समीक्षा, चश्मे का नम्बर बदल गया है, कविता, संदीप सरस
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【गीत-चश्में का नम्बर बदल गया】
सुनो! आज अखबार मुझे दिखता है धुंधला,
सम्भवतः चश्मे का नंबर बदल गया है।
संबंधों में आना जाना कम हो यदि तो,
रिश्तों में गर्माहट कम होने लगती है।
बच्चे जब अपने पैरों पर चल देते हैं,
लहज़े में नर्माहट कम होने लगती है।
बहू हिकारत से देखे तो कष्ट नहीं पर,
बेटा भी भीतर ही भीतर बदल गया है।1।
अलमारी में पीतल के जो शिव बैठे हैं,
मैंने कल ही उनसे अपनी व्यथा कही थी।
वे तो अंतर्यामी हैं, जाने क्यों चुप हैं,
उन्हें पता है मैंने जो जो पीर सही थी।
गांव हमारे, पत्थर के भोले सुनते थे,
लगता है शहरों का शंकर बदल गया है।2।
जीवन की आपाधापी से ठहर गया हूं,
संघर्षों से अभी लड़ाई हो जाती है।
अपनों ने अपनापन टांगा है खूँटी से,
खुद से खुद की हाथापाई हो जाती है।
जीवन भर मैं जिन पर जान लुटाता आया,
आज उन्हीं अपनों का तेवर बदल गया है।3।
ईंट ईंट जो खून पसीने से सींची थी,
अपना घर संसार पराया सा लगता है।
प्राणों से प्यारे लगते थे जो भी रिश्ते,
उनका ही व्यवहार पराया सा लगता है।
वक्त बदलते ही निज़ाम है बदला बदला,
लगता है अब घर का लीडर बदल गया है।4।
जिन बच्चों की नज़र उतारा करते थे हम,
उनकी ही नजरों से अब हम उतर गए हैं।
अपना घर आँगन चौबारा अपना ही था,
गाँव छोड़कर जाने क्यों हम शहर गए हैं।
यहाँ मकानों में छत आँगन ही गायब हैं,
नपे तुले फ्लैटों में अब घर बदल गया है।5।
⬛【 संदीप मिश्र ‘सरस’
गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने अपनी प्रसिद्ध कविता में कहा है एकला चलो रे, प्रस्तुत कविता में कवि, जीवन के एकाकी पन एवं वृद्धावस्था की मजबूरियों की ओर इंगित करता है। समय के साथ बात, व्यवहार ,रिवाज , रिश्ते,और समाज बदल जाते है। समाजिक परिवेश भी बदल जाता है। ऐसे समय में जीवन में एकाकीपन चारों ओर से घेर लेता है ।यह एकाकीपन अपनी जीवनसंगिनी से बिछड़ने के बाद भी हो सकता है ,और जीवनसंगिनी के साथ का अनुभव भी हो सकता है। संदीप जी ने बड़ी ईमानदारी से जीवन के इस एकाकीपन को अपनी रचना धर्मिता से उभारा है, उकेरा है इसके लिए कवि बधाई का पात्र है ।संदीप जी अपनी लेखनी सरिता द्वारा नपे तुले शब्दों में बड़ी बात कहते हैं। जैसे किसी कवि ने कहा है सतसैया के दोहरे ज्यों नाविक के तीर, देखन में छोटे लगे घाव करे गंभीर ।संदीप जी ने अपनी रचना में कहा है, जिन बच्चों की नजर उतारा करते थे हम।
उनकी ही नजरों से अब हम उतर गए हैं।
अपना घर आंगन चौबारा अपना ही था ।
गांव छोड़ जाने क्यों हम शहर गए हैं ।इन्हीं शब्दों के साथ संदीप जी को अपनी बात कविता के माध्यम से कहने के लिए बहुत-बहुत बधाई धन्यवाद।
डा.प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, “प्रेम”