वर्ष तक मां.बापां नैए आप सम्भाली होगीए
इब तै पतिभर्ता आपणे धर्म कीए आप रूखाली होगीए
खता मेरी पर राणी नै भीए क्यों दुख भरणा चाहिए ।।
एक मन तै कहै छोड़ बहू नैए एक था नाटण खातरए
कलयुग जोर जमावै भूप पैए न्यारे पाटण खातरए
बुद्धि भ्रष्ट करी राजा नल कीए न्यूं दिल डांटण खातरए
एक तेगा भी धरणा चाहिएए साड़ी काटण खातरए
फेर न्यूं सोची थी कलयुग नैए एक तेगा धरणा चाहिए ।।
राणी साझैं पड़कै सोगीए राजा रात्यूं जाग्याए
उसी कुटी मै इधर.उधरए टहल कै देखण लाग्याए
राजा नल नै खबर पटी नाए भूल मै धौखा खाग्याए
फिर कलयुग तेगा बणकैए भूप नै धरा कूण मै पाग्याए
लख्मीचन्द दिल डाटण खातिरए सतगुर का शरणा चाहिए ।।
पं0 लख्मीचन्द ने हरियाणवी सांग को नया मोड़ दिया। उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर श्री रामनारायण अग्रवाल ने ‘सांगीतः एक लोक-नाट्य परम्परा’ नामक ग्रंथ में स्पष्ट किया है- ‘‘इन सब सांगियों में लख्मीचंद सर्वाधिक प्रतिभावान थे। रागनी के वर्तमान रूप के जन्मदाता वास्तव में लख्मीचंद है। कबीर की भांति लोक भाषा में वेदान्त तथा यौवन और प्रेम के मार्मिक चित्रण में लख्मीचंद बेजोड थे। इन जैसा लोक जीवन का चितेरा सांगी हरियाणे में दूसरा नहीं हुआ। पं0 लख्मीचंद के बारे में उनके शिष्य पं0 मांगेराम ने ‘खाण्डेराव परी’ नामक सांग में इस प्रकार कहा-

लख्मीचंद केसा दुनियां म्हं कोई गावणियां ना था।
बीस साल तक सांग करया वो मुंह बावणियां ना था।
वो सत का सांग करया करता शर्मावणिया ना था।
साची बात कहणे तै कदै घबरावणियां ना था।

इस प्रकार हरियाणवी सांग को तपाकर कुन्दन बनाने वाले सूर्यकवि पंडित लख्मीचन्द एक लंबी बीमारी के उपरान्त 17 जुलाईए 1945 ;17 अक्तूबरए1945द्ध की सुबह इस नश्वर संसार को छोडक़र परमपिता परमात्मा के चरणों में जा विराजे और वे अपनी अथाह एवं अनमोल विरासत छोडक़र चले गए। महान् सांगीतकार पं0 लख्मीचंद को सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक पक्षों का व्यावहारिक ज्ञान था। उनके सांगीतों में सामाजिक रिश्तों का चित्रण सांस्कृतिक मूल्यों व आदर्शाें के अनुरूप ही हुआ है। ‘सत्यवान सावित्री’ नामक सांगीत में माता-पिता अपनी पुत्री सावित्री के जवान होने पर उसके विवाह की चिन्ता करते है। राजा अश्वपति जवान पुत्री को अविवाहित देखकर चिन्तित है-

अपनी जवान पुत्री नै देख, सोचण लाग्या जतन अनेकए
मिटते कोन्या लेख करम के, न्यूं ऊँच नीच का ध्यान कियाए

सावित्री की माता भी चिन्ताग्रस्त होकर क्या कहती है दृ

सावित्री का भी कुछ ध्यान सै सुण साजन मेरे होरी ब्याहवण जोग।

बात कहूं सूं बणके टेढी, मनै तै एक जणी थी बेटीए
जिनकै बेटी घरां जवान सैए न्यू कहते बड़े बड़ेरे, उनकै माणस मरे जितना सोग।

उनकी इस विरासत को सहेजने व आगे बढ़ाने के लिए उनके सुपुत्र पंडित तुलेराम कौशिक ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई। इसके बाद तीसरी पीढ़ी में उनके पौत्र पंडित विष्णुदत्त कौशिक भी अपने दादा की परंपरा का हरियाणाए राजस्थान व उत्तर प्रदेश के दूर.दराज के गाँवों तक प्रचार प्रसार कर रहें हैं तथा अपनी विरासत के संरक्षण एवं संवर्धन में अति प्रशंसनीय भूमिका अदा कर रहे हैं। वे अपने दादा द्वारा बनाए गए ष्ताराचन्दष् के तीन भागए ष्शाही लकड़हाराष् के दो भागए ष्पूर्णमलष्ए ष्सरदार चापसिंहष्ए ष्नौटंकीष्ए ष्मीराबाईष्ए ष्राजा नलष्ए ष्सत्यवान.सावित्रीष्ए महाभारत का किस्सा ष्कीचक द्रोपदीष्ए ष्पद्मावतष् आदि दर्जन भर साँगों का सैंकड़ो बार मंचन कर चुके हैं और आज भी लोगों की भारी भीड़ उन्हें सुनने के लिए दौड़ी चली आती है। हरियाणवी लोक संस्कृति की महान शख्सियत सूर्यकवि पंडित लख्मीचन्द को कोटि.कोटि नमन है द्य

पंडित लखमीचन्द के शिष्यों की बहुत लंबी सूची हैए जिन्होंने ष्साँगष् कला को समर्पित भाव से आगे बढ़ाया। उनके शिष्य पंडित मांगेराम ;पाणछीद्ध ने अपनी बहुमुखी प्रतिभा के बल पर सांग को एक नया आयाम दिया और अपने गुरु पंडित लख्मीचन्द के बाद दूसरे स्थान पर ष्साँगष् कला में अपना नाम दर्ज करवाया। उनके शिष्यों ने अपने गुरु पंडित लख्मीचंद का नाम खूब रोशन किया जिनकी सूची इस प्रकार हैए जो रागनीए भजन गाने या बनाने में निपुण थेरू.

क्रण् शिष्य के नाम निवास स्थान
1 पंडित रामचन्द्र खटकड़
2 पंडित रतीराम हीरापुर ; श्री लख्मीचंद के मामा के लड़केद्ध
3 पंडित माईचन्द बबैल
4 पंडित सुल्तान रोहद
5 पंडित चंदनलाल बजाणा
6 पंडित मांगेराम पाँणछी
7 फौजी मेहरसिंह बरोणा
8 पंडित रामस्वरूप स्टावली
9 पंडित ब्रह्मा शाहपुर बड़ौली
10 श्री धारासिंह बड़ौत
11 श्री धर्मे जोगी डीकाणा
12 श्री जहूरमीर बाकनेर
13 श्री सरूप बहादुरगढ़
14 श्री तुंगल बहदुगढ़
15 श्री हरबंश पथरपुर . यूण्पीण्
16 श्री लखी धनौरा . यूण्पीण्
17 श्री मित्रसेन लुहारी . यूण्पीण्
18 श्री चन्दगीराम अटेरणा
19 श्री मुंशीराम मिरासी खेवड़ा ;बाद मे पाकिस्तान स्थानांतरितद्ध
20 श्री गुलाब रसूल पिपली खेड़ा ;बाद मे पाकिस्तान स्थानांतरितद्ध
21 श्री हैदर नया बांस ;बाद मे पाकिस्तान स्थानांतरितद्ध

’ पं लख्मीचन्द के सगे भाई दीपा एवं शिष्य व सगे मामा के लड़के पं रतिराम सांगी एक ही घर में सुराणाए यूण्पीण् में सगी बहनों से विवाहित थे।

’ सुपुत्र स्वण् पं तुलेराम सांगी ने काफी दिनो तक बेड़ा संभाले रखा था द्य

’ सुपौत्र पं विष्णुदत्त अपने दादा लख्मीचन्द द्वारा बने सांग आज तक भी कर रहे है द्य

’पं० लख्मीचन्द रू संक्षिप्त जानकारी’
जन्म तिथि 15.07.1903
स्वर्गवास 17.10.1945
निवास स्थान जांटीकलां . जिला सोनीपत
सतगुरु का नाम पं मानसिंह सूरदास ;गांव बसौदीद्ध
पिता एवं माता पं० उमीदराम एवं रीमती शिबिया
भाईयो का नाम कंगण एवं दीपा
बहनों का नाम छोटो देवी ;नांगल में विवाहितद्ध
रत्नो देवी ;भूररी में विवाहितद्ध
धन्ता देवी ; जेठड़ी में विवाहितद्ध
पत्नी का नाम भरपाई देवी
ससुर का नाम श्री बसतीराम ;गांव हसलापुरए गुरूग्रामद्ध
साला का नाम श्रीचन्द
सुपुत्र श्री तुलेराम कौशिक सांगी
सुपौत्र श्री विष्णुदत्त शर्मा सांगी

पं0 लखमीचंद ने लगभग 40 सांगों की रचना की जोकि लगभग निम्नलिखित हैः-

नौटंकी मीराबाई रघुबीर धर्मकौर अंजना देवी
चन्द्रकिरण ऊंखा अनिरूद्ध हीर-रांझा निहालदे नर सुल्तान
राजा भोज सरणदे ध्रुव भगत ज्यानी चोर बीजा सोरठ
चापसिंह सोमवती रूप बसन्त हूर मेनका हीरामल जमाल
शाही लकडहारा सती विपुला सत्यवान-सावित्री शकुन्तला-दुष्यन्त
भगत पूर्णमल गोपीचंद राजा हरिश्चन्द्र छोरे बागडी
सेठ ताराचंद धर्मपाल. शांताकुमारी चीर पर्व ताकूतोड बाल्टीफोड
विराट-पर्व कृष्ण सुदामा नल-दमयन्ती जैमलफत्ता
पदमावत चन्द्रहास भूप पुरंजन

विरले सांगी प. सुल्तान चौरासिया:-
गंधर्व कवि प. लख्मीचंद की आँखों का तारा व उनके सांगीत बेड़े में उम्रभर आहुति देने वाले सांग-सम्राट पं. सुल्तान का जन्म 1918 ई0 को गांव- रोहद, जिला- झज्जर (हरियाणा) के एक मध्यम वर्गीय ‘चौरासिया ब्राह्मण’ परिवार मे हुआ। इनके पिता का नाम पं. जोखिराम शर्मा व माता का नाम हंसकौर था और वे कस्तूरी देवी के साथ गाँव सरूरपुर कलां, बागपत-उ.प. मे वैवाहिक बंधन मे बंधे थे। पंडित सुल्तान शैक्षिक तौर पर बिल्कुल ही अनपढ़ थे, परन्तु गीत-संगीत की लालसा तो उनमे बचपन से ही थी क्यूंकि वे अन्य लोगो की तरह मित्र-दोस्तों के साथ चलते-फिरते भजनों-गीतों की पंक्तियों को गुन-गुनाते रहते थे। उसके बाद बाल्यकाल पूर्ण होते-होते, उन्हें कर्णरस एवं गीत श्रवण की ऐसी ललक लगी कि अपने गाँव से भी वे कोसों-मीलों दूर जाकर सांगी-भजनियों के काव्य सार को अपने अन्दर समाहित करते रहे। फिर किशोरावस्था के दिनों मे पंडित सुल्तान जी के जीवन मे एक नए सांगीत अध्याय के अंकुर फूटने लगे। फिर सौभाग्य से उन दिनो किशोरायु सुल्तान के गाँव रोहद मे प. लख्मीचंद के सांगो का कार्यक्रम शुरू था और एक दिन बालक सुल्तान शाम को प. लख्मीचंद का सांग सुनकर अगले दिन जब सुबह खेतों की ओर उसी सांग की रचनाओं को ऊँची आवाज मे गा रहे थे तो संयोगवश प. लख्मीचंद भी उसी तरफ सुबह सुबह घुमने निकले हुए थे। इसलिए जब प. लख्मीचंद ने बालक सुल्तान की मनमोहक आवाज सुनी तो आकर्षण के कारण बालक सुल्तान के पास ही पहुँच गए और प. लख्मीचंद जी ने दोबारा से बालक सुल्तान से वही भजन सुनाने को कहा, जो सुल्तान उस समय गा रहे थे। फिर सुल्तान ने जब वही भजन दोबारा प. लख्मीचंद वाली लयदारी में गाया तो उनकी लय और स्मरण शक्ति को देखकर प. लख्मीचंद अचंभित रह गए। फिर प. लख्मीचंद जी ने उस बालक से परिचय पूछने लगे। फिर बालक सुल्तान द्वारा अपना परिचय देने पर प. लख्मीचंद उसी समय सुल्तान के साथ उसके घर जाकर उनके पिता जोखिराम से मिले और कहाँ कि आज से आपका ये लड़का मेरे सांगीत बेड़े मे शामिल करने हेतु मुझको सौंपदो। फिर सुल्तान के पिता जोखिराम जी ने कहा कि ये लड़का मेरा क्या, आपका ही है, जब चाहे इसे अपने साथ ले जाओ। उसके बाद प. लख्मीचंद जी ने बालक सुल्तान को उसी दिन से अपने बेड़े मे शामिल कर लिया, क्यूंकि उस समय प. लख्मीचंद जी बालक सुल्तान के गाँव मे ही सांग कर रहे थे। फिर उसी दिन से प. लख्मीचंद जी ने बालक सुल्तान को अपना शिष्य बना लिया और अपने बेड़े मे शामिल कर उसको पारंगत कर दिया। फिर प. लख्मीचंद जी ने गुरु मन्त्र के रूप मे सुल्तान से कहा कि बेटा आज से अपने गाँव की बहन-बेटी को सम्मान देना और साधू-संतो व गौओ एवं गुरुओं के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित रहना। उसके बाद प. सुल्तान ने गुरु मंत्र द्वारा पूरी निष्ठां एवं श्रद्धा से गुरु की सेवा करके गायन-कला मे प्रवीण होकर ही अपनी इस सतत साधना और संगीत की आत्मीय पिपासा को पूरा किया। इस प्रकार फिर गुरु लख्मीचंद के सत्संग से शिष्य सुल्तान अपनी संगीत, गायन, वादन और अभिनय कला मे बहुत जल्द ही पारंगत हो गए। इस प्रकार प. सुल्तान शुरू से आखीर तक हमेशा गुरु लख्मीचंद के संगीत-बेड़े में रहे और अपनी गायन-उर्जा से गुरु के सांगीत बेड़े को जीवनभर प्रकाशमय करते रहे।
वैसे तो पंडित सुल्तान भी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनके घनिष्ठ प्रेमीयों एवं कला के कायल जन साधारण ने पंडित सुल्तान के संबंध मे कितना ही उचित कहा है कि जो पंडित सुल्तान को एक साधारण सांगी समझते है, वे अल्पबुद्धि जीव ही है। वे केवल एक सशक्त सांगी ही नहीं, अपितु एक सर्वश्रेष्ठ गुरुभक्त के साथ-साथ प्रभावी कवि भी थे। वे एक बहुत ही साधारण व्यक्तित्व के साथ-साथ एक अदभुत साहित्य एवं संगीत कला के, इस हरियाणवी लोक-साहित्य मे बहुत बड़े सहयोगी भी है, जो इस आधुनिक युग के सांगियों व कवियों के लिए एक बहुत बड़ी मिशाल है। पंडित सुल्तान गोरे रंग के साथ-साथ एक मध्यम कद-काठी के धनी थे और दूसरी तरफ इनकी वेशभूषा धोती-कुर्ता व साफा सुहावनी होने के साथ इनकी प्रतिभा को और भी प्रभावशली बनाती थी। इनका सादा जीवन व रहन-सहन ही बेशकीमती आभूषण था, जो इतने प्रतिभावान होते हुए भी साधुवाद की तरह जरा-सा भी अहम भाव नहीं था। उनका यह साधुवाद चरित्र उनके सांग मंचन मे हमेशा ही झलकता था। उन्होंने कभी सांगो का लेखन तो नहीं किया परन्तु गुरु प्रभाव के कारण बहुत सी फुटकड़ रचनाएँ जरुर की, जिनकी संख्या 50 से 100 के आसपास है। अब साक्ष्य के तौर पर उन्ही रचनाओं मे से प. सुल्तान की कुछ साहित्यिक झलक निम्न है –

कहै सुल्तान मौज कर घर मै, मन-तन की ले काढ सेठाणी,
भाईयाँ की सू समझ रही सै, तेरी पर्वत जितनी आड़ सेठाणी,
तेरे हंस-हंस करल्यु लाड सेठाणी, मेरा सोया निमत फेर तै जाग्या,
पिया जी की शान देखके, जणू सूखे धाना म्य पाणी आग्या,
-(सांग-सेठ ताराचंद)-

बात कहूँगी वाहे शुरू आली, भक्ति पार होई ध्रुव आली,
कहै सुल्तान म्हारे गुरु आली तूं वाहे चाल राखिये रे बेटा,
मतन्या काल राखिये रे बेटा, सासू क ख्याल रखिये रे बेटा,
बेटा सुणता जा
-(सांग-सेठ ताराचंद)-

लख्मीचंद का दास मनै, सुल्तान ज्यान तै प्यारा सै,
झूली-गाई नहीं मनै दुःख, तेरी ओड़ का भारया सै,
जिसकी मारी फिरै भटकती, वो चाल बाग म्य आरया सै,
-(सांग-पद्मावत)-

उसके बाद फिर उन्होंने प. लख्मीचंद के बेड़े मे रहकर बहुत से सामाजिक कार्य किये, जैसे -जोहड़ खुदवाने, धर्मशाला बनवाने, गौशाला बनवाने, स्कुल बनवाने आदि हेतु अनगिनित चंदा इकठ्ठा करके उनको सम्पूर्ण करवाके उम्रभर अपने संरक्षण मे रखना और प. लख्मीचंद जी ने अपने सांगो द्वारा उम्रभर जितना चंदा इकठ्ठा किया, उसमे सबसे बड़ा हाथ किसी का था तो वो था शिष्य सुल्तान का। इसके अलावा साधू-संतो की सेवा मे उम्रभर जुटे रहे, जैसे- अपने हाथों से उनके कपडे धोना, उनकी जटाओं को निर्मल करना और आश्रमों मे गौ माताओ के लिए परिश्रम करना।
फिर सन 1945 के बाद गुरु लख्मीचंद के पंचतत्व मे विलीन होने के समय से स्वयं के स्वर्ग सिधारने तक, उन्होंने उसी गुरु बेड़े के साथ सन् 1945 ई0 से 12 जुलाई, 1969 तक ताउम्र पंडित लख्मीचंद के सांगो का ही मंचन किया। प. सुल्तान ने अपने गुरु लख्मीचंद जी के जिन-जिन सांगो का उम्रभर ज्यादातर मंचन किया, वे निम्न मे इस प्रकार है- पूर्णमल, पद्मावत, राजा नल, शाही लकड़हारा, मीरा बाई, सेठ ताराचंद, राजा हरिश्चंद्र, चापसिंह-सोमवती, फूलसिंह-नौटंकी आदि।

2 बाजे भगत दृ
बाजे भगत का जन्म 1899 ईण् में सावन बदी त्रयोदशी को जिला सोनीपत के दहिया खाप के गांव सिसाणा में हुआ। ‘‘कहै बाजे भगत ससाणे आला लाभ रहो चाहे हाणी’’1 इनके पिता का नाम श्री बदलूराम तथा माता का नाम श्रीमती बदामो देवी था। बाजे भगत तीखे नयन-नक्श, सांवला कृष्ण रंग, गठीला बदन, घुंडीदार मूंछे और 6 फुट का कद, एक आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे। उन्होंने शैशवावस्था में ही शिक्षा परित्याग कर लोकनाट्य रूपी रामलीला में अभिनय करना प्रारम्भ कर दिया। सांगीत की दुनिया में उन्होंने सुप्रसिद्ध सांगी गोरड़ निवासी श्री हरदेवा को अपना गुरू बनाया। ‘‘बाजे भगत के सतगुरू थे गोरड़ के स्वामी हरदेवा’’।2 श्री हरदेवा को गुरू धारण करके उनकी सांग मण्डली में दस वर्ष तक रहे तथा बाद में अपनी अलग सांग-मण्डली बनाकर लगभग 12 वर्ष तक सांगो का मंचन किया।

उस युग में समाज में जातिप्रथा, रूढ़िवाद व अन्य सामाजिक बुराईयां अपनी चरम सीमा पर थी। ऐसे वक्त में समाज में इन रूढियों के खिलाफ टक्कर लेना कोई आसान काम नहीं था। भारतीय समाज की बहु.विवाह ;एक से ज्यादा विवाह करनाद्ध नामक सामाजिक कुरीति पर तीक्ष्ण प्रहार करते हुए लोक कवि बाजेभगत समाज को किस प्रकार एक उपदेश देते हैंः-

भाइयो जिसतै टूटै नाड़ए बोझ इसा ठाईयो ना,
इज्जत आले का नाश करादे, रांड के लाड लडाईयो ना
सूली से दुःख मोटा हो सै, नांटू सूं दूजा ब्याह कराईयों ना
कोई सुणता हो तो नारी दूसरी ल्याइयो नाए
या कित चन्द्रकिरण ब्याहीए मेरे कर्मा की करड़ाई थी।

‘गोपीचन्द’ नामक सांगीत में लोककवि ने पुत्र से माँ अलग होने के बाद माता की मनःस्थिति का स्वाभाविक वर्णन किया है। गोपीचंद अपनी माता के आदेशानुसार गोरखनाथ के पास जाकर दीक्षा ग्रहण कर लेता है। फिर गोपीचंद की माता बाबा गोरखनाथ से अपने पुत्र को वापस लेने आती है और कहती है-

बेटे बिन माता के दिल म्यए हो सै घोर अन्धेराए
मेरे गोपीचंद ने दिखा दिए, कित लाल ल्हको गेराए
अपने बेटे गोपीचंद नै जोग दुवाणा ना चाहतीए
अपनी आंख के तारे नै दूर हटाणा ना चाहती।

इस प्रकार हरियाणवी सांग की महत्वता बढाने वाले सरस्वती पुत्र श्री बाजे भगत एक अनसुलझी गुंथी के उपरान्त सन 1936 ईण् मे वे नफरत के तूफान मे फंसकर इस निधि को छोडक़र परमपिता परमात्मा के चरणों में जाकर अपनी अनमोल विरासत छोडक़र चले गए।

बाजे भगत ने 22 के लगभग सांगीतों का लेखन एवं मंचन किया। उनके प्रमुख सांग इस प्रकार हैः-

शकुन्तला-दुष्यन्त कृष्ण-जन्म
गोपीचन्द नल-दमयन्ती
रघबीर-धर्मकौर महाभारत आदिपर्व
पदमावत सत्यवती देवी
चन्द्रकिरण सत्यवादी हरिश्चन्द्र
सरवर-नीर अजीत सिंह राजबाला
हीरामल-जमाल ज्यानी चोर
भगत पूर्णमल चन्द्रवती कृष्णदत
हीर-रांझा नौटंकी इत्यादि।6

वैसे तो अब बाजे भगत के पौत्र अशोक कुमार को ‘हीर रांझा’ एवं ‘नौटंकी’ सांगीतो की कुछ.कुछ रागनियां भी मिली है।

3 गंधर्व पंडित नन्दलाल .

गन्धर्व कवि पंडित नन्दलाल का जन्म पंडित केशवराम के घर गाँव पाथरआलीए जिला भिवानी मे 29.10.1913 को हुआ था द्य इनके पिता जी केशवराम भी अपने समय मे उच्चकोटि के लोककवि व लोकगायक थे द्य नन्दलाल जी 5 भाई व 6 बहनों मे 10 वे नम्बर के थे द्य पांचो भाईयो मे श्री भगवाना राम जो कि जवान अवस्था मे स्वर्ग सिधार गए थे द्य दुसरे नम्बर पर श्री कुंदनलाल जीए तीसरे नम्बर पर श्री बनवारी लाल जीए चौथे नम्बर पर स्वयं श्री नन्दलाल जी तथा पांचवे नंबर श्री बेगराज जी थे द्य इनको बचपन से ही कविताई व गायकी का शौक था द्य इनके पिता श्री केशोराम श्री शंकरदास के शिष्य थे जिन्हें ब्रह्मज्ञानी भी कहते है द्य ये नन्दलाल जी तीनो सगे भाई कवि थे दृ नन्दलालए बेगराज जीए कुंदनलाल जी द्य इस प्रकार केशोराम जी के शिष्य कुंदन लाल जी थे और कुंदन लाल जी शिष्य श्री नन्दलाल जी और नन्दलाल जी के शिष्य बेगराज जी थे द्य श्री नन्दलाल जी बचपन मे दिन मे तो गौ चराते थे और रात को बड़े भाई कुंदनलाल जी का जहां भी प्रोग्राम होता थाए तो छुप.छुप के सुनने चले जाते थे द्य उसके बाद थोड़े बड़े होने पर ये हरिराम सांगीदृ गाँव बहु झोलरीदृ रोहतक वाले पास रहने लगे द्य जब इस बात का पता इनके बड़े भाई कुंदनलाल लगा तो उन्होंने इनको अपने पास बुला लिया और अपने साथ बेड़े मे रखने लग गये द्य उसके बाद नन्दलाल जी ने फिर 13 साल की उम्र मे अपना अलग बेड़ा बांध लिया द्य उन्होंने अपना पहला प्रोग्राम लगातार 15 दिन तक गाँव चिडावा.राजस्थान मे किया था क्यूंकि ये हमेशा तत्काल ही बनाते थे और तत्काल ही गाते थे द्य इनकी एक खास बात ये थी कि वो लोगो की फरमाईस पूछते थे कि आप सज्जन पुरुष कोनसे प्रकांड या किस कथा की बात सुनना चाहते हो क्यूंकि इन्होने महाभारतए रामायणए वेद.पुराणए शास्त्र आदि का गहन अध्यन किया हुआ था द्य ये माता सरस्वती से वरदानी थेए जोकि गौ चराते समय माता सरस्वती ने इनको साक्षात् दर्शन दिए थे द्य इसलिए इनकी जिह्वा पर माँ सरस्वती का वास था द्य इनको हरियाणवी लोक साहित्य मे अपने भजनों मे दौड़ ;सरड़ाध्संगीतद्ध की एक अनोखी कला का सर्वप्रथम शुरुआत करने का श्रेय हैए जिसके अन्दर उस प्रसंग का कड़ी से कड़ी सम्पूर्ण सार होता था द्य इनकी कविता जितनी जटिल थीए उतनी ही रसवती भी थी द्य इनको महाभारत के 18 के 18 पर्व कंठस्थ याद थे तथा जिनको कविता के रूप मे गाते रहते थे द्य आज तक हरियाणवी लोकसाहित्य काव्य मे 100 कौरवो और 106 किचको को नाम सिर्फ इन्होने ही अपनी कविताई मे प्रस्तुत किये है अन्यथा किसी भी कवि ने प्रस्तुत नहीं किये द्य इनकी कविता मे आधी मात्रा की भी त्रुटी नही मिल सकती तथा इनकी रचनओ मे अलंकार व छंद की हमेशा ही भरमार रहती थीए इसलिए नन्दलाल जी प्रत्येक रस के प्रधान कवि थे द्य

दोहा. श्रीकृष्ण जन्म.आत्ममनए नटवर नंद किशोर ।
सात द्वीप नो खण्ड कीए प्रभु थारै हाथ मैं डोर ।।

कहूँ जन्म कथा भगवान कीए सर्व संकट हरणे वाली ।। टेक ।।
घृत देवा शांति उपदेवा के बयान सुणोए
श्री देवा देव रक्षार्थी धर करके नै ध्यान सुणोए
सहदेवा और देवकी के नाम से कल्याण सुणोए
सात के अतिरिक्त एक दस पत्नी और परणीए
पोरवीए रोहिणीए भद्राए गद्राए ईलाए कौशल्या यह बरणीए
केशनीए सुदेवी कन्याए रोचना देवजीती धरणीए
रोहिणी से सात जन्मे उनके तुम नाम सुणोए
गद्धए सारणए धुर्वए कृतए विपुलए दुरवूदए बलरामए सुणोए
देवकी के अष्टम गर्भ प्रगटे शुभ धाम सुणोए
जो माया दया निधान कीए वो कभी न मरने वाली ।1।

श्री शुकदेव मुनि देखो परीक्षित जी से कहैं हालए
नर लीला करी हरि संग लिए ग्वाल बालए
कंस को पछाड़ मारे जरासंध शिशुपालए
प्रथम यदुवंशियों में राजा भजमान हुयाए
उनके पुत्र पृथ्रिक उसके विदुरथ बलवान हुयाए
उनके सूरसेन सर्व राजों में प्रधान हुयाए
सूरसेन देश मथुरापुरी रजधानी थीए
सूरसेन भूपति के भूपति कै मरीषा पटराणी थीए
दस पुत्र पाँच कन्या सुशीला स्याणी थीए
ना कमी द्रव संतान कीए सेना रिपु डरने वाली ।2 ।

जेष्ठ पुत्र वसुदेव सत्रह पटरानी ब्याहीए
देवक सुता देवकी थी उन्ही से हुई सगाईए
बड़ी धूमधाम से सज के बारात आईए
आहुक नाम एक नृप वर्षिणी जो वंश सुणोए
उग्रसेन पवन रेखा बदल गया अंश सुणोए
द्रुमलिक राक्षस से पैदा हुया कंस सुणोए
वेद विधि सहित जब देवकी का ब्याह हुयाए
बालक युवा वृद्ध पुरुष नारियों मैं चाव हुयाए
ढप ढोल भेर बाजै पूरी मैं उत्साह हुयाए
ना कवि कह सकै जान कीए गिरा वर्णन करने वाली ।3 ।

चार सौ हाथी अठारह सौ रथ जब सजा दियेए
दस सहस्र हय वेग प्रभंजन के लजा दियेए
दो सौ दासी दास वै भी दुंदुभी बजा दियेए
बारात विदा करी सब चलने को तैयार हुएए
उग्रसेन पुत्र कंस रथ में सवार हुएए
गज वाजि रथ पैदल साथ मैं अपार हुएए
मथुरापुरी गमन सकल बारात हुईए
गुरु कुन्दनलाल कहते आश्चर्य की बात हुईए
सेवक नंदलाल ऊपर राजी दुर्गे मात हुईए
करो शुद्धि मेरी जबान कीए गुण उर में भरने वाली ।4।

दोहा. सकल समूह जन सुन रहेए नभ वाणी कर गौर ।
अरे कंस कहाँ गह रह्याए कर रथ घोड़ां की डोर ।।

वैसे तो नन्दलाल जी ज्यादातर सांगीत मंचन व कथा कार्यक्रम दक्षिण हरियाणा व समीपवर्ती राजस्थान के क्षेत्रों मे ही किया करते थेए लेकिन समय समय पर आमंत्रण के तौर पर वे दूर.दराज के क्षेत्रों व अन्य राज्यों मे भी उनको अच्छी खासी ख्याति प्राप्त थी द्य इसीलिए एक समय का जिक्र है कि सन 1960 मे हरियाणा.पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री प्रताप सिंह कैरव ने एक बार चंडीगढ़ मे लोककवि सम्मलेन करवायाए जिसमे लगभग आस पास के क्षेत्रों से उस समय के महानतम 35 लोककवियों ने भाग लिया द्य उसके बाद फिर कवि सम्मेलान पूर्ण होने के बाद मुख्यमंत्री जी ने गंधर्व कवि नन्दलाल जी की निम्नलिखित रचना को सुनकर प्रथम पुरस्कार के रूप मे उस समय 1100ध्. रुपये की राशि प्रदान की तथा मुख्यमंत्री जी ने इस कवि सम्मलेन समारोह के सम्पूर्ण होने की सुचना व प्रथम पुरुस्कार विजेता पंडित नन्दलाल जी को सर्वोत्तम कलाकार के तौर पर उनकी प्रशंसा के रूप मे उन्होंने इसकी सुचना एक अखबार के माध्यम से की द्य

गुलिस्तान की छवि कहैं क्या ऐसा आलीशान बण्याए
सुरपति का आराम कहैं या मनसिज का अस्थान बण्या।। टेक ।।
दाड़िमए दाखए छुहारे न्यारेए पिस्ते और बादाम लगेए
मोगराए केवड़ाए हिनाए चमेलीए खुशबूदार तमाम लगेए
अखरोटए श्रीफलए चिलगोजेए कदलीए अंगूर मुलाम लगेए
नींबूए नारंगीए चंगीए अमरूदए सन्तरेए आम लगेए
जूहीए बेलाए पुष्पए गुलाब खिल्याए एक आत्म परम स्थान बण्या।।

मौलसरीए चंपा लजवंतीए लहर.लहर लहराई थीए
केतकीए सूरजमुखीए गेंदे कीए महक चमन मै छाई थीए
स्फटिक मणी दीवारों पैए संगमरमर की खाई थीए
गुलिस्तान की शोभा लखए बसंत ऋतु शरमाई थीए
बाग कहुं या स्वर्गए इस चिंता मै कफगान बण्या।।

मलयागर चंदन के बिरवेए केसर की क्यारी देखीए
बाग बहोत से देखे थेए पर या शोभा न्यारी देखीए
जिधर नजर जा वहीं अटकज्याए सब वस्तु प्यारी देखीए
सितम करे कारीगर नैए अद्भुत होशियारी देखीए
अमृत सम जल स्वादिष्ट एक तलाए चमन दरम्यान बण्या।।

झाड़ए फानुसए गिलास लगेए विद्युत की बत्ती चसती थीए
नीलकंठए कलकंठए मधुर सुरए प्रिय वाणी दसती थीए
मुकुर बीच तस्वीर खींचीए तिरछी चितवन मन हंसती थीए
अष्ट सिद्धीए नव निधिए जाणु तो गुलिस्तान मै बसती थीए
हीरेए मोतीए लाल लगेए एक देखण योग्य मकान बण्या।।

शीशे की अलमारी भेद बिनए चाबी लगै ना ताळे मैए
कंघाए सीसाए शीशी इत्र कीए पान दान धरे आळे मैए
चमकैं धरे गिलास काँच केए जैसे बर्फ हिमाळय मैए
एक जबरा पेड़ खड़्या था बड़ काए झूल घली थी डाळे मैए
परी अर्श से आती होगीए इस तरीयां का मिजान बण्या।।

चातकए चकवाए चकोरए बुलबुलए मैनाए मोरए मराल रहैंए
सेढूए लक्ष्मणए शंकरदास केए परम गुरु गोपाल रहैंए
केशोराम सैल करतेए खिदमत मैं कुंदनलाल रहैंए
कर नंदलाल प्रेम से सेवाए तुम पै गुरु दयाल रहैंए
मन मतंग को वश मै करए ईश्वर का नाम ऐलान बण्या।।

उसके बावजूद इतना मानं.सम्मान व ख्याति पाने पर भी उनको कभी भी अहम भाव पैदा नहीं हुआ और इन्होने अपने जीवन मे कभी भी धन का लालच नही किया और सभी प्रोग्रामों के सारे के सारे पैसे हमेशा धार्मिक कार्यों व गरीबो मे ही बाँट देते थे द्य

इनको साधू.संतो से विशेष लगाव थाए जिसके चलते इन्होने 38 साल की उम्र मे बाबा शंकरगिरी को अपना शब्दगुरु बनाया था द्य उसके 6 महीने बाद बाबा बैंडनाथ की आज्ञानुसार इन्होने सन्यासी रूप धारण कर लिया था तथा बाबा बैंडनाथ के पास अपने ही गाँव के पास खेतों मे बाबा बैंडनाथ के साथ कुटी बनाकर उनके साथ ही रहना शुरू कर दिया था तथा गृहस्थ आश्रम से सन्यास ले लिया था द्य क्यूंकि नन्दलाल जी के शिष्य पंडित गणेशी लाल जीए जो गाँव. नौलायचा.महेंद्रगढ़ के निवासी हैए जो अभी भी 85 की उम्र मे हमारे साथ विद्यमान है और हमेशा नन्दलाल जी के साथ ही रहते थेए उनके अनुसार एक बार नन्दलाल जी बालेश्वर धाम पर गए हुए थे और वहां के प्रसिद्द संत श्री सुरतागिरी महाराज के आश्रम पहुंचे द्य जब नन्दलाल जी उस आश्रम के द्वार पर पहुंचे तो सुर्तागिरी महाराज ने बिना किसी परिचय के वहा उनको प्रवेश करते ही उनको उके नाम नन्दलाल से ही पुकार दिया क्यूंकि सुर्तागिरी जी एक त्रिकालदर्शी थे संत थे द्य उसके बाद नन्दलाल जी ने सुर्तागिरी महाराज से पूछा कि आप मेरे को कैसे जानते हो द्य फिर महाराज सुर्तागिरी ने नन्दलाल जी को अन्दर आकर पूर्व जन्म का सम्पूर्ण वृतांत सुनने को कहा द्य उसके बाद नन्दलाल जी ने पहले तो वहां एक दिन के लिए आराम किया तथा दुसरे दिन उस आश्रम मे दो ही भजन सुनाये थे तो फिर भजन सुनने के बाद महाराज सुरतागिरी महाराज ने नन्दलाल जी को ज्ञात कराया कि आप पिछले जन्म मे दरभंगा के राजा के राजगुरु थे द्य फिर सुर्तागिरी महाराज ने नंदलाल जी के बारे मे आगे बताते हुए कहा कि एक बार राजा को यज्ञ करवाना था तो फिर आपने उस यज्ञ का शुभ मुहूर्त बताया और फिर राजा ने आपसे यज्ञ प्रारंभ के समय पर पहुँचने की विनती की द्य फिर जब राजा ने मुहूर्त के अनुसार यज्ञ शुरू करवाते समय उस दिन उनके मन मे उतावलेपन के कारण विलम्बता का शंशय पैदा होने के कारण यज्ञ मुहूर्त मे समय रहते हुए ही यज्ञ को आपके आने से पहले ही शुरू करवा दिया द्य फिर आप जब वहां यज्ञ मुहूर्त के अनुसार समय पर पहुंचे तो राजा यज्ञ शुरू करवा चुके थे द्य फिर आपने अतिशीघ्रता से यज्ञ को शुरू होते देखा तो आपने अपना अपमान समझकर क्रोधवश आपकी सारी पोथी.पुस्तके उस हवन कुंड मे डालकर उसी समय वनवासी हो गए द्य इसी कारण फिर आपका पोथी.पुस्तक ज्ञान तो हवन कुण्ड मे जल गया था और आपके अन्दर जो पिछले जन्म का हर्दयज्ञान बचा था उसका बखान आप इस कलयुग के समय मे अपने गृहस्थ जीवन मे जन्म अवतरित होकर कर रहे द्य फिर उसके बाद सुर्तागिरी महाराज ने नन्दलाल जी से कहा कि आपका सन्यासी जीवन अभी शेष है और आपको पिछले जन्म की तरह आपको कुछ समय सन्यासी जीवन व्यतीत करना पड़ेगा द्य इस प्रकार फिर बालेश्वर धाम मे सुर्तागिरी महाराज द्वारा की गई भविष्यवाणी अनुसार नन्दलाल जी को 38 साल की उम्र मे सन्यास आश्रम जाना पड़ा द्य इस प्रकार गंधर्व लोककवि पं0 नन्दलाल रविवार के दिन 27.10.1963 को अपनी पावन कुटिया मे विजय दशमी के अवसर पर अपना चोला छोड़ पूर्वजन्म का कर्मयोग करके इस भवसागर से पार हो गये।

इन्होने कौरवो और पांड्वो के जन्म से लेकर मरणोपरांत तक सभी प्रसंगो पे कविताई कीए जैसे. विराट पर्वए गौ हरणए द्रोपदी स्वयंवरए कीचक वधण्ण्ण्ण्
इन्होने सभी प्रमाणिक कथाओं के तौर पर नल दमयंती कथा ए राजा हरिश्चंद्र कथा ए पूर्णमलए जानी चोरए चन्द्रहासए बब्रुभानए लक्षकंवर का टीकाए कृष्ण जन्मए रुकमनी मंगलए सम्पूर्ण रामायणए काला तुहड़ी ; इनको काल का रूप बताकर उनका पूरा चक्र समझा दियाद्धए राजा अमरीष आदि द्य

4 कवि शिरोमणि पं0 मांगेराम .

