सवेरा
सवेरा
मेरे शहर के बाहर, झुग्गियों के पास,
वहीं खेल रहे थे कुछ, युवक तास ,
उनसे छोटे भी वहीं, कंचे खेल रहे थे,
एक-दूसरे की गंदीगाली झेल रहे थे,
कुछ मोबाइल पे,पोर्न मूवी देख रहे थे,
सभी दुर्व्यसनों की आग शेख रहे थे,
सब व्यस्क दारू के नशे में झूम रहे थे,
वोटार्थ सफेदपोश बस्ती में घूम रहे थे,
सबको सौ-सौ के नोट बांटे जा रहे थे,
सफेदपोश गरीबों को खूब भा रहे थे,
गूंज रहे थे खूब नारे, गरीबी हटाने के,
गरीबों की भीङसे यत्न टिकट पाने के,
दिन के उजाले में ही, घोर अन्धेरा था,
पर सिल्ला’ बेचैन देखने को सवेरा था,
-विनोद सिल्ला