साँझ ढले से द्वार खड़ी मैं…
साँझ ढले से द्वार खड़ी मैं….
सारे जग के नयन मुँद गए
मैं पलक उघाड़े निहारूँ चाँद …
तुझसे मेरी रातें उजली
हर खुशी तुझपर वारूँ चाँद…
धवल चंद्रिका निःसृत तुझसे
कलुष मन का सब धो जाती
दे हास मृदुल अधरों को मेरे
मधुर-मोहक फिर मुस्काती
साँझ ढले से द्वार खड़ी मैं
तेरी ही बाट निहारूँ चाँद…
स्पर्श कर शीत कर से अपने
तन-मन की तू तपन मिटाए
सम्मोहित कर कला से अपनी
प्रेम की मन में अगन लगाए
ख्वाबों की बस्ती में भी मैं
तेरा ही नाम उचारूँ चाँद…
रात अमावस की जब आए
नजर मुझे तू कहीं न आए
बिन तेरे लगता जग सूना
गति जीवन की रुक सी जाए
तू ही बता ना रात में तन्हा
धीर मैं किस विध धारूँ चाँद
गहन तम में सजग प्रहरी-सा
अथक कर्म पथ पर चलता
बाँटता सबको शीत चाँदनी
भीतर-भीतर पर तू जलता
गढ़े न कोई कंटक पग में
डगर मैं तेरी बुहारूँ चाँद
दूषित रजकणों से जग के
हाय विवर्ण हुआ मुख तेरा
अलसाए तंद्रिल धरा-गगन
समझ सकें न दुख ये तेरा
लगा अंगराग दधि-केसर का
आ तेरा रूप संवारूँ चाँद
सबकी नजर से चार तू होता
गढ़तीं सबकी नज़रें तुझ पर
जगती की बालाएँ छुप-छुप
भरतीं कितनी आहें तुझ पर
पलभर तुझे आगोश में लेके
आ तेरी नज़र उतारूँ चाँद
साँझ ढले से द्वार खड़ी मैं
तेरी ही बाट निहारूँ चाँद…
– डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)
“चाहत चकोर की” से