पं0 मांगेराम का जन्म जुलाई 1905 में गांव सिसाणाए जिला रोहतक में हुआ। इनके पिता का नाम श्री अमरसिंह और माता का नाम श्रीमती धर्माें देवी था। इनके पिता लगभग 80 बीघा जमीन के मालिक थे। इनके पांच लडके सर्वश्री मांगेराम, टीकाराम, हुक्मचंद, चन्द्रभान और रामचन्द्र वकील तथा एक लडकी गोधां थी। इनमें से पं0 मांगेराम ज्येष्ठ पुत्र थे। मांगेराम को इनके नाना उदमीराम ने गोद ले लिया था। इस प्रकार ये गांव सुसाणा में जन्म लेकर पांणची वासी बन गये। ऐसा वर्णन उनके अनेक छन्दों में मिलता है-

‘‘पाणची म्हं रहण लागग्या मांगेराम सुसाणे का।

पं0 मांगेराम के नाना पं0 उदमीराम धार्मिक प्रवृति के व्यक्ति थे। उनकी रूचि भजनों में थी। नाना की इस रूचि का प्रभाव बालक मांगेराम पर भी पडा और उनका रूझान संगीत की ओर होता चला गया। सन् 1930 के आस-पास जब पं. मांगेराम की आयु लगभग 25 वर्ष थी। इन्होंने सांग मण्डली में सम्मिलित होने की इच्छा प्रकट की, परन्तु घरवालों ने इसकी इजाजत नहीं दी। कुछ समय पश्चात् घरवालों की मर्जी के खिलाफ पं0 मांगेराम सांग मण्डली में शामिल हो गये तथा उस समय के प्रसिद्ध सांगी पं0 लखमीचंद से प्रभावित होकर उनको विधिवत् गुरू मान लिया। सांग कला में निपुण होने के पश्चात् पं0 मांगेराम ने अपने गुरू से अलग होकर स्वतन्त्र सांगी बेडा स्थापित किया तथा अपने गीत-रागनी स्वयं बनाने लगे। पं0 मांगेराम के लगभग सभी सांगों को लोक जीवन में ख्याति मिली थी और अपनी रचनाओं मे गुरु के प्रति अटूट श्रद्धा दिखाकर गुरु भक्ति को चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया तथा गुरु लख्मीचंद को पुनः अमरत्व प्रदान किया जो आज आज तक हमारी आत्माओं मे बसा हुआ है। इनके दो सांगो ‘धु्रव भगत’ और ‘कृष्ण जन्म’ को विशेषतः लोक प्रसिद्धि मिली और कुछ सांग उनके विलुप्ता की कगार पर पहुँच गये थे जो कभी अन्य लोक गायकों द्वारा कभी हमारे बीच गायन मे नहीं आये द्य उन्ही मे से है एक सांग है. ष्जादू की रातष् और इस सांग की एक श्रृंगारिक रचना निम्नलिखित मे इस प्रकार प्रस्तुत है.

मिंचते आंख दिखाई दे सैए कमरा शीश्यां आलाए
सुती पड़ी पलंग पै देखीए था माशूक निराला।। टेक ।।
लाल किरोड़ी पड्या रेत मैंए जो तड़कै पाग्या होगाए
देख परी नै हूर परी कै भीए दहका सा लाग्या होगाए
सारी ऐ बात बताई होगीए जब कुणबा जाग्या होगाए
तूं कहरया सै मनै रात नैए कोए सुपना आग्या होगाए
यो सुपना कोन्या साची बणरीए मैं न्यूं खाकै पड्या तवाला।
एक पहर का कहरया सूंए तनै कुछ भी जाणी कोन्याए
आख्यां देखी बात कहूं सूंए या जगत कहाणी कोन्याए
इन्द्राणी सती अनुसूईया जिसीए इसी ब्रहमाणी कोन्याए
तेरे मैं मेरा मन फंसग्याए तनै चलण की ठाणी कोन्याए
किसै भागवान नै बुलबुल कैसाए बच्चा ध्यान लगाके पाल्या।
आज तै आगै जंचली सबए नकली भाई चाराए
बणी.बणी के सब कोए साथीए ना बिगड़ी मैं प्याराए
बतलावण की श्रद्धा कोन्याए जी आख्यां मैं आरयाए
गजब का गोला आण पड़्याए जब बजे रात के बाराए
एक माणस कै डाका पड़ग्याए यो सारा.ऐ.देश रुखाला।
थारे भाई पै विपता पड़रीए मिलकै दर्द बांटल्योए
गहरा जख्म नदी सी खुदरीए मिलकै गैल आंटल्योए
खाकै जहर मरुंगाए उस बिन बेशक मनै नाटल्योए
मांगेराम नै मीठा बोलकैए बेशक नाड़ काटल्योए
बहुत आदमी करते देखेए मनै पूंजी राख दिवाला।

वैसे तो मांगेराम जी ने अपने गुरु लख्मीचंद के सांगो से प्रभावित होकर बहुत पहले ही कुछ फुटकड़ रचनाओं को बनाना और गुनगुनाना शुरू कर दिया थाए जब वे अपनी मोटर.लोरी लेकर श्री लख्मीचंद जी के सांगो का रसपान करने के लिए जगह.जगह पहुच जाते थे लेकिन उन्होंने जब तक श्री लख्मीचंद को अपना गुरु धारण नहीं किया थाए वे सिर्फ उनके सांगो को सुनकर अपने शुरूआती अध्यन मे थोडा बहुत कोई कोई फुटकड़ रचना बनाकर अपने मित्र मण्डली व बाद मे कभी कभी श्रोताओं व अपने मित्र मण्डली की फरमाईश पर अपने सांगो को प्रारंभ करने से पूर्व व अंत मे किसी धर्मशाला व अन्य थौड़.ठिकानों पर भी सुनाया करते थे द्य फिर इसी विषय को आगे बढ़ाते हुये पंडित मांगेराम जी के ही प्रिय शिष्य पंडित राजेराम जी ने मांगेराम जी की एक ऐसी ही बहुत ही कमसुनी फुटकड़ रचना पे प्रकाश डालते हुए निम्नलिखित मे बताया हैए जो उनके गुरु पंडित लख्मीचंद के ष्राजा हरिश्चंद्रष् के सांग से प्रभावित रचना है द्य

28 दिन का रहणा होगाए भंगी आले घर मैंए
बोझ तलै मेरी नाड़ टूटगीए आगी गर्ब कमर मैं।। टेक ।।
ठाल्ली झगड़े झोणे होगेए धर्म के मरवे बोणे होगे
सौ सौ घड़वे ढोणे होगे बाल रहया न सिर मैं।।
रहणा सहणा खास छुटग्याए अवधपुरी का वास छुटग्याए
एक लड़का रोहताश छुटग्याए बालक सी उम्र मैं।।
गहरी विपता ठाणी पड़गीए दर.दर ठोकर खाणी पड़गी
मदनावत राणी पड़गीए न्युये ठाल्ली सोच.फिक्र मैं।।
अवधपुरी का रहणा छुट्याए मांगेराम ड्राईवर लुट्याए
ठोकर लागी घड़वा फूटयाए चढ़ग्या सूरज शिखर मैं।।
सन् 1962 में पं0 मांगेराम ने गन्धर्व सभा बनायी थी, जिसमें उस समय के पांच प्रसिद्ध सांगी, पं0 मांगेराम, पं0 सुल्तान सिंह, धनपत, रामकिशन ब्यास तथा चन्द्रलाल उर्फ चन्द्रलाल बादी सम्मिलित थे। गन्धर्व सभा ने कई स्थानों पर अपने गीत-संगीत के कार्यक्रम पेश किये थे। हरियाणा की संगीत प्रेमी जनता ने गन्धर्व सभा द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रमों की मुक्त कण्ठ से सराहना की। इस प्रकार फिर अपने समय के सर्वश्रेष्ठ लोककवि एवं सांगी पं0 मांगेराम का 16 नवम्बर 1967 ई0 को स्नान के पावन अवसर पर गढ मुक्तेश्वर में गंगा तट पर स्वर्गवास हो गया।

भारतीय समाज में उस व्यक्ति को धार्मिक वृति का और चरित्रवान समझा जाता है जो परोपकारी हो, दानी हो, सत्य का हिमायती, विषय-वासनाओं से दूर तथा परस्त्री को माता के समान एवं पराये धन को मिट्टी के समान समझने वाला हो। लोक कवि नं0 मांगेराम ने पिंगला-भरथरी नामक सांग में लोकधर्म का चित्रण इस प्रकार किया है-

गैर बीर आज्या तै मैं सिर नीचै नै करल्यूं सूंए
पराये धन नै मिट्टी समझूं देख-देखकै डरल्यूं सूंए
मामूली सी टुक होज्या तै मैं इतने मैं मरल्यूं सूएं
इस दुनियां के काम देखकै मैं घूंट सबर की भरल्यूं सूंए

लोक कवि पं0 मांगेराम जी ने भी 45 के लगभग सांगीतों की रचना की थी, जिनमें उपलब्ध सांग इस प्रकार हैः-

१ भगतसिंह १६ सैन बाला ३१ सती सुशीला
२ वीर हकीकत राय १७ जयमल फताह ३२ गोपीचंद भरथरी
३ स्मरसिंह राजपूत १८ माल देव का आरता ३३ सुल्तान निहालदे
४ अमरसिंह राठौड़ १९ शिवजी का ब्याह ३४ चंद्रहास
५ बादल सिंह २० रुकमन का ब्याह ३५ ध्रुव भक्त
६ प्रेमलता २१ नौरतन ३६ चापसिंह सोमवती
७ हीर रांझा २२ रूप बसंत ३७ पूरणमल
८ लैला मजनू २३ सरवर नीर ३८ अजितसिंह राजबाला
९ हिरामल जमाल २४ राजा मोर ध्वज ३९ त्रिया चरित्र
१० हूर मेनका २५ हंसबाला राजपाल ४० नल दमयंती
११ शकुन्तला दुष्यन्त २६ राजा चित्रमुकुट ५१ रामायण वृतांत
१२ सभा पर्व २७ कृष्ण जन्म ४२ सती विपोला
१३ पिंगला भरथरी २८ कृष्ण सुदामा ४३ राजा भोज शारणदे नाई
१४ वीर विक्रम जीत २९ नौटंकी पार्ट २ ४४ देवयानी
१५ जादू की रात ३० सुकन्या चमन ऋषि ४५ महात्मा बुद्ध

5 पंडित रघुनाथ .

पंडित रघुनाथ सिंह का जन्म सन 1922 मे ग्राम फिरोजपुरए निकट खेकड़ाए जिला बागपत मे पंडित देशराज के घर मे हुआ द्य पंडित रघुनाथ जी चार भाई थे.जिनमे रघुनाथ जीए हरिभजन जीए सत्यप्रकाश जीए वेदप्रकाश जीए जिनमे पंडित रघुनाथ सबसे बड़े थे और अशिक्षित थे जबकि बाकि तीनो भाई शिक्षित के साथ साथ सरकारी नौकरी मे थे द्य पंडित रघुनाथ जी की शादी शांति देवी के साथ गाँव रेवला खानपुर दृ दिल्ली मे हुई जिससे उनके उनको दो लड़की कुसुमए शीला और चार लड़के हरिओमए देवेन्द्रए सुदर्शनए संजय हुए द्य पंडित रघुनाथ जी को बचपन से ही कविता सुननेए गाने व करने का शौक था द्य एक बार पंडित जी के गाँव मे रामलीला करने वाले आ गए थे और फिर उन्ही के साथ चले गए द्य उसके बाद फिर काफी दिनों बाद वापिस घर आये तो पिता जी ने कहा कि अगर तुझे रागनी गाने और सुनने का शौक है तो गाँव जांवली वाले पंडित मानसिंह के पास चले जाओ क्यूंकि पंडित देशराज जी गाँव जांवली मे एक कोल्हू कंपनी मे बाबू का कार्य करते थे द्य फिर पिताजी के कहने पर पंडित रघुनाथ गाँव जांवली मे पंडित मानसिह के पास पहुँच गए द्य फिर गाँव जांवली मे पंडित मानसिंह के पास जाने के बाद अपनी पहली मुलाकात मे ही पंडित रघुनाथ जी ने अपना गुरु धारण कर लिए द्य उस समय अंगेजों का शासन था तो घर मे सबसे बड़े होने के कारण वे मिलिट्री मे भर्ती हो गए द्य फिर इसी दौरान द्वितीय विश्व युद्ध चालू हो गया तो अंग्रेजो ने भारत से सेना बुलावानी शुरू कर दी द्य फिर पंडित रघुनाथ जी ने मेजर से बोले कि अगर हम बाहर चले जायेंगे तो यहाँ पे कौन लड़ेगा द्य फिर मेजर हिन्दुस्तानी होने के कारण उसने उनको वहां से चुपचाप निकाल दिया द्य फिर वहा से आने पर अंग्रेज पुलिस ढूंढने लगी द्य फिर एक बार पंडित रघुनाथ अपने गुरु की सांग मण्डली मे काम कर रहे थे तो वहां पर अंगेज जवान पहुँच गए और फिर उस अंग्रेजी पुलिस को देखकर वे मंच से उतरकर वे सांग सुन रहे श्रोताओं के बीच आ बैठे द्य फिर कुछ समय बाद पुलिस वापिस चली गईद्य फिर एक दो साल तक ऐसे ही पुलिस खोजती रही और पंडित रघुनाथ उनसे बचते रहे द्य फिर कुछ समय पश्चात् देश आजाद हो गया द्य उसके बाद वे अपनी कविता रचने लगे और लोगो को जगह जगह जाकर सुनाने लगे द्य पंडित रघुनाथ जी उस समय सुर्यकवि पंडित लख्मीचंद जी से बहुत ज्यादा प्रभावित थे द्य इसलिए पंडित लख्मीचंद जी के जो देशी तर्ज थी उन पर रघुनाथ जी ने अपनी कविताई करनी शुरू कर दी द्य बाद मे कुछ अपनी तर्जे और फ़िल्मी तर्जों पर भी कविताई करनी शुरू करदी द्य उनकी कविताई को पश्चिमी उतरप्रदेश मे जहां तक रागनी सुनी जाती थी वहां तक उनकी कविताई को काफी सरहाया जाने लगा और उस क्षेत्र के कवियों ने उन्हें श्तन.वितनश् की उपाधि से नवाजा गया जिसका मतलब इनके बुद्धि की कोई सीमा नहीं है द्य इसी दौरान उतरप्रदेश की प्रणाली से जमुआमीर के शिष्य हरियाणा निवासी धनपत सिंह सांगी भी उन्ही के समकालीन थे द्य फिर पंडित रघुनाथ जी के गुरु पंडित मानसिंह जी ब्रजघाट या गढ़ गंगा के मेले पर धनपत सिंह सांगी को अक्सर बुलाया करते थे द्य जब कभी रघुनाथ जी और धनपत जी दोनों का आमना सामना होता रहता था तथा आपस मे दोनों बारी बारी श्रोताओं को अपनी कला प्रभावित करते रहते थे द्य फिर भाईयो के शिक्षित होने के कारण वे अपनी कविताई उनसे ही लिखवाते रहते थे और फिर धीरे धीरे भाईयो के सहयोग से वे अपनी कविताई हिन्दी स्वयं ही हस्तलिखित करने लगे और स्वयं ही वे अपनी रचनाओं को जवाहर बुक डिपो.मेरठ व भगवत बुक डिपो.बुलंदशहर प्रेस के द्वारा छपवाने लगे द्य उनकी कविताई से प्रभावित होकर लगभग दो दर्जन शिष्य ने उनको अपना गुरु धारण किया द्य उन शिष्यों मे से चौण् घासीराम. गाँव सलेमाबादए ठाकुर मंगल सिंहए जयचंदए निहालए दयाकिशनए हरिराम जो सभी शीलमपुर.दिल्ली से थे और जयप्रकाश त्यागी पहलवानए रघुनाथ त्यागीए ईश्वर त्यागीए सुरेन्द्र शर्मा जो सभी गाँव रावली कलां से थेए फिर सत्यप्रकाश उर्फ़ प्रकाशए राजकुमार त्यागी जो सभी इन्ही के गाँव फिरोजपुरवासी थेए रामकिशन त्यागीए रामनिवास त्यागीए सतीश त्यागी जो सभी गाँव मण्डौला से थेए फिर एक रघुनाथ जी के फुफेरे भाई बद्रीप्रसाद शर्मा. गाँव खुर्रमपुर और पंडित रामकुमार शर्मा. गाँव नह्नवा और ब्रजपाल बाल्मिकी दृ गाँव चमरावल निवासी आदि शिष्य हुए द्य

हे सच्चे भगवानए बचाले जानए ये कैसा थाणाए
जहां मरे हुए नै भी मारै द्यद्य टेक द्यद्य

आज राज मै बुझ रहीए ना सच्चे माणस चोखे कीए
चोर डांट रहे कोतवाल नैए खरी मिशल मौके की ए
सै धोखे की बातए कांप रहा गातए ना ठौड़ ठिकाणाए
जब प्यारे सिर नै तारै द्यद्य

लोभी और लालची मानस करज्या काम घणे माड़ेए
चोर चौधरी पंच उच्चकेए रिश्वत से चाले पाड़ेए
फिरै लुन्गाड़े भजेए उड़ा रहे मजेए कपट का बाणाए
संत खता बिन हारै द्यद्य

बिना दया चंडाल कसाई पेट मांस से भरतेए
धोरै बैठके जड़ काटै है नहीं पाप से डरतेए
यहाँ बुड्डे भी करते ब्याहए बिगड़ गया राहए ठीक कर जाणाए
जहां विधवा सुरमा सारै द्यद्य

रिश्वत का संसार जगत मै स्वार्थ घणा बढ़ा हैए
रघुनाथ बावला भोला थोड़ा ही लिखा पढ़ा हैए
जो चढ़ा है सो ही ढलाए बुरा और भलाए राग का गाणाए
सब सुनके आप विचारें द्यद्य
;सांगरू धर्मपाल शान्ताकुमारीद्ध
पंडित रघुनाथ साधू.संतो की संगत मे बहुत लगाव रखते थे इसलिए साधू.संतो की संगत मे उनकी कविताई को खूब पसंद किया जाता था द्य उन्होंने महाभारत को अपनी रचनाओ के बहुत ही विस्तृत रूप मे लिखा और उनके जितना विस्तृत महाभारात शायद ही किसी कवि ने अपनी रचनाओं मे लिखा हो द्य उनके इस साक्ष्यार्थ के तौर पर एक रचना पर प्रकाश डाल रहे है.

देखले रूप दिखाऊंगाए पार्थ करले दिव्य द्रष्टि द्यद्य टेक द्यद्य

सात द्वीपए नौ खंडए तीन लोकए न्यारे.न्यारे देखए
जल पृथ्वी आकाश वायु अग्नि के चमकारे देखए
सागर और पहाड़ सूरज चाँद सितारे देखए
वन बीहड़ तलाब नदी नाले और किनारे देखए
अनेको फूल फल सुआद खट्टे मीठे खारे देखए
एक रूप मै रूप अपने शत्रु मित्र प्यारे देखए
बात सारी समझाऊंगाए मन माया से रची सृष्टी द्यद्य

दाने देव नाग गंधर्व किन्नर कलाधारी देखए
पशु पक्षी शेर हाथी मारते किलकारी देखए
भुत और पिशाच मांस मारते शिकारी देखए
छोटे बाल ग्वाल बुड्ढ़े जवान नर नारी देखए
अहंकारी शस्त्रधारी लालची व्याभिचारी देखए
लख चौरासी योनी भोग भोगते संसारी देखए
तेरा संकोच मिटाऊंगाए है आखिर धर्म आरिष्टि द्यद्य

एक ही सूरत मै मूरत छोटी और बड़ी देखए
कुरुक्षेत्र मै दोनु सेना शस्त्र लेकै खड़ी देखए
भरी है जोश मै फ़ौज पर्ण करके अड़ी देखए
बड़े बड़े महारथियों की नाड़ कटी पड़ी देखए
अपने आप अर्जुन अपनी यश पाने की घड़ी देखए
रणभूमि मै सेना लड़ती हथियारों की झड़ी देखए
भ्रम सब दूर भगाऊँगाए लिए सत की जाण समष्टि द्यद्य

अपने शत्रु अपणे आगै जोश के म्हा अरे देखए
शूरवीर गरजै और कायर मन मै डरे देखए
कौरवों के सारथी सारे अहंकारी मरे देखए
योगिनी कालका काली खाली खप्पर भरे देखए
कर्मों के आधीन आज सारे काम करे देखए
मानसिंह गुरु के ज्ञान लयदारी मे खरे देखए
सुर मै भरके गाऊंगाए रघुनाथ राग रंग की वृष्टि द्यद्य
;सांगरू गीता उपदेश दृ कृष्ण.अर्जुन संवादद्ध

इस तरह इस महान कवि का पार्थिव शरीर सन 1977 मे होली के दिन पंचतत्व मे लींन हो गया द्य

उन्होंने लगभग 31 सांगो की रचना की जो निम्नलिखित प्रकार से है द्य

महाभारत भीष्म पर्व राजा हरिश्चंद्र
कृष्ण जन्म द्रोण पर्व सत्यवान सावित्री
भीम का ब्याह जयद्रथ वध राजा मोरध्वज
द्रोपदी स्वयम्वर परीक्षित नवल्दे अजित सिंह राजबाला
द्रोपदी चीरहरण चित्र विचित्र धर्मपाल शान्ताकुमारी
वन पर्व देवयानी शर्मिष्ठा वीर हकीकतराय
कीचक वध पूर्णमल नुनादे पृथ्वीराज संयोगिता
गौ हरण पूर्णमल सुंदरादे रूपवती चूड़ावत
कृष्ण भात नल दमयंती भाग.1 गौतम अहिल्या
गीता उपदेश नल दमयंती भाग.2
श्रवण कुमार लव.कुश काण्ड

पं चिरंजीलाल-
साक्षात्कार – 11/09/2021 : पं ओमस्वरूप शर्मा (advocate / अधिवक्ता) – मिताथल, भिवानी (विकास नगर)

स्वतंत्रता सेनानी पं चिरंजीलाल जी हमारे ताऊ थे। सगे ताऊ से भी ज्यादा क्यूंकि सगे इतना नही करते थे और मेरे लिए ही नही सबके लिए करते थे। मेरे पिताजी पं मांगेराम शीतल जिन्होंने गाँधी जी से प्रभावित होकर “ भारत छोड़ो” आन्दोलन हेतु सर्विस छोड़ आये थे जो उनसे बहुत ज्यादा प्रभावित थे। पं चिरंजीलाल जी पं नेकीराम के सबसे नजदीकी व्यक्तियों में से एक थे। पं नेकीराम भिवानी के ही नहीं इस देश के प्रतिष्ठित राजनेताओं में थे। पं नेकीराम के विषय में पं नेहरूलाल जी ने कहा था कि पं नेकीराम जिस सभा में बोल चुके है वहां बोलना बाकि नहीं रह जाता। जब पं चिरंजीलाल देश की आजादी के आन्दोलन में कूद गये। एक बार जब पं चिरंजीलाल लाहौर गये हुए थे किसी राजनितिक सम्मलेन में। उनको छंद का ज्ञान जन्मजात था। वे साहित्यिक गुरु किसी को बनाये ऐसे किसी व्यक्ति की उनको भी तलाश थी क्यूंकि राजनैतिक गुरु तो वे गाँधी जी व पं नेकीराम को मानते ही थे। लेकिन गायन विद्या में उनको इस समय गुरु की तलाश थी। उन्होंने लाहौर अधिवेशन में भाग लिया और उस समय लाहौर पंजाब की राजधानी थी जिसमे पाकिस्तान का पंजाब और हिमाचल, हरियाणा और हमारा पंजाब ये सभी भारत में शामिल थे। इस सारे क्षेत्र की राजधानी लाहौर ही थी। पं चिरंजीलाल वहां काफी समय तक रहे क्यूंकि वे गाँधी जी व पं नेकीराम के साथ इस अधिवेशन से पहले व बाद में कई बार जाते रहते थे। उस अधिवेशन की तैयारियों में लाहौर में उस समय भी तक़रीबन एक महीने तक रहे। फिर उस अधिवेशन के दौरान अपनी किशोरायु 17-18-19 साल की उम्र में पं चिरंजीलाल ने वहां स्वामी रामतीर्थ जी के बारे में सुना। फिर उस समय वहां उन्होंने अखबार के माध्यम से स्वामी रामतीर्थ के राम-वर्षा नामक नोट्स पढ़े और फिर राम वर्षा नामक पुस्तक भी पढ़ी। स्वामी रामतीर्थ का काव्य ज्ञान गजब का था और गणित में तो वे अन्तराष्ट्रीय स्तर के गणितज्ञ थे। पं चिरंजीलाल व स्वामी रामतीर्थ के गुणों में काफी हद तक मेलजोल था इसीलिए पं चिरंजीलाल जी स्वामी रामतीर्थ से काफी प्रभावित हुये क्यूंकि पं चिरंजीलाल अल्प शिक्षित होते हुए भी बड़े बड़े गणित अध्यापक व अन्य विशेष जन सलाह लेने आते थे और पं चिरंजीलाल जी उनको संतुष्ट करके ही भेजते थे। उसका एक कारण ये भी था का स्वामी रामतीर्थ के प्रभाव से उन्होंने गणित की लीलावती जैसी बड़ी बड़ी पुस्तकों का अध्यन किया हुआ था क्यूंकि वे बहुत बड़े स्वाध्यायी थे और जीवन के अंत तक ही वे अध्यनशील रहे। उनसे बड़ा स्वाध्यायी कोई विरला इंसान ही था क्यूंकि जब भी कोई पं चिरंजीलाल के पास जाता वे हमेशा पढ़ते हुए ही मिलते थे। वे स्वामी रामतीर्थ की विचारधारा व त्याग से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने स्वामी रामतीर्थ की तरह ही जिसमे उनके दो बेटे लक्ष्मीनारायण व ओमप्रकाश थे और एक बेटी थी जिसका नाम चन्द्रो थी और पत्नी सहित अपने भरे-पुरे परिवार का देश की स्वतंत्रता के लिए लगभग पूर्णतया त्याग कर दिया था। फिर मरणासन्न तक कभी भी उन्होंने परिवार की तरफ मुड़कर नहीं देखा। उसके बाद फिर पारिवारिक सदस्यों ने उनके परिवार को संभाला था क्यूंकि लाहौर के उस वातावरण से प्रभावित होकर वे छोटे छोटे बच्चों को छोड़कर आजादी की लड़ाई के लिये समर्पित हो गये। उसके बाद जब कभी पारिवारिक समारोह / कार्यक्रम होते तो उनको एक मेहमान के तौर पर निमंत्रण देकर ही बुलाया जाता था। इस तरह फिर गुण कर्म व स्वभाव से प्रभावित होकर उन्होंने स्वामी रामतीर्थ जी को काव्य व शैक्षिक (गणित) गुरु मान लिया, हालांकि स्वामी रामतीर्थ जी शरीर में नहीं थे उस वक्त क्यूंकि पहले ही नश्वर संसार से विदा ले चुके थे लेकिन कुछ वर्ष ही हुए थे स्वामी रामतीर्थ को स्वर्गवासी हुये। जैसे एकलव्य ने गुरु द्रौणाचार्य को गुरु धारण किया था वैसे ही पं चिरंजीलाल ने स्वामी रामतीर्थ को अपने मन में गुरु मानकर उनको स्वतः ही धारण कर लिया। इसीलिए पं चिरंजीलाल के काव्य, छंद व गायन में सर्वत्र स्वामी रामतीर्थ का ही प्रताप झलकता था।
उन्होंने काव्य की शुरुआत स्वतंत्रिय स्वाभाव से अपने व गुरुमयी गुण कर्मो के स्वाभाविक मेलजोल के आधार पर देशभक्ति गीतों से की। पं चिरंजीलाल एक अच्छे वादक भी थे इसलिए वे स्वयं ही हारमोनियम, ढोलक, चिमटा आदि बजा लेते थे क्यूंकि जो स्वतंत्रता का राष्ट्रीय आन्दोलन चला हुआ था वो राष्ट्रीय गीतों के माध्यम से चला हुआ था जिससे उनको वादकीय ज्ञान उन आंदोलनों से भी मिला। वे उस समय की कांग्रेस के लिए ही भजन लिखते थे बाद वाली कांग्रेस की नहीं, क्यूंकि बाद वाली कांग्रेस तो उनको पसंद ही नहीं थी। पं चिरंजीलाल के अनुसार गाँधी जी ने स्पष्ट कहा था कि आजादी के बाद कांग्रेस का जो गठन होने वाला है उसको ख़त्म कर देना क्यूंकि आगे चलकर इसमें घटिया व गंदे लोग शामिल होंगे जिनका उद्देश्य देश को हानि पहुँचाना है और गाँधी जी बोले कि हमारी जो पुराणी कांग्रेस है जिसका गठन सन 1885 में ऐ. ओ. ह्यूम ने किया था जिसके पहले भारतीय प्रधान/अध्यक्ष दादा भाई नौरोजी थे, उसमे सिर्फ और सिर्फ त्यागी व तपस्वी लोग है जिनका चिंतन केवल राष्ट्र हित है जैसे दादा भाई नौरोजी, पं मदनमोहन मालवीय, तिलक जी, गोखले जी, टंडन जी, लाल बहादुर शास्त्री जी। अब आगे जो कांग्रेस का गठन होने वाला है वो असामाजिक तत्वों का है न कि राष्ट्र हितेषियों का और फिर बाद में उनके अनुसार हुआ भी ऐसा ही इसलिए पं चिरंजीलाल जी सन 1971 के बाद वाले कांग्रेस गठन को न ही पसंद करते थे तथा न रूचि लेते थे अर्थात संन 1971 के बाद वो कांग्रेस के समर्थक नहीं रहे।
पं चिरंजीलाल जी तिलक जी से ज्यादा प्रभावित थे जिसका कारण ये था कि उनके साथी पं नेकीराम व पं श्रीराम शर्मा भी तिलक जी से बहुत ज्यादा प्रभावित थे लेकिन पं चिरंजीलाल कभी तिलक जी से नहीं मिले। गोखले व तिलक की विचारधारा अलग अलग थी क्यूंकि गर्म दली थे तो दुसरे नर्म दली थे। उनके टकराव के कारण उस समय कांग्रेस हालत बदतर हो गयी थी। फिर ऐसी स्थिति में महात्मा गाँधी कांग्रेस में आये थे। फिर गाँधी जी ने अपने विवेकपूर्ण ढंग से कांग्रेस की उन परिस्थितियों को संभाला और पं चिरंजीलाल जी के जीवन में गाँधी जी बड़ा भारी असर पड़ा। पहली बार गाँधी जी का भाषण भी उन्होंने लाहौर में ही सुना था क्यूंकि जिस लाहौरी अधिवेशन में चिरंजीलाल गये हुए थे उसमे गाँधी जी भी शामिल थे। गाँधी जी से उनकी मुलाकात अनेकों बार होती रही। उन्ही असंख्य मुलाकातों से प्रभावित होकर पं चिरंजीलाल कई बार गिरफ्तार हुए, जैसे मुल्तान की जेल। फिर उनके आजादी की गतिविधियों के दस्तावेज वही पाकिस्तान में रह गये क्यूंकि जितना रिकॉर्ड वहां से यहाँ ट्रांसफर होकर आया उसमे इन स्वतंत्रता सेनानियों के दस्तावेज नहीं आये थे, फिर बाद में स्वतंत्रता संग्राम वालो की कमेटी के अध्यक्ष डॉ. बलवंत राय तायल द्वारा मंगवाए गये जो-जो जिस-जिस जेल में रहा, जिससे उनको आजीवन पेंशन भी मिली लेकिन पं चिरंजीलाल ने इंकार भी किया मगर प्रमुख नेता बलवंत राय तायल व अन्य मुख्य नेताओं के दबाव डालने पर वे पेंशनधारक तो बन गये मगर ताउम्र उन्होंने वो पेंशन अपने खाते से कभी भी नहीं निकलवाई और वो पेंशन राशि उनके मरने तक जमा ही रही।

संस्मरण :-

मुल्तानी जेल की योग साधना:- पं चिरंजीलाल लगभग 3 वर्ष मुल्तान जेल में रहे। मुल्तान की जेल में नहाने-धोने के लिए एक कुआं था क्यूंकि सभी स्वयं रस्सी बाल्टी द्वारा पाणी खींचकर नहाते व कपडे धोते थे। फिर चिरंजीलाल सबसे पहले उठकर वही नहाते व धोते थे और सुबह नहा-धोकर 4 बजे ध्यान में बैठते थे। पं चिरंजीलाल ने स्वयं बताया कि एक बार वे योगासन में प्राणायाम के रूप में बैठे थे जिससे वे अपना अस्तित्व ही भूल गये थे जिससे उनको बाद में एक झटका आकर उनका सिर कुए की दीवार से लगा तब वो पुनः शून्य से होश में आये अर्थात स्वाध्याय के अलावा योग में अगाध विश्वास था।

राष्ट्रीय चेतना : उस समय कुछ लोग पँ चिरंजीलाल की राष्ट्रीय भावना को देखते हुए और दूसरी तरफ देश के तात्कालिक हालात देखते हुए पं चिरंजीलाल से कहते थे कि आजादी तो आएगी नहीं तुम्हारे ऊपर तो पागलपन का साया छा गया हैं। उसके प्रत्युतर में पं चिरंजीलाल जी कहते थे कि जिस प्रकार मां गंगा के धरा अवतरण में भागीरथ की 5 पीढियां प्रयासरत रही तथा अंत में भागीरथ के तपोबल से मां गंगा को आना पड़ा लेकिन उन 4 पीढ़ियों के सुप्रयास को ये ब्रहमांड कभी भुला नहीं सकता, ठीक वैसे ही हमारी स्वतंत्रता सेनानियों की पीढ़ियों में जन्मे स्वामी रामतीर्थ, भाई नौरोजी, पं मदनमोहन मालवीय, तिलक-गोखले जैसे सेनानीयों का प्रयास विफल नहीं होने देंगे चाहे हम भागीरथ बने या न बने क्यूंकि हम भागीरथ न बन सके और आजादी न ला सके तो कोई बात नहीं, एक न एक दिन भागीरथ जैसे स्वतन्त्र तपस्वी भारत मां की मुक्ति हेतु आजादी के रूप गंगा को अवश्य लायेंगे। अंत में फिर 15 अगस्त 1947 को वो भागीरथी सौभाग्य पं चिरंजीलाल जैसे मां भारती के सपूतों को मिल गया और भारत मां को आजादी दिलाकर अपने हाथों से मुक्त कराया।
झंडा फहराना :-
पं चिरंजीलाल एक निर्भय इन्सान थे, वे कभी न जेलो में घबराये और न ही सामान्य जन डरे। उन्होंने कभी भी अपने जीवन में लड़ाई-झगडा नहीं किया। वे अहिंसा को ही परम धर्म मानते थे।
“किसी से लाठी डंडे से लड़े नहीं,
लेकिन किसी जाबिर से डरे नहीं”
आजादी के बाद हर डिस्ट्रिक्ट हैड क्वार्टर पर एक एक नेता की ड्यूटी लगी थी और हमारा जिला था हिसार जिसमें हिसार में झंडा फहराने का कार्य पं नेकीराम व पँ चिरंजीलाल को दिया गया था लेकिन उन्होंने ये कहते हुए मना कर दिया था कि झंडा फहराने का काम नौजवानों का है उसके बाद फिर लाला बलवंत राय तायल को ये कार्य सौंपा था। उधर दिल्ली में नेहरु जी भाषण दे रहे थे इधर हर हैड क्वार्टर पर हर नेता बोल रहा था। उस समय आधी रात को ये सभी दिग्गज नेता जैसे पं नेकीराम, पं श्रीराम शर्मा, बलवंत राय तायल व पं चिरंजीलाल आदि वहां झंडा फहराने गये हुए थे तो वहां इन सबकी आँखों में ख़ुशी के आंसू आ गये थे जिसके बाद सभी ने नम आँखों से विदाई ली।
तिलक भवन :- भिवानी में तिलक जी के नाम से एक तिलक भवन बनाया गया जो कांग्रेस का कार्यालय भी रहा जो आज भी मौजूद है हालांकि कांग्रेस वाले उसमे जाते नहीं है उस समय कांग्रेस भिवानी के अध्यक्ष थे बाबू श्यामलाल जो बाद में अम्बाला चले गये थे। उस भवन को बनवाने में पं चिरंजीलाल का मुख्य सहयोग था। उस समय एक आश्रम पं चिरंजीलाल के गाँव मिताथल, भिवानी में भी बनाया गया जो गाँधी आश्रम के नाम से प्रसिद्द था जिसके संचालक थे लाला देवी सहाय। ये भी एक स्वतंत्रता सेनानी ही थे और इनके साथ गाँव मिताथल के अन्य स्वतंत्रता सेनानी भी थे जिनमे लाला हरदेव सहाय, लाला चिंतराम, बलवंत राय तायल, प्यारेलाल हरिजन, मांगेराम चौंकीदार, श्री मांगेराम चमार, शादीराम, चौ. अखिराम अर्थात हर कौम से सेनानी थे जिनकी बड़ी बड़ी मीटिंग इस गाँधी आश्रम में होती थी। फिर आजादी के बाद 26 जनवरी व 15 अगस्त को ये सभी सेनानी बड़े बड़े ड्रामे व कार्यक्रम करवाते थे जिनकी तैयारिया एक महीने पहले ही शुरू हो जाती थी और इन ड्रामों मे सभी गीत व मुख्य भाषण प्रधान के तौर पर पं चिरंजीलाल के होते थे। उन्ही में से एक निम्नलिखित मुख्य गीत इस प्रकार है –

उठो नौजवानों जागो, देश की पुकार रे!
देश को बढ़ाना आगे, हर अख्तियार रे!
काट दी गुलामी की , तुमने जंजीर रे!
साफ करना होगा, अब तो आगे का बहीर रे!

