हम और हमारा साहित्य
साहित्य मन का दर्पण होता है, सृजनशीलता हर मानवमात्र में होती है, लेखन का आपके मस्तिष्क एवं मनोभावों से गहरा नाता है, जरुरत है तो बस मस्तिष्क एवं मनोभावों का आपसी तारतम्य स्थापित होना।
जैसे ही मस्तिष्क का भावनाओं से साक्षात्कार होता है लेखनी चल पड़ती है। और यहीं वह अवस्था हैं जहाँ संपूर्णता लिए एक साहित्यकार का प्रादुर्भाव होता है, वह जन्म लेता है और इस महासागर में विलीन हो जाने को अन्त तक समर्पित रहता है।
साहित्य शब्द को परिभाषित करना कठिन है। जैसे पानी की आकृति नहीं, जिस साँचे में डालो वह ढ़ल जाता है, उसी तरह का तरल है यह शब्द। कविता, कहानी, नाटक, निबंध, रिपोर्ताज, जीवनी, रेखाचित्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे हैं। परिभाषा इस लिये भी कठिन हो जाती है कि धर्म, राजनीति, समाज, समसमयिक आलेखों, भूगोल, विज्ञान जैसे विषयों पर जो लेखन है, सब साहित्य के दायरे में ही आता है।
साहित्यकार के लिए हृदय के संग मस्तिष्क का जुड़ाव बहुत ही जरूरी है, कारण जबतक हम मस्तिष्क को क्रियाशील नहीं रखते तबतक मन के उद्गारों को गद्य या पद्य दोनों ही विधाओं में कागद् पर प्रकट कदापि नहीं कर सकते। साहित्य का हमेशा से ही मनोभावों से गहरा संबंध रहा है।
यहाँ बात हम और हमारे साहित्य की हो रही है, इसके परिपेक्ष्य में मैं बस यहीं कहना चाहूँगा दो या चार शब्दों को तुकान्त प्रदान कर कागज पर सजा देने को हम साहित्य कदापि नहीं मानते और इस नाते मैं आज भी खुद को साहित्यकार नहीं मानता किन्तु साहित्य के प्रति जो हमारी आस्था है उसे मैं हृदय से स्वीकार करता हूँ। लिखित भाषा अधिक से अधिक संवेदनशीलता और कठोरता की मांग करती है। उनके अभिव्यक्ति के रूप भी विविध हैं, लेकिन अच्छी शब्दावली प्रबंधन, व्याकरण की संपत्ति और वर्तनी सुधार की आवश्यकता होती है।
आप सभी ने कृष्ण और मीरा के अद्भुत प्रेम को तो पढ़ा ही होगा बस साहित्य के प्रति मेरी अभिरुचि भी कुछ-कुछ वैसा ही है। अगर इसके लिए मुझे गरल का पान भी करनी पड़े तो मैं बिना सोचें, एक पल भी बर्बाद किये, इस सुकार्य के लिए सहर्ष तैयार रहूँगा। बस यहीं कुछ शब्द मैं और मेरे साहित्य के लिए मैं कह सकता हूँ।
संजीव शुक्ल ‘सचिन’