बहीर – रास्ता

पं चिरंजीलाल जी बुजुर्ग अवस्था में गाना तो छोड़ गये थे मगर वे पेटी बजा लिया करते थे और उनके मुख्य शिष्य पं शिवधन मिताथल, करतार सिंह बवानी खेड़ा, हुक्मीचंद लालावास, हरिचंद, श्रीचंद बिधवाण,

उनके मुख्य गीतों में-

इस दुनिया में भोग भतेरे, करणी बिन सीर नहीं सै,
और वो नर भोग सके ना, जिनकी तकदीर नहीं सै,

64 पूर्ण वाला

पढना तो भगवद गीता का और सुनना भोग कान का,
कोए समझ सके ना ढंग, यो चिरंजीलाल गान का,

श्रृंगार रस फरमाईस :-
एक बार उनके परम शिष्य शिवधन ने अपने गुरु से कहा कि आप श्रृंगार रस की कोई रचना बनाये जो उन्होंने कभी पहले कोई अन्य श्रृंगारिक गुरु की रचना सुन रखी थी। फिर चिरंजीलाल जी कहते है कि वो दौर कोई और था और अब बुढ़ापा छाया हुआ है इसलिए श्रृंगार रस तो बगैर भावना के भाव नहीं उठता और भाव उठे बिन लिख नहीं सकता, वे भाव कैसे उठे? फिर पं चिरंजीलाल के मुख्य शिष्य शिवधन के बारम्बार आग्रह करने पर उन्होंने एक योजना बनायीं और शिष्य शिवधन के लड़के महावीर की नवविवाहिता को बेटी पुकार कर पूर्ण श्रृंगार के साथ पीढ़े पर सामने बैठाया। फिर उन्होंने कविताई में जो सितम उतारा उस गीत की कुछ पंक्तिया निम्नलिखित है –

काटे तै भी कटती ना, या कातिल रात अँधेरे वाळी,
एकबर हंसके देख उरे नै, चन्द्रमा से चेहरे वाळी,

कथाएं :- सरवर नीर, चापसिंह सोमवती, कीचक वध, राजनीति पर, देश की स्थिति पर, व्यवस्था पर, सामाजिक कुरीति – शराब पर,

इस शराब की बीमारी को देश से कौन भगायेगा

सामाजिक जीवन :- भगवान् देव प्रभाकर दीपक के निशान के साथ जनसंघ से जीत गये और उस समय पं चिरंजीलाल कांग्रेस के सागर राम गुप्ता के समर्थक थे जिसका चुनाव चिहन बैलों की जोड़ी का चिहन था। फिर बाद में गाय-बछड़ा और उसके बाद कांग्रेस का चुनाव चिह्न हाथ आया। पं चिरंजीलाल बैलों की जोड़ी के चुनाव चिह्न तक कांग्रेस के समर्थक रहे क्यूंकि जिस समय इंदिरा गाँधी ने संजीव गाँधी को आगे करके यूथ कांग्रेस बनायीं और गाँधीवादी नेताओं जयप्रकाश नारायण जैसो को इंदिरा ने एकतरफ रखा तो उसके कट्टर खिलाफ थे पं चिरंजीलाल। फिर उन्होंने इंदिरा का विरोध जिस हद तक हो सकता था वो उन्होंने किया। फिर सन 1967 में प्रभाकर जीत गये और पं चिरंजीलाल के समर्थक सागर राम गुप्ता हारने के बाद पं चिरंजीलाल के गाँव वाले जाट बिरादरी के कुछ लोग जो प्रभाकर व युधवीर के समर्थक थे तो उन्होंने मुनादी करवा दी कि हरिजन समाज के लोगो व उनके पशुओ को खेत में कोई घुसने नही देगा चारा लाने हेतु। फिर पं चिरंजीलाल की अगुआई में अन्य बिरादरी और जाट बिरादरी के लोगो ने भी अपना झंडा उठाकर स्वयं पुनः मुनादी करदी कि हरिजन समाज के लोग दिनरात हमारे खेतो में पशुओं को चराओ और चारा लाओ अर्थात गरीब आदमी के हक़ में तुरंत खड़े हो जाते थे चाहे वो किसी भी बिरादरी से ताल्लुक रखता हो।
उनके गाँव मिताथल की ही एक घटना थी कि जब हरिजनों को तालाब में नहाने नहीं देते थे, किसी भी औरत को कपडे नहीं धोने देते थे, पाणी पीने के अलावा भैंसों को ज्यादा देर तालाब में रुकने नही देते थे ताकि जोहड़ का पाणी स्वच्छ रहे क्यूंकि उस समय अधिकतर जोहड़ का पाणी ही प्रयोग होता था और कुओं का पाणी बढ़िया नही था। उस समय हरिजनों को नहाने नही देते थे फिर कुछ वाल्मिक भाई इकट्ठे होकर पं चिरंजीलाल के घर जो एक कुटीर उद्योग का रूप भी था जिसमे स्वतंत्रता सेनानी राधाकृष्ण वर्मा सरकार की योजना के तहत गाँव के निम्न स्तर अर्थात वाल्मीकि, चमार, धानक आदि समाज के लोगो को रुई कातने का रोजगार देते थे अर्थात रुई देते थे और सुत कातकर वापिस दे दिया करते थे, फिर उनको UNO के द्वारा प्रदान किया हुआ डेनमार्क का सुखा दूध भी दिया जाता था क्यूंकि जब भारत गरीब देशो में आता था और वहां उस मकान पं नेकीराम व बाद में उनके लड़के मोहनकृष्ण भी आते रहे तथा गाँधी स्मारक निधि (ये हरियाणा पंजाब हिमाचल की एक संस्था थी जिसके अध्यक्ष स्वतन्त्रता सेनानी ओमप्रकाश त्रिखा थे) के ग्राम सेवक भी पं चिरंजीलाल ने स्वयं के मकान में जहाँ रहते थे तो वहां उनके पुश्तैनी रिहायशी मकान में वे वाल्मीकि भाई आये

गाँधी स्मारक निधि संस्था में रहे
गरीब बच्चो के लिए दूध की व्यवस्था करना
जरुरतमंदो को कताई का रोजगार दिलाना
गाँधी आश्रम बनवाना
अपने घर में गांधी लाईबरेरी खोलना
तिलक आश्रम बनवाना
बड़े बड़े नेताओं का आना जाना
आजादी आन्दोलन की गतिविधियों सञ्चालन करना
मरे हुए पशुओ को न दबाकर उनकी खाल से जूते बनवाना और रोजगार प्रदान करना
हर इतवार को सामूहिक मीटिंग करवाना
रोजाना सामूहिक प्रार्थना करवाना
उनकी देखरेख में आजादी से पहले व बाद में सारे इलाके की गतिविधिया चलती थी
गाँधी स्मारक निधि के सरे गाँवों में केंद्र खोलना
इस प्रकार उनका एक कर्मयोगी जीवन रहा
फिर बुजुर्ग अवस्था में उन्होंने भिवानी मकान बना लिया ।

बुजुर्ग अवस्था :-
हर 2 अक्टूबर को गाँधी जी की समाधि पर दिल्ली जाते थे और दर्शनों के बाद फिर वे गाँधी दर्शन लाईब्रेरी में जाते थे वहां भी प्रोग्राम चलते थे और वहा से पुस्तक भी लाते थे और गाँव में गाँधी लाईबरेरी बनवाई जिससे गाँव वालो में स्वाध्याय की आदत पैदा करवाई।
फिर बुजुर्ग अवस्था में वे ज्यादा अंतरमुखी हो गये और दिखना कम हो गया लेकिन जब तक दीखता रहा तो वे गांवो गांवो में जाकर उठते बैठते थे और लोगो को राष्ट्र भावना को लगातार बनाये रखते थे।

अध्यातम ज्ञान :- वे फिर बुजुर्ग अवस्था में भी लोगो में आध्यात्म और देश प्रेम की असंख्य शिक्षाए देते रहते थे और स्वयं भी अध्यात्म की तरफ पूर्ण रूप से रुख कर गये थे। आखरी दौर में उन्होंने अपने व्यक्ति विशेषों से योगवाशिष्ठ पढने की ओर प्रेरित भी किया जिसमे राम व वशिष्ठ के संवाद थे अर्थत गुरु शिष्य के संबंधो को दर्शाया गया था जिसके अन्तरगत भगवन राम सवाल करते है और वशिष्ठ जी जवाब देते है।
वे अध्यातम के रूप में अपने सम्बंधित व्यक्तियों को बताते थे कि आत्मा तत्व सभी जगह एक है और जो हम बाते करते है वो इस वायुमंडल में फ़ैल जाती है और वो चिंतन जो पैदा होता है उन लोगो में वे आजकल के टॉवरो की तरह रेंज को पकड़ने का शक्ति स्वतः ही प्राप्त हो जाती है अर्थात जो चिन्तक जिस विचारधारा का है उसी तरह के स्टेशन पकड़ता है। फिर सभी चिन्तन करने वाले पुरे वायुमंडल की बातो को जान लेते है चाहे किसी भी भाषा में वे बाते हुई हो। इस तरह वे अध्यातम की बातो को आसानी से समझाते थे।

क़ानूनी ज्ञान :- उनको क़ानूनी ज्ञान जबरदस्त था और ताज़ी-राते-हिन्द जैसी किताबे जिसको IPC (INDIAN PANEL CODE ) भी कहते है अपने पास रखते थे।

महान गणितज्ञ :- वे गणित के ज्ञाता थे और उनके पास गणित के लीलावती जैसे बड़े बड़े ग्रन्थ मिलते थे जिनका वे अध्यन करते रहते थे। जिन सवालों को लोग 10-15 मिनट में नही निकल पाये वे एक मिनट में निकल देते थे वो भी मुंहजबानी चाहे वो सवाल बीजगणित हो या चाहे अलजेब्रा हो या चाहे जामेट्री की थोरम हो। जबकि स्कूली शिक्षा उनकी ज्यादा नहीं थी क्यूंकि उनके गाँव में कक्षा 4 तक का ही स्कूल था। बाकी तो उन्होंने स्वाध्याय से ही अपनी जानकारी बढ़ाई। वो एक उर्दूभाषी जानकार थे और काव्य भी वे उर्दू में लिखते थे जिसका समावेश उनकी कविताई देखते ही बनता है। LLB का रेवेनु रिकॉर्ड भी वे हिंदी में परिवर्तित करते थे क्यूंकि शहर के बहुत से लोग उर्दू से हिंदी करवाने जाते थे। इसलिए वे बहुमुखी व्यक्तित्व थे। ये आर्थिक रूप से भी भरपूर थे क्यूंकि उस समय में गावं में सबसे पहला पक्का मकान था और किले जैसा दरवाजा था जिसमे बौरा (अंडरग्राउंड) होता था जहाँ निचे तजुरी आदि को रखते थे। दरवाजा तो इतना बड़ा था कि जिसमे बड़े बड़े प्रोग्राम वहां होते थे।

सिंचाई परियोजना कार्य :- पं चिरंजीलाल ने अपने प्रयासों से निगाना फीडर सिंचाई नहर को बनवाया क्यूंकि उस समय पंजाब के मुख्यमंत्री गोपीचंद भार्गव से मिलकर जो पं चिरंजीलाल के साथ एकसाथ जेल में रहे थे उनसे नहर की व्यवस्था करवाई और सन 1958 में मुख्यमंत्री भीमसेन सच्चर से उद्घाटन करवाया और साथ में रणवीर सान्घीवाल भी आये थे। फिर तो उस क्षेत्र में पाणी आया तो जैसा प्रभु आ गया। इस प्रकार वे अपने क्षेत्र की नहीं समूचे क्षेत्र की सोचते थे।

राजनैतिक संबध :- पं चिरंजीलाल, बलवंत राय तायल व चौ. देवीलाल भी एकसाथ जेल में रहे। सन 1985 में पं चिरंजीलाल के स्वर्गवास के समय बलवंत राय तायल हरियाणा वित मंत्री के रूप में आये थे और 1987 में चौ. देवीलाल मुख्यमंत्री रूप में काफिले के साथ काफी दिन बाद आये क्यूंकि उनके स्वर्गवासी होने का पता उनको बाद में चला जब वे जनता पार्टी से चुनाव जीते थे और वे किसी कार्यक्रम में आसपास के क्षेत्र में आये हुए थे।
जब पं चिरंजीलाल आजादी के बाद भिवानी कांग्रेस के अध्यक्ष थे तब हिंदुस्तान-पाकिस्तान बंटवारे के बाद पुनर्वास की जो व्यवस्था चली क्यूंकि काफी शरणार्थी यहाँ आ गये थे जिसमे गाँव दांग, चांग, यथोचित (प्रॉपर) भिवानी आदि में पं नेकीराम की अध्यक्षता में पं चिरंजीलाल की ही प्रधान रहे अर्थात पुनर्वास समिति के संयोजक (convener) थे। जिसके बावजूद भिवानी में पं चिरंजीलाल श्री कृष्ण के नाम पर कृष्णा कॉलोनी बनवाई और भगवान राम के नाम पर रामनगर बनवाया। गाँव चांग व दांग में जमीनी आबंटन (Allotment) कार्य पं चिरंजीलाल ने ही करवाया। सन 1958 में भूमिदान आन्दोलन में विनोबा जी को भिवानी बुलाकर उनके समक्ष हरिजनों को इन्होने अपनी भूमि भी दान दी।
अंतिम पड़ाव :- पं चिरंजीलाल अंतिम दिनों में कुछ वर्ष पहले अपने भतीजे व्यक्ति विशेष पं ओमस्वरूप से कहने लगे कि अब मेरा समय नजदीक आ चूका है तो पं ओमस्वरूप कहने लगे कि ताऊ जी अभी तो आप हट्टे कट्टे हो और उम्र भी ज्यादा नहीं है सिर्फ 75-76 वर्ष के ही हो। वे फिर बोले के समय नजदीक आ चुका है। फिर 9-10 वर्ष बाद वो अंतरमुखी होकर बोले कि मेरे जाने का आज से एक साल बाकी है। पं ओमस्वरूप ने चिरंजीलाल जी को याद दिलाया कि अब 2 अक्टूबर-गांधी जयंती भी नजदीक आ चुकी है। उनका कथन सुनकर पं चिरंजीलाल ने कहा कि फिर तो मै उनके दर्शन किये बगैर कैसे इस दुनिया से जा सकता हूँ और फिर वे गाँधी जी की समाधी पर दिल्ली पहुच गये। जब वे अंतिम बार गाँधी जी के दर्शन करने गये तो पहली बार उनकी आँखों में पाणी आया और गाँधी जी की समाधी पर बैठकर कहाँ कि बापू आज मै अंतिम बार आया हूँ और मौन अवस्था मे चले गए। फिर उनके भतीजे पं ओमस्वरूप व एक अन्य व्यक्ति विशेष ने उनको संभाला ताकि गिर न जाये और छाया में दरी बिछाकर बैठा दिया। फिर काफी देर के मौन बाद पं चिरंजीलाल आँखों से पाणी झरते संबोंधित करते हुए बोले कि बापू की समाधी पर मेरी ये आखरी यात्रा है इसलिए मै पुनः नहीं आ पाउँगा तथा आप आते रहना और आप गाँधी पथ पावन धारा के नाम से एक संस्था बनाना जिसका राजनीति से कोई भी वास्ता न हो तथा सिर्फ गाँधी विचारधारा का प्रचार हो। इस प्रकार उनकी ये पूरी यात्रा ग़मगीन रही। फिर एक दिन पं चिरंजीलाल 14 नवम्बर को पं नेहरु के जन्मदिन पर प्राइवेट स्कूल में पं ओमस्वरूप से मिलने आये। वहां पर भी उन्होंने संबोधन किया कि अगली बार मै संबोधन नही कर पाउँगा तथा आप लोग ही ये सारी व्यवस्थाये चलाते रहना। ये संबोधन सुनकर वहां मौजूद लोगो ने कहाँ कि आजकल आप बहुत ही जल्दी भावुक हो जाते हो। इसके जवाब में पं चिरंजीलाल ने कहाँ कि आप सब पागल हो, इसमें भावुकता की क्या बात है? क्यूंकि मेरी अंतिम इच्छा यही है कि अब मै ये बुढा शरीर त्यागकर पुनः इस देश में जन्म लेकर इस भारत माता की सेवा फिर करूँ इसलिए आप सब मुझको जाने क्यूँ नहीं देना चाहते। फिर कुछ दिन बाद 10-12 दिसंबर को पं चिरंजीलाल का सन्देश लेकर एक सेवक साईकल पर उनके भतीजे पं ओमस्वरूप के प्रॉपर्टी डीलिंग के ऑफिस में आये और उन्होंने बताया कि आपके ताऊ चिरंजीलाल जी ने आपको पहले की तरह कढ़ी वाले सहभोज में बुलाया है क्यूंकि पं चिरंजीलाल गंवार पट्ठे डालकर कढ़ी बहुत ही स्वादिष्ट बनाते थे। फिर सहभोज के बाद वही फिर शब्द दोहराए कि भाईयो अब मेरी कहानी महीनों से दिनों के अन्दर आ चुकी है। फिर कुछ ही दिन बाद 24 दिसंबर, सन 1985 को दोपहर के समय पं लक्ष्मीनारायण के बेटे ने आकर बताया कि बाबा चिरंजीलाल की तबियत बहुत जयादा खराब है और उनके दस्त नहीं रुक रहे तथा डॉक्टर के बुलाने के बाद भी कोई आराम नहीं है। वे हॉस्पिटल में भी जाने से मना कर रहे है और कह रहे है कि हॉस्पिटल में मैं नहीं जाउंगा क्यूंकि मेरे को मरना है आप मुझे मरने क्यों नहीं दे रहे। अतः आप जल्दी चले क्यूंकि कह रहे है कि बेटे ओमस्वरूप को बुलाकर लाओ। फिर यही शब्द पं ओमस्वरूप के सामने दोहराए तो पं ओमस्वरूप ने पं चिरंजीलाल कहाँ कि आपको तो जरुरत नहीं है जीने की लेकिन हमको तो आपकी जरूरत है इसलिए आप हॉस्पिटल चलो। फिर उनके कहने पर वे रिक्शा में बैठकर हॉस्पिटल चले गये तो कमाल हो गया क्यूंकि डॉक्टरों को एक बच्चे की तरह एक भी नस नहीं मिली। फिर पं चिरंजीलाल डॉक्टरो से बोले कि क्यों आप परेशान हो रहे हो और क्यों मेरे जाने में बाधा डाल रहे क्यूंकि मेरे को तो थोड़ी देर में मरना है। फिर डॉक्टर बोले कि बाबा आप घबराते क्यों हो? इतना सुनते ही पं चिरंजीलाल शेर की तरह दहाड़कर बोले कि डॉक्टर साहब सुनो! मै कभी अंग्रेजों से नहीं घबराया तो आपसे क्या घबराऊंगा। फिर दस्त तो उनके रुक गये क्यूंकि अंत में एक नस मिली और ड्रिप लगा दी गयी और इमरजेंसी वार्ड से सामान्य वार्ड में तब्दील हो गये। फिर अगले दिन डॉक्टर ने कहा कि बुजुर्ग अवस्था में इनकी अब जीवन शक्ति ख़त्म हो चुकी है अगर थोड़ा बहुत खून (ब्लड) मिल जाए तो कुछ हो सकता है लेकिन उनका माइनस (-) ब्लड ग्रुप था जो इंदिरा गाँधी का भी था जोकि दुर्लभ है। इस प्रकार जब खून की व्यवस्था हो रही थी तो पं चिरंजीलाल बोले कि आप सभी दूर हो जाए क्यूंकि अब मेरा संसार छोड़ने का बिलकुल उचित समय आ गया है तथा मै नया शरीर धारण करने जा रहा हूँ। फिर वे रजाई ढक कर लेट गये और 15 मिनट बाद वे सबकी उपस्तिथि में प्राण छोड़ गये। फिर उनका गाँव में दाह संस्कार कर दिया गया। पं चिरंजीलाल ने मरते वक्त शरीर के बारे में कहा कि शरीर एक साधन है जिसके माध्यम से हम अपने जीवन के कर्तव्य पुरे करके जाते है। अतः ये शरीर अब छोड़ने लायक हो गया है तथा अब मेरे को नया शरीर धारण करके फिर वापिस ऐसा ही नवजीवन लेकर इसी देश की सेवा करनी है। बस यही उनके अंतिम शब्द इस संसार में गूंजे थे। इस प्रकार राष्ट्रभक्ति तो उनमे कूट कूट कर भरी हुई थी।

6 राय धनपत सिंह .

पं0 मांगेराम के समकालीन तथा उनके पश्चात भी एक दशक से अधिक तक सांगों का मंचन करने वाले प्रतिष्ठित सांगीतकार श्री धनपत सिंह का जन्म सन् 1915 ई0 में गांव निन्दाना जिला रोहतक में हुआ। इनके पिता का नाम श्री चन्दामीर तथा माता का नाम श्रीमती भूली देवी था। इन्होंने उर्दू में आठ कक्षाएं पास की थी। पन्द्रह वर्ष की आयु में गांव सुनारिया, रेाहतक निवासी जगुआमीर को अपना गुरू बनाया। गुरू जी से सांग कला सीखकर इन्होंने अपनी अलग सांग मण्डली बनाई। लगभग 19 वर्ष की आयु में इन्होंने पहला सांग गांव निन्दाना में किया था।

श्री धनपत सिंह के सांगों की हरियाणा के ग्रामीण अंचल में खूब धूम मची। बणदेवी, लीलो-चमन, हीर-रांझा, जानी चोर, और गोपीचंद आदि उनके महत्वपूर्ण सांग है जिन्हें हरियाणा प्रदेश में अच्छी ख्याति प्राप्त हुई। इनके अधिकतर सांगों में प्रेमाख्यानक होने के कारण श्रृंगार रस अधिक मुखर रहा है। इनके पास ‘श्याम’ नामक खूबसूरत नवयुवक नचार था, जिसके समय में इनके सांगों की खूब चर्चा रही है। श्याम गांव घरौदी, जीन्द हरियाणा में एक प्रतीक बन गया है- सुकोमार्य का। हरियाणा प्रदेश के ग्रामीण में किसी खूब-सूरत नौजवान को देखकर आज भी कह दिया जाता है- बेटे श्याम।

श्री धनपत सिंह हरियाणा प्रदेश मंे लोकप्रिय सांगीतकार रहे है। वे जहां भी सांग करने गए वहीं उनका भव्य स्वागत हुआ। धनपत के 52 शिष्यों में से बन्दामीर उन्हें बहुत प्रिय थे। इनका मुख्यतः सांग लीलो-चमन नामक सांग इसलिए प्रसिद्ध हुआ क्योंकि इसकी कथा भारत-पाक विभाजन की सत्य घटना पर आधारित थी। दुर्भाग्यवश धनपत जी बीमार हो गए लम्बी बीमारी से लडते-लडते यह महान् लोक कवि 29 जनवरी 1979 को स्वर्ग सिधार गए।20

सामाजिक, धार्मिक एवं राष्ट्रीय चेतना युक्त जनकवि धनपत सिंह ने बादल नामक सांगीत मंे युवाओं को देशभक्ति के मूल्यों के प्रति जागृत करते हुए कहा-

देश शमां पै चाहिये जलना बणके परवानाए
हम बुलबुल देश हमारा खास आशियानाए
हंसते-हंसते देश ऊपर चाहिए मर जानाए
इतिहास मैं लिखी जाए तेरी याद रहे कुरबानी।

संगीतकार धनपत सिंह ने 50 के लगभग सांगीतों का मंचन एवं लेखन किया है। जिनमें से कुछ इस प्रकार से हैः-

हीर-रांझा ज्यानी चोर
हीरामल जमाल जंगल की राणी
शीलो अशोक बणदेवी
सूरज चन्दा राजा नल
गोपीचन्द गजना गोरी
अमर ंिसह राठौर राजा अम्ब
रूप बसन्त राजा हरिश्चन्द्र
लीलो चमन अंजो मनियार
बादल बागी निहालदे सुलतान
पटवे की नया त्यौहार
बादल आदि।22

7 श्री चन्द्रलाल भाट उर्फ बेदी .

सांगीतकार चन्द्रलाल भाट का जन्म 1923 में जीन्द रियासत के चरखी दादरी कस्बे के गोधडिया ब्राहाण नामक गांव में हुआ था। चन्द्रलाल के पिता का नाम सोहनलाल था जो भजनोपदेशक थे। उन्होंने अपने गांव के बारे में एक छंद में स्पष्ट करते हुए कहा है…

चरखी बराबर छत नहीं, सांगवाण जहां जाट।
उसी चरखी में गोधडिया ब्राहाण, वहीं से चन्द्र भाट।।

जन्म के कुछ वर्ष बाद इनके माता-पिता इस गांव को छोडकर दत्तनगर, उत्तर प्रदेश चले गये। इस प्रकार चन्द्रलाल भाट दत्तनगर, जिला मेरठ के निवासी बन गये। उनके द्वारा अपनी जन्मभूमि को छोडकर दत्त नगर जाने का उल्लेख निम्न दोहे में है-

जन्मभूमि रियासत जीन्द में, दत्तनगर किया है वास।
गोधडिया विप्र गांव चन्दर का, चरखी में समझ निकास।।

चन्द्रलाल उर्दू में पांचवी पास थे। ये हरियाणवी के अलावा उर्दू, पंजाबी, हिन्दी, एवं राजस्थानी इत्यादि भाषाओं का ज्ञान रखते थे। सांगी चन्द्रलाल भाट के गुरू मंगलचंद थे। ‘प्रेमजान चन्द्रपाल’ नामक सांगीत में उन्होंने अपनी गुरू परम्परा का उल्लेख इस प्रकार किया है-

कविताई के ज्ञाता सेढू लक्ष्मण और गोपाल गये।
स्वामी शंकरदास दादा गुरू नत्थूदास गये।
गुरू छदं लड़ी बन्द मंगलचन्द कर कमाल गये।

इनके सांगों मंे आधुनिकता की छाप होती थी। वे फिल्मी तर्जाें पर सांग की रागनियां गाया करते थे। ‘‘चन्द्रलाल नई तर्जाें में रोज करै कविताई’’26

अन्य छंद में
‘‘चन्द्रलाल नये फैशन की रागनी सबाके घायल करगी’’।27

चन्द्रलाल जी के शब्दों में ‘‘हमारी टक्कर सांगियों से नहीं, हमारी टक्कर तो बम्बई वालों से है।’’ इन्होंने सबसे पहले नागिन फिल्म के गानों की धुन पर रागनियां गानी शुरू की। इसके बाद तो युवाओं की मंाग के अनुसार सभी सांगों की रागनी फिल्मी धुनों पर गाने लगे। इसके अलावा इन्होंने सबसे पहले महिला पात्रों का अभिनय करने के लिए लड़कियों को मंच पर उतारा लेकिन कुछ समय बाद फिर लड़कों से ही अभिनय करवाने लगे। हरियाणवी सांग को नई दिशा देने वाला यह महान् सांगीतकार 6 अगस्त 2004 को इस भौतिक संसार से विदा हो गया।28

चन्द्रलाल जी ने ‘‘सैल बाला’ नामक सांगीत में आधुनिक समाज के लोगों के जीवन मूल्यों में परिवर्तन का उल्लेख निम्न पंक्तियों में किया है-

मतलब का रह गया जमाना सब न्यारे पाटण लागे।
आँख्याँ मै शर्म रही ना लेकै कर्ज नाटण लागे।।

महान लोककवि चन्द्रलाल भाट उर्फ बेदी ने 100 के आस-पास सांगीतों का लेखन व मंचन किया। इनमें से कुछ सांग इस प्रकार है-

गजना गोरी माया देवी
मेहनादेवी चम्पादे माली की
रतना बादल हीर-रांझा
बीजा सोरठ शाही लाल बहार
कान्ता देवी शाही सुहागन का दुहाग
दमयन्ती स्वयंवर धन्ना जाट
चन्द्रपाल सुमित्रा अंजना दिसौटा
गुलशन गुलबहार निहाल्दे परवाना
इन्दल दिसोटा अजीत सिंह राजबाला
सत्यवान सावित्री संसार चक्र
नौबहार पृथ्वी सिंह किरणमई
हूर मेनका दुष्यन्त शकुन्तला
नौ दो ग्यारह आठ चार बाहर
कृष्णभात गौ-हरण
कीचकवध भीम जीमल मल्लयुद्ध31
रूप बसन्त रूपा राधेश्याम
अनारकली जीजा साली
शैणबाला हरियाणे की चोट
छोरी स्कूटर आली ऊँखा
सत्यवती फूलकंवर छोरा कर्मवीर
सरल देवी भक्त प्रह्लाद
गंगा जमुना संगम की चोट
देवर-भाभी मंगल राजा
मेहनदे शाही मनियार।32

8 पं0 रामकिशन व्यास .

सांगीत के जादूगर पं0 रामकिशन व्यास का जन्म 13 अक्तूबर 1925 ई0 को नारनौद, हिसार में पं0 सीताराम के घर हुआ। सन् 1940 में रामकिशन व्यास प्रतिष्ठित लोक कवि माईराम की छत्रछाया में आए जहां उन्होंने सांग की विद्या के साथ-साथ कविता लेखन में काबिलियत हासिल की। पहली बार उन्होंने श् देवी माई करो सहाई, विद्या वरदान देवीश् भेंट लिखी। इसके बाद उन्होंने सफलता के नए आयाम स्थापित किए। उन्होंने कविता लिखने का अनवरन अभ्यास किया और निम्नलिखित भजन की रचना पर गुरू माईराम ने इन्हें पांच रूपये इनाम में दिये।33

मूर्ख नर अज्ञानी ज्ञान कर क्यूं तू उम्र गंवावै सै,
लाख चौरासी योनि में आदमदेह मुश्किल तै पावै सै

15 वर्ष की आयु में सन् 1940 में ही पं0 रामकिशन व्यास ने पिंझुपुरा, कलायत में तीन और म्यौली में चार सांग किए जिससे उनकी पार्टी को पुरस्कृत किया गया। पं0 रामकिशन व्यास को शशीकला सुखबीर, कम्मो-कैलाश, रूपकला-जादूखोरी एवं नल-दमयन्ती आदि सांगों ने विशेष पहचान दिलाई। उनके सांगों की गंूज हरियाणा, राजस्थान एवं उतर प्रदेश के विभिन्न शहरों तक सुनाई देती थी। उनके स्वांगों में लोकजीवन व जमीन से जुड़े जनमानस का जिक्र होता था, जिस कारण हर कोई उनके सांगों का दिवाना था। सांग के प्रचलन के विषय में व्यास जी का कहना था- ‘‘यह विधा 12वीं शताब्दी के आस-पास शुरू हो गई थी। नारनौल के एक ब्राहाण बिहारी लाल ने शुरू की थी। लेकिन मुगलों के समय में सांग खेलने पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। क्योंकि सांगों के माध्यम से अपनी संस्कृति का ज्ञान और देशभक्ति का ज्ञान कराया जाता था। बिहारी के बाद उनके ही एक शिष्य चेतन ने सांग शुरू किये थे। 17वीं शताब्दी में सांगों का दौर पुनः आरम्भ हुआ, परन्तु इसको आरम्भ करने वाले बाबू बालमुकुन्द गुप्त थे, उसके पश्चात् उनके शिष्य गिरधर तथा कुछ समय बाद शिवकौर ने सांग किये। उसके बाद किशन लाल का आगमन हुआ। पंडित रामकिशन ब्यास जी ने अपनी एक रचना मे भी इस सांग प्रचलन को दर्शाया हुआ है द्य इस प्रकार महान सांगी रामकिशन ब्यास जी का 2 अगस्तए 2003 को निधन हो गया।

‘शशीकला-सुखवीर’ नामक सांगीत में लोक कवि पं0 रामकिशन व्यास ने संयुक्त परिवार के महत्व को दर्शाते हुए सुखवीर के पिता के माध्यम से कहा है-

कहया मान सुखबीर सीर बराबर सुख कौन्या,
मिल जुलकै रहो सारे न्यारे होण बराबर दुख कौन्या।।
ऐक के पिछे ऐक लिखो ग्यारा की मालम पटज्यागी,
ऐक न ऐक से अलग लिखोगे तो नौ की ताकत घटज्यागी,
इसी तरहां से धन दौलत थारी दौ हीस्यां मैं बंटज्यागी,
दोनों भाई रहो सीर थारी सुख से जिन्दगी कटज्यागी।

पं0 रामकिशन व्यास ने 16 सांगों की रचना की जो कि निम्नलिखित हैः-

सती-सावित्री हीरामल जमाल
शशीकला-सुखबीर शरणदे नाई की
रूपकला जादूखोरी धर्मजीत
कम्मों कैलाश हीर-रांझा
फूलकली नल-दमयन्ती
सोमवती-चापसिंह जानी चोर
चन्द्रहास द्रौपदी कीचक
सिरड़ी सत साई सत्यवती।36

प्रारम्भिक दौर में जो चार कथाएं गुरू पं0 माईराम अलेवा निवासी से सीखी व उनका मंचन किया वे हैः-

पूर्णमल उखा अनिरूद्ध गोपीचंद चमन सुकन्या

पं हरिकेश पटवारी:-
पं लख्मीचंद के दृष्टांत विद्वान पंडित हरिकेश पटवारी जी का जन्म 7अगस्त 1898 को गांव धनौरी, तहसील नरवाना, जिला जींद (हरियाणा) में हुआ, जो कि एक रेडियो सिंगर भी थे। धनौरी गांव दिल्ली-पटियाला राजमार्ग पर दाता सिंह वाला से 5 किलोमीटर की दूरी पर है। इनके पिता का नाम उमाशंकर व माता का नाम बसन्ती देवी था। उस समय धनौरी पटियाला रियासत में पड़ता था। पं हरिकेश ने अपनी प्राथमिक शिक्षा गांव धनौरी में और माध्यमिक शिक्षा खन्ना पंजाब से प्राप्त की। इसके बाद काफी समय तक वो खन्ना में रहे। फिर उन्होंने एक बस ली, जो आसपास के मार्गों पर चलती थी। इसके बाद बस को बेच कर आपने राजस्व विभाग में पटवारी के पद पर कार्य किया। पंडित जी हाजिर-जवाबी के लिए भी प्रसिद्ध थे, आपने कई भाषाओं में लेखन का कार्य भी किया।आजादी के बाद आपने हरियाणा के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक परिवेश को बहुत विश्वसनीय ढंग से अपनी रचनाये प्रस्तुत की। रचनाओं में व्यक्त सच्चाई और सहज कला के कारण रागनियां लोकप्रिय हुईं।

सतयुग त्रेता द्वापर से, कलियुग का पहरा खोटा,
चार वर्ण एकसार होए, कोई बड़ा रह्या ना छोटा || टेक ||

सतयुग मै हमारी विप्र कौम, केहरी ज्यूँ कुक्या करती,
त्रेता में जो बात कही, कोन्या उक्या करती,
द्वापर मै इनकी धोती, अम्बर में सुक्या करती,
कलयुग में ऐसे कर्म करे, जिन्हे दुनिया थूक्या करती,
करै भेष जनाना, अब नाचण का मारै जोट्टा ||

सतयुग में क्षत्री बच्चे थे, मरदाने करतूती,
त्रेता में गऊ विप्र रक्षक, महक गई राजपूती,
द्वापर में सिंह मारया करते, ऐसी थी मजबूती,
कलियुग के राजपूत इसे, जिनसे नही मरती कुती,
ठा ले साफा धोती जुती, बेला थाली लोटा ||

सतयुग में धर्मार्थ सेठ, भण्डारे खोलण लागे,
त्रेता में पुनः दान के तप से, निर्भय डोलण लागे,
द्वापर में सब झूठ तजी, बिल्कुल सच बोलण लागे,
कलयुग में सब साहूकार झुठ बोलै, कम तोलण लागे,
दमड़ी पर सो-सो नेम करै, सबका गया लिकड़ लँगोटा ||

सतयुग में खाते शुद्र, मेहनत से उदर भरकै,
त्रेता में गुजारा करै थे, खिदमतदारी करकै,
द्वापर में तीनों वर्णों से, रहया करै थे डरकै,
कलयुग में शूद्रों का झंडा, सबसे ऊंचा फरकै,
हरिकेश से नही खुलै, ये बंध गया भरम भरोटा ||

आपने लेखन काल में कई रचनायें लिखी, जिसमेें से निम्नलिखित चार पुस्तकें देहाती बुक स्टोर नरवाना द्वारा प्रकाशित हुई-

1 वैराग्य रत्नमाला
2 आजादी की झलक
3 हरिकेश पुष्पांजलि
4 प्रश्नोतरी

अप्रकाशित रचनाये:-
1 सत्यवान-सावित्री किस्सा
2 जानी चोर
3 हरफूल जाट
4 ऊखा-अनिरुद्ध

पं हरिकेश पटवारी रेडियो सिंगर थे, सन् 1952 में भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं जवाहरलाल नेहरू के नरवाना आगमन के समय भी पं हरिकेश पटवारी ने अपनी रचनायें प्रस्तुत की । पं नेहरू ने उनकी बहुत प्रशंसा की और जनमानस द्वारा उन्हें बहुत सराहा गया। उसके बाद नेहरु जी ने पं हरिकेश पटवारी को दिल्ली आने का न्योता भी दिया।
8 फरवरी 1954 को पं हरिकेश पटवारी इस निधि को छोड़कर वैतरणी से पार हो गये।

पं चन्दनलाल बजाणा शिष्य श्री लख्मीचंद:-
हरियाणा की लोकनाट्य परम्परा के विकास में साँग में काम करने वाले कलाकारों का विशेष योगदान है। बड़े खेद की बात है, कि इनके योगदान को कभी पुस्तकों या शोधग्रन्थों में स्थान न मिला।
पं मांगेराम के अतिरिक्त इनके समय में धनपत सिंह, रामकिशन व्यास और चन्द्र लाल उर्फ चन्द्रवादी प्रसिद्ध लोक कवि हुए, जिन्होंने अपनी रचनाओं से लोगों को भरपूर मनोरंजन किया। आगे की कड़ी में धनपत सिंह निवासी के शिष्य श्याम (धरोदी) चन्दगीराम (भगाणा) बनवारी लाल ठेल हैं। धनपत सिंह जमुवा मीर के शिष्य है।
चंदनलाल जिला सोनीपत के बजाणा खुर्द गाँव के थे। ये पण्डित लख्मीचंद के शिष्य थे तथा पण्डित लख्मीचंद की मण्डली के प्रमुख कलाकार थे। धर्मे जोगी, धारे जोगी (डिकाणा, उत्तर प्रदेश), ब्रह्मा (शाहपुर बडौली) तथा जहूरमीर (नरेला), ये सभी पण्डित लख्मीचंद के शिष्य रहे हैं। चंदनलाल जी के पिता का नाम पंडित बालीराम था। चंदनलाल जी दो घरों में इकलौते लड़के थे। चंदनलाल जी की दो माताएं थी और एक बहन थी। चंदनलाल जी के पिताजी बहुत मजाकिया, खुशदिल व हंसखोर थे परंतु बहुत बदलेबाज थे। पंडित बालीराम के पास 12 एकड़ जमीन थी परंतु सारी जमीन में पानी भर जाता था। पंडित चंदनलाल जी लख्मीचंद जी के सांगों का आशिक था। 12-13 वर्ष की आयु में सिटावली में चंदनलाल जी पंडित लख्मीचंद का सांग देखने गए थे। तभी चंदनलाल जी के पिता पंडित बालीराम ने चंदनलाल को लख्मीचंद जी को दे दिया था। उस समय ’लकड़हारा’ सांग चला हुआ था तो चंदनलाल जी ने उस सांग में लकड़हारा सांग की ही रागनी गा दी। तब से चंदनलाल लख्मीचंद जी के प्रिय बन गए। चंदनलाल की ने 2 साल तक सांग सीखे फिर 8 साल तक बड़े रकाने पर रानी की भूमिका की। 6 साल तक छोटे रकाने पर रहे। लख्मीचंद जी के सांगों में पंडित चंदनलाल एक नंबर पर नाचते थे दूसरे नंबर पर माईचंद और तीसरे नंबर पर सुल्तान थे। पंडित चंदनलाल बहुत सुंदर व सीधे-साधे थे। लख्मीचंद जी के साथ रहते-रहते माईचंद का नाम लख्मीचंद जी के साथ ज्यादा जुड़ा था। परंतु पंडित चंदनलाल ने अपना अलग बेड़ा बांधकर अधिक नाम कमाया। चंदनलाल इतने सुंदर थे कि जब जनाना कपड़े डालकर सांग करते थे तो आशिक लड़के उनके नाचने के दौरान उनका मुंह देखने के लिए दंगल के चारों और घूमते रहते थे।
चंदनलाल 12 साल तक पण्डित लख्मीचंद जी के साथ रहे तथा बाद में अपना बेडा बांधकर 25 साल तक सांग करते रहे। चंदनलाल लगभग सन् 1930 से पण्डित लख्मीचंद जी के आखरी समय तक उनके साथ रहे। परन्तु पंडित चंदनलाल जी ने लख्मीचंद जी की मृत्यु से चार-पांच साल पहले अलग बेड़ा बांध लिया था।
1940 के करीब पंडित चंदनलाल ने अपना अलग बेड़ा बांध लिया था।पहले पहल सुल्तान एवं चंदनलाल ने इकट्ठा बेड़ा बांधा। परन्तु कुछ दिन बाद दोनों अलग-अलग हो गए। उन दिनों प्रसिद्ध सांगी जहूर भजनी था तथा धारे व ब्रह्मा नाचने गाने वाले थे। चंदनलाल जी ने 35-40 साल तक सांग किए।
चंदनलाल जी का जन्म 1921 के करीब हुआ था और उनकी मृत्यु लगभग 1996 में हुई थी तो इस प्रकार उनकी मृत्यु के समय उनकी आयु लगभग 75 वर्ष की रही होगी।
इसके पश्चात चंदनलाल जी के शिष्यों के तीन बेड़े बंदे और ये तीनों बेड़ेे दो-दो भाइयों के थे। एक बेड़ा करणा-लछमण का, दूसरा बेड़ा ईश्वर-राजू का और तीसरा बेड़ा हवासिंह-मानसिंह का बंदा था। इनमें से दो तो सट्टेबाज व शराबी थे और चंदनलाल जी के मरने के बाद ये दोनों बेड़े समाप्त हो गए। परंतु करणा-लछमण का बेड़ा अभी भी चल रहा है।
कृष्ण भात का एक पौराणिक सांग चंदनलाल जी का बनाया हुआ बहुत अच्छा हैं। जिसकी कुछ कलियाँ हैं-

छलिया कपटी चोर जार ठग, किसनै लुटण खातर आया,
*सारे ऐब मेरे म्य सैं, पर तेरा कद के लूटकै खाया ।।टेक।।
*
लूटके खाण की खातर, मेरै फूटी कौड़ी पास नहीं,
ऐ! तेरे पास चाहे कुछ भी ना हो, पर मनै लेण की ख्यास नहीं,
तेरी सास का के उठ जै, जब आगे होण आस नहीं,
आगे होण आस क्या, तेरा ईश्वर में विश्वास नहीं,
विश्वास न रखकै उस ईश्वर म्य, माणस बता कौण सुख पाया,
सच्चा सुख उसनै पाया, जिसनै दी त्याग जगत की माया,

इसमें श्री कृष्ण जी द्वारा रूप धारण व अवतार धारण करके जो छल किए गए हैं उनका वर्णन किया गया है।

इस सांग में एक भजन भी ऐसा भी है जिसमें सभी कौरवों के नाम उनके कर्मों सहित वर्णित हैं। साथ ही साथ अर्जुन के 10 नाम भी उनके नामों के सतकर्मों के अनुसार वर्णित हैं। इस कथा में महाभारत से संबंधित बहुत अच्छी-अच्छी बातों का वर्णन है। इसमें भरपूर मनोरंजन भी है साथ ही साथ गीत भी हैं तथा ज्ञान की बातें भी हैं।

पण्डित चंदनलाल का कार्यक्षेत्र-
चंदनलाल जी का कार्यक्षेत्र दिल्ली व लाहौर रेडियो स्टेशन पर खूब गाया तथा कार्यक्रम दिए। एक बार नेहरु जी की कोठी पर 1950 के लगभग सांग किया उस समय इंदिरा गांधी जी की आयु लगभग 3 वर्ष थी। तब उन्होंने भी इनका सांग देखा था। के0 सी0 शर्मा के माध्यम से तूले राम (पंडित लख्मीचंद के लड़के) को राष्ट्रपति अवार्ड मिला था। सांग में चंदनलाल सबसे ऊपर थे। वे पूरी जवानी सांग करते रहे परन्तु बुढ़ापे में सांग करने छोड़ दिए।

पं लख्मीचंद सखा सांगीतकार दयाचंद गोपाल
*
साँगीतकार श्री दयाचन्द गोपाल का जन्म वीरवार 2 जनवरी, 1916 को ग्राम हरेवली, दिल्ली 110039 में हुआ। इनके पिता का नाम श्री शेरसिंह व माता का नाम श्रीमती सुधा देवी था। सन् 1939 में श्री दयाचं गोपाल का विवाह लक्ष्मी देवी के साथ सम्पन्न हुआ। इनके माता-पिता मूलतः निकटवर्ती गाँव झिंझोली (जिला सोनीपत) के निवासी थे, किन्तु हरेवली गांव में रहने लगे थे। तीन वर्ष की आयु में ही गोपाल जी के माता-पिता का देहान्त हो गया। दूर के संबंध में मौसी लगने वाली एक विधवा ब्राह्मणी ने माँ-बाप का प्यार देकर इनका पालन पेाषण करना आरम्भ किया। पांच वर्ष की आयु में ही दयाचन्द ने मौसी की भैंस चराने का उतरदायित्व संभाल लिया। दिनभर भैंसो की और सुबह-शाम मौसी की सेवा करते-करते चार वर्ष बीत गए। ऐसी विषम परिस्थितियों में किसी प्रकार की शिक्षा दीक्षा की सम्भावना न थी।
उन दिनों तो दयाचंद गोपाल के अनुसार सरकारी पाठशालाओं में उर्दू ओर अंग्रेजी सिखाई जाती थी। हिन्दी तो केवल प्राइवेट पाठशालाओं में सिखलाई पढ़ाई जाती थी। एक दोहेे के द्वारा श्री दयाचन्द कहते हैं जब भगवान को किसी प्रकार के उपर दया होती है तो-

तुलसीदास गरीब को, मांग्या मिलै न चून।
जब दया फिरै भगवान की, तो हलवा दोनूं जून।।

दयाचंद गोपाल के गाँव में उन दिनों पण्डित जगदीश प्रसाद शास्त्री हिन्दी और संस्कृत की कक्षाएँ चलाते थे। यहीं उन्होंने भी पढ़ाई शुरू कर दी। उन्हें बचपन से ही गाने का शौंक था। शास्त्री जी को उनकी आवाज बहुत पसन्द थी। वे खाली समय में उनसे गाना गवाते थे। गाने गवाते ही नहीं थे, बल्कि सीखते भी थे। अथक परिश्रम के पश्चात्, उन्होंने तीन साल सन् 1931 से 1933 में आठवीं तक शिक्षा ग्रहण कर ली थी। पढ़ाई के साथ-साथ उन्होंने पौराणिक ग्रन्थों का अध्ययन भी शुरू कर दिया था। दीक्षा के रूप में इन्होंने शास्त्री जी को गीत-संगीत सिखलाया।
नौ वर्ष की अल्पायु में श्री दयाचन्द गोपाल को परमपूज्य गुरू पं. मानसिंह की शरण मिल गई। गोपाल जी का कहना है-’’गुरू जी मारे गांव में भजनोपदेश के लिए अपने शिष्यों सहित लगभग प्रतिवर्ष आते थे। इस बार गुरू जी गांव में प्रवेश कर रहे थे उस समय मैं अपनी भैंसों की रखवाली करता हुआ नहर के किनारे खड़ा हुआ कोई गीत गुनगुना रहा था। गुरू जी जोकि जन्मांध थे इसलिए देख तो न सके किन्तु मेरा स्वर सुनकर एकाएक रूक गए और अपने शिष्यों के द्वारा मुझे प्रेमपूर्वक अपने पास बुलाया। मेरे गाने की प्रशंसा करते हुए गुरू जी ने मेरे सिर पर अपना वरदहस्त रखकर पूछा-बेटा, तुम्हारा नाम क्या है? तुम्हारे माता-पिता कौन हैं? इस पर मैंने जब अपनी राम कहानी गुरू जी को सुनाई तो गुरू जी का गला भर आया और उसी समय मुझे संगीत शिक्षा देने के लिए अपने साथ चलने को कहा। यह घड़ी मेरे सौभाग्य और कल्याण का श्रीगणेश थी, क्योंकि उसी समय मुझे ईश्वर तुल्य परम गुरू पं. मानसिंह जी ने अपनी शरण में ले लिया। उनके पास फिर श्री दयाचन्द ने आठ वर्षों तक संगीत की शिक्षा ग्रहण की। शिक्षा पूरी होने पर गुरू जी ने श्री दयाचन्द को आशीर्वाद देते हुए कहा था, बेटा! जहाँ तक तेरी बोली समझने वाले लोग होंगे, वहाँ तक तुझे असीम यश और धन की प्राप्ति होगी तथा तेरी कला का सम्मान होगा। जिस समय दयाचन्द जी ने दीक्षा ग्रहण की उस समय पं. लख्मीचन्द ने अपने साँगों द्वारा न केवल हरियाणा अपितु पूरे उत्तरी भारत में अपने साँगों की धूम मचा रखी थी और उनका यश अपनी चरम सीमा पर था।’’
उन दिनों साँग बहुत लोकप्रिय थे। दयाचंद गोपाल के गुरू भाई पं लख्मीचंद जी का नाम उन दिनों साँगियों की अग्रिम श्रेणी में था। उन्हीं से दयाचंद को भी साँग मंचन करने की प्रेरणा मिली। उन्होंने अपना साँगी बेड़ा बना लिया। उनके गुरू जी ने उन्हें धन, यश और साँग कला को चरम सीमा पर पहुँचाने का आशीर्वाद दिया। उसके बाद तो वे लोकप्रियता के शिखर को चूमने को तैयार थे। सन् 1939 में जिन दिनों दयाचंद गोपाल का नाम बडे़-बड़े साँगियों की गिनती में आने लगा था, उन्हीं दिनों उनका विवाह लक्ष्मी देवी के साथ हो गया। उनका साँग से मोह अधिक दिन तक न चल सका, क्योंकि उनके गुरू भाई और उस समय के प्रसिद्ध साँगी पण्डित लख्मीचंद का सन् 1945 में अश्वनी मास की एकादशी को निधन हो गया था।

दयाचंद को गोपाल क्यों कहा जाता है?
यह बात भी अत्यन्त रोचक है। उनकी रूचि आरम्भ से ही गाय चराने में थी। गाय भी उन्हें पहचानने लगी थी। वे आवाज लगाकर गायों को नामों से बुलाते थे। वे दौड़ी चली आती थी। गायों का पालन करने की वजह से सभी बचपन से ही उन्हें प्यार से ’गोपाल’ कहकर सम्बोधित करते थे। बस फिर बाद में तो वे दयाचंद गोपाल के नाम से ही प्रसिद्ध हो गए।
श्री दयाचन्द गोपाल के सांगों की लोकप्रियता से गुरु पं. मानसिंह अत्यन्त प्रसन्न हुए। गुरु जी ने दयाचन्द के प्रशंसकों के सामने हर्ष व्यक्त करते हुए कहा-
’’पहले तो आंधी छोड़ रखी थी (साँग के क्षेत्र में आंधी के समान तीव्र गति से यश प्राप्त करने वाले पं. लख्मीचन्द) और अब चूलिया और छोड़ दिया अर्थात् श्री दयाचन्द गोपाल चक्रवात की भाँति ख्याति के शिखर पर पहुँच गए। लगभग 12 वर्ष तक आंधी और चूलिया अर्थात पं. लख्मीचन्द और श्री दयाचन्द गोपाल पूरे हिन्दी भाषी क्षेत्र में अपने साँगों द्वारा धूम मचाते रहे।
गोपाल जी परमपूज्य गुरू पं. मानसिंह के बाद दूसरे स्थान पर गुरू भाई पं. लख्मीचन्द को ही मान सम्मान देते थे और उन्हें बहुत चाहते थे। सन् 1945 में पं. लख्मीचन्द की मृत्यु हो गई। इस घटना के बाद श्री दयाचन्द के जीवन में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ और इन्हें साँग से कुछ विरक्ति सी होने लगी। सन् 1947 में जब देश का बंटवारा हो रहा था तब पाकिस्तान बन गया, तो श्री दयाचन्द के साँग में काम करने वाले साजिन्दे जो अधिकांशतः मुसलमान थे तो कुछ पाकिस्तान चले गए और कुछ मार-काट मे मारे गए। इससे गोपाल जी को गहरी ठेस पहुँची और लोगों के बार-बार आग्रह करने पर भी इन्होंने साँग छोड़ने का निर्णय ले लिया। जिन साँगों को दयाचन्द ने मंचित किया वे निम्नलिखित में इस प्रकार हैं-
पद्मावत, नौंटकी, सेठ ताराचन्द, शाही लकड़हारा, शीला सती, मीराबाई, पूरणमल, विराट पर्व, राजा हरिश्चन्द, चन्द्रकिरण, जानी चोर, सुलतान निहालदे, चाप सिंह, औरंगजेब, चंचल बाई, चीर पर्व, सभा पर्व,धु्रव उत्तानपाद, सरवर नीर, नल-दम्पयन्ती आदि।
उनकी रचनाओं के विषय पौराणिक, ऐतिहासिक और सामाजिक हैं। उनकी काव्यकला की ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैंः-

पहले से कुछ मंद नाम सै, दिल से तो आनंद नाम सै,
पाली दयानंद नाम सै, गऊ चरावणिया।।टेक।।

याणै के मरगे बाबल माई, मनै मौसी की भैंस चराई,
समय आइ जिब गुरू जी मिलगे, सारे दुख देही के टलगे,
चार बिरहनला खिलगे, था मैं भैंस चरावणिया।।

जिब तामस माया नैं ताण्या, मनैं गढ़े का सागर जाण्या,
बात बुरी और बाणा सिद्ध का, हटा नहीं कदे पूरा जिद का,
जिब सेवन करया मद का, बोतल दो-एक धरावणिया।।

बात का लाओ तो अंदाजा, राज का तिलक हमेशा ताजा,
राजा बणै अर झोली संग म्य, बेइमाने की कोली संग म्य,
ठांरा बीस की टोली संग म्य, एक बैंत डरावणिया।।

तीर्थ व्रत भजन म्य, सात साल तक रहया गवन म्य,
मन म्य ओर विचार हो लिया, सब पंथों से पार हो लिया,
हाथ अंगोछा विचार हो लिया, कती जरावणिया।।

गुरू मानसिंह बात सुणादें धुर की, शिष् ’दयाचंद’ आस ईश्वर की,
सच्चे गुरू की टहल बताई, धनाढ़ों की चहल बताई,
हिन्द सारे की सैल बताई, एक तार करावणिया।।

श्री दयाचन्द गोपाल का कार्यक्षेत्र-
साँग छोड़ने के बाद श्री दयाचन्द ने देशाटन करके सभी तीर्थों व धार्मिक स्थलों के दर्शन किये। इसके बाद इन्होंने गऊओ की सेवा का बीड़ा उठाया और हाथ में अंगोछा (डंडे के स्थान पर) धारण करके लगभग 12 वर्ष तक नंगे सिर व नंगे पांव गऊऐ चराई। उनकी एक आवाज पर’’आओ हे लीली, गोरी, काली, पीली, धोली’’ सैंकड़ों गऊऐ उठकर इनके पीछे चल देती थी। इस दौरान इन्होंने साँगों की कथा को ’’इकतारे’’ के माध्यम से आमजन तक पहुँचाया और इसी के द्वारा आजीविका उपार्जित करते रहे। श्री दयाचन्द गोपाल अपने दृढ़ संकल्प, सत्यवादिता और वचन के पक्के होने के लिए पूरे क्षेत्र में प्रसिद्ध थे। सदा निडरता से अपनी बात कहना अपना कर्तव्य समझते थे। सार्वजनिक हित के लिए सदेव प्रयत्नशील रहते थे। वृद्धावस्था में भी वे किसी सबल के पास बैठने की बजाय गाँव-गुहाण्ड में दीन व्यक्तियो की सेवा करते हैं।

श्री दयाचन्द गोपाल का योगदान-
हरियाणवी लोकनाट्य साँग को लोकप्रिय बनाने वाले साँगियों में, पण्डित दयाचंद ’गोपाल’ का योगदान भी महत्वपूर्ण है। जिन दिनों साँग अपने पूरे यौवन पर था, उन दिनों इनके साँगों की भी तूती बोला करती थी। श्री दयाचन्द गोपाल पं. जवाहर लाल नेहरू को बहुत मानते थे। महीने में एक बार नेहरू जी से अवश्य मिलते थे। लगभग सन् 1957 से 1964 के बीच आकाशवाणी दिल्ली के देहाती कार्यक्रम में गोपाल जी की रागनियाँ प्रसारित हुई। 18 मार्च 1988 को आकाशवाणी रोहतक में हरियाणा के कवियों के बारे में एक परिचर्चा प्रसारित की। इस प्रकार अंत मे गोपाल जी ने इस वार्ता में भाग लेकर एक बार फिर अपने श्रोताओं तक अपने विचारों को पहुँचाया।

पण्डित चंदनलाल का योगदान-
पण्डित लख्मीचंद की मण्डली में एक प्रमुख कलाकार था-पण्डित चंदनलाल। पण्डित लख्मीचंद का एक छोटा भाई भी था, जिसका नाम भी चंदनलाल ही था और वह सदैव उनकी मण्डली के साथ ही रहा करता था, लेकिन यह चंदनलाल वह नहीं है। वह उनकी मण्डली का कलाकार था, जिसने कई वर्षों तक जनाना भूमिकाएं निभाई। पण्डित चंदनलाल की धूम मेरठ कमीशनरी तथा हरियाणा में खूब धूम मची। इनके शिष्य कर्मवीर, धर्मवीर और संतवीर ने भी बाद में अलग-2 मण्डलियां बना ली थी।

चौ. रामशरण अलिपुरिया:-
चौधरी रामशरण का जन्म 08 मार्च, 1963 को गांव अलीपुर खालसा, तहसील घरौंडा, जिला करनाल में हुआ। इनका जन्म रोड़ जाति में गांव के किसान चौधरी आभेराम के घर हुआ। पांच भाई-बहनो मे रामशरण जी अपने पिता कि सबसे छोटी संतान थे। चौधरी रामशरण के दादा नेतराम के पास ढाई-सौ बीघे जमीन थी। चैधरी रामशरण का स्वर्गवास 18 दिसंबर, 2011 को गांव में ही हुआ। रामशरण जी परिवारिक परिस्थितयों के कारण आठवीं कक्षा तक ही शिक्षित हो पाये। चौदह वर्ष की आयु मे स्कूल छोडने के बाद खेती का कार्य सौपे जाने से कवि ने हल चलाकर खेती करना प्रारंभ किया। पाठशाला के समय से ही सगींत से विशेष लगाव होने के कारण रामशरण जी ने खेती के साथ-साथ गायकी भी जारी रखी। आवाज ऊंची, दमदार और सुरीली होने के कारण गांव व आस-पास के लोग उनके द्वारा गायी रागनियों को बडे ध्यान से सुनते और हौंसला बढाते। धीरे-धीरे उन्हे बहुत सी रागनियां याद हो गई जिनको वे महफिल मे गाने लगे। समय अंतराल के बाद उनकी मुलाकात गांव के ही मंदिर मे रहने वाले सन्यासी श्री सतनारायण से हुई। सतनारायण जी अखण्ड ब्रह्मचारी, चार वेद, छह शास्त्र, अठारह पुराणो के ज्ञाता थे, जिसके कारण उन्हे उच्च कोटी का आध्यात्मिक ज्ञान था। रामशरण जी ने सतनारायण को गुरू धारण कर ज्ञान प्राप्त किया। गायकी के लिए सुर-लयदारी और कविता के लिए छंद रचना का ज्ञान उन्होेंने इधर-उधर सांग मंडलियो मे बैठकर अपनी मेहनत से सीखा। अपनी कविताओं में कवि रामशरण ने भी गुरू को बहुत महत्व दिया है, जैसे सांग ‘‘श्रवण कुमार पितृभक्त” में लिखा है-

‘‘कह रामशरण मनै शिक्षा पाई, सतगुरू जी के डेरे पै”

सांग ‘‘राजा वीर विक्रमाजीत” में लिखा है-

‘‘कह रामशरण गुरू की दया तै, मनै हो गया ज्ञान भतेरा।”

रामशरण जी ने अपनी खुद की गायकी के बारे मेें लिखा है-

‘‘न्यूवें मुँह ना बा राखे, जाणु गावण की लहदारी।”

रामशरण जी को सुर-लयदारी का ज्ञान भी उच्च कोटी का था, जिसका प्रमाण उनकी गायकी को सुनने वाले लोग है जो आज भी यह कहते है की उनकी गायकी का कोई तोड़ नही था। रामशरण जी कच्चे साज के साथ-साथ पक्के साज पर भी बहुत बढ़िया गाते थे। रामशरण जी अपने खेत मे काम करते-करते रागनी बना देते थे और कई बार स्टेज पर भी तत्काल रागनी बना कर गाते थे, उसी वजह से उन्होेेंने सांग ‘‘शकुन्तला दुष्यंत‘‘ मे लिखा है –

‘‘मनै घड़णा हो सै तुरन्त काफिया, सही मौका टेम बताणा हो।”

रामशरण जी अपने साथ मण्डली भी रखते जो स्टेज गायकी मे उनके साथ रहती थी। उन्होंने खुद कुरूक्षे़त्र रेडियो स्टेशन में बहुत बार प्रस्तुती दी, उनके बनाये हुए कई सांग रोहतक रेडियो स्टेशन में रिकोर्ड है। सन् 2007-08 में ‘साहित्य अकादमी पंचकुला’ ने उनकी पुस्तक ‘‘धर्म के इतिहास” को भी प्रकाशित कराया, जिसमे चार सांग है। रामशरण द्धारा रचित सांगों की कुल सख्ंया 27 और कुल रागनियों की संख्या 1150 है। उनके द्वारा रचित सांगों के नाम निम्न है-

1. शिवजी का ब्याह 15. रामायण
2. मीराबाई 16. जैमल फता
3. हकीकत राय 17. अम्ब राजा
4. श्रवण कुमार पितृभक्त 18. नर सुल्तान
5. अजीतसिंह राजबाला 19. ज्यानी चोर
6. बीजा सोरठ 20. हीरामल जमाल
7. राजा भोज शरणदे 21. पद्मावत
8. अजामिल ब्राह्म्ण 22. पूर्ण भक्त
9. राजा हरिश्चन्द्र 23. कृष्ण सुदामा
10. महाभारत कथा 24. कृष्ण लीला
11. प्रहलाद् भक्त 25. राजा वीर विक्रमाजीत
12. शकुन्तला दुष्यंत 26. नल दमयन्ती
13. गोपीचंद 27. राजा उतानपात
14. चन्द्रकिरण 28. फुटकर फुहार

अगर रामशरण जी के सांगों का विश्लेषण करें तो उनकी कविताओ से सामाजिक ज्ञान झलकता है, वे हर बात को बडे़ ही उचित ढगं से छंदों में लिख देते थे। वे अश्लीलता से कोसो दुर रहते थे। उदाहरण के लिए पूर्ण भक्त सांग में श्रृगांर रस को उचित ढंग से गाया है।
‘‘पूर्ण भक्त” सांग के माध्यम से उन्होंने सामाजिक बुराईयां जैसे चोरी, जारी, जुआ, मदिरापान पर भी कटाक्ष किया है, जैसे-
चोरी जारी जुआ जामनी, मदिरा पान बुरा हो सै
पर निंदा और बुरी संगति, तन का अभिमान बुरा हो सै
क्रोध जलेवा दुखदाई, मलीन शैतान बुरा हो सै
जो बुआ बहाण मौसी नै तकले, उसका ध्यान बुरा हो सै।

‘‘कृष्ण सुदामा” सांग में निस्वार्थ मित्रता को दर्शाया है और बताया है कि मनुष्य को मुसिबत के समय में अपने दुख दर्द अपनी रिश्तेदारी, दोस्त, सगे को बताना चाहिये जैसे-

‘‘भीड़ पड़ी मै यार प्यार मै, सब नै जाणा चाहिये पिया
रिश्ते नाते सगे-सोई तै, मरम बताणा चाहिये पिया
साची बात पै अटल खड़या रह, परण निभाणा चाहिये पिया।”

‘‘राजा हरिश्चन्द्र” सांग में धर्म परिक्षा को दर्शाया है, उन्होंने बताया कि मुसिबत के समय जगत में कोई साथी नही मिलता, मनुष्य को अकेले ही अपनी मुसिबतो का सामना करना पड़ता है जैसे-

‘‘ना कोये विपत पड़ी मै प्यारा, यू सै मतलब का जग सारा
प्यारा बोल ना रहया – ह्रदय छोल रहया – तन डोल रहया –
कुकर खड़ी हो पूत नै ठा कै।”

‘‘राजा भोज शरणदे” सांग में समाज को बताया है कि बुरे व्यक्ति की बराबरी अच्छे मनुष्य नही कर सकते, इसलिए बुरे व्यक्ति की बराबरी नही करनी चाहिये, जैसे-

‘‘आपा मार भला जग हो सै, बुरे की बराबरी कद लग हो सै
दखे चोर जार तो ठग हो सै – जो झूठी करै सफाई –
साच का पाछै लागै बेरा।”

‘‘जैमल फता” सांग में पारिवारिक रहन – सहन को दर्शाया है, कि परिवार में कभी भी भाईयो को आपस में नही लड़ना चाहिये, क्यूंकि परिवार कुणबे की आपसी लड़ाई में सदैव नुकसान होता है, जैसे-

‘‘घर कुणबे की राड़ मै तो, किसे ना किसे का गाला हो।”

‘‘ज्यानी चोर” सांग में बताया है कि पत्नी, भाई, बेटा बेटी, रिश्तेदारी, गोती, नाती कैसे होने चाहिये ताकि परिवार का विकास हो, जैसे-

‘‘चोरी बरगा माल नही, जै सरकार ना हो तै
बीर जैसा तो वजीर नही, जै बदकार ना हो तै
भाई भी पराये हो ज्यां, ऐतबार ना हो तै
बेटा बेटी नाम डुबो दे, समझदार ना हो तै
प्यार बिना के रिश्तेदारी, गोती नाती रै।”

‘‘राजा वीर विक्रमाजीत” सांग में राजा वीर विक्रमाजीत रत्नकौर के पेट मे रहने वाले सांप को अपने पुन्य के बल पर खत्म करके नया जीवन प्रदान करते है। इस सांग में उन्होंने समाज को बताया है कि नारी की सदैव कद्र करनी चाहिये उनका निरादर नही करना चाहिये, जैसे-

‘‘बीर की सदा कद्र करो, बीर गुण की खान हो सै
नारी रत्न कही जिस कै, सुर मुनि विद्वान हो सै
सदा शारदा दुर्गे लक्ष्मी, सतरूपा किसा ध्यान हो सै
कह रामशरण नारी जग माता, जिनै धर्म का ज्ञान हो सै
नारी का अपमान बुरा हो, ना नाश करण की देरी।”

‘‘हकीकत राय‘‘ सांग में उस समय मुसलमानो द्वारा हिन्दुओं पर किये गये अत्याचारों को दर्शाया है कि कैसे अन्य धर्मो को बलात्पूर्वक मुस्लिम धर्म में मिलाया जाता था और मुस्लिम धर्म ना अपनाने पर मार दिया जाता था, जैसे बताया है –
‘‘हिन्दू तै मुसलमान बणे, घणे मुश्किल तै दिन काटे थे
साधन की लाचारी थी, म्हारे न्यूं भी लते पाटे थे
रोटी और लगोंटी ना थी, सब क्यांहे के घाटे थे
समय समय का खेल बताया, खून चलू भर चाटे थे
हिन्दू न्यारें छाटे थे, जिनकै गात जनेऊ सिर चोटी।”

‘‘अम्ब राजा‘‘ सांग मे सरवर नीर बतलाते है कि हमने किस प्रकार कष्ट सह कर जिंदगी यहां तक व्यतीत की और कवि द्वारा समाज को भी यही शिक्षा दि गई है कि मनुष्य को दुख विपता मे कभी हार नही माननी चाहिए, बल्कि डट कर सामना करना चाहिए, जैसे-

‘‘माँग माँग कै मगँता हो ज्या, पड़ पड़ सवार बणै सै
रगड़ा खा खा लोहा ठोठ भी, खाण्डे की धार बणै सै
सोने का कुन्दन हो जल कै, फैर जेवर तैयार बणै सै
मीठा बोल कै जग नै जीतै जो, उसका प्यार बणै सै
रै आई ना घड़ी सुख की बैरण – इसी किस्मत सै म्हारी।”

‘‘अजीत सिंह राजबाला‘‘ सांग मे अजीत सिंह के पिता के पास जांगीर ना रहने पर अजीत सिंह का ससुर राजबाला को अजीत सिंह के पास भेजने से मना कर देता है। ऐसे ही समाज मे भी घटनाएं घटित हो रही है जिससे रिश्ते नातो को बहुत ठेस पहुॅचती है जैसे कवि ने लिखा है –

‘‘धीरज धर्म और मित्र नारी, बखत पडे मै परखे जा
हीरे मोती लाल दबे धरे, नही घड़े मै परखे जा
लोह मोम का बेरा लागै, जिब काम अड़े मै परखे जा
गुण अवगुण भी परखे जा, जिब लगे किनारे मर कै।”

‘‘महाभारत” सांग मे जब कौरव पाण्डवो मे फुट हो जाती है तो परिवार विनाश की तरफ बढने लगता है। यह बात समाज पर भी लागू होती है कि जहा भाईयों मे फुट पड़ जाती है, वहां विनाश ही होता है, जैसे बताया है कि:-

‘‘वें घर ना कदे बस्या करै, जड़ै आपस मै भाईयां की फूट
विभीषण कै लात मारदी, रावण की गई लंका टूट
मनै नजर फैर कै देख लई, न्यूएं होरी जग मै चारों खूंट
कथा वार्ता सुणी भतेरी, भर बैठी इब विष की घूटं।”

‘‘नल दमयन्ती” सांग मे राजा नल भाई पुष्गर के साथ जुआ खेलते हुए सब कुछ हार जाते है, इस सांग में समाज में जुए जैसी बुराई पर कटाक्ष किया है जैसे-

‘‘ना कोई भाई तै बैर लगाईयो
ना जुए की बाजी लाईयो
काम चलाईयो थोडे मै- ना जिन्दगी कटै तोड़े मै
इस काया के झोडे मै- करड़ाई कुकर फहगी।”

9 फौजी मेहर सिंह .

फौजी मेहरसिंह का नाम हरियाणवी लोक-साहित्य में सम्मान के साथ लिया जाता है। इनका जन्म 15 फरवरीए सन् 1918 में गांव बरोणाए जिला सोनीपत में हुआ था। पारिवारिक और आर्थिक कठिनाईयों के कारण मेहरसिंह ज्यादा नहीं पढ़ पाये। महज 4 जमात पास मेहरसिंह गांव के अन्य बच्चों की तरह पशु चराने जाते थे। खेतों में, गांव के गोरे व जोहड के किनारे अपने दोस्तों के बीच रागणी सुनाते थे। फौजी मेहर सिंह 2 सितम्बर 1936 को सेना में भर्ती हुए थे और बाद में आई.एन.ए. में भर्ती हो गये थे। फौजी मेहरसिंह ने पं0 लखमीचंद को अपना गुरू माना। सन् 1936 से 1945 तक उन्होंने लगभग 9 साल तक सेना में नौकरी की। फौज में रहकर उन्होंने हर विषय पर रागनी और सांग लिखे। इन्होंने असंख्य मुक्तक रागनियां एवं भजन आदि भी लिखे।

मेहरसिंह की आवाज अत्यन्त मधु एवं सुरीली थी। आजाद हिन्द के नेता सुभाष चन्द्र बोस के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर लडने वाला यह सिपाही अपनी ही तरह का अलग पुरूष था जिसने फौजी जीवन व कला में अनूठा समन्वय स्थापित किया था। ग्रामीण परिवेश में पैदा हुए और पले-बढ़े तथा मेहर ंिसह ने ग्रामीण जीवन को ही अपनी रागनियों में समेटा है। समाज में फैली कुरीतियों, उंच-नीच, छूआछूत, गरीबी और अमीरी का भेद का भी अपनी रागनियों में बडा ही मार्मिक चित्रण किया हैः-

परमेशर नै दो जात बणादी एक टोटा एक साहूकारा,
एक बेल कै दो फल लागैं एक मीठा एक खारा,
जिसकै धोरै पैसे हो वो सबनै लागै प्यारा,
जिस माणस कै टोटा आज्या, भाई दें दुतकारा।

रागणी विधा को नया रूप, नयी संवेदना, तथा नया अर्थ देने वाले फौजी मेहर सिंह 15 मार्च 1945 को माण्डले हस्पताल में 29 वर्ष की अल्पायु में ही स्वर्ग सिधार गये।

हरियाणवी ग्रामीण समाज में लोक-विश्वासों, शकुन-अपशकुनों का महत्वपूर्ण स्थान है। समाज में ऐसी लोकधारणा है कि जब कोई व्यक्ति किसी कार्य की सिद्धि के लिए अपने घर से निकलता है तो उस समय, कुत्ते का कान मारना, बाई और कव्वे का बोलना, खाली घड़ा लिये औरत का मिलना, छींकना एवं विधवा नारी का केश बिखेरे मिलना इत्यादि अपशकुन अनिष्टकर माने जाते है। सांगीत ‘सरवर-नीर’ में राजा अम्ब जब जंगल से पते लेकर चलता है तो उस समय उसे इसी प्रकार के अपशकुन दिखाई देते है, इन समय लोक कवि फौजी मेहर सिंह कहते है-

गहरी चिन्ता हुई गात म्हं, धड़-धड़ छाती धड़कै।
पता लेकै चाल्या राव, जब शहर लिया मर पड़कै।।
आग्गै सी नै मिली लुगाई, रीति दोघड़ करकै।
आग्गै तै सीधी छींक मारदी, मुंह के सामी करकै।
होग्ये सौण-कसोण कुंवर, इब पैंडा छुटै मरकै।।

लोककवि फौजी मेहरसिंह ने 16 के लगभग सांगीतों एवं 150 के आसपास अन्य सांगो नौटंकीए गजनादेए हीर राँझा मे भी फुटकड़ रागनियों की रचना की। उनके रचित सांग इस प्रकार से हैः-

चन्द्रकिरण राजा हरिश्चन्द्र
सत्यवान-सावित्री चाप सिंह
शाही लकड़हारा अजीत सिंह राजबाला
सेठ ताराचन्द सरवर-नीर
अंजना-पवन सुभाषचंद्र बोस
काला चान्द
पदमावत
जगदेव बीरमती
वीर हकीकतराय
रूप बसंत
भगत पूर्णमल सुंदरादे

इन्होंने असंख्य मुक्तक एवं 50 के आसपास सपनों के भजन एवं रागनियां आदि भी लिखे।

10 चौ. मुंशीराम जांडली .

महान कवि चौण् मुंशीराम का जन्म 26 मार्चए सन 1915 को गाँव छोटी जांडलीए फतेहाबाद.हरियाणा मे एक कृषक परिवार के अन्दर पिता चौण् धारीराम व माता लीलावती के घर हुआ द्य वैसे तो ये गाँव जांडली पहले हरियाणा के जिला हिसार क्षेत्र के अंतर्गत आता था द्य चौण् मुंशीराम की शिक्षा प्रारम्भिक स्तर तक ही हो पायी थीए क्यूंकि उस समय उनके गाँव के दूर.दराज के क्षेत्रों तक शिक्षण स्थानों का काफी अभाव था द्य इसलिए फिर मुंशीराम जी ने उन्ही के पैतृक गाँव मे बाबा पंचमगिरी धाम के अन्दर ही चौथी कक्षा तक शिक्षा ग्रहण की द्य उसके बाद फिर मंजूर.ऐ.तक़दीर के तहत उनका ध्यान मनोरंजन के साधनों की तरफ आकर्षित होते हुए संगीत कला व हरियाणवी लोकसाहित्य की ओर मुड़ गया द्य शुरुआत मे तो मुंशीराम जी अपने मुख्य व्यसाय कृषि के साथ.साथ श्रृंगार.प्रधान रस की ही रचना गाया और लिखा करते थे तथा इन्ही के द्वारा अपना समय व्यतित करते थे द्य कुछ समय पश्चात् वे अपने ही गाँव जांडली खुर्द निवासी ग़दर पार्टी के सदस्य व देशप्रेमी हरिश्चंद्रनाथ वैद्य की तरफ आकर्षित होने लगे जो एक योग गुरु भी थे और उनकी देशभक्ति विचारों एवं देशप्रेम भावनाओं से प्रेरित होकर अंत मे उन्ही को अपना गुरु धारण किया द्य फिर बाद मे उनके गुरु हरिश्चंद्र नाथ ने ही अपने शिष्य मुंशीराम की लगन व श्रद्धा और प्रतिभा को देखते हुए इनकी जीवन धारणा को सामाजिक कार्यों और देशप्रेम की ओर मोड़ दियाए जो जीवनभर प्रज्वलित रही द्य गुरु हरिश्चंद्र नाथ का देहांत शिष्य मुंशीराम के देहांत के काफी लम्बे अर्से बाद सन 1993 मे हुआ द्य इसीलिए वे अपने शिष्य मुंशीराम से जुडी हुई अनेकों यादों दोहराया करते थे द्य चौण् मुंशीराम की आवाज बहुत ही सुरीली थी जिसके कारण उनके कार्यक्रम दूर.दराज के क्षेत्रों तक सुने जाते थे द्य फिर मुंशीराम जी के एक पारिवारिक सदस्य चिरंजीलाल ने बताया कि उनके दो विवाह हुए थेए जिनमे मे से उनकी पहली पत्नी रजनी देवी का कुछ समय पश्चात् निधन हो गया था द्य उसके बाद फिर चौण् मुंशीराम ने अपनी पहली पत्नी देहांत के बाद पारिवारिक अटकलों से उभरते हुए एक बार अपने ही गाँव मे कलामंच पर अपना कला.प्रदर्शन पुनः प्रारंभ किया तो गाँव के ही कुछ लोगों ने उनका मजाक उड़ाते हुए कहा कि श्मुंशीराम तेरै पै तो रंडेपाँ चढ़ग्याश् द्य फिर उन्होंने कलामंच पर ऐसे घृणित शब्द सुनकर उस दिन के बाद कथा एवं सांग मंचन को तो उसी समय ही छोड़ दियाए किन्तु अपनी रचनाओं को कभी विराम नहीं दियाए क्यूंकि वे एक बहुत ही भावुक व संवेदनशील रचनाकार थे द्य उसके बाद पुनर्विवाह के रूप मे वे दूसरी पत्नी सुठियां देवी के साथ वैवाहिक बंधन मे बंधेए जिससे उनको एक लक्ष्मी रूप मे एक पुत्री प्राप्त हुई परन्तु वह भी बाल्यकाल मे ही वापिस मृत्यु को प्राप्त हो गई द्य उसके बाद तो फिर इस हमारे लोकसाहित्य पर ही एक कहर टूट पड़ा और हमारे अविस्मरणीय लोककवि चौण् मुशीराम जी अपनी 35 वर्ष की उम्र मे पंच तत्व में विलीन होते हुए भवसागर से पार होकर अपनी दूसरी पत्नी सुठियां के साथ.साथ हमकों भी अपनी इस ज्ञान गंगा मे गोते लगाने से अछूते छोड़ गए द्य फिर हमारी सामाजिक परंपरा के अनुसार इनकी दूसरी पत्नी सुठियां देवी को इनके ही बड़े भाई श्यौलीराम के संरक्षण मे छोड़ दिया गयाए जिनसे फिर एक पुत्र का जन्म हुआ जो बलजीत सिंह के रूप मे कृषि व्यवसाय मे कार्यकरत रहते हुए अब वे भी हमारे बीच नहीं रहे द्य

वैसे तो मुंशीराम जी का अल्प जीवन सम्पूर्णतः ही संघर्षशील रहा है और विपतियों की मकड़ीयों ने हमेशा अपने जाल मे घेरे रखाए क्यूंकि एक तो आवश्यक संसाधनों की कमीए दूसरी आजादी के आन्दोलनों का संघर्षशील दौर और दूसरी तरफ गृहस्थ आश्रम की विपरीत परिस्थितियों के संकटमय बादल हमेंशा घनघोर घटा बनकर छाये रहे तथा अंत मे वे फिर एक झूठे आरोपों के मुक़दमे फांस लिए गए द्य उसके बाद तो फिर एक प्रकार से झूठे मुक़दमे ने उनकी जीवन.लीला को विराम देने मे अहम भूमिका निभाई थीए क्यूंकि इन्ही के पारिवारिक सदस्य श्री रामकिशन से ज्ञात हुआ कि उन्हें एक साजिशी तौर पर एक असत्य के जाल मे फंसाकर झूठे मुकदमों के घेरे मे घेर लिया द्य उसके बाद फिर झूठी गवाही के चक्रव्यूह से निकलने के लिए सभी गवाहों से बारम्बार विशेष अनुरोध किया गयाए लेकिन उन्होंने चौण् मुंशीराम के प्रति कभी भी सहमती नहीं दिखाई द्य फिर अपने न्याय के अंतिम चरणों मे उनसे उनकी अंतिम इच्छा पूछने पर चौण् मुंशीराम ने तीनों न्यायधीशों. जुगल किशोर आजाद एवं दो अंग्रेजी जजों के सामने अपने आप को निर्दोष साबित करने के लिए अपनी जन्मजात व निरंतर अभ्यास से बहुमुखी प्रतिभा का साक्ष्य देते हुए अपनी अदभुत कला द्वारा एक ऐसी प्रमाणिक व प्रेरणादायक रचना का बखान किया कि उस न्यायालय के जज पर ऐसा सकारात्मक प्रभाव पड़ा कि उसको चौण् मुंशीराम के न्यायसंगत मुक़दमे पर अपनी कलम को वही विराम देना पड़ाए जिससे विरोधियों के चक्षु.कपाट खुले के खुले रह गए द्य इसीलिए इसी मौके की उनकी एक रचना इस प्रकार प्रस्तुत है कि दृ

ऐसा कौण जगत के म्हाए जो नहीं किसे तै छल करग्याए
छल की दुनियां भरी पड़ीए कोए आज करैं कोए कल करग्या द्यद्य टेक द्यद्य

राजा दशरथ रामचंद्र के सिर पैए ताज धरण लाग्याए
कैकयी नै इसा छल करयाए वो जंगल बीच फिरण लाग्याए
मृग का रूप धारकै मारीचए राम कुटी पै चरण लाग्याए
पड़े अकल पै पत्थरए ज्ञानी रावण सिया हरण लाग्याए
सिया हड़े तै लंका जलगीए वो खुद करणी का फल भरग्या द्य
श्री रामचंद्र भी छल करकैए उस बाली नै घायल करग्या द्यद्य

दुर्योधन नै धर्मपुत्र कोए छल का जुआ दिया खिलाए
राजपाट धनमाल खजानाए माट्टी के म्हा दिया मिलाए
कौरवों नै पांडवों कोए दिसौटा भी दिया दिलाए
ऐसे तीर चले भाइयों केए धरती का तख्त दिया हिलाए
वो चक्रव्यूह भी छल तै बण्याए अभिमन्यु हलचल करग्या द्य
कुरुक्षेत्र के घोर युद्ध मैंए 18 अक्षरोहणी दल मरग्या द्यद्य

कुंती देख मौत अर्जुन कीए सुत्या बेटा लिया जगाए
बोली बेटा कर्ण मेरेए और झट छाती कै लिया लगाए
वचन भराकै ज्यान मांगलीए माता करगी कोड़ दगाए
ज्यान बख्शदी दानवीर नैए अपणा तर्कश दिया बगाए
इन्द्रदेव भिखारी बणकैए सूर्य का कवच.कुण्डल हरग्या द्य
रथ का पहियाँ धंसा दियाए खुद कृष्ण जी दलदल करग्या द्यद्य

हरिश्चंद्र नै भी छल करयाए विश्वामित्र विश्वास नहींए
लेई परीक्षा तीनों बिकगेए पेट भरण की आस नहींए
ऋषि नै विषियर बणकैए के डंस्या कंवर रोहतास नहींए
कफन तलक भी नहीं मिल्याए फूंकी बेटे की ल्हाश नहींए
28 दिन तक भूखा रहकैए भंगी के घर जल भरग्या द्य
श्री मुंशीराम धर्म कारणए हटके सत उज्जवल करग्या द्यद्य

इस प्रकार इस रचना की चारों कली सुनके और उसकी दूरदर्शिता देखके चौण् मुंशीराम को उन जजों ने उसी समय बरी कर दिया द्य उसके बावजूद मुकदमाए पेशीए जेलए पुलिसए गृहस्थ विपदा आदि की मझदार मे फंसे हुए भंवर सैलानी के रूप मे देशभक्त चौण् मुंशीराम को अपने जीवन.तराजू के पलड़े मे बैठकर और भी महंगी कीमत चुकानी पड़ी और वो दूसरा अत्यधिक भारी पलड़ा था. तपेदिक का लाईलाज रोग द्य इस प्रकार मात्र 35 वर्ष की अल्पायु मे जनवरी.1950 को ये वैतरणी नदी को पार करते हुये इस निधि के बन्धनों से मुक्त हो गए और एक महान कवि के रूप मे अपने लोक साहित्य के स्वर्णिम अक्षरों को हमारी आत्माओं मे चित्रित कर गये द्य
अगर चौण् मुंशीराम के कृतित्व पर प्रकाश डाला जाये तो उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन मे अनेकों सांग ध् कथा और फुटकड़ कृतियों की रचना कीए परन्तु उस आजादी की लड़ाई के मार्मिक दौर मे संरक्षित न हो पाने के कारण उनकी अधिकांश कथाएं काल के गर्त मे समा गई द्य वर्तमान मे उनकी लगभग कुछ प्रमुख कथाओं के साथ अन्य कथाओं की कुछ इक्की.दुक्की रचना ही संकलित हो पायीए जैसे. मीराबाईए चंद्रकलाशीए महाभारतए हीर.राँझा इत्यादिए जो ष्मुंशीराम जांडली ग्रंथावलीष् नामक प्रकाशित पुस्तक मे संग्रहित है द्य उनके रचित इतिहासों का प्रमुख सार इस प्रकार है रू.

राजा हरिश्चंद्र पूर्णमल भगत जयमल.फत्ता
पृथ्वीराज चौहान अमरसिंह राठौड़ फुटकड़ रचनाएँ

11 लोककवि श्री दयाचंद मायना:-
हरियाणा में लोक साहित्य की एक बड़ी परंपरा रही है। महिलाओं द्वारा गाए जाने वाले लोकगीत तो हैं ही, उसके साथ लखमीचंद, मांगेराम, बाजे भगत, धनपत निंदाणा, महाशय छज्जू लाल सिलाणा, मा. नेकीराम लोकगायकी के रूप में हरियाणा में खासे प्रसिद्ध हैं। इसी परम्परा में महाशय दयाचंद मायना एक बहुत अति विशिष्ट नाम हैं। दयाचंद का जन्म रोहतक के मायना गांव में 10 मार्च ,1915 को नान्हू राम तथा जुमिया देवी के घर हुआ। नाममात्र शिक्षा ग्रहण कर वे लोकसाहित्य-सृजन में लग गए। सन् 1941 से 1947 तक फौज में भी रहे। उनकी अनेक रागणियों में फौजी जीवन का चित्रण है। सांकोल निवासी मुन्शी राम इनके गुरु थे। इन्होंने 21 किस्सों और 150 से अधिक रागणियों की रचना की। महाशय दयाचंद अपने वक्त में दिल्ली, मुंबई, हावड़ा, हैदराबाद, हरियाणा में लोकप्रिय थे।
महाशय दयाचंद ने कला के माध्यम से सामाजिक आयामों को छूकर लोक में आदर्शों की स्थापना की है। पूर्णिमा-प्रकाश, नीलम-पुखराज, मायावती-मास्टर, कवि कालिदास, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, ब्रिगेडियर होशियार सिंह, वीर हकीकत राय आदि किस्सों में कवि ने जाति-पांति, शिक्षा, सामाजिक संबंधों, देशप्रेम, सांप्रदायिक सद्भाव, स्त्री शिक्षा आदि उद्देश्यों को सर्वग्राह्य बनाया है। पौराणिक कथाओं को भी नवीन संदर्भों में व्याख्यायित कर समाज को जगाने का प्रयास किया। किस्सों तथा रागणियों के माध्यम से वे गरीब, अस्पृश्य,पीडि़त को उसके अधिकार दिलाने की चेतना से भरपूर दिखाई देते हैं।
लोक साहित्य को पारंपरिक पौराणिक दायरे से बाहर निकालकर दयाचंद ने युगीन समस्याओं को लोक के सामने कलात्मक तरीके से प्रस्तुत किया है। ‘पूर्णिमा-प्रकाश’ किस्से में डीएसपी का लड़का प्रकाश दहेज का प्रलोभन देने वालों को ठुकराकर एक तथाकथित अस्पृश्य लड़की से शादी का प्रस्ताव पिता के समक्ष रखता है। इस किस्से की रागणी ‘पहले आली बात पुराने ख्याल बदलने होंगे, ऊंच-नीच के शब्द पिता फिलहाल बदलने होंगे’ में युगबोध देखा जा सकता है— मजदूरां की ध्याड़ी खा-खा, मोटे-मोटे सेठ होगे/खून गरीबां का पी-पी कै,मोटे-मोटे पेट होगे/ घर-घर के म्हां चौधरी सारे,अफसर और मेट होगे/ धन-माया के लोभी लाला, दया-धर्म तै लेट होगे/ धनवानां की जगह ईब कंगाल बदलणे होंगे।’ किस्से में प्रकाश पूर्णिमा को समझाता है कि हमारी सब समस्याओं की जड़ ऊंच-नीच, जाति-पांति ही है: यो भारत गारत कर डाला, ऊंच-नीच के धंधे नै/बाकायदा हक मिलणा चाहिए पशु और परिंदे नै /हो… ईब हर बंदे नै आजादी होणी चाहिए।
नाममात्र शिक्षा प्राप्त महाशय दयाचंद जी ने सबसे अधिक प्रचार शिक्षा का किया व कई किस्से तो शिक्षा को उद्देश्य बनाकर लिखे । ‘मायावती मास्टर’ तथा ‘कवि कालिदास’ शिक्षा की महत्ता के किस्से हैं। धनी बाप की बेटी होने के बावजूद मायावती की अनपढ़ता के कारण उसकी जोड़ी का वर नहीं मिलता। मायावती की टीस देखी जा सकती है: अनपढ़ माणस नै दुनिया मैं, सब बेकार कहैं सै/अगड़, पड़ौसी, यारे, प्यारे, रिश्तेदार कहैं सै/मनैं अनपढ़, मूढ़ गंवार कहै सैं, न्यू सरमाऊं मैं।
कवि भारत की आर्थिक विषमता का सूक्ष्म-द्रष्टा है। ‘नीलम पुखराज’ किस्सा इस विषमता का जीता-जागता प्रमाण है।
महाशय दयाचंद की रागणियां मजदूर, गरीब, अस्पृश्य, निकृष्ट जीवन जीने को विवश व्यक्ति की जिजीविषा की रागणियां हैं। कवि अर्थव्यवस्था की बारीकियों का भी जानकार प्रतीत होता है। उसे लगता है कि धनिक वर्ग गरीबों की माली हालत का जिम्मेवार है। गरीब तो बस सारी उम्र पिसता ही है : मेहनत मजदूरी का तोड़ा, कुछ तुम अटका द्यो सो रोड़ा/गरीबां का जाथर थोड़ा, कुछ महंगाई का बोझ/ए धन आले लोगो, थारै नहीं दया का खोज।
एक फुटकल रागणी में उन्होंने चोर-जार, नशेड़ी और जुआरी की प्रवृत्ति और उनका समाज पर पडऩे वाले नाशक प्रभाव का चित्रण किया है : चार जणां की लिखूं कहाणी एक कागज के गत्ते पै /चोर जार नशेबाज जुआरी/ खड़े पाप के हत्थे पै। रागणी की चारों कलियों में वे एक-एक को लेकर पर्दाफाश करते हैं। कवि चूंकि फौजी भी रह चुके हैं, इसलिए सन् 1965 तथा 1971 की लड़ाइयों में उन्होंने अनेक रागणियां लिखीं। महाशय दयाचंद एक बेहतरीन देशप्रेमी लोकगायक के रूप में उभरकर सामने आते हैं। ‘नेताजी सुभाष चन्द्र बोस’, ‘वीर हकीकत राय’ तथा ‘ब्रिगेडियर होशियार सिंह’ उनके ऐसे ही किस्से हैं। ‘ब्रिगेडियर होशियार सिंह’ के किस्से की एक कली दर्शनीय है—शेरां की छाती तण्या करै/जब गीदड़ का दिल छण्या करै/बार-बार ना जण्या करै सुत जणने आली मात।
कवि अंध-विश्वास व पाखंडों से भोली-भाली जनता को निकालना चाहते हैं। उनके ‘सरवर-नीर’ किस्से से एक रागणी ऐसा ही बयां करती है : मनैं भगत बोहत से देखे सैं जो काढें भूत बजाकै डोरू/एक आधे की कहता कोन्या, बोहत फिरै सैं इज्जत चोरू/साची सै हीणे की जोरू, सबकी दासी हो सै।
कली की अन्तिम पंक्ति में कवि ने सामाजिक-आर्थिक विषमता में स्त्री की दुर्दशा का मार्मिक अंकन किया है। दयाचंद ने अपनी शैली विकसित की। उनकी रागणियां भाव और कला का बेहतरीन सामंजस्य प्रस्तुत करती हैं। उनकी शृंगारिक रचनाएं भी हैं परंतु उनकी शृंगारिकता में अश्लीलता नहीं है। उनकी रागणी—’पाणी आली पाणी प्यादे, क्यूं ठाकै डोल खड़ी होगी/ के कुएं का नीर सपड़ग्या, क्यूं अनबोल खड़ी होगी ‘ विश्व प्रसिद्ध हो चुकी है। महाशय दयाचंद ने प्रचलित उर्दू तथा अंग्रेजी भाषाओं के शब्दों का बेहतरीन प्रयोग किया है। वे हरियाणवी लोक साहित्य के एक स्तम्भ के रूप में जाने जाएंगे। हरियाणवी जीवन-शैली के चितेरे इस लोक कवि का 20 जनवरी, 1993 में देहांत हो गया।

पं जगन्नाथ समचाना:-
पं जगन्नाथ का जन्म 24 जुलाई, सन् 1939 को गांव समचाना, जिला रोहतक हरियाणा में हुआ । यह तीजों के त्योहार का दिन था । जिस समय तीज मनाई जा रही थी, औरतें पींघ झूल रही थी और गीत गा रही थी । एक तरह से जब इन्होने इस धरा पर अपने नन्हे कदम रखे तो प्रकृति का पूरा वातावरण संगीतमय था । अतः यही कारण है कि इनका संगीत से लगाव बचपन से ही है।
पं जगन्नाथ की प्रथम शिक्षा तो उनके अपने घर से ही प्राप्त हुई क्योंकि इनके पूर्वज सभी विद्वान पंडित थे । संस्कृत की विद्या भी इन्हें घर से प्राप्त हुई । इनके पास रहने, इनके सानिध्य मात्र से ही संस्कृत भाषा का काफी अनुभव हो चुका था। केवल चार साल की उम्र में इन्होने, अपने पिताश्री की अनुपस्थिति में एक शादी समारोह में फेरे करवा दिये थे। उस समय स्कूली शिक्षा में इनकी रूचि नहीं थी, क्योंकि इनके ही घर में पाठशाला थी और इनके दादा जी विद्यार्थियों को पढ़ाया करते थे।
पं जगन्नाथ को छह साल की उम्र में परिजनों ने गांव के ही प्राथमिक स्कूल में प्रारम्भिक शिक्षा हेतु भेजा, जिस प्रथम गुरू ने इनका नाम रजिस्टर में लिखा था, वो इनके ही गांव के पंडित रामभगत जी थे । ये उनको ही अपना सत्गुरू मान कर उनके चरणों में रहने लगे। जब स्कूल में शनिवार के दिन सांस्कृतिक कार्यक्रम होता तो गुरू जी इन्हें एक भजन सुनाने का अवसर जरूर देते । एक दिन उस समय के सिंचाई मंत्री चौ. रणबीर सिंह, जो कि स्वतन्त्राता सेनानी भी थे, वह इनके स्कूल में आए । उनके आगमन पर इन्होने एक स्वागत् गान खुद ही बनाया और सुना दिया । उस दिन के बाद सदैव गुरू जी ने उन्हें उत्साहित किया, बस यहीं से लिखने का क्रम शुरू हुआ।
पं जगन्नाथ पंडित लखमी चंद की कविताई से ही ज्यादा प्रभावित हुआ थे। इन्होने अपनी कविता कम गाई, परन्तु पंडित लखमीचन्द जी के बनाए हुए सभी सांग, भजनों को तरीके एवं मर्यादा से घड़वे-बैंजों पर गाया है ।
पं. जगन्नाथ द्वारा उनकी पहली रचना चौ. रणबीर सिंह, सिंचाई मंत्री, पंजाब के स्वागत् में लिखी व गाई थी ।
पं जगन्नाथ कभी भी रागनियों की तरफ प्रवृत नहीं हुए और न ही कभी किसी प्रतियोगिता में भाग लिया । इन्होने तो सभी धार्मिक एवं ऐतिहासिक रचनाओं का सृजन व गायन किया है ।
पं जगन्नाथ के कथन में रचनाओं का पूरा शब्द कर्म संभालना मुश्किल है, जो बचपन में लिखा-वह जवानी में गुम हो गया और जो जवानी में लिखा वो बुढ़ापे में गुम हो गया । वैसे इस समय मेरे पास स्वरचित करीब सोलह इतिहास व आठ सौ भजन, उपदेश हाजिर हैं ।
पं जगन्नाथ के वर्तमान परिदृश्य में हरियाणवी संगीत काफी उन्नति पर है । जिसको आप बार-बार रागनी नाम से सम्बोधित कर रहे हैं – वह रागनी नहीं है, यह केवल हरियाणवी संगीत है, जिसको पहले समय में अश्लील समझते थे, वही किस्से वही कविता, जिसको आज सब सुनना पसन्द करते हैं ।
पं जगन्नाथ के कथनानुसार घड़ा-बैंजू तो मेरे जन्म से पहले भी प्रचलन में थे, परन्तु इनका प्रयोग करने वालों को अश्लील समझा जाता था । क्योंकि ज्यादातर आवारा किस्म के लोग खेतों में कोल्हूवों में इन्हें बजाया करते थे, गांव बस्ती में इस साज़ को बजाने की मनाही होती थी । मैंने सन् 1970 में घड़ा-बैंजू को अपनाया और काफी विरोध् के बावजूद भी मैंने इस साज़ को नहीं छोड़ा । कुछ नये प्रयोग और धार्मिक, ऐतिहासिक रचनाओं का इन वाद्यों के साथ तालमेल, इनकी जन स्वीकृति का कारण बना और आहिस्ता-आहिस्ता सारे समाज ने ही इस साज को स्वीकार कर लिया, यहां तक कि आकाशवाणी दिल्ली व दिल्ली दूरदर्शन पर हरियाणा की तरफ से मैंने घड़े-बैंजू पर सबसे पहले गाना गाया, जिसे दूरदर्शन ने भी सहर्ष स्वीकार किया । बार-बार मेरे कार्यक्रम दिल्ली दूरदर्शन से घड़े-बैंजू पर आते रहे, फिर जनता ने भी स्वीकार कर लिये ।
पं जगन्नाथ को हरियाणा सरकार ने अनेक बार सम्मानित किया। चौ. भूपेन्द्र सिंह हुड्डा सहित पूर्व मुख्यमंत्रियों, चौ. बंशीलाल, चौ. देवीलाल, चौ. ओमप्रकाश चौटाला के कार्यकाल में एंव श्री बलराम जाखड़, चौ अजय चौटाला, श्री दीपेन्द्र हुड्डा के कर कमलों से भी इन्हें सम्मानित होने का अवसर मिला है । एशियाड 82 के समय एक एल. आई.जी. फलैट अशोक विहार दिल्ली में, इनको कार्यस्थल डी.डी.ए. ने सम्मान स्वरूप दिया । श्री साहब वर्मा, तत्कालीन मुख्यमंत्री दिल्ली सरकार ने अपने कार्यकाल में दिल्ली सरकार की तरफ से तीन बार सम्मानित किया । श्री गुलाब सिंह सहरावत, उपायुक्त रोहतक ने एक किलो सौ ग्राम चांदी के डोगे से सम्मानित किया । गांव धराडू, भिवानी की पंचायत ने सोने का तमगा दे कर सम्मानित किया । गांव बापौड़ा, भिवानी की पंचायत ने 5100 रूपये व सोने की अंगूठी से दो बार सम्मानित किया । इसके अतिरिक्त भी असंख्य बार सम्मान मिले हैं। उल्लेखनीय बात यह भी है कि इनको अपने चाहने वालों और संगीत के कार्यक्रमों से बहुत सम्मान व स्नेह मिला है । अक्सर जहां भी किसी संगीत के कार्यक्रम में ये उपस्थित होते तो – पहले इनका सम्मान करते, उसके बाद कार्यक्रम शुरू करते।

मानव मूल्यों के अपसरण को अपने इस शब्द कर्म में उन्होंने करीब चार दशक पहले ही महसूस करा दिया था जो वर्तमान परिदृश्य में भी प्रासंगिक है…

बेशर्मी छाग्यी सारे कै, बिगड़या सबका दीन
आज मैं किस पै, करूं रै यकिन…/ टेक

झुठे तेरे बाट तराजू, या झुठी खोल्यी तनै दुकान
झुठा सौदा बेचण लाग्या, नहीं असल का नाम निशान
झुठा बोल्लै कमती तोल्लै, आये गयां के काटै कान
झुठा लेखा जोखा देख्या, ये झुठी देख्यी तेरी बही
झुठे तू पकवान बणावै, सब झुठे बेच्चै दुध दही
झुठा लेवा झुठा देवा, और बता के कसर रही
खानपान पहरान बदलगे, न्यू बुद्धि हुई मलीन… /1

झुठी यारी यार भी झुठे, झुठा करते कार व्यवहार
झुठे रिश्ते नाते रहग्ये, लोग दिखावा रहग्या प्यार
बीर मर्द का, मर्द बीर नै, कोए से नै ना ऐतबार
माया के नशे म्हं चूर, फिरते हैं अभिमानी बोहत
बुगले आला दां राख्खैं सै, इसे देख्ये ज्ञानी बोहत
लेण देण नै कुछ ना धोरै, ऐसे देख्ये दानी बोहत
बड़े-बड़या नै मोह ले यैं तिन्नूं, जर जोरू और जमीन…/2

दीखणे म्हं धर्म धारी, काम है चंडाल का
सिंह रूपी वस्त्र धारै, काम नहीं शाल का
पाखण्ड का सहारा लिया, हुकम कल्लु काल का
पलटया है जमाना, होया धर्म कर्म का बिल्कुल अंत
बीज तै बदल गये, क्याहें म्हं ना रहया तंत
वेदपाठी पंडत कोन्या, टोहे तै ना मिलते संत
कायर-छत्री निर्धन-बणिया, ब्राहमण विद्या हीन…/3

सत् पुरूषां की मर होग्यी, यो किसा जमाना आग्या रै
वेदव्यास जी कहया करैं थे, वोहे रकाना आग्या रै
गुरू रामभगत की कृपा तै, मन्नैं कुछ कुछ गाणा आग्या रै
बालकपण म्हं मौज उड़ाई, खेल्ले खाये बोहत घणे
गाया और बजाया, देख्खे मेले ठेले बोहत घणे
झुठे यार भतेरे देख्खे, झुठे चेल्ले बोहत घणे
जगन्नाथ कहै सत के चेल्ले, ये हों सै दो या तीन…/4

सुप्रसिद्ध सांगीतकार श्री झम्मनलाल:-
साँगीतकार श्री झम्मनलाल का जन्म सन् 1935 में गाँव सरूरपुर तहसील बागपत, जिला मेरठ, उत्तर प्रदेश में हुआ। ये आजकल भी हरियाणा और उत्तर प्रदेश में साँगीत कर रहे हैं। इनके गुरु साँगीतकार श्री सुल्तान थे जो गाँव रोहद के रहने वाले थे। इनके पास रहकर ही उन्होंने साँगीत सीखा और उनके साथ ही साँगीत में अभिनय करते एवं गाते-बजाते थे। इन्होंने कुछ वर्षों के उपरांत अपने गुरु से आज्ञा लेकर अलग साँगीत मंडली बनाकर साँगीत करना प्रारंभ कर दिया।
श्री झम्मन लाल अशिक्षित हैं। यद्यपि ये उत्तर प्रदेश के रहने वाले थे। फिर भी इनका साँगीत से इतना लगाव था कि इन्होंने हरियाणा में आकर साँग सीखे। ये आजकल भी साँगीत कर रहे हैं, किंतु पहले की अपेक्षा बहुत कम क्योंकि वृद्धावस्था के कारण अब काम कम होता है। इनके प्रमुख साँगीत हैं-
पिंगला भरतरी, राजा भोज, सरवर-नीर, गोपीचंद, शीरी-फरहाद, राजा हरिश्चंद्र, मदनावत, मीराबाई आदि।

पिंगला भरतरी साँगीत का एक प्रमुख उदाहरण निम्न प्रकार से है-

तेरे विक्रमा भाई नै, महलां में म्हारी आबरू तारी,
मैं डरती बोल्यी ना, अंखियां खोली नां,
मैं मरी हो शरम की मारी।। टेक।।

फैंक के नै किताब वो तो, कड़वे तौर लखाया,
मैं बोल्ली पर एक सुणी ना, उल्टा सिर पै आया,
न्यूं बोली मेरी जल़गी काया, होग्यी दहशत भारी।।

नगर सेठ महलां म्य आकै, मेरे तै कहण लाग्या,
ला दिए कुल कै दाग, पाग पैरा म्य धरण लाग्या,
तेरा विक्रम भाई करण लाग्या, नीच जात तै यारी।।

लिखा, पढया और खुवाया, ला दिया टोकरां मैं,
पंछी नै जब उड़णा चाह्यां, फँसग्या………….,
अच्छा कौन्या भले घरां में, बालम चोरी-जारी।।

कहै सुल्तान गुरु लख्मीचंद, कार करै आनंद की,
जो सतगुरु की सेवा करकै, फांसी कटै विपत के फन्द की,
झम्मनलाल नए-नए छंद की, रोज भरै सै डायरी।।

हरियाणा साँगीत परंपरा का वह भवन जो अब तक विकासोन्मुख था। स्वर्ण काल में आकर भव्य भवन के रूप में स्थापित हुआ। इस काल में साँगीत को एक नई दिशा मिली। साँगीत जो अब तक सीमित दायरे में आबद्ध था, उसे नई उन्मुक्त स्थली मिली। उस स्थली का स्पर्श पाकर यह जनसाधारण के साथ और गहरे से जुड़ गया। इस काल में साँगीतकारों ने बड़ी लगन और यथेष्ट योगदान से साँगीत को जो उत्कृष्टता एवं सौंदर्य प्रदान किया, वह उल्लेखनीय है। इस साँगीत रूपी वाटिका में आते हुए सुगंधित समीर ने हरियाणी लोकमानस के प्राणों को एक नई पुलक, नई चेतना और नए उल्लास से भर दिया।

सुविख्यात कवि पं. माईराम-अलेवा:-
पं. माईराम का जन्म बैसाख शुक्ला दूज गुरूवार विक्रमी सम्वत् 1945 तदनुसार सन् 1883 को गाँव अलेवा जिला जीन्द में हुआ। इनके पिता पं. प्रभुदत्त तथा माता श्रीमती पूर्णिमा देवी थी। वैसे इनके दादा गाँव किठाना के मूल निवासी थे। इनके पड़दादा पं. पूर्णचन्द का विवाह गाँव अलेवा में हुआ था और अपनी ससुराल में घर जमाई बनकर रहने लगे क्योंकि वहाँ कोई उत्तराधिकारी नहीं था। फिर वहीं पं. माईराम का जन्म हुआ।
प्रारम्भ से ही पं. माईराम स्वच्छन्द प्रकृति के थे। इनको शिक्षा के लिए पं. शिवदत्त, शेखुपूरा अलावला, जिला करनाल के पास भेज दिया। इन्होंने कई वर्षों तक पं. शिवदत्त के पास रहकर संस्कृत की विधिवत् शिक्षा ग्रहण की। उन्होंने अष्टाध्यायी, व्याकरण और संस्कृत के बहुत से ग्रन्थों का वहाँ रहकर अध्ययन किया और वे कर्मकाण्ड के उपाध्याय कहलाये। उस समय जैसी शिक्षा मिल पाती थी वैसी उन्होंने ग्रहण की। इसको आयुर्वेद तथा ज्योतिष आदि का भी ज्ञान था।
इनका विवाह कलायत निवासी पुष्पा देवी उर्फ फूलां से हुआ। इनके चार पुत्र हैं- सर्वश्री पं. गोरीदत्त, पं. तारादत्त विलक्षण, पं. कलाधर शास्त्री, पं. श्रीधर शर्मा। इनकी माता धार्मिक कार्यों में लगी रहती थी। वह प्रतिदिन तुलसी के बड़े पौधे के नीचे बैठकर घण्टों भजन करती थी। शायद उनके इस प्रकार के भक्ति भाव के भजन सुनकर पं. माईराम के मन में गाने की ललक उत्पन्न हुई। शिक्षा पूरी करने के बाद वे घर रहकर खेती-बाड़ी करने लगे। उनके पास 10 एकड जमीन थी। खेत में कार्य करते हुए वे पन्द्रह बीस आदमी इकटठे होने पर दोहे, चमोले आदि सुना दिया करते थे। धीरे-धीरे इस क्षेत्र में रूचि बढ़ती गई और वे साँगीतकार बन गए। वे स्वान्तः सुखाय साँगीत लिखते थे। यद्यपि उन्होंने अपने जीवन में साँगीत नहीं किया। हाँ, धार्मिक कार्यों के लिए वे एकाध बार गाते थे। फिर भी इन्होंने जो साँगीत लिखे, वे काफी लोकप्रिय हुए।
इनके प्रमुख साँगीत हैं-उदयभानु संतोषकुमारी, लीलावती घनश्याम, फूलकली, रूपकला जादूखोरी, जमाल, ज्यानी चोर, चन्द्रवती उद्यालक, उषा-अनिरूद्ध आदि।

इसके अतिरिक्त पं. माईराम छाड़फूंक, विवाह संस्कार आदि का कार्य भी करते थे। वे गांव के पुरोहित थे। एक बार रामकिशन व्यास हिसार में साँगीत कर रहा था। किसी ने रामकिशन व्यास के पास आकर कहा कि पं. माईराम बहुत अच्छा नाचता है तथा गाता है। उन्होंने गुस्से में आकर कहा कि यह गलतफहमी है। मैंने साँगीत के मंच पर कोई नृत्य आदि नहीं किया। उस समय उन्होंने एक दोहा सुनाते हुए उस व्यक्ति को कहा-कि जाकर व्यास को कह देना कि साँगीत के प्रारम्भ में इस दोहे को अवश्य गाकर सुनाए। तब से रामकिशन व्यास साँगीत के प्रारम्भमें इस दोहे को गाते थे। वह दोहा इस प्रकार है-

तीस कोस करनाल से, नगर अलेवा ग्राम,
घर बैठे कविताई करै, श्री पं. माईराम।

इनके प्रमुख शिष्यों में पं. रामकिशन व्यास, पं. विष्णुदत्त व पं. रामदयाल देवबन आदि थे। ये अपने गुरू के द्वारा रचित साँगों का मंचन करते थे। वे 10 मई सन् 1964 को स्वर्ग सिधार गये।

पण्डित माईराम का कार्यक्षेत्र-
साँगीतकार पं. माईराम वास्तव में ही साँगीत कला के पण्डित थे। उनके साँगों का अध्ययन करने पर यह बात सामने आती है कि वे अपने एक साँगीत में हर प्रकार के भावों की सशक्त अभिव्यक्ति करते थे। सभी रसों का परिपाक उनके एक ही साँगीत में मिलता है। वे जनता को हर प्रकार से रसास्वादन कराकर उनका मनोंरजन करते थे। जैसे-एक माँ को बहुत वर्षों बाद उसका पुत्र मिला, तो माँ के मन में उठी खुशी की लहर को पं. माईराम वात्सल्य रस में भिगोकर इस प्रकार व्यक्त करते हैं-

’’कर्मा करके आया रे! छोटा सा लाल म्हारै,
लाड लडाल्यूं लाल्यूं छाती कै लाल्यूं,
त्रिलोकी राज हाथ म्य, लेरी सूं लेरी सूं,
नन्द पिता मात यशोदा तरी सूं तेरी सूं।’’

अपने पुत्र से अटूट प्रेम करने वाली माँ को जब पुत्र का विछोह सहना पड़ता है, तो पगला उठती है। उसे पुत्र वियोग में जीना स्वीकार्य नहीं, मृत्यु को अपनाने की बात सोचती है-

’’तूँ भी धोरा धर गया, मैं किस गेल्याँ बोलूँगी,
तेरे फिकर में बेटा, अपनी जिन्दगी खोल्यूँगी।
……………………………………………..
आवँगे किस काम तेरे बिन, धन दौलत माया,
थोड़े से दिन भी बेटा, तूं ना खेलण पाया।।’’

वात्सल्य की तरह जब वे श्रृंगार रस से युक्त भावों को वर्णन करते हैं, तो वह पाठक एवं श्रोता को मुग्ध कर देता है। नायिका जब नायक को पहली बार देखती है, तो उसे स्वयं अपना भी होश नहीं रहता। जैसे-

’’साल गिरह की भेंट-भाट, सब भूल गई संतोष,
उदयभान की स्यान देख कै, होगी थी बेहोश।।
………………………………………………..
काम नशे में दिल डिगग्या, संतोष कुमारी का,
बिना कटणियां रोग लाग गया, सहम बिमारी का,
के सोच्चा के बणग्या, होग्या खेल मदारी का,
ओट सकी ना वार प्रेम की, चोट करारी का।।’’

फिर दूसरी तरफ नायक अकेला ही सौन्दर्यवान नहीं है, नायिका भी अप्रतिम सौन्दर्य की स्वामिनी है-

’’शीशे कैसा गात चमक रहा, दो-दो चोटी लटक रही,
खुशी मनावे रूमझूम करती, गाती मेघ मल्हार चल रही,
पी-पी-पी कर रहे पपीहे, कू-कू कर कोयल रही,
इन्दर के सी हूर परी, इधर-उधर नै डोल रही।।’’

पं माईराम के साँगीतों की भाव प्रवणता निम्नलिखित सवैयों में झलकती है। जिससे वे लोकोक्ति, मुहावरे और सूक्ति का प्रयोग करते हुए गागर में सागर भरते दिखाई देते हैं-

’’जिसकै लागै वही जाण्ता, ना जाणे कोए पीड़ पराई,
जिसके उल्टे दिन आज्यां सै, सिर पै चढ़ जाती करड़ाई,
विनाश काले विपरीत बुद्धि, सारी दुनियां कहती आई,
पापी नीच जगतसिंह जैसां की, मत बणियो जबर कसाई।।’’

पण्डित माईराम का योगदान-
हरियाणवी लोकनाट्य साँग के साहित्य को समृद्ध करने में पण्डित माईराम कविरत्न का योगदान विशेष उल्लेखनीय है। उन्होंने संस्कृत भाषा का गहन अध्ययन किया था। पण्डित माईराम त्रिपुण्डधारी, कर्मकाण्डी व्यक्ति थे। उन्हें पुराण और लोककथाओं का ज्ञान था। यही कारण है उन्होंने अनेक साँगों की रचना की। उनके पुत्र ताराचंद ’विलक्षण’ प्रसिद्ध लोककवि थे।

पण्डित माईराम के शिष्यों में प्रसिद्ध लोकनाट्यकार एवं साँगी रामकिशन व्यास का नाम प्रमुख है। वे दोनों पिंगल ज्ञान सीखने के लिए कई महीने तक लाहौर में भी रहे। उन्होंने साथ रहकर ’फूलकली’ और ’पूर्णभक्त’ साँग बनाए थे। उनकी काव्यकला का बेजोड़ उदाहरण ये ’फूलकली’ साँग की पंक्तियाँ हैंः-

’’फूलकली तू ठारा साल की, इब तक रही कंवारी,
बाप तेरे नै कह सुणकै, करवाले ब्याह की त्यारी।।

………………………………………….
तेरे हाण की सारी छोरी, आनन्द मौज उड़ावैं,
सुसरे का घर सुरग बराबर, बोले और बतलावैं,
पांच बरस तेरे तै छोटी, गोदी लाल खिलावैं,
गई सासरे तेर हाण की, सखी सहेली सारी,
फूलकली तू ठारा साल की…………………।।

फूलकली तू तारे गिण-गिण, रात काटती होगी,
बाहण बता कयूकर तू, दिल की झाल डाटती होगी,
देख-देख के छाती तेरी, बाहण पाटती होगी,
पति मिलण की खोल-सुहाली, रोज बाँटती होगी,
भागवान सै वा छोरी, जो सै प्रीतम की प्यारी,
फूलकली तू ठारा साल की……….।।

लाड करण के दिन तेरे, ना धोरै लाड़ करणिया,
माँग भरण के दिन तेरे, ना धोरै माँग भरणिया।
धड़-धड़, धड़-धड़ छाती धड़कै, कोन्या हाथ धरणिया,
पाक्की केशर क्यारी, मृगा मिला चरणिया।
दुनिया मैं सै सच्चा प्रेम, पति की शोभा न्यारी,
फूलकली तू ठारा साल की……………..।।

फूलकली इन बाताँ की, तैं कुछ भी शर्म नहीं सै,
ओड सवासण फिरे कवारी, आछा कर्म नही सै।
तेरे पिता कै इन बाताँ का, बिलकुल भ्रम नहीं सै,
…………………………………………..
’माईराम’ ता फूल टूट, या मोटी सै बेमारी,
फूलकली तू ठारा साल की………………।।’’

विख्यात कवि पं. जगदीशचंद्र वत्स:-
पंडित जगदीशचंद्र वत्स का जन्म ज्येष्ठ सुदी पंचमी, विक्रमी संवत 1973 तदानुसार 6 जून 1916 को हुआ। पंडित जगदीशचंद्र वत्स एक शांत प्रकृति का बालक थे। जगदीशचंद्र प्रारंभ से ही अंतर्मुखी और जिज्ञासु थे। बचपन से ही इन्हें घर में हितोपदेश, रामायण, महाभारत एवं भागवत के व्याख्यान सुनने को मिले। इनका परिवार पढ़ा-लिखा एवं सम्मानित होने के कारण इनके यहाँ साधु-महात्मा, कथावाचक, धर्मप्रचारक एवं विद्वान लोगों का आना जाना लगा रहता था। इस प्रकार जगदीश जी की व्यावहारिक शिक्षा घर से ही आरंभ हो गई। सन 1932 में इन्होंने आठवीं की कक्षा छात्रवृत्ति प्राप्त कर उत्तीर्ण की। इसके बाद अपने ही स्तर पर अपने सद्प्रयत्नों से इन्होंने पौराणिक आख्यानों, दर्शनशास्त्र, उपनिषद व अन्य प्राचीन ग्रंथों का आद्योपान्त अध्ययन कर ज्ञान की पिपासा को शांत किया। पंडित जगदीश चंद्र जी का उर्दू व फारसी भाषा पर तो पूर्ण अधिकार था ही, साथ ही इन्हें संस्कृत, हिंदी एवं अंग्रेजी विषय का भी ज्ञान प्राप्त था। इन्होंने उस समय के साहित्यक उपन्यास भी पढ़े थे, जैसे- कालिदास का साहित्य, भर्तृहरि के तीनों शतक (नीति, श्रृंगार एवं वैराग्य), पंचतंत्र, गीतांजलि, कादंबरी, महाभारत, पुराण, रामायण आदि। इसके अतिरिक्त वे नज्में, गजलें तथा शेरो-शायरी की रचना भी किया करते थे और ये संत कबीर, रसखान, बिहारी, सूरदास, मीराबाई, भारतेंदु हरिश्चंद्र, कवि निराला और सुभद्रा कुमारी चौहान जैसे अनेक कवियों की रचनाओं को भी पढ़ते थे। इस प्रकार जगदीश चंद्र का बहुविध विकास हो गया था जो बाद में गीतों के रुप में प्रस्फुटित होने लगा। गाँव के आसपास में आए हुए सांगी और भजन मंडली को देखने का इन्हें बहुत शौक था। उन दिनों पंडित दीपचंद व हरदेवा स्वामी ने हरियाणवी सांग की नींव रख दी थी तथा बाजे भगत सांग करने में अग्रणी थे और पंडित लख्मीचंद भी कर्म क्षेत्र में उतर चुके थे। इन कवियों की कविताएं सुन-सुनकर जगदीशचंद्र जी ने भी कविताएं बनानी शुरू कर दी। कट्टर सनातन धर्म परिवार से संबंधित होने और संस्कृत के यशस्वी विद्वान के पुत्र होने के कारण इनके पिता श्री को इनका सांग देखने जाना प्रारंभ में बहुत अखरता था। 1942 में ’भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान ये सार्वजनिक रूप से अपनी कृतियों के बल पर आगे आए और जनता में स्वतंत्रता प्राप्ति का जोश भरने का कार्य किया तथा कुछ इस प्रकार की कविताएं बनाकर गाई-

वो आजादी देवी, दुःख भरी जुबान म्य बोलै,
मेरी रक्षा करियो रक्षा, हिंदुस्तान म्य बोलै।।

जलियांवाला बाग याद करो, इतिहास मिसालों के,
घटना को सुन रूम खड़े हो, सुनने वालों के,
उन वीर बहादुर लालों के, बलिदान म्य बोलै।।

इसी तरह से प्रभु स्मरण और पुरुषार्थ पर जोर देते हुए गाने भी रचे-

होज्या जीवन सफल तेरा, कुछ ध्यान हरि का धर बंदे,
पुरुषार्थ में नीत राख, और बुरे कर्म तै डर बंदे।।

जगदीश जी ने पौराणिक आख्यानों संबंधी युवाओं को फटकार और मूर्ख के लक्षण बताते हुए भी बहुत कुछ लिखा। यहाँ तक आते-आते इनके पास लगभग 150 भजनों व रागिनियों का संग्रह हो चुका था। पिता लखीराम ने इनके व्यावहारिक जीवन पर आधारित गानों के संग्रह को सुनकर गर्व का अनुभव किया। तत्पश्चात इनके पिता जी ने इनके गुरु धारण करने के लिए जोर दिया और विक्रमी संवत 2005 में ग्राम ऐंचरा खुर्द में किसी विवाह पर आए हुए पंडित रतिराम जी को अपने पिता और पंडित चंदगीराम पुत्र पंडित शिवलाल (ऐंचरा खुर्द) के आग्रह और आदेश पर गुरु रूप में धारण कर लिया।

पंडित जगदीश चंद्र वत्स जी के लोकनाट्यों का वर्गीकरण-
पंडित वत्स जी के लोकनाट्योें (सांगों) का वर्गीकरण करना दुधारी तलवार की धार पर चलने के समान है। उनके काव्य में वीर और हास्य रस के साथ-साथ करुण रस भी शामिल है।
श्रृंगार रस और धार्मिक भावनाओं का चित्रण जहाँ संजीव हो उठता है, वहाँ भक्ति रस व रौद्रता भी स्पष्ट दिखाई देती है। कहीं नीति काव्य है तो कहीं वैराग्य रस भी है। संपूर्ण काव्य में जहाँ पौराणिक संदर्भों और शास्त्रीय ज्ञान की विवेचना है वहीं ऐतिहासिक, काल्पनिक और आधुनिक समाज से संबंधित काव्य की धारा प्रवाहित होती नजर आती है। उनके लोकनाट्यों का वर्गीकरण निम्न प्रकार से है-

(क) धर्म एवं नीति प्रधान लोकनाट्य (सांग)

1. राजा हरिश्चंद्र, 2. सत्यवान-सावित्री, 3. नल-दमयंती, 4. श्रवणभक्त, 5. आदि-पर्व महाभारत, 6. द्रोपदी-स्वयंवर, 7. द्रोपदी चीरहरण, 8. विराटपर्व, 9. गऊ-हरण, 10. भर्तृहरि पिंगला, 11. गीताज्ञान. 12. अम्ब-अम्बली।

(ख) पौराणिक लोकनाट्य (सांग)

1. ध्रुव भक्त उत्तानपाद, 2. पवनकुमार-अंजना, 3. विश्वामित्र-हुर मेनका, 4. शकुंतला-दुष्यंत, 5. श्रीकृष्ण जन्म, 6. लवकुश-काण्ड, 7. देवयानी-शर्मिष्ठा, 8. शुक्राचार्य-कच्छ, 9. चंद्रहास-विषया।

(ग) श्रृंगार एवं प्रेम प्रधान (काल्पनिक) लोकनाट्य (सांग)

1. राधा-कमला, 2. बीरमति-जगदेवपवार, 3. शशिकला-उदयभान, 4. मदनरेखा-दीपरमण, 5. चंद्रप्रभा-मदनसेन, 6. धर्मपाल-शांता, 7. चंद्रदेव-सुशीला, 8. विजयपाल-प्रेमवती, 9. उषा-अनिरुद्ध, 10. मैना बाई, 11. सुंदरबाई-बीरसिंह।

(घ) ऐतिहासिक लोकनाट्य (सांग)

1. नरसी भक्त, 2. कालिदास-विद्योतमा, 3. विद्याधर-भारवि, 4. हकीकतराय, 5. चंद्रगुप्त-शहजादी, 6. नेताजी सुभाष चंद्रबोस, 7. चापसिंह-सोमवती, 8. अजीत सिंह-राजबाला, 9. चंचल कुमारी-राजसिंह, 10. राजीव हत्या।

पंडित जगदीश चंद्र वत्स का योगदान )-

पंडित जगदीश चंद्र वत्स काव्य कला में निष्णात थे। इनके सांगों में भजन, लावणी, दोहा, रागिनी, चबोला, काफिया, सवैया, मंगल, आनंदी, ख्याल, शेरो-शायरी, कव्वाली तथा बहरे-ए-तबील आदि का बहुत प्रयोग हुआ है। जिनका वर्णन निम्न प्रकार से है-

1. दोहा- 24 मात्राएँ (13, 11) यति।
2. चबोला- 28 मात्राएँ चार चरण, तुकान्त।
3. काफिया- 30 मात्राएँ, तीन चरण, तुकान्त संवाद योजना में सहायक।
4. सवैया- 22-26 वर्ण, चार तुकान्त चरण।
5. रागिनी- हरियाणा के सांगों का सर्वाधिक मनमोहक एवं लोकप्रिय छंद है। राग रागिनी (हरियाणा रोहतक शैली) मनुष्य की रागात्मक वृतियों की रंजिका होने के कारण ही यह रागिनी कहलाती है।
6. गज़ल-
गज़ल हृदय की अनुभूति की सूक्तिमय शैली है, जिसकी अपनी निजी भाषा, निजी भाव, नीची उपमाएँ एवं निजी अलंकार होते हैं, गज़ल गागर में सागर भरती हैं।

भारत भूषण सांघीवाल .
लोक-कवि भारतभूषण सांघीवाल उर्फ श्री नारायण शास्त्री का जन्म 28 फरवरी 1932 को ग्राम सांघ्ज्ञी जिला रोहतक मंे हुआ। आपके दादा पं. विद्यापति अपने समय के सिद्धहस्त वैध थे और पिता पं. छोटेलाल विद्यासागर संस्कृत के अच्छे विद्वान थे। इनकी माता का नाम चन्द्रकला देवी था, जो एक धार्मिक प्रवृति की महिला थी। दादा, पिता और माता के संस्कारों का प्रभाव बालक भारतभूषण पर भी पड़ा। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा उर्दू में हुई। आठ वर्ष की आयु में ही पिता जी का साया सिर से उठने के कारण सांघीवाल को अनेक समस्याओं से जूझना पड़ा। अनेक संघर्षाें को झेलते हुए इन्होंने सन् 1950 में पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ से शास्त्री की परीक्षा उतीर्ण की। तदन्तर साहित्यरत्न और आयुर्वेदरत्न की परीक्षाएं भी उतीर्ण की।40
सांघीवाल जी ने सन् 1950 में प्रसन्नी दवी से विवाह किया। सन् 1951 में संस्कृत के अध्यापक के रूप में अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया। उस समय आप नारायण शास्त्री के नाम से प्रसिद्ध थे। कुछ समय पश्चात् आप ‘भारतभूषण सांघीवाल के नाम से विख्यात हुए। चीन आक्रमण के समय सन् 1962 में आपने देशभक्ति से ओत-प्रोत कविताएं लिखी तथा क्रान्तिगाम शीर्षक से इनको प्रकाशित करवाया। सन् 1965 में जय-जय हिन्दुस्तान हरियाणवी नाटक का अनेक स्थानों पर मंचन किया। हरियाणा की सर्वोच्च साहित्य संस्था हरियाणा साहित्य अकादमी ने आपकी सूरज-पांच तथा मांगलकलशम् काव्य कृतियों को प्रथम पुरस्कार से सम्मानित करके इन्हें गौरवान्वित किया है। इसके अलावा आजादी के दीवाने और संस्कृत गीत मंजरी को अकादमी ने प्रकाशन अनुदान प्रदान करके इनका सम्मान किया है। इनकी उल्लेखनीय सेवाओं के उपलक्ष्य मंे सन् 1985 ई. में हरियाणा सरकार द्वारा राज्य शिक्षक पुरस्कार तथा 1987 मंे भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इनके 6 हरियाणवी संगीत रूपक, सूरजकौर, चांदकौर, झांसी रानी, सुभाष चन्द्र बोस, भगत सिंह एवं उधम सिंह आकाशवाणी रोहतक से प्रसारित हो चुके हैं।41
लोक कवि भारतभूषण सांघीवाल ने धर्मवीर हकीकतराय नामक सांगीतरूपक में सर्वधर्म समभाव के सिद्धान्त को इस प्रकार प्रस्तुत किया-

सब धर्माें का सार एक सै, मूर्ख करै लड़ाई।
एक बाप के बेटे सै हम, सारे भाई-भाई।।।
धर्म एक साधन, दर्शन ईश्वर के करावै सै।
मन अर इन्द्रियां पै अंकुश यू लगावै सै।।42

डॉ0 रामपत यादव द्वारा सम्पादित हरियाणवी काव्य ग्रन्थावली में जो हरियाणवी काव्य दिया गया है वह हरियाणवी सांगीत का ही एक रूप है जिसका मंचन किया जा सकता है-

नरसी भगत परशुराम चरित सीताहरण श्रीकृष्ण जन्म
कीचक वध धर्मवीर हकीकत राय महाराणा प्रताप छत्रपति शिवाजी वीरबाला चंचलकुमारी फूलझड़ी स्वामी दयानन्द सरस्वती
महात्मा गांधी जवाहर लाल नामक शीर्षक से इनकी रचना की गई है।43

12 पं0 लहणासिंह अत्री .

आधुनिक युग के सांगीत लेखकों में पं0 लहणा सिंह अत्री का प्रमुख स्थान है। इनका जन्म 03.12.1950 ई. को गांव फफड़ाना, तहसील असन्ध, जिला करनाल में हुआ। इनके पिता का नाम श्री अमीलाल तथा माता का नाम श्रीमती सरती देवी है। श्री लहणा सिंह अत्री बचपन से ही सांग देखने में रूचि रखते थे। जब वे छोटी श्रेणी मंे गांव के स्कूल में पढ़ते थे, तो गावं के आस-पास में सांग होता, उसे देखने पहुंच जाते थे। अत्री जी पं0 लखमीचंद जी की कविताई से प्रभावित हैं, संगीत में रूचि होने के कारण इन्होंने मुक्तक रागनी की रचना करना अपने विद्यार्थी जीवन में ही आरम्भ कर दिया था। अत्री जी ने पं0 मांगेराम के शिष्य पं0 लख्मीचंद भम्भेवा निवासी को अपना गुरू धारण किया। यद्यपि पं0 लहणा सिंह अत्री कभी पं0 लख्मीचंद भम्भेवा की सांगीत मण्डली में नही रहे परन्तु उन्होनंे अपनी अन्तरात्मा से उनको अपना गुरू मान लिया। इनकी एक भी ऐसी रचना नहीं जिसमें गुरू स्मरण न किया गया हो।

लोक कवि पं. लहणा सिंह ने अभी तक 7 सांगों और कुछ मुक्तक रागनियों एवं भजनों की रचना की है। अपनी रचनाओं मंे अत्री जी ने अनेक पौराणिक, ऐतिहासिक एवं सामाजिक घटनाओं का उल्लेख किया है तथा अनेक सामाजिक समस्याओं को भी अपने सांगीतों मंे स्थान दिया है। दहेज प्रथा की समस्या को गम्भीरता से उठाते हुए एक छंद मंे वे कहते हैं-

ईब जागृति आण लागरी, मतना करै विचार इसा,
कार, स्कूटर, फ्रीज मांगता, ना चाहिए घरबार इसा,
जडै़ नणंद जैठाणी सास पीटती, के फूकैगी परिवार इसा,
तेल छिडक खुद आग लगादे, के चाहिए था भरतार इसा,
छल, कपट, सौ कोस दूर यू लहणा सिंह देख्या भाल्या।।’’44

इसी प्रकार बाल-विवाह, बेमेल विवाह, प्रदूषण, जनसंख्या वृद्धि इत्यादि समस्याओं को अपने सांगीतों मंे उठाया है। आप सन् 06.10.1979 से महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय रोहतक में कार्यरत है।

पं0 लहणा सिंह अत्री सांगों का मंचन नहीं करते वे सांगीत लेखक है इन्होंने 7 सांगीतों की रचना की है जो प्रकाशित हो चुके है-

शिवजी का ब्याह बल्लभगढ का नाहर नज्मा कमली
रामरतन का ब्याह प्रीतकौर चन्द्रपाल हीरामल जमाल।

13 डॉ0 रणबीर दहिया .

डॉ0 रणबीर सिंह दहिया का जन्म गांव बरोणाए जिला सोनीपत के कृषक परिवार में 11 मार्च 1950 को हुआ। हरियाणा की साहित्यिक गतिविधियों मंे इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इन्होंने हिन्दी और हरियाणवी दोनों ही भाषाओं मंे रचनाएं लिखी है। सन् 1983 ई0 में इनका उपन्यास मलबे के नीचे प्रकाशित हुआ। जिसमें इन्होंने मलबे के नीचे दफन उर्जा को सशक्त अभिव्यक्ति दी है। वर्ष 1998 ई0 में इनका कहानी संग्रह पोस्टमार्टम प्रकाशित हुआ जिसमें सात कहानियों का संकलन है।

डॉ0 रणबीर दहिया का लेखन आम आदमी, धरती से जुडे व्यक्ति का लेखन है। शायद इसीलिए इन्होंने स्थानीय भाषा हरियाणा में भी अनेक सांगों एवं मुक्तक रागनियों की रचना की है। उन्होनंे शहीद जसबीर ंिसह, चम्पा चमेली, जलियांवाला बाग, सफदर हाशमी, जालिम अमरीका आण्डी सद्दाम, रणबीर चांदकौर, बाजे भगत, फौजी मेहर सिंह, किस्सा प्रधानमन्त्री तथा उधम सिंह आदि सांग की मुक्तक रागनियां नया दौर-1 व नया दौर-2 मंे प्रकाशित हुई है। इसके अलावा रानी लक्ष्मीबाई, भूरा निगाहिया, फूल कमल एवं फौजी किसान नामक शीर्षक से प्रोग्रेसिव प्रिंटर्स, ए-21, झिलमिल इंडिस्ट्रियल एरिया शाहदरा, दिल्ली से भावी प्रकाशन में हैं तथा नया दौर भाग-4 संकट छाग्या हरियाणवी गती नाटिका- रूखाला प्रकाशन, पी-27, इन्द्रप्रस्थ कॉलोनी, रोहतक-124001 हरियाणा से प्रकाशित हो चुकी है।

डॉ0 दहिया की रागनियों की लगभग 15-16 आडियो-कैसेटस भी तैयार हो चुकी है। इनकी अनेक कहानियां, लेख नाटक, पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित होते रहते है। इन्होंने फौजी मेहर सिंह की रागनियों का संकलन एंव सम्पादन भी किया है। हरियाणवी साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं मंे अपना महत्वपूर्ण योगदान देने वाले डॉ0 रणबीर सिंह दहिया वर्तमान में व्यावसायिक दृष्टि से वरिष्ठ सर्जन के रूप में पी.जी.आई. रोहतक से लोगों को शारीरिक विकारों से निजात दिला रहे है। इसके साथ ही ये अनेक सामाजिक सेवा संस्थाओं से जुड़ कर उनको सामाजिक विकृतियों से लड़ने की प्रेरणा भी दे रहे है।

रणबीर-चांदकौर नामक सांगीत में डॉ0 रणबीर सिंह दहिया ने हरियाणा प्रदेश में छोटे किसान परिवारों की आर्थिक स्थिति बिगड़ने का कारण मंहगाई को माना है-

दो किल्ले धरती सै मेरी, मुश्किल होया गुजारा रै
खाद बीज सब मंहगे होगे, कुछ ना चालै चारा रै।।

14 डॉ0 चतरभुज बंसल .

हरियाणवी लोक कवि डॉ0 चतरभुज बंसल जी का जन्म 1 अप्रैल सन् 1951 को गांव सोथा जिला कैथल मंे हुआ। इनके पिता का नाम लाला साधु राम बंसल तथा माता का नाम श्रीमती किशनी देवी है। चतरभुज बंसल जी ने आठवीं तक शिक्षा प्राप्त की। उन्हीं के शब्दों में- ‘‘हमारे घर मंे कभी भी कोई साहित्यिक वातावरण नहीं रहा और ना ही कोई इस प्रकार का माहौल ही था जो मुझे विरासत के रूप में मिला हो। घरेलू माली हालत बडी दयनीय थी और तो और रहने के लिए अपना घर का मकान भी नहीं था। फिर भी घरवाले यही चाहते थे कि मैं पढ़ जाऊँ। स्कूली शिक्षा मंे मेरा मन बिल्कुल नहंी लगता था। पता नहीं मैं आठवीं तक भी कैसे पढ़ गया। स्कूल की शिक्षा के दौरान मुझे पाठ्यक्रम की पुस्तकों से दूसरी पुस्तकें पढ़ने का अधिक शौक था। गुरू धारण सम्बन्धी इनके विचार इस प्रकार है- ‘‘दिल्ली से जो सांयकाल छः बजकर बीस मिनट पर हरियाणवी रागनियों का प्रोग्राम आता था, उसे तो मैं बिना नागा सुनता था और उसे सुनकर मुझे ऐसा होता जैसे मैं भी इस प्रकार के हरियाणवी गीत लिखूं। आखिर मैंने देवों के देव महादेव भगवान शंकर जी को अपना आराध्य देव, ईष्ट देव, गुरूदेव मानकर लिखना शुरू कर दिया और आज तक लिख रहा हूं।’’48 अर्थात् भगवान शिव शंकर को अपना गुरू माना।

डॉ0 चतरभुज की रूचि हरियाणवी कविताएं लिखने में अधिक है। इन्होंने समसामयिक सामाजिक समस्याओं पर आधारित भजनों, रागनियों व सांगों की रचना की है। इनकी लगभग बीस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है और अनेक अप्रकाशित है। जिनकी निकट भविष्य मंे प्रकाशित होने की संभावना है। इनकी निम्नलिखित रचनाएं प्रकाशित हो चुकी है- ज्ञानमाला 1991, आत्मज्ञान 1995, ज्ञानधारा 1996, गजल संग्रह 1999, ज्ञानबाण 1999, ज्ञानगीत 2000, आजादी के भगत 2001, गीत माला 2002, ज्ञानगंगा 2003, रत्नमाला 2003, सांग-माला पहला भाग 2004। उसके अलावा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं जैसे हरियाणा संवाद, हरियाणा लीडर, हक-परस्त, दैनिक सीमा, संदेश आदि पत्र-पत्रिकाओं में 500 से अधिक कविताएं प्रकाशित हो चुकी है।49
ध्रुव का जन्म नामक सांगीत मंे लोक कवि ने समाज में प्रचलित बेमेल या अनमेल विवाह एवं बहु-विवाह रूपी समस्या को उठाया है। जिस लड़की को उसकी इच्छा के विरूद्ध ब्रूाहा गया हो और वह भी पहले से विवाहित पुरूष से तथा शादी का कारण उसकी अपनी सौत हों तो उस लड़की के मन में बदले की भावना घर करना स्वाभाविक है। राजा उतानपाद की छोटी रानी सुनिचि अपनी बड़ी बहन सुनीति को बेमेल विवाह करवाने पर उलहाना देती है-

यू बुड्डा मैं याणी स्याणी, शर्म लिहाज नहीं आई ऐ।
भरकै घूंट सबर की माला, इसके गल मैं पाई ऐ।
बाप बराबर लागै से यू, क्यूं इस गेलै लाई ऐ।
किस तरीयां बोलूं हांसू मैं, इसे फिकर नै खाई ऐ।।’’50

हरियाणवी सांग माला में डॉ0 चतरभुज बंस के निम्नलिखित सांगीत प्रकाशित हुए है-
कृष्ण जन्म नरसी भगत प्रह्लाद भगत ध्रुव भगत सरवर-नीर

:: सांग विधा : उतरप्रदेश ::
हरियाणा की तरह उतरप्रदेश का लोक साहित्य भी बड़ा ही समृद्ध है। उतरप्रदेश व हरियाणा के लोकगीत, लोक कथाएं, लोकनाट्य, लोक कहावतें और पहेलियां जनजीवन की विशेषताओं पर अच्छा प्रकाश डालती हैं। हरियाणवी की तरह उतरप्रदेश जनता की वीरता, दृढ़ता, देशभक्ति, धर्मपरायणता, सात्विकता आदि गुणों से लोक साहित्य भरा पड़ा है। उतरप्रदेश के पास श्री नत्थूलाल व प. मानसिंह जैसे लोककवि व सांगी है जिन्होनें उतरप्रदेश में इस सांग विधा को प्रचलित करने के लिए अपनी प्रतिभा का सदुपयोग किया है और अपने भजनों से असंख्य व्यक्तियों को प्रेरणा दी है। महाकवि स्वामी शंकरदास की जन्म और कर्मभूमि भी उतरप्रदेश व हरियाणा ही रही है, जिन्होंने ‘ब्रह्मज्ञान प्रकाश’ जैसी कृति द्वारा अनपढ़ जनता को वेदांत के गूढ़ रहस्यों से परिचित कराया। फिर आगे चलकर स्वामी शंकरदास की प्रणाली उतरप्रदेश ही नहीं हरियाणा में भी सर्वव्यापी व सर्वविख्यात रही जो आज तक अपनी जड़े ज्यों की त्यों चवे में गड़ाई हुई है। उतरप्रदेश की पावन धरा पर इस श्रृंखला में शामिल कविताई के ज्ञाता सेढूसिंह, लक्ष्मणदास, शीशगोपाल, मांगेलाल, जमुआमीर, मंगलचन्द आदि सुप्रसिद्ध कवि हुये।

उतरप्रदेश मे वैसे तो केवल पश्चिमी उ.प. मे ही सांग होते है और पश्चिमी क्षेत्र मे भी मेरठ मंडल ही ज्यादा शौक़ीन रहा। उतरप्रदेश मे जो कवि व सांगी हुए है उनकी जड़ हापुड़ से पाई जाती है क्यूंकि हरियाणा के सुप्रसिद्ध लोककवि राय धनपत सिंह व चन्द्र भाट (बादी) भी पश्चिमी उतरप्रदेश की प्रणाली से ही सम्बन्ध रखते थे। राय धनपत व श्री चंद्रलाल दोनों ने अपनी अपनी पंक्तियों मे भी ये प्रमाण दर्शाया है।

सेढूं के चेले लक्ष्मण थे, लक्ष्मण के शीशगोपाल हुए,
शीशगोपाल के शंकरदास, शंकर के मांगेलाल हुए,
मांगे के चेले जमुआ थे, फिर धनपत सिंह पर ख्याल हुए,
तूं धनपत सिंह नै मानी री, मेरी सुनिए मात भवानी,
(लोककवि राय धनपत सिंह: हरियाणा)

कविताई के ज्ञाता सेढूं, लक्ष्मण और गोपाल गए,
स्वामी शंकरदास दादा, गुरु नत्थूलाल गए,
गुरु छंद की लड़ी बंद, मंगलचंद कर कमाल गए,
(लोककवि श्री चंद्रलाल भाट: हरियाणा)

श्री चंद्रलाल जी के जन्म पश्चात् इनके माता पिता इस गाँव को छोड़कर दत्तनगर, उतरप्रदेश चले गये। इस प्रकार चंद्रलाल भाट दत्तनगर, जिला मेरठ के निवासी बन गये। उनके द्वारा अपनी जन्मभूमि को छोड़कर दत्तनगर जाने का उल्लेख निम्न दोहे में मिलता है।

जन्म भूमि रियासत जींद में, दत्तनगर किया है वास,
गोधडिया विप्र गाँव चन्द्र का, चरखी में समझ निकास।।

सांगीतकार चंद्रलाल भाट का जन्म 1923 ई. में जींद रियासत के चरखी दादरी क़स्बे के गोधडिया ब्राहमण परिवार में हुआ था। चंद्रलाल के पिता का नाम सोहनलाल था जो एक भजनोंपदशक थे। उन्होंने अपने गाँव के बारे में एक छंद में स्पष्ट करते हुए कहा है कि

चरखी बराबर छत नहीं, सांगवाण जहाँ जाट,
उसी चरखी में गोधडिया ब्राहमण, वही से चन्द्र भाट।।

उतरप्रदेश राज्य में सांग विधा प्रचलन के विषय पर श्री सतेन्द्र चौधरी व योगेश त्यागी के अनुसार प्रसिद्ध सांगी प. मानसिंह के परम शिष्य श्री ब्रह्मसिंह चिपियाणा, जावली निवासी का कहना था कि उतरप्रदेश में तो ये विधा लगभग हरियाणा के सुर्यकवि प. लख्मीचंद के समय 19 वीं शताब्दी के आसपास ही शुरू एवं प्रभावित हुई। ये विधा प्रसिद्ध कवि व सांगी प. नत्थूलाल जांवली निवासी ने शुरू की थी जिनके 107 अखाड़े हुआ करते थे जो शंकरदास जी के शिष्य थे और इनके शिष्य प. मानसिंह ने इस विधा को सबसे ज्यादा प्रभावित किया। फिर प. मानसिंह के बाद उनके ही पुत्र हीरालाल व शिष्य प. रघुनाथ ने सांगीत बेड़ा संभाला। सन 1947 में आजादी के पश्चात् सांगों का दौर शिखर चढ़ गया और इस विधा को शिखर चढाने वाले प. रघुनाथ थे जिन्होंने सदा सदा के लिए इस सांग विधा में अमृत की ऐसी घुटियाँ पिलाई जिसकी अमृतपान रूपी रस तृष्णा को कभी नही मिटाया जा सकता। उसके पश्चात् इनके शिष्यों तथा कुछ समय बाद पौत्र शिष्यों द्वारा सांग मंचित किये गये। इस प्रकार फिर प. रघुनाथ व उनकी प्राणाली के शिष्यों ने इस सांग विधा के ऐसे आयाम स्थापित किये जिनमे सदा सदा के लिए अमरत्व की आहुति डाल दी।

उतरप्रदेश सांगीतकारों का व्यक्तित्व एवं कृतत्व :
प्रस्तुत पुस्तक उतरप्रदेश एवं हरियाणवी सांगो की एक रचनावली है जिसमे पंडित रघुनाथ जी के सांगो को सूचीबद्ध किया गया है। हरियाणा की तरह उतरप्रदेश में भी संगीतकारों की एक लम्बी परम्परा रही है। यह इतनी विस्तृत प्रणाली है कि यदि इसका समुचित रूप से वर्णन किया जाए तो कई ग्रन्थों की रचना हो सकती है। अधिकतर ऐसे लोककवि एवं सांगी हुए है, जिनका साहित्य अब उपलब्ध नहीं है। इन लोककवियों में कुछ ऐसे भी जनकवि हुए है जिन्होंने सांगों को स्वयं मंचन नहीं किया लेकिन उन्होंने सांगों की रचना की है।

उ.प. लोकनाट्यकारों का परिचय :
सांग मंचकों एवं लोक कवियों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का उल्लेख करना समीचीन/उचित जान पड़ता है। उतरप्रदेश भूमि के कुछ प्रख्यात व उपलब्ध प्रतिष्ठ लोककवि व सांगीतकार इस प्रकार है, सेढूसिंह, लक्ष्मणदास, शीशगोपाल, शंकरदास, प. नत्थूलाल जांवली (इनके 107 अखाड़े थे जो शंकरदास जी के शिष्य थे), मांगेलाल, जमुआमीर, मगलचंद, प. मानसिंह जांवली, श्री दिन्ना, श्री रामसिंह, प. बलवंत (बुल्ली), गुरु शरणदास, ज्ञान अडिमल, श्री जयकरण, श्री जनार्दन, श्री हरवीर टील्ला, श्री बुन्दुमीर, श्री रघुबीर सुपिया, श्री लक्ष्मीचंद, प. रामरत्न, प. गौरीशंकर, श्री पीरु पीर, श्री लड्डन सिंह, बलजीत जोगी (पाधा), प. रघुनाथ और इनके शिष्यों में प. बद्रीप्रसाद (खुर्रमपुर), चौ. घासीराम (सलेमाबाद), रावली कला से जयप्रकाश त्यागी (पहलवान), रघुनाथ त्यागी, ईश्वरदत त्यागी, सुरेन्द्र शर्मा, दिल्ली से जयचंद ठाकुर, श्री जयचंद (दुहाई), ठा. मंगलसिंह, ठा. निहालसिंह, श्री दयाकिशन, श्री हरिराम (करावल नगर, दिल्ली), राजकुमार त्यागी (मोरटा), टिड्डे खलीपा (इन्द्रप्रस्थ, दिल्ली), प. रघुनाथ के मामा रामदत शर्मा (पौसंगीपुर, दिल्ली), दयानंद त्यागी (फिरोजपुर), राजकुमार त्यागी (फिरोजपुर), श्री जयसिंह (फिरोजपुर), कालेराम शर्मा (उपलारसी), राजेन्द्र त्यागी (मंडोला), रामकिशन त्यागी (मंडोला), सतीश त्यागी (मंडोला), श्री सत्यप्रकाश (प्रकाश) फिरोजपुर, रामभूल सिंह (अलीपुर नियर), कृपाल सिंह (किला परीक्षितगढ़, एंची नियर), भुल्लेराम सिंह (किला परीक्षितगढ़), हेमराज सिंह (किला परीक्षितगढ़), ब्रजपाल सिंह (चमरावल), मास्टर रामकुमार शर्मा (महन्वा), रमेश त्यागी (फिरोजपुर) आदिA अब मै यहाँ इन कुछ लोककवियों की मुख्य जानकारी पर प्रकाश डालने की कौशिश कर रहा हूँ जिसमे प. रघुनाथ ने भी अपनी पंक्तियों मे उतरप्रदेश लोक साहित्यकारो का कितना सटीक चित्रण किया हैA

सेढूसिंह गोपाल लछमन गिर, अमर नाम विख्यात हैं,
शंकर नत्थूलाल मानसिंह, सेवा में रघुनाथ है,
हरे भरे फल पात हैं, न्यूं प्रणाली की बेल है।।

प. मानसिंह जांवली :
प. मानसिंह जांवली वाले दादा नत्थूलाल के शिष्य और प. रघुनाथ के गुरु थे।

शंकर ने नत्थू को तारा, मानसिंह गुरु तेरा सहारा, सुरती लगी लगन में,
आशा में रघुनाथ लगा है, अहंकार मद लोभ भगा है, मंगल मुदित मगन में,
जल पृथ्वी आकाश अगन में, बजै आप का साज।।

दादा नत्थूलाल के 107 अखाड़ो में से कुछ प्रमुख शिष्यों का वर्णन इस प्रकार मिलता है, जिनमे लोककवि श्री दिन्ना, श्री रामसिंह खेकड़ा, श्री बलवंत (बुल्ली) व प. मानसिंह जांवली वाले है।

थारे उल्टी बात समाई, जिद छोड़ भजन कर भाई,
कथा मानसिंह ने गाई, सदां नत्थू को शीश निवायक।।

प. रघुनाथ के सतगुरु प. मानसिंह खड़े भजन व कड़े चमोले गाया करते थे क्यूंकि इनके सांगो मे इन्ही छंदों का ज्यादातर प्रयोग होता था। प. मानसिंह ऊँची व सुरीली आवाज के धनी थे और उस समय उनके जैसी आवाज का लोककवि या गायक कोई विरला ही था।

सतगुर मानसिंह कैसा, रघुनाथ का कोई अलाप नहीं।।

बुजुर्ग व उतरप्रदेश साहित्य के जानकार एक समय की बात बताते है कि आसपास के क्षेत्रो में उ.प. व हरियाणा के प्रसिद्द सांगीतकारो का मंचन हो रहा था तो प. मानसिंह की आवाज दुसरे क्षेत्रो तक सुनाई दे रही थी अर्थात अन्य सांगियो के मंच तक पहुँच रही थी तो उन मंचो से श्रोता उठकर प. मानसिंह के सांग मंच मे चले गये। दुर्भाग्य से उनकी कविताई भले ही अन्य प्रसिद्द कवियों जैसी लोकप्रिय न हो पायी हो, लेकिन उनकी आवाज अन्य कवियों से सुरीली व बुलंद थी।

गुरु मानसिंह का दुनियां में, सदा चमकता नूर रहै,
राम नाम रघुनाथ रटा हुया, हरदम चढ़ा सरूर रहै,
धर्म की रक्षा करने वाला, सन्त श्री शंकर होग्या।।

श्री बलजीत जोगी (पाधा):
लोककवि बलजीत पाधा प. मानसिंह जी के ही शिष्य थे जो शामली जिले से सम्बन्ध थे। प. मानसिंह के बेड़े में ये सदा बड़े जनाने (रानी-महारानी) के रूप में मुख्य भूमिका ही निभाते थे। ये संस्कृत व हिंदी श्लोको के बहुत अच्छे ज्ञाता थे क्योंकि कार्यक्रम के प्रारंभ में गुरु सुमरण से पहले ये हमेशा आधे घंटे तक संस्कृत के श्लोको को ही गायन विधा में प्रस्तुत करते थे अर्थात मंचन के समय सदा एक विद्वानी भाषा का ही प्रयोग करते थे।

संजय वर्णन करो धीर से, रचना मेरे दुर्योधन की।। टेक ।।

पांडवो का पक्ष लेके ,कौन कौन आये होंगे,
महाकाल का भक्ष लेके, कौन कौन आये होंगे,
बाण कई लक्ष लेके, कौन कौन आये होंगे,
प्रथम संख भेरी बण, किसने शब्द किया होगा,
मूढ़ दुर्योधन का पोच, प्रारब्ध किया होगा
भ्राता ही ने भ्राता ही का, कैसे वध किया होगा,
उत्पन्न हुए एक शरीर, कैसे शुद्ध बुद्ध भूले तन की।।

कपिध्वज पै बाण, परमानंद नै ठुवाये होंगे,
रिपु पै को तान, परमानंद नै ठुवाये होंगे,
करने को मैदान, परमानंद नै ठुवाये होंगे,
गंगे जी के आक्रमण से, कौन कौन बचे होंगे,
जय अजय के होते, हाहाकार शब्द मचे होंगे
दस दिन का पर्ण सुनके, अन्न नहीं पचे होंगे,
उस भीष्म जी के तीर से, सजनी रोई कौन सजन की।।

भीम से विर्कोधर गदा, हाथ लेले लड़े होंगे,
गंभीर वीर धीर, पक्षपात लेले लड़े होंगे,
उस धर्मानंद युधिष्ठिर का, साथ लेले लड़े होंगे,
अश्वथामा द्रोण कर्ण, शील शब्द तोल उठै,
विद्या में निपुण, ब्रह्म ज्ञानियों में बोल उठै,
वीरता म्य रेखा लड़ै, पृथ्वी भी डोल उठै,
उस रवि पुत्र गंभीर से, कैसे बची होगी लाज सबन की।।

बाणों के प्रहार ह्रदय, फुट फुट गये होंगे
सहस्त्रो की घात सिर, टूट टूट गये होंगे,
श्वान सियार गिद्ध रुधिर, घूंट घूंट गये होंगे,
बानों से बिंधे कही, रूहंड कटे पड़े होंगे
हाथियों के युद्ध सिर, शुण्ड कटे पड़े होंगे
बड़े बड़े महारथियों के, मुंड कटे पड़े होंगे
गुरु मानसिंह तदबीर से, करू सेवा मै चौथेपन की।।

प. बलवंत उर्फ़ बुल्ली :
प. बलवंत जी भी उ.प. के प्रसिद्द सांगी व लोककवि हुए है। ये नांगल, बडौत, मेरठ के निवासी थे। ये करुण रस के प्रख्यात सांगी थे। उस समय इनकी कविताई को काफी सराहा जाता था। उनकी कुछ पंक्तिया निम्नलिखित मे इस प्रकार है

अपने भक्त का हाथ नाथ, गया भूल हाथ म्य लेकै,
सुंदरबाई लगी चढ़ावण, फूल हाथ म्य लेकै,

सूरज शीतल चाँद म्य अग्नि, चाहे पृथ्वी पै तारे हो,
पर पत्नी पी से पी पत्नी से, कदे नहीं न्यारे हो,
(सांग : मीराबाई)

बुन्दुमीर :
बुन्दुमीर जन्मांध थे। उनकी अपनी अलग सांग मण्डली थी। वे लोककवि के साथ एक अच्छे लोकगायक भी थे। उनकी रचनाओ की कुछ पंक्तिया निम्न प्रकार है

दिखी ऐ रै हो हो दिखी, रै! कौण दिखी ओट म्य किवाड़ी की,

हीरे जाने वाली बताईये जरा, खता क्या है मेरी बताईये जरा,

प. रघुबीर सुपिया :
प. रघुबीर श्री मानसिंह के शिष्य थे और ये सूप ग्राम के निवासी थे जो पहले मेरठ मे आता था फिर बाद मे बागपत जिला। रघुबीर जी सुपिया के नाम से ही पुकारे जाते थे। रघुबीर सुपिया का ‘नरसी का भात’ एक ऐसा प्रसिद्द सांगीत बनाया था जो शायद किसी विरले कवि ने ही बनाया हो।

प. लक्ष्मीचंद सुपिया :
प. लक्ष्मीचंद भी श्री मानसिंह के ही शिष्य और कवि रघुबीर के सगे छोटे भाई थे। उनकी एक रचना हमेशा विवादित रही क्यूंकि इस रचना मे उन्होंने अपनी छाप न लगाकर अपने गुरु मानसिंह के चरणों मे श्रध्दासुमन रूप मे समर्पित की। लेकिन कुछ सज्जन उसको प. लख्मीचंद जी की बताते है क्यूंकि उनके गुरु भी प. मानसिंह नाम के ही थे जो गाँव बसौधी, हरियाणा निवासी थे। परन्तु वह रचना श्री लख्मीचंद सुपिया वाले की ही है जो इस निम्न मे इस प्रकार है,

हे! गंगे तेरे अर्पण करती, अपना सुत प्यारा मैं,
इतनी कहै संदूक छोड़ दिया, कुंती नै धारा म्य,

प. रामरत्न :
प. रामरत्न भी मेरठ मंडल के सुप्रसिद्ध कवि हुए है और उनकी रचनाये भी काफी प्रचलित रही। इनका जन्म ग्राम टिल्ला निकटतम जांवली के पास ही हुआ। इनकी सत्यवान सावित्री के इतिहास से कुछ पंक्तिया इस प्रकार है,

चमके लागै तेरी, चन्द्रमा सी शान म्य,
फिरै भटकती, जंगल बियाबान म्य,

पीरु पीर :
पीरु इस्लाम धर्म से सम्बन्ध रखते थे मगर इनके गुरु प. गौरीशंकर थे। इनका जन्म ग्राम मिलक, मेरठ (गौतमबुद्ध नगर) मे हुआ। इस्लाम धर्म होने के बावजूद भी इन्होने हिन्दू धर्म के इतिहासों पर रचना की। इनकी रचनाओं की कुछ मुख्य पंक्तिया निम्नलिखित है,

पीरु कहै ज्ञान का सौदा, मिले गौरी शंकर की दूकान पे।

हस्तिनापुर से दुर्योधन नै, आके गऊऐ घेरी,
बचती हो तो लाज बचाले, चलदी चेली तेरी,

खड़ी खड़ी रोती, जैसे काग चुगे मोती,
जै मै हस्तिनापुर म्य होती, सजना लुटाती राजदान म्य,

लड्डन सिंह :-
इनका जन्म मुजफ्फरनगर, उ.प. मे हुआ था। इनका कार्यक्षेत्र मुरादनगर, गाजियाबाद रहा है। ये भी एक ख्यातिप्राप्त कवि थे जिनकी एक रचना की पंक्तियाँ निम्न मे इस प्रकार है

समझ ना सकी देवर, कहानी तेरी मैं,
टापू म्य छोड़ आया, दुराणी तेरी मैं,

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सांग विधा की शब्दावली एवं भाषा ज्ञान / छंद योजना / संवाद योजना / अलंकर / रस :-

रामराज के से दुनिया में आज सब के रूल हों,
रघुनाथ काव्य रस कविताई के, खिले बोल में फूल हो,
जिस मार्ग में शूल हों, वहां दोडऩे का पाप है।।
(वन पर्व)

पंडित रघुनाथ ने उपरोक्त पंक्तियों मे कितना ही सटीक कहा है कि काव्य रस मे भी अपने नियम होते है जिसमे सही तुकांत, मात्रा, सटीक छंद, सही कालक्रम, उचित भाव, रस, अलंकार, विविध तर्ज या धुन, सुरताल व लयदारी आदि के बिना तो संगीत एवं काव्य विधान के अंतर्गत शूलयुक्त मार्ग पर चलना है अर्थात वे नियम भंग रूपी कांटे हमेशा पाठको, श्रोताओं, कवियों, विद्वानों आदि सभी को चुभते रहेंगे जो वास्तव मे एक काव्य रूपी पाप है।

रघुनाथ खड़ी भाषा में कथा, नित्य कथ कथ कै गाणी।।

पंडित रघुनाथ एक निरक्षर के समान थे और उनकी प्रचलित भाषा राष्ट्रीय हिन्दी व हरियाणवी सामान्य लोक भाषा, पंचमेल खिंचड़ी (संस्कृत, हिंदी, उर्दू, अरबी, फारसी) एव खड़ी बोली ही रही है, इसलिए उन्होंने विभिन्न भाषओं और शब्दों का श्रवण पूरी लगन के साथ किया है।

अतः उनके काव्य मे अन्य लोक प्रचलित भाषायी शब्दों का बाहुल्य मिलता है। पंडित रघुनाथ को अपनी खड़ी बोली एवं भाषा के साथ साथ अन्य भाषाओ जैसे उर्दू, अरबी, फारसी, अंग्रेजी आदि से कितना प्यार था और उसमे कितनी महारत हासिल की हुई है, इस साक्ष्य के लिए “वीर हकीकत राय” सांगीत की निम्न गजल पर एक नजर :

दो नामों का अर्थ एक है, मजा कहो प्रमिदा कहो,
शलील कहो या आब कहो, शर्बत कहो या सुधा कहो,
हिन्दी, अरबी, उर्दू, फारसी, भूख कहो या क्षुधा कहो,
हिन्दू, मुस्लिम, सिख ईसाई, नहीं किसी को जुदा कहो,
खुदा कहो या राम, अन्हूद ये इस्लाम,
समझ कै जहर भरा हुआ जाम, पीना फर्ज नहीं मेरे लाल।।
(सांग: वीर हकीकत राय)

:: अलंकार ::
काव्यों की सुंदरता बढ़ाने वाले यंत्रों को ही अलंकार कहते हैं। जिस प्रकार मनुष्य अपनी सुंदरता बढ़ाने के लिए विभिन्न आभूषणों का प्रयोग करते हैं उसी तरह काव्यों की सुंदरता बढ़ाने के लिए अलंकारों का उपयोग किया जाता है।
साहित्य में रस और शब्द शक्तियों की प्रासंगिकता गद्य और पद्य दोनों में ही होती है लेकिन कविता में इन दोनों के अतिरिक्त अलंकार छंद और बिंब का
प्रयोग उसमें विशिष्टता लाता है। हालांकि हमने पाठ्यक्रम में संकलित कविताओं को आधार मानकर अलंकार छंद बिंब और रस की विवेचना की है लेकिन विषय में सहज प्रवेश की दृष्टि से संक्षिप्त परिचय यहां उल्लेखित है।
मनुष्य सौंदर्य प्रेमी है। वह अपनी प्रत्येक वस्तु को सुसज्जित और अलंकृत देखना चाहता है। वह अपने कथन को भी शब्दों के सुंदर प्रयोग और विश्व उसकी विशिष्ट अर्थवत्ता से प्रभावी व सुंदर बनाना चाहता है। मनुष्य की यही प्रकृति काव्य में अलंकार कहलाती है।

काव्यशोभा करान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते।
अर्थात वह कारक जो काव्य की शोभा बढ़ाते है अलंकार कहलाते हैं।

अलंकार का शाब्दिक अर्थ है “आभूषण” जिस प्रकार सुवर्ण सोने आदि के आभूषण से श्रीसर की शोभा बढ़ती है। उसी प्रकार काव्य अलंकारों से काव्य की शोभा बढ़ती है।

अलन अर्थात भूषण
कर अर्थात सुसज्जित करने वाला
अतः काव्यों को शब्दों व दूसरे तत्वों की मदद से सुसज्जित करने वाला ही अलंकार कहलाता है ।

अलंकार के मुख्यतः दो भेद होते हैं :
शब्दालंकार
अर्थालंकार

शब्दालंकार :
जो अलंकार शब्द विशेष पर निर्भर रहते हैं और शब्द सौंदर्य की वृद्धि करते हैं अर्थात अलंकार शब्दों के माध्यम से काव्यों को अलंकृत करते हैं, वे शब्दालंकार कहलाते हैं। यानि किसी काव्य में कोई विशेष शब्द रखने से सौन्दर्य आए और कोई पर्यायवाची शब्द रखने से लुप्त हो जाये तो यह शब्दालंकार कहलाता है।

तेरे जोबन जोर जवानी का, जोगी सै जंग करैं मतन्या,

जगमग जोत जागज्या जग मे, तेरे बुझे चिराग की,

जर जोरू जमीन का, जग मे पूरा बैर बुकल हो सै,

अर्थालंकार :
जब अलंकार शब्द विशेष पर निर्भर हो जाता है अर्थात किसी शब्द को बदलकर उसका पर्यायवाची शब्द रख देने पर भी अलंकार बना रहता है और जब किसी वाक्य का सौन्दर्य उसके अर्थ पर आधारित होता है तब यह अर्थालंकार के अंतर्गत आता है।

माथे उपर जुल्फ पड़ी, जणू सी पटा,
मीठी मीठी बोलै थी, जणू अमृत दिया चटा,

अलंकारों के भेद और उपभेद की संख्या काव्य शास्त्रियों के अनुसार सैकडों है। लेकिन पाठ्यक्रम में छात्र स्तर के अनुरूप यह कुछ मुख्य अलंकारों का परिचय व प्रयोग ही अपेक्षित है।

शब्दालंकार के भेद: इसके मुख्यतः तीन भेद होते हैं।
अनुप्रास अलंकार यमक अलंकार श्लेष अलंकार

अर्थालंकार के भेद: इसके मुख्यतः पाँच भेद होते हैं।
उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, मानवीकरण

प. रघुनाथ के सांगो मे शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों का ही प्रयोग मिलता है। शब्दालंकारो मे अनुप्रास, यमक, श्लेष, विप्सा, वक्रोक्ति, पुनरुक्तवदाभास और भाषासम आते है। अर्थालंकारो मे प्रतिक विधान के अतिरिक्त उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, संदेह भ्रांतिमान, उल्लेख स्मरण, अतिश्योक्ति, तुल्योगिता अपहनुति, प्रतिप, व्यतिरेक, विभावना, विशेषोक्ति, असंगति, कारणमाला, एकावली, अन्योक्ति, तद्गुण, स्वभावोक्ति आदि आते है।

उदाहरण के तौर पर प. रघुनाथ के काव्य से संग्रहित मुख्य अलंकारो की काव्य पंक्तियाँ इस प्रकार है।

अनुप्रास अलंकार :
जब किसी काव्य को सुंदर बनाने के लिए किसी वर्ण की बार बार आवृति हो तो वह अनुप्रास अलंकार कहलाता है। किसी विशेष वर्ण की आवृति से वाक्य सुनने में सुंदर लगता है, जैसे :

मोहमाया ममता नै मार, मन मजहब की माला रटले,
पल मे पावै परमपिता, पाखंड प्रेम से हटले ।। टेक ।।

अ आदि अनादि अनंत, अखंड अपार आवाज आपकी,
ओऊम अकार औतार, अलग करते आगाज आपकी,
क कर्म कराकर किस्म, किस्म करली अंदाज आपकी,
ख खट्टा खटरस खंग का, खटका खर उगपाज आपकी,
च चित्र छ छंटा छत्र जल्दी, जै करके जोर झपटले।।

ट का टट्टू टेम की टमटम, टिटकारी से चलता,
ठ का ठगिया ठाल्ली ठहरा, हरदम इसनै छलता,
ड का डमरू डूमक डूमक, सुन टहूँ टूण बदलता,
ढ का ढाल ढपाल बजै है, ना भय का ढोर सिमलता,
ण का नारायण भज, इस ठगिया से नटले।।

त की ताल तावली बाजै, तार तिरंग मे भरकै,
थ का थाम नहीं थमता, न्यू इन्घे उन्घे सरकै,
द का दाता दया दाम दे, दाम सूब सन करकै,
ध का धर्म करे धर्म मिलज्या, धाम स्वर्ग का मरकै,
न का नेम निभा निर्भयी, ना नाक नर्क मे कटले।।

प पहले और फ का फैसला, कायदे का फल अच्छा,
ब मे बहुत बगी बहम, वाक् वक्त का सच्चा,
भ का भर्म भगत को भी रहा, भजन को करदे कच्चा,
गुरु मानसिंह भर्म मेट, रघुनाथ बावला बच्चा,
ल स मे स्वरूप शुभ राम के, सोच समझ सब सठले।।
(काव्य विविधा)

ऊपर दिये गए उदाहरण में आप देख सकते हैं कि सभी वर्ण की आवृति हो रही है और आवृति होंने से वाक्य का सौन्दर्य बढ़ रहा है। अतः यह अनुप्रास अलंकार का उदाहरण होगा।

यमक अलंकार :
जिस प्रकार अनुप्रास अलंकार में किसी एक वर्ण की आवृति होती है उसी प्रकार यमक अलंकार में किसी काव्य का सौन्दर्य बढ़ाने के लिए एक शब्द की बार बार आवृति होती है, दो बार प्रयोग किये गए शब्द का अर्थ अलग हो सकता है। जैसे:

हुई लौ सै लौ की मात, रोशनी लौ की नई,

सोंक शौक म्य जला करै, देख सोंकण नै,
इश्क इर्ष्या जलन म्य राजी, जान झोंकण म्य,

श्लेष अलंकार :
श्लेष अलंकार ऊपर दिये गए दोनों अलंकारों से भिन्न है। श्लेष अलंकार में एक ही शब्द के विभिन्न अर्थ होते हैं। जैसे:

रला रेते म्य लाल मिला, जोहरी को ठाणदे ओ बांदी,

उपमा अलंकार :
उप का अर्थ है समीप से और पा का अर्थ है तोलना या देखना। अतः जब दो भिन्न वस्तुओं में समानता दिखाई जाती है, तब वहाँ उपमा अलंकार होता है।
उपमा की परिभाषा इस प्रकार दी जाती है जहाँ वस्तु (उपमेय) की रंग, रूप, गुण, दोष मे अप्रस्तुत (उपमान) से समता (तुलना) की जाये। वहां उपमा अलंकार होता है। जैसे

गौरा गौरा चेहरा उसका, सूर्य सा तपा हुआ,
मोटी मोटी आँख माथा, आठ आंगल नपा हुआ,
साफा था सुनहरी सिर पै, सच्चे रंग से छपा हुआ,
बत्तीसी इकसार दांत, संधि करकै जुड़े हुये,
पतले पतले होंठ जणू, कबूतर से उड़े हुये,
छोटे छोटे कान जणू, कुश्ती के म्हा मुड़े हुये,
जणू खिंचगी तीर कमान, जब भौं की त्योरी चढ़गी।
(पूर्णमल नुनादे)

रूपक अलंकार :
जब उपमान और उपमेय में अभिन्नता या अभेद दिखाया जाए तब यह रूपक अलंकार कहलाता है अथार्त जहाँ पर उपमेय और उपमान के बीच के भेद को समाप्त करके उसे एक कर दिया जाता है वहाँ पर रूपक अलंकार होता है। जैसे:

मन परिपक्व शांत चित, करकै वो आनंद मिलैगा,
प्रेम का पाणी परम पवित्र, पवन से चमन खिलैगा,

उत्प्रेक्षा अलंकार :
जहाँ उपमेय में उपमान के होने की संभावना का वर्णन हो तब वहां उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। यदि पंक्ति मे मनु, जनु, मेरे जानते, मनहु, मानो, निश्चय, ईव आदि आता है वहां उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। जैसे:

ऐसी लागी थी दोनों रान, जणू ताज़ी ढोलक मढगी,

ऐसी मिलगी जोट, जणू जंजीरों मे छल्लो की,

अतिश्योक्ति अलंकार :
जहाँ किसी वस्तु को बढ़ा चढ़ाकर पेश किया जाये, वहां अतिश्योक्ति अलंकार होता है। जैसे:

गर्दन है सुराहीदार, आता जाता दिखै नीर,
नाजनीन नमकीन नजाकत, सादी भोली गंभीर,

मानवीकरण अलंकार :
जब प्राकृतिक चीज़ों में मानवीय भावनाओं के होने का वर्णन हो तब वहां मानवीकरण अलंकार होता है। जैस :

भूमि डोली गऊ बन बोली, लर्जी हारी,

विप्सा अलंकार :
जब आदर, हर्ष, शोक, विस्मयादिबोधक आदि भावों को प्रभावशाली रूप से व्यक्त करने के लिए शब्दों की पुनरावृत्ति को ही विप्सा अलंकार कहते है। जैसे:

1
ठगिया फिरते है, डग डग मे,
ममता फ़ैल रही, रग रग मे,

रोम रोम म्य रमा हुआ, घट घट म्य बासा,

न्यारे न्यारे मोती बिखरे, टूट गयी सारी लड़,

भाषासम अलंकार :
जहाँ विभिन्न भाषाओँ के शब्दों से किसी पद की रचना हुई हो, वहां भाषासम अलंकार होता है। जैसे:

अणु बम गोले मच रहे रोले, ओले शोले जी हथियार बने,
आटोमेटिक यान या राकेट, गैस के पाकिट जी खूंखार बने,
जो यार बनै वही बैर करै, और उल्टा हम पै दोष धरै,
लुटज्या रै लुटज्या, लुटज्या झंझट मे लाग कै,

मालोपमा अलंकार :
जहाँ एक उपमेय के लिए एक से अधिक उपमानो का प्रयोग किया जाता है, वहां मालोपमा अलंकार ही माना जाता है।

मोर पपैया पी पी बोलै, कोयल पी पी करती,

बिजली कैसी चमकै तन मे, दिन मे घन सा पाटण लागी,

वक्रोक्ति अलंकार :
जहाँ पर वक्ता के द्वारा बोले गए शब्दों का श्रोता अलग अर्थ निकाले, उसे वक्रोक्ति अलंकार कहते है। जैसे:

घर छोड़ जो वन मे गयी, कदे ना हुई उनकी हानी,

बहूँ नै भी नंगी नचाओगे, उसकी नाचण लायक उम्र कोन्या,

दीपक अलंकार :
जहाँ पर प्रस्तुत और अप्रस्तुत का एक ही धर्म स्थापित किया जाता है, वहाँ पर दीपक अलंकार होता है। जैसे:

लोट्टा सोट्टा और लंगोटा, संत का ढिल्ला ना चाहिए,

गुरु गायत्री गीता गंगा, गऊ ज्ञान की देवा,

पुनरुक्तवदाभास अलंकार :
जहाँ अर्थ की पुनरुक्ति प्रतीत हो, पर वास्तव मे पुनरुक्ति न हो, वहा यही अलंकार होता है अर्थात शब्द का भाव कुछ प्रतीत हो तथा अर्थ कुछ अन्य हो। जैसे:

गुरु की शिक्षा दीक्षा से, शरीर का साज सजै है,
त्रिकुटनगरी शून्ये महल मे, अनहद नाद बजै है,

उल्लेख अलंकार :
जहाँ पर किसी एक वस्तु को अनेक रूपों में ग्रहण किया जाए और जहाँ उसके अलग अलग भागों में बांटने का उल्लेख हो, उसे उल्लेख अलंकर कहते है अर्थात जब किसी एक वस्तु अनेको प्रकार से किया जाये

कहदे अपनी साफ़ कहानी, पंडितानी है या सेठाणी,
या राणी है किसी भूप की, तेरे रूप की लाली झड़गी,

उदाहरण अलंकार :
जहाँ किसी बात के समर्थन मे उदहारण किसी वाचक शब्द के साथ दिया जाये, वहां उदाहरण अलंकार होता है। जैसे:

घी ना निकला, ज्यूँ कच्चा ही बिलग्या,
न्यू तेरा फूल, जैसे बुचा हुआ खिलग्या,

प्रतिप अलंकार :
‘प्रतीप’ का अर्थ होता है ‘उल्टा’ या ‘विपरीत’। यह उपमा अलंकार के विपरीत होता है। क्योंकि इस अलंकार में उपमान को लज्जित, पराजित या हीन दिखाकर उपमेय की श्रेष्टता बताई जाती है, जैसे

पैसे से हो कामकाज, पैसा ही भगवान है,
पैसे बिन आदमी की, रहती नहीं शान है,
पैसे बिना कोई किसी का, ना करता सम्मान है,

विनोक्ति अलंकार :
जहाँ ‘बिना’ या ‘रहित’ आदि शब्दों की सहायता से एक के बिना दूसरा पदार्थ शोभित अथवा अशोभित कहा जाये, वहां विनोक्ति अलंकार होता है। जैसे:

बिना बाग़ के माली सुन्ना, विषियर सुन्ना जहर बिना,
बिना नीर ताल सुन्ना, धोबी सुन्ना नहर बिना,
बिना आवाज गावनिया सुन्ना, गाना सुन्ना लहर बिना,
बिना डंडी के मंडी सुन्नी, बनिया सुन्ना शहर बिना,
बिना इष्ट के भक्ति सुन्नी, भगत सुन्ना बिन माढ़ी,

स्वभावोक्ति अलंकार :
किसी के स्वभाव, धर्म, कर्म और दशा का यथावत अथवा स्वाभाविक वर्णन करना ही स्वभावोक्ति अलंकार होता है। जैसे:

कृष्ण विभूति लगाकै, भस्मी सांग शेर का कर आये,
कुंती सुत नै संग लेकै, हरी मोरध्वज के घर आये,

संदेह अलंकार :
जब उपमेय और उपमान में समता देखकर यह निश्चय नहीं हो पाता कि उपमान वास्तव में उपमेय है या नहीं। जब यह दुविधा बनती है, तब संदेह अलंकार होता है अथार्त जहाँ पर किसी व्यक्ति या वस्तु को देखकर संशय बना रहे वहाँ संदेह अलंकार होता है। यह अलंकार उभयालंकार का भी एक अंग है। जैसे:

है कौन किसी का लाल, यो झूठा ख्याल,
छोड़ मेरी माता, तूं किसनै बेटा कहरी,

व्यतिरेक अलंकार :
व्यतिरेक का शाब्दिक अर्थ होता है आधिक्य। व्यतिरेक में कारण का होना जरुरी है। अतः जहाँ उपमान की अपेक्षा अधिक गुण होने के कारण उपमेय का उत्कर्ष हो वहां पर व्यतिरेक अलंकार होता है। जैसे:

तेज पवन से घोड़े दौड़े, गर्द गई आसमान में।
कठिन लड़ाई जांण सुभट ने, रथ रोका बियाबान में।।

अपहनुति अलंकर :
अपहृति का अर्थ होता है छिपाव। जब किसी सत्य बात या वस्तु को छिपाकर उसके स्थान पर किसी झूठी वस्तु की स्थापना की जाती है वहाँ अपहृति अलंकार होता है। यह अलंकार उभयालंकार का भी एक अंग है। जैसे

करा महल म्य दंगा, गंगा उल्टी मोड़ गया,
वो ठाढ़ा मै नर्म गर्म का घड़ा, भरा हुआ फोड़ गया,

कारणमाला अलंकार :
जहाँ किसी कारण से उत्पन्न कार्य को अन्य कार्य का कारण बतलाया जाये और क्रमशः दो या दो से अधिक कारण हो, वहां कारणमाला अलंकार होता है। जैसे:

भजन करे तै मोक्ष मिलै, धन चाहो तो धर्म करो,
सुख मिलता संतोष करे तै, संत बनो शुभ कर्म करो,

तुल्ययोगिता अलंकार :
जहाँ प्रस्तुत एवं अप्रस्तुत पदार्थो का एक ही धर्म बताया जाये, वहां तुल्ययोगिता अलंकार होता है। जैसे:

राजा जोगी अग्नि जल का, किसी नै ना पाट्या बेरा,

असंगति अलंकार :
कार्य और कारण में संगति न होने पर असंगति अलंकर होता है अर्थात जहाँ कारण कही ओर कार्य कहीं ओर हो, वहां असंगति अलंकार होता है। जैसे:

नाड़ शेर की फंसी क्यूँ, कुते के चुंगल म्य,
बिना बात बेजार हुई, रोण लगी रंगमहल म्य,

एकावली अलंकार :
ये एक शृंखलामुलक अलंकर है जिसमे पूर्व पूर्व के प्रति अगले अगले को विशेष के रूप मे स्थापित करे या उसे हटाये तो एकावली अलंकार होता है। जैसे:

बिन बच्चे के त्रिया सुन्नी, घर सुन्ना नार बिना,
बिन कैंची के दर्जी सुन्ना, कैंची सुन्नी धार बिना,
बिना ज्ञान के हर्दय सुन्ना, ज्ञान सुन्ना विचार बिना,
कहै रघुनाथ आदमी सुन्ना, दया-धर्म और प्यार बिना,

विषम अलंकार :
एक अर्थालंकार जिसमें दो विरोधी वस्तुओं के संबंध या औचित्य का अभाव बतलाया जाता है और उनकी रचनाओं में विषम की बहुलता है, वहां विषम अलंकार होता है। जैसे:

बिगड़े पीछै आब फेर कै, आती ना देखी,
कहीं कागों की गैल हंसनी, जाती ना देखी,

क्षत्राणी का दूध लजा दिया, चीणी चीणाई ढहादी,
सिंहनी कै गादड़ होगे, हया शर्म की पैड मिटादी,

विरोधाभास अलंकार :
जब किसी वस्तु का वर्णन करने पर विरोध न होते हुए भी विरोध का आभाष हो वहाँ पर विरोधाभास अलंकार होता है। जैसे:

पतिदेव दुनिया की खातिर, वृथा पड़े जेल म्य,
बत्ती जलती दिया ना जलता, लगरी आग तेल म्य,

:: रस प्रधानता ::
सांग एक प्रबंधाताम्क नाट्य विधा है जिसमे प्राय सभी रस समाविष्ट होते है। प. रघुनाथ के सांग रूपी काव्य मे लगभग सभी प्रकार के रस पाए जाते है।
रस को काव्य की आत्मा माना जाता है। प्राचीन भारतवर्ष मे रस का बहुत महत्वपूर्ण स्थान था। काव्य को पढने या सुनने से जिस आनंद की अनुभूति होती है उसे रस कहा जाता है। अतः रस का शाब्दिक अर्थ आनंद ही है। रस, छंद और अलंकार काव्य के अवयव है। रस को काव्य की “आत्मा या प्राण तत्व” माना जाता है। रस उत्पति को सबसे पहले परिभाषित करने का श्रेय ‘मुनि भरत’ को जाता है। उन्होंने अपने “नाट्यशास्त्र” मे रस के प्रकारों का वर्णन किया है। नाट्यशास्त्र में भरत मुनि ने रस की व्याख्या करते हुये कहा है कि

विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्ररस निष्पत्ति:।

अर्थात विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। सुप्रसिद्ध साहित्य दर्पण में कहा गया है कि हृदय का स्थायी भाव, जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव का संयोग प्राप्त कर लेता है तो रस रूप में निष्पन्न हो जाता है। रस प्राय 11 प्रकार के होते है जो निम्नलिखित है।

रस के प्रकार :-
1. श्रृंगार रस, 2. हास्य रस, 3. रौद्र रस, 4. करुण रस, 5. वीर रस
6. अदुभत रस, 7. वीभत्स रस, 8. भयानक रस, 9. शांत रस
10. वात्सल्य रस, 11. भक्ति रस

श्रृंगार रस :

श्रृंगार रस का स्थायी भाव प्रेम अर्थात रति है। यह रस प्रेम भावनाओं द्वारा उत्पन्न होता है। यह रस दो प्रकार का होता है।

संयोग रस
वियोग रस

प. रघुनाथ के काव्य मे नायिका का सौन्दर्य संयोग श्रृंगार से सरोबर है जिसमे नायिका नुनादे, सुन्द्रादे, अहिल्याबाई, देवयानी, चंद्रवती, द्रौपदी, सुभद्रा, कुंती, राजबाला, शांताकुमारी, संयोगिता, रूपवती, नवल्दे आदि सभी संयोग श्रंगार का आलंबन है। श्रृंगार रस को रसों का राजा अथवा रसराज कहा जाता है। इसका कारण यह है कि श्रृंगार रस पर अधिकतम काव्य का निर्माण किया गया है।

अहिल्या के रूप की, सब देवों ने बड़ाई करी,
गठीला शरीर नारी, जवानी मस्ती मे भरी,
नैन है कटाक्ष बाण, बोली है कोयल सी परी,
तीन लोक म्य दूसरी ना, और कोए ऐसी बीर,
गर्दन है सुराहीदार, आता जाता दिखे नीर,
नाजनीन नमकीन नजाकत, सादी भोली गंभीर,
हो आशिक दिल आवाज का, लगे झलक शान प्यारी पै,
सुरपति इन्द्र्महाराज का, मन डीग्या अहिल्या नारी पै।।
(सांग : नहुष भूप)

छाती नै उभार बाहर, सार दो खिलावन लागी,
तिरछी नजर कटार मार, धार सी चलावन लागी,
होली कैसा त्यौहार नार, तार से मिलावन लागी,
बिजली सी चमके तन म्य, दिन म्य घन पाटन लागी,
करके गेरया लोट पोट, होठ से फिर चाटन लागी,
दई डार नैन की चोट घोट, गलजोट करया चाहू सू मै,
जब से देखा हूर का गात, साथ दो बात करया चाहूं सू।।
(सांग : नहुष भूप)

वियोग/विप्रलम्भ श्रृंगार :
संयोग एवं वियोग रस प्रेम के दो भागों, मिलने एवं बिछड़ने को प्रदर्शित करते हैं। प. रघुनाथ के साहित्य मे दोनों ही पक्षों को बड़े रोचक व प्रभावात्मक ढंग से संजोया गया है। संयोग श्रृंगार की भांति प. रघुनाथ ने वियोग श्रृंगार का वर्णन भी उच्चकोटि मे किया है। वैसे भी संयोग की अपेक्षा वियोग का प्रभाव अधिक होता है। प. रघुनाथ ने सांग नल दमयंती, धर्मपाल शांताकुमारी, रूपवती चुडावत, पृथ्वीराज संयोगिता आदि मे इन पात्रो की व्यथा कथा के माध्यम से अभिव्यंजना की है।

तेरे कहे से सोगी बैरी, पुरे पैर फैलाकै,
रोउंगी दिनरात आंसू, आँखों मे ढलाकै,
मेरी देही जलाकै, मेरे बाँध क्यूँ ना हाड़ लेगा,
सोवती नै छोड़ गया, तार तन के लाड क्यूँ ना लेगा,
इससे अच्छा लजमारे, मेरी जान क्यूँ ना काढ लेगा।।
(सांग : नल दमयंती)

वियोग केवल नायिका को ही व्यथित नहीं करता क्यूंकि अपनी पत्नी या प्रेमिका से बिछड़ने पर एक पति या आशिक की बेकरारी भी वियोग चित्रण का मार्मिक उदाहरण प्रस्तुत करती है।

लाज शर्म की, बंधे भ्रम की, मेरे कर्म की, सब लाचारी,
चोट है नस की, कोन्या बस की, चसकी तन म्य बुरी बीमारी,
तड़कै रोवैगी दुखियारी, मरज्यागी विष नै चाटकै,
सुन्न शरीर बोल बंध होग्या, झाल जिगर की डाटकै,
सोती छोड़ दई दमयंती, चल दिया साड़ी काटकै।।
(सांग-नल दमयंती)

वीर रस :
इस रस को सुनकर उत्तेजना एवं प्रेरणा जैसे भाव उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार के रस सदैव प्रेरित करने के लिए लिखे जाते हैं अर्थात इस रस का स्थायी भाव उत्साह होता है। प. रघुनाथ के इतिहास द्रौपदी स्वयंवर, भीष्म पर्व, द्रौण पर्व, रूपवती चुडावत, मोरध्वज, पृथ्वीराज संयोगीता आदि जबरदस्त प्रयोग हुआ है यदि यह कहा जाए कि इनके सांगो मे वीर रस भी साकार हो उठा है तो कोई अत्युक्ति नही होगी।

क्षत्रापण का नेम निभाऊंगा, ना आऊँ रण से हटकै,
यमन दमन एक क्षण म्य काटू, तेग बजाऊंगा डटकै,
मारूं या मर जाऊं कटकै, कितने उजड़ गए बसकै,
रायसिंह के बंगले के म्हा, बीड़ा चाब लिया हँसकै,
चुडावत मर्दाने नै, तलवार पकड़ली थी कसकै।।
(सांग : रूपवती चुडावत)
करुण रस :
इस रस का स्थायी भाव शोक है। जिन काव्यों को पढ़कर शोक की अनुभूति होती है, वे करुण रस से मिलकर बने होते हैं। इस रस मे किसी अपने का विनाश या वियोग, द्रव्यनाश या अपने प्रेमी से सदैव बिछुड़ जाने से जो वेदना या दुःख उत्पन्न होता है उसे करुण रस कहते है। वैसे तो वियोग श्रृंगार रस मे भी दुःख का अनुभव होता है मगर वहां पर दूर जाने वाले से मिलन की आशा रहती है।
करुण रस के छिटपुट प्रसंग तो प. रघुनाथ के अनेक सांगो मे समाहित है किन्तु कृष्ण जन्म, द्रौपदी चीरहरण, भीष्म पर्व, चक्रव्यूह की लड़ाई, जयद्रथ वध, गीता उपदेश, धर्मपाल शांताकुमारी, पृथ्वीराज संयोगीता आदि मे तो मानो करुण रस की स्त्रोतस्विनी ही प्रभावित हो चुकी हो।

छोटी बहन सुता सम होती, मान वेद की मर्यादा,
तुल्य पिता के बड़ा भाई हो, है दुनिया का कायदा,
जो जिव जगत मे आया है, तो जाने का भी वायदा,
भय के वशीभूत हुआ तूं, भाई है तेरा गलत इरादा,
दोनों लोक बिगड़ज्या ऐसी, चित म्य धारै कोन्या,
निर्दोषी है बहन तेरी, भाई मनै मारै मतन्या,
अपनी इज्जत अपने हाथों, आज उतारै मतन्या।।
(सांग : कृष्ण जन्म)

वात्सल्य रस :
यह रस वात्सल्य यानी कि ममता व्यक्त करने के लिए प्रयोग किया जाता है। इसका स्थायी भाव वात्सल्य रति है।

सच्चा भेद खोलना मुश्किल, चुपका खड़ा बोलना मुश्किल,
सुण इच्छरादे प्यारी,
सुत का पूर्ण नाम बताया, तेज रूप सूरज का साया,
ग्रह कंवर पै भारी,
ज्योतिष पंडित वेदाचारी, बोले सच्ची वाणी,
भर गया नैनो मे पाणी, सिंह राजा महलो मे आया,
पास बुलाई राणी।।
(सांग : पूर्णमल नुनादे)

अद्भुत रस :
इस प्रकार का रस आश्चर्य उत्पन्न करने के लिए होता है अर्थात जहाँ विचित्र दृश्यों का चित्रण हो वहां अद्भुत रस की निर्झरनी बह निकलती है। इसका स्थायी भाव विस्मय है।

कुए जोहड़ भी भर गए जल मे, गयी माया पलट एक पल मे,
जहाँ उड़ती थी धूल, बह्गी पाणी की गूल,
दर्शन से सही दिमाग हो गया,
खिले गेंदे के फूल, मरवे का कच्चा साग हो गया,
ओ ओ राजा हरा तेरा बाग़ हो गया,
बाग हो गया, उदय तेरा बाग़ हो गया।।
(सांग : पूर्णमल सुन्द्रादे)

:: छंद योजना ::
अक्षर, अक्षरों की मात्रा एवं क्रम, मात्रा गणना तथा यति गति से संबधित विशिष्ट नियमो से नियोजित पद रचना ‘छंद’ कहलाती है। छंद योजना के अनुसार प. रघुनाथ के काव्य में छंदों का विवरण निम्न में इस प्रकार है।

दोहा :
दोहा वह पहला छन्द है, जिसमें तुक मिलाने का प्रयत्न हुआ। दोहे के चार चरण होते हैं। इसके विषम चरणों (प्रथम व तृतीय) में 13, 13 मात्राएँ और सम चरणों मे (द्वितीय तथा चतुर्थी) 11, 11 मात्राएँ होती हैं। ‘दोहा’ या ‘दूहा’ की उत्पत्ति कतिपय लेखकों ने संस्कृत के दोधक से मानी है। दोहा मात्रिक अर्द्धसम छंद है। प्राचीन अपभ्रंश में इस छन्द का प्रयोग कम मिलता है, तथापि सिद्ध कवि सरहपा ने इसका सबसे पहले प्रयोग किया। एक मतानुसार ‘विक्रमोर्वशीय’ में इसका सबसे प्राचीन रूप उपलब्ध है। फिर भी पाँचवीं या छठी शताब्दी के पश्चात् दोहा काफ़ी प्रयोग में आता रहा। यह तर्क प्रबल रूप से प्रस्तुत किया जाता है कि कदाचित यह लोकप्रचलित छन्द रहा होगा। प. रघुनाथ ने अपनी हर कृति के साथ एक से दो दोहों की रचना की है और कहीं कहीं तो एक रचना में तीन से चार दोहे रूपी छंदों का प्रयोग किया है जो सांग विधा के अंतर्गत शायद ही किसी विरले कवि ने किये है।

वासुदेव की बात सुन, करता असुर विचार।
मरने का दुख जाण के, कूका दे किलकार।।

कैरों ने हमला करा, मच गई हाहा कार।
इधर भी अर्जुन भीम ने, कर दई मारा मार।।

ओ३म् नम: श्री भगवती, हंस वाहणी मात।
वीणा पुस्तक धारणी, माई लज्जा है तेरे हाथ।।

काफिया :
काव्य में शब्द के सही तौल, वज़न और उच्चारण की भाँति काफ़िया और रदीफ़ का महत्व भी अत्यधिक है। काफ़िया के तुक (अन्त्यानुप्रास) और उसके बाद आने वाले शब्द या शब्दों को रदीफ़ कहते है। काफ़िया बदलता है किन्तु रदीफ़ नहीं बदलती है। उसका रूप जस का तस रहता है। इसमें तीन चरण होते है और तीनो का तुकांत होना अनिवार्य है। इसके प्रत्येक चरण मे तीस मात्राऐ होनी चाहिए लेकिन ये कोई अटल नियम भी नहीं है। तुकांत शब्दों को क़ाफ़िया कहा जाता है और तुकांत में दोहराए जाने वाले शब्दों को रदीफ़ कहा जाता है।

न्यूं तो मै भी जाणु हूँ, ईश्वर काज सारता देख्या,
चाहे क्षत्री का शरीर कटज्या, ना वचन हारता देख्या,
पिता पुत्र अपने को, कभी नहीं मारता देख्या।।
(सांग : राजा मोरध्वज)
इस मतले में ‘सारता’ ‘हारता’ और ‘मारता’ काफ़िया है और ‘देख्या’ ‘देख्या’ देख्या’ रदीफ़ है। शेर में काफिया का सही निर्वाह करने के लिए उससे सम्बद्ध कुछ एक मोटे-मोटे नियम हैं जिनको जानना या समझना कवि के लिए अत्यावश्यक हैं, दो मिसरों से मतला बनता है जैसे दो पंक्तिओं से दोहा, मतला के दोनों मिसरों में एक जैसा काफिया यानि तुक का इस्तेमाल किया जाता है, मतला के पहले मिसरा में यदि ‘सारता’ काफिया है तो मतले के दूसरे मिसरा में ‘हारता’ ‘मारता’ काफिया इस्तेमाल होता है।
काफ़िया तो शुरू से ही हिंदी काव्य का अंग रहा है। रदी़फ भारतेंदु युग के आसपास प्रयोग में आने लगी थी। हिंदी के किस कवि ने इसका प्रयोग सबसे पहले किया था, इसके बारे में कहना कठिन है। वस्तुतः वह फ़ारसी से उर्दू और उर्दू से हिंदी में आया। इसकी खूबसूरती से भारतेंदु हरिश्चंद्र, दीनदयाल जी, नाथूराम शर्मा शंकर, अयोध्या सिंह उपाध्याय, मैथलीशरण गुप्त, सूयर्कान्त त्रिपाठी ‘निराला’, हरिवंशराय बच्चन आदि कवि इसकी ओर आकर्षित हुए बिना नहीं रह सके। फलस्वरूप उन्होंने इसका प्रयोग करके हिंदी काव्य सौंदर्य में वृद्धि की। उर्दू शायरी के मिज़ाज़ को अच्छी तरह समझने वाले हिंदी कवियों में राम नरेश त्रिपाठी का नाम उल्लेखनीय है। सांग साहित्य मे इसे हरियाणा के कवि प. दीपचंद की देंन कहा जाता है। प. रघुनाथ ने भी अपने कृतत्व में बहुत सी रचनाओं में अक्सर इस छंद का प्रयोग किया है।

सवैया :
इसमें 22 से 26 अक्षर के चरण वाले जाति छन्दों को सामूहिक रूप से हिन्दी में सवैया कहने की परम्परा है। सवैया एक छन्द है और यह चार चरणों का समपाद वर्णछंद है। इस प्रकार सामान्य जातवृत्तों से बड़े और वर्णिक दण्डकों से छोटे छन्द को सवैया समझा जा सकता है। प. रघुनाथ ने अपने काव्य में अनेको बार इस छंद को दोहराया है।

पाप हत्या का चढ़ा, अब भार सिर से तारना,
मन में मृग तृष्णा उठी, माया का पाया पार ना,
श्रवण बणूं सेवा करूं, धीरज धरण की धारना,
ये जीव जग जंजाल है, हिम्मत कभी मत हारना।।
(सांग : श्रवण कुमार)
चमोला/चबोला :
चमोला एक “कुण्डलिया व छप्पय” छंद की तरह छः चरणों वाला मात्रिक छंद है जिसमे 28 मात्राये मिलती है। फ़र्क़ मात्र यही है कि ‘कुण्डलिया व चमोला‘ छन्द की शुरूआत ‘दोहे‘ से होती है और तत्पश्चात चार अन्य (रोला) पंक्तियां होतीं हैं और छप्पय छंद के अंदर पहले चरण में अन्य पंक्तियों (रोला) के चार चरण और फिर दो चरण दोहे (उल्लाला) के होते हैं तो वहां छप्पय छंद होता है किन्तु चमोले मे ही चारो तुकांत होते है लेकिन कुण्डलिया व छप्पय मे ऐसा विधान नहीं है। ‘चमोला, कुण्डलिया व छप्पय छन्द‘ हिंदी छन्द परिवार के बहुत पुराने छन्द है और चमोला छंद सांग विधा के सर्वप्रथम प्रयोग मे आये छंदों मे से है। वैसे तो सभी सांगी भजनी व गायक गुरु आराधना व श्रीगणेश के तौर पर इसी छंद को प्रयोग मे लाते है। अतः ‘कुण्डलिया‘ की तरह चमोला भी 6 पंक्तियों का छंद है। प. रघुनाथ ने बारम्बार इस छंद को काव्य में समाहित किया है।

दोहा
समय-समय की बात है, समय समय का फेर।
समय बदलने में लगै नहीं, एक मिनट की देर।।

चमोला
जी जंगलों में जा फंसा, मोह ममता की बाड़ में,
मन फंसा कांटे लगे, झंझटों के झाड़ में,
मौसी ने चाला कर दिया, मारी कुल्हाड़ी नाड़ में,
ये बात मन में सोचली, मिलकै चलूं सुसराड़ में।।
(सांग:धर्मपाल शांताकुमारी)

दोहा
दया आपकी है सखा ना रहा मन में खेद।
ईश्वर माया जीव का कहो खोल कर भेद।।

चमोला
मन के नेत्र खोल कै अब रूप सृष्टि देख ले,
है ग्यान मार्ग ये ही सत्य की निंघा कर टेक ले,
ये घाव दु:ख अज्ञान के भय त्याग छाती सेक ले,
संसार सब मेरे में है और मोक्ष में हम एकले।।
(सांग:गीता उपदेश)

शेर :
उर्दू कविता में प्रयुक्त एक छंद, ये शेर पंक्तियों/जुमलों/मिसरे मिल के बनता है, यह दो जुमलों (पंक्तियों) से बना कविता का एक अंश होता है जो एक साथ मिलकर के भाव या अर्थ देती हैं। प. रघुनाथ ने अपने साहित्य में असंख्य बार जहाँ अवसर प्राप्त हुआ वहां इस छंद को पेश किया है।

नखरा नाज़ रूहे जिस्म, जब इन्सान ले आया,
कुव्वत होंसला जुर्रत का, जुज़ शैतान ले आया,
फरिश्ता फेर हशर में, मौत का सामान ले आया,
साहबे हक आलम का, सही फरमान ले आया,
वो जलवा जलज़ले का, एकदम तोफान ले आया,
कज़ा को देखकर कातिल का, दिल ईमान ले आया।।
(काव्य विविधा)

गजल :
आम तौर पर ग़ज़लों में शेरों की विषम संख्या होती है, जैसे तीन पञ्च सात आदि। एक ग़ज़ल में 5 से लेकर 25 तक शेर हो सकते हैं। तुकांतता व भाव के के आधार पर ग़ज़लें दो प्रकार की होती हैं।
उर्दू ग़ज़ल के नियमानुसार ग़ज़ल में मतला और मक़ता का होना अनिवार्य है वरना ग़ज़ल अधूरी मानी जाती है। लेकिन आजकल ग़ज़लकार मकता के परम्परागत नियम को नहीं मानते है और इसके बिना ही ग़ज़ल कहते हैं। कुछेक कवि मतला के बगैर भी ग़ज़ल लिखते हैं लेकिन बात नहीं बनती है क्योंकि गज़ल में मकता हो या न होए मतला का होना लाज़मी है जैसे गीत में मुखड़ा। गायक को भी तो सुर बाँधने के लिए गीत के मुखड़े की भाँति मतला की आवश्यकता पड़ती ही है। यहां यह बतलाना उचित है कि ग़ज़ल के प्रारंभिक शेर को मतला और अंतिम शेर को मकता कहते हैं। मतला के दोनों मिसरों में तुक एक जैसी आती है और मकता में कवि का नाम या उपनाम रहता है। मतला का अर्थ है उदय और मकता का अर्थ है अस्त। इसके अलावा ग़ज़ल में रदी़फ के रूप को बदलना बिल्कुल वैसा ही है जैसे कोई फूलदान में असली गुलाब की कली के साथ कागज़ की कली रख दे। प. रघुनाथ ने सांग विधा के अंतर्गत अपने कृतत्व में 200 से अधिक गजल लिखकर एक रिकॉर्ड के रूप में इन्हें दर्ज करने की कौशिश की है जो सांग विधा में एक अपने आप में एक रिकॉर्ड माना जा सकता है।

दर्द मेरे दिल में था, और पास में तबीब था,
हो सका इलाज ना, ये मेरा नसीब था।। टेक ।।

खुशी के पतील सोत, आंधियों में चस रहे,
मन के माफिक थे मणे, जो वीरानों में बस रहे,
हंसने वाले हंस रहे, नजारा अजीब था।।1।।

मुश्किल से पाया उन्हें, जो बेदर्द होके खो रहे,
अश्क आंखों में नहीं, दिल ही दिल रो रहे,
आज दुश्मन हो रहे, जो बचपन में हबीब था।।2।।

हो सका मालूम ना, किसका कितना प्यार था,
पूछना समझा गुनाह, जो कमसिन का यार था,
मैं उस यार का बीमार था, और नुक्षा भी करीब था।।3।।

दिल में मेरे टीस थी, और वो बेटीस थे,
मिल सके रघुनाथ ना, जिनके वादे बीस थे,।
वे हुस्न के रहीस थे, मैं चाहत का गरीब था।।4।।
(काव्य विविधा)

तर्ज: फ़िल्मी (जरा मुख से पर्दा उठा साकिया)

फुरकत में जो खामोश हुवे, पलकों से इशारा करते हैं,
इश्क में जिसने पुर दिया, गम खाकर गुजारा करते हैं ।।टेक।।

ऐश अशरत चाहने वाले हैं, नाज जिन्हें ऐमालों पर,
तदबीर इरादा फेल करे, तकदीर से हारा करते हैं ।।1।।

अफसोस उन्हें नहीं होता है, ये सौदा है दिलबाजी का,
वे सोच कर्म करने वाले, जहमत भी गंवारा करते हैं ।।2।।

जो चाहा था वो हो न सका, मैंने मांगी दुआ पर कुछ न हुवा।
जो पैर नहीं फैला सकते, वे हाथ पसारा करते हैं ।।3।।

दो हरफ लिखे दीवाने ने, एक दिल सै दिल का अफसाना,
रघुनाथ उन्हीं को आलम में अलमस्त पुकारा करते हैं ।।4।।
(काव्य विविधा)

वार्ता / राधेश्याम एवं झुलना छंद :
यह एक ‘मत्त सवैया’ छंद है तथा ये चार चरण से युक्त ‘मत्त सवैया’ छंद होता है। पंडित राधेश्याम ने इस लोकछंद पर आधारित राधेश्याम रामायण रची थी तब से इसे ‘राधेश्यामी छंद’ भी कहा जाने लगा है! इसकी प्रत्येक पंक्ति में 32 मात्राएँ होती हैं जहाँ पर 16, 16 मात्राओं पर यति व अंत गुरु से होता है।

लेख भागवत सुखसागर का वेदव्यास कवि लिखते हैं।
जिसके पढऩे या सुनने से भगत लोग ना छिकते हैं।।
कंस का चाचा देवक था देवकी उसकी पुत्री थी।
चौदह वर्ष की आयु हुई रंग रूप देह की सुथरी थी।।

दरबार कंस का लगा हुआ और देवकी का वहां जिक्र हुआ।
कुंवारी सुता सिवासण घर पै न्यूं देवक को फिक्र हुआ।।
उस देवक की बड़ी सुता कान्धार देश में ब्याही थी।
शूरसेन का वासुदेव, बल बुद्धि में चतुराई थी।।

कंस ने सोचा वासुदेव पहले बण चुका बहनोई जी।
उसको ही देवकी देंगे हम ढूंढे ना दूसरा कोई जी।।
सबकी एक सलाह होगी भिजवाया ब्याह देवकी का।
खुशी के मंगलाचार हुये न्यूं बड़ा उत्साह देवकी का।।

बड़ी खुशी से बासुदेव दूल्हा बनकर आ जाता है।
कंस खुशी के साथ आप भैना का ब्याह रचाता है।।
नैम सतातम धर्म का जो वेदों के मन्त्र बखाणे गये।
दान दहेज बहुत धन देके डोला कंस पहुचाणे गये।।

संग में घोड़ा वासुदेव का बणा सजीला ब्याहला था।
रथ में दुल्हन देवकी थी और कंस बली गड़वाला था।।
शहर से बाहर चल करके रथ जब खेतों में आता है।
शब्द जोर से हुआ जाणे कोई नभ में खड़ा चिल्लाता है।।

ओ कंस देवकी बहन तेरी तू समझ मौत तेरी होगी।
आठवां बेटा जब होगा बलहार फौत तेरी होगी।।
सोलह कला औतार धार भूमी ना उतारेंगे।
तेरा भाणजा तुझे मारे जब दुष्ट लड़ाई हारेंगे।।

सुण के कांपा कंस बली दिल धडक़ा भयभूत बणा।
तलवार म्यान से काड लई अत्याचारी और ऊत बणा।।
केश पकड़ लिये बहना के तलवार मारने को ठाई।
देवकी डर के रोण लगी भाई भाई कह चिल्लाई।।
(कृष्ण जन्म)

सांगीत / दौड़ / सरडा :
गुलाबसिंह के सिर सेहरा, बड़े जोर का काम किया,
कंचन कवच और कड़ा कटारा, घोड़ा एक इनाम दिया,
बंटी मिठाई घर-घर में, और ज्ञान ध्यान की बात हुई,
सो सो के टैम सभी सोगे, और घोर अन्धेरी रात हुई,
परवा पवन चले बादल में, ठिमक ठिमक बरसात हुई,
राजबाला के मन में कुछ, काम रूप की चाहत हुई,
देखके श्यान पति की एकदम, आंखों में आंसू बहन लगी,
पेट की पन्हा जवान सती, न्यूं हाथ जोड़के कहन लगी।।

नोट:- व्याकरण आचार्य श्री सत्यवान शर्मा साल्हावासिया के अनुसार उपरोक्त इन दोनों छंद कलाओ (राधेश्याम/दौड़) के माहिर शम्भुदास, प. रतिराम, प. महोरसिंह, प. गुणी सुखीराम, प. नंदलाल आदि थे, लेकिन जहाँ तक सर्वप्रथम इस छंद के गायन का प्रमाण मिलता है वो शम्भुदास जी का ही मिला और इस छंद की गायनता से सबसे ज्यादा प्रभावित प. नंदलाल जी- पाथरआळी ने किया था। जिस प्रकार घड़वे बैंजु के साज की शुरुआत तो हमारे बुजुर्गो ने खेतो में गाते बजाते की लेकिन सबसे ज्यादा प्रभावित प. जगन्नाथ ने किया था। ठीक उसी प्रकार नंदलाल जी ने इस दौड़ या राधेश्याम कला को मुख्यतः प्रभावित किया। शम्भुदास जी की जकड़ी या दौड़ रूपी कुछ पंक्तिया निम्नलिखित है –

पंडित बेग बुलाय, लग्न लिखो शुभ घड़ियाँ ।।टेक।।

दोषरहित शोधो शुद्ध साहा,
दौ दिश सब बिध रहे उछाहा,
जोशी कहत सुनो महारानी,
साहा शुद्ध सदा सुख दानी,
इतनी चूक शूक जी आड़े,
यूँ कह गये ज्योतिषी ठाड़े,
बोले सुनत कंवर अभिमानी,
रुक्मराज मंत्री से बानी,
सुर सत भाट पठाय जत्न करो तड़भड़ियां।।
– (शम्भुदास जी)

साहित्य और संगीत दोनों को साथ साथ प्रचलित शंभुदास ने किया। पं रतिराम और शंभुदास दोनों गुरुभाई थे। पं रतिराम ने भी जंगम और जकडी को शंभुदास के साथ खूब गाया। ये संगीत की शैली हैं जिन्हें द्रुत लय में गाया जाता है। बाद में अल्प शिक्षित लोक गायकों ने इसे दौड नाम दे दिया जो एक ग्राम्य शब्द था जिसे देसी लोग बोलते थे। कालान्तर में यह शब्द प्रचलित हो गया। इसी दौड को त्रिभंगी छंद के रूप में सर्वप्रथम बांधकर गाना शुरु किया फिर दादा महोर सिंह ने।

बहर ऐ तवील :
बहर ही एक ऐसा माध्यम है जिससे एक गजलकार बेहतरीन गजल का निर्माण करता है। बहर गजल का आधार होती है। बहर एक उर्दू शब्द होता है जिसका प्रयोग गजल लेखन में विशेष तौर पर किया जाता है। उर्दू में गजल लिखने के लिए गजल की 32 मुख्य बहर बताई गई है जिसमें अलग अलग मात्रा का भार होता है जिसके आधार पर गजलकार गजल लिखते है। गजल में बहर का एक अहम योगदान होता है जिसके बिना गजल लिखना संभव नहीं होता।

छंद में लिखी जाने वाली हर लेखन की विधाओं के अलग अलग नियम होते है। बहर एक ऐसा माध्यम है जिसमें निश्चित मात्राओं से कड़ियां बनी रहती है ताकि एक ही लय और भार में उसके समान पंक्तियां लिखी जा सके। ऐसा इसलिए भी किया जाता है ताकि धुन भंग ना हो और शब्द मात्राओं के अनुसार तय हो जाए। वैसे तो बहर ऐ तवील का प्रयोग पुराने सांगो मे नहीं मिलता है और सांग मंच पर इस उर्दू/फ़ारसी छंद का प्रयोग सर्वप्रथम प. लख्मीचंद ने ही किया है और प. रघुनाथ अपने शुरूआती दौर में ज्यादातर रचनाये प. लख्मीचंद की तर्जो पर ही बनाया करते थे क्यूंकि जो छंद प. लख्मीचंद ने बनाया, वह प. रघुनाथ ने अवश्य ही बनाया तथा उनसे अलग उन्होंने अपनी देशी फ़िल्मी तर्जो पर भी बहुत रचनाये की। प. रघुनाथ की एक ऐसी ही बहर ऐ तवील पेशकश निम्न मे इस प्रकार है।

नाव जल में पड़ी, माया सन्मुख खड़ी, चार आंखे लड़ी, राजा चकरा गया,
बात कैसे कहूं, केसे चुपका रहूं, तेज तन का सहूं, आग लगते ही नया ।।टेक।।

भोली-भाली शकल, दीखे सोना भी नकल, कुछ ना रही अकल, जी जाल फया,
जो ये राणी बणे, तो सुहाणी बणे, खुशी प्राणी बणे, रंग होजा नया।।1।।

छाती धडक़न लगी, जान तडफ़न लगी, भुजा फडक़न लगी, दूर दिल की हया,
नाग जहरी लड़ा, शरीर पेला पड़ा, राजा चुपका खड़ा, मुख से ना हुआ बया।।2।।

बात खोले बिना, साफ बोले बिना, ठीक तोले बिना, तो लिया ना दिया,
काया किला, जो कर्म से मिला,,वो एक दम हिला, और एक दम ढया।।3।।

घना लिखता नहीं, जीव थकता नहीं, कवि बकता नहीं, इश्क भारी भया,
हाथों हाथ सुमर, दिन रात सुमर, रघुनाथ सुमर, नाम गुरु का लिया।।4।।
(सांग: चित्र विचित्र)

सब्र है सब्र, किसे कल की खबर, मन में जबर, ममता आने लगी,
फिजा खोती रही, बात होती रही, माता रोती रही, और बताने लगी ।।टेक।।

काम कच्चे हुए, शब्द सच्चे हुए, आप अच्छे हुए, न्यू सुनाने लगी,
हद होणी बणी, तेग सर पै तणी, बात मन में घणी, चक्कर खाने लगी।।1।।

रुधन मचाती, राणी धुन धुन के छाती, चील चिडिय़ा की भांति, चिल्लाने लगी,
थोता पीपल वक्ल, गऊ गोबर का जल, जिन्दी शक्ल, चिनि जाने लगी।।2।।

मनसा पापी हमीं, है मन की कमी, दूर करदो गमी, काया चाहने लगी,
शून्य समाधि घुटी, आग घी में छुटी, ऊंची लपटें उठी, हवा ठाने लगी।।3।।

मुंह से मन्त्र जपें, योगी बैठ तपें, सामग्री अपे, आप होने लगी,
रघुनाथ रचा, छन्द जी में जंचा, नाच माया नचा, गाने गाने लगी।।4।।
(सांग: चित्र विचित्र)

:: सवांद योजना ::
सांगीत स्वरूप संवाद मे दो या दो से अधिक पात्रों के बीच बोले गए वार्तालाप का विनिमय है और एक साहित्यिक व नाटकीय रूप है जो इस तरह के लेनदेन को दर्शाता है। सांग विधा मे संवाद कपोलकल्पना या वास्तविकता में, दो या दो से अधिक किरदारों के बीच एक मौखिक विनिमय है अर्थात साधारण भाषा में जिसे बात करना कहा जाता है। वैसे तो अगर देखा जाए तो प. रघुनाथ ने लगभग अपने सांगो मे सभी संवाद शैलियों को समेटने की कौशिश की है।

अभि० रण में लडऩे की आज्ञा, जल्दी उत्तरा मेरी नार करो,
उत्तरा काबू में मेरी मेरै दसों इन्द्री, चिंता मत भरतार करो ।।टेक।।

अभि० ग्यारहवां मन और बारहवीं बुद्धि, तत्वज्ञान से शुद्ध करो,
उत्तरा थारी शान मेरी सुरती में, पिया यश पाणे को युद्ध करो,
अभि० धर्म के विरुद्ध काम दुनिया में, कोई करै मत खुद करो,
उत्तरा सुरती के स्वामी मन में, मंगल करदो या बुध करो,
अभि० मंगल रहे सदा सुरती में, सत्य सुभद की कार करो,
उत्तरा वचन आपका मान लिया, साजन पूरा इतवार करो।।

दुर्योधन सब हथियार फेंक अभिमन्यु, मेरी गोद में आजा,
अभि० सन्धि को तैयार ताऊ, तजकै सभी तनाजा ।।टेक।।

दुर्योधन तर्क तनाजा कोई नहीं, अब हृदय साफ मेरा है,
अभि० न्यूं सोचो तो पांडों से, तू ज्यादा बाप मेरा है,
दुर्योधन धर्म के आगे हां भरलूंगा, सारा पाप मेरा है,
अभि० पाप किसी का ना रहने का, ऐसा जाप मेरा है,
दुर्योधन कर्म खिलाफ मेरा है, मैं ही डूबा होके राजा,
अभि० खुई पौड़ मतना जाणे, जो सुबह की शाम को आजा।।
(सांग : द्रौण पर्व)

ऐसे संवादों को देखकर कहा जा सकता है कि प. रघुनाथ जी मे संवाद योजना की अद्भुत क्षमता थी। वे लोकजीवन की नब्ज पकडकर उसका सही उपचार करना जानते थे। उनके ऐसे मार्मिक संवादों एवं अद्भुत काव्य से निश्चय ही आनंद की अनुभूति होती है।

Language: Hindi
Tag: लेख
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2527.पूर्णिका
Dr.Khedu Bharti
बुद्ध रूप ने मोह लिया संसार।
बुद्ध रूप ने मोह लिया संसार।
Buddha Prakash
वर्णिक छंद में तेवरी
वर्णिक छंद में तेवरी
कवि रमेशराज
#लघुकथा
#लघुकथा
*Author प्रणय प्रभात*
"बहुत है"
Dr. Kishan tandon kranti
जन्मदिन की शुभकामना
जन्मदिन की शुभकामना
Satish Srijan
आभार
आभार
Sanjay ' शून्य'
दस्तरखान बिछा दो यादों का जानां
दस्तरखान बिछा दो यादों का जानां
Shweta Soni
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सोलंकी प्रशांत (An Explorer Of Life)
*मन के मीत किधर है*
*मन के मीत किधर है*
सुखविंद्र सिंह मनसीरत
Phoolo ki wo shatir  kaliya
Phoolo ki wo shatir kaliya
Sakshi Tripathi
बिहार दिवस  (22 मार्च 2023, 111 वां स्थापना दिवस)
बिहार दिवस  (22 मार्च 2023, 111 वां स्थापना दिवस)
रुपेश कुमार
होली (होली गीत)
होली (होली गीत)
ईश्वर दयाल गोस्वामी
कोई गीता समझता है कोई कुरान पढ़ता है ।
कोई गीता समझता है कोई कुरान पढ़ता है ।
Dr. Man Mohan Krishna
*भाषा संयत ही रहे, चाहे जो हों भाव (कुंडलिया)*
*भाषा संयत ही रहे, चाहे जो हों भाव (कुंडलिया)*
Ravi Prakash
घंटा हिलाने वाली कौमें
घंटा हिलाने वाली कौमें
Shekhar Chandra Mitra
This generation was full of gorgeous smiles and sorrowful ey
This generation was full of gorgeous smiles and sorrowful ey
पूर्वार्थ
Dr . Arun Kumar Shastri - ek abodh balak
Dr . Arun Kumar Shastri - ek abodh balak
DR ARUN KUMAR SHASTRI
मेरे सपने बेहिसाब है।
मेरे सपने बेहिसाब है।
CA Amit Kumar
तुलना से इंकार करना
तुलना से इंकार करना
Dr fauzia Naseem shad
सावन बरसता है उधर....
सावन बरसता है उधर....
डॉ.सीमा अग्रवाल
लइका ल लगव नही जवान तै खाले मलाई
लइका ल लगव नही जवान तै खाले मलाई
Ranjeet kumar patre
।। सुविचार ।।
।। सुविचार ।।
विनोद कृष्ण सक्सेना, पटवारी
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