Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
11 Apr 2023 · 8 min read

समीक्षा:- लहू के फूल

समीक्षा
=====

कविता संग्रह:- लहू के फूल
कवि और लेखक :- जयप्रकाश वाल्मीकि

कविता की लोकप्रियता उसकी दिल को छू लेने वाली प्रभावोत्पादकता पर आधारित होती है।
कम शब्दों में गहरी बात कह देने की जादूगरी ही पाठक को हर्षित और आकर्षित करती है।
यदि बात करें हिंदी कविता की तो हिंदी ने कई उतार चढ़ाव के सफ़र देखे है जिसे कवियों ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचो पर देखा है,
कभी कभी तो कविताएं भी रोती है हालातों को देख कर, कवि कितना भी गंभीर क्यूँ न हो, मजबूर हो कर कविता की गहराई को कलम से उतारते वक्त विचलित सा हो ही जाता है।

इतिहास साक्षी है कि हिंदी कविता ने अपने चाहने वालो के दिलो पर बहुत गहरे प्रभाव छोड़े है।

महत्वपूर्ण हस्ताक्षर सरल स्वभाव के धनी कवि और लेखक परम सम्माननीय जयप्रकाश वाल्मीकि जी ने अपनी कविताओं के माध्यम से एक नई क्रांति की शुरुआत साहित्य जगत को दी, कविता रचना के नये क्षितिज का उद्घाटन ही नहीं किया बल्कि हिंदी कविता की स्वतंत्र विधा की स्वीकृति का आधार भी तैयार किया।‘

कवि जयप्रकाश जी ने बिल्कुल अपने अंदाज में अपनी कविताओं को आमोख़ास तक पहुंचाया है।

हिंदी कविता की बात आज इस लिये भी आवश्यक है क्योंकि जयप्रकाश जी की लहू के फूल कविता संग्रह पूर्णतः शोषित समाज की दयनीय स्थिति को समर्पित है।

कवि जयप्रकाश जी एक समर्पित कवि, लेखक और कहानीकार होने के साथ -साथ एक बेहतरीन समाजिक चिंतक भी है।
जिनका रोद्र रुप उनकी कविताओं में देखने को मिलता है।

जयप्रकाश साहित्य जगत के बेहतरीन हस्ताक्षर है इनके पूर्व प्रकाशित हुए संग्रह महर्षि वाल्मीकि प्रकाश (1992), त्रासदी (1997) ,कब सुधरेगी वाल्मीकियों की हालत (2008), कहाँ है ईश्वर के हस्ताक्षर (2011), कसक (कहानी संग्रह) 2022, जयप्रकाश वाल्मीकि की प्रतिनिधि कविताऐं (2021), के रूप में सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके है

कवि जयप्रकाश जी अपने कविता संग्रह लहू के फूल में एक सौ सताइस रचनाओ का समावेश किया है।

हलांकि इस संग्रह में सभी रचनाऐं बेहतरीन और मार्मिक है सभी अपनी-अपनी जगह पाठको पर प्रभाव छोड़ने वाली है।

लेकिन इस समीक्षा में मैं उन चुनिंदा रचनाओं पर प्रकाश डालना चाहुँगा जो पाठक के दिलो दिमाग पर लंबे समय तक प्रभाव छोड़ने वाली है
कविताओं का प्रभाव सामाजिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है उन पर बात नही करुंगा तो उन कविताओं और कवि की भावनाओं के साथ अन्याय होगा।

तो चलते है जयप्रकाश जी के इस बेहतरीन कविता संग्रह की तीसरी रचना “घोड़ा बनने से इंकार” से से शुरुआत करते है जिसमे उन्होने मनुवादियों के षडयंत्र को उजागर करने की कोशिश की है

जयप्रकाश जी कहते है

जैसे घोड़े की आंखों पर दोनो ओर पट्टियां बाधकर सीधी राह पर सरपट दौड़ाते है उसके मालिक।
वैसे ही हमारे मन मस्तिष्क पर अज्ञानता की पट्टियां बांधकर सीधे सरपट गतव्य की ओर दौड़ाते रहे हमें तुम।

इन पंक्तियों के माध्यम से कवि जयप्रकाश जी हमे यह कहना चाह रहे है कि,

हमे अपनी आँखो पर बंधी धर्म,अधर्म ,कर्मकांडो जैसी पाखंड की पट्टियों को शिक्षा के हत्यार से तोड़ना होगा तभी हम विकास के मार्ग पर अग्रसर हो पाऐंगें।

कवि जयप्रकाश जी अपनी अगली कविता में संताप है उम्र भर का में कहते है,

जीवन के कई बसंत
बिताऐ मैंने पतझड़ में
किसे भूलूं, किसे करुं याद
संताप है उम्र भर का।
कौन सा वह दिन होगा
कौनसी होगी वे रातें
टूटा न होगा मुझ पर कहर
चील और गिद्धों की भांती।
लूटा न होगा मेरा घर बार।

अर्थात
जयप्रकाश जी की कहते है कि अपनी कई खुशियां,अनगिनत दुखो में बिताऐं है
ऐसी कोई रात न होगी और न ही ऐसा कोई दिन जब मुझ पर दुखो का पहाड़ न टूटा हो,
न जाने किस किस रुप में जालिमो ने मुझ पर कहर पर कहर नही बरपाया हो,

अगली कविता, गांव में शांति है, में फिर जयप्रकाश जी कहते है

पीढ़ियों से दलन का भार
कोई कब तक उठाए रखे।।
दुखते हुए कंधों पर।

इसी कविता की अगली पंक्ति में कहते है

पहरेदार बने गिद्धों की पैनी दृष्टि
अपने उल्लुओं की कर्कस वाणी
जन्म के संस्कारी मखड़ीई के जाल
करने नही देते, दासता से इंकार
गरीब का गुस्सा
कुएं की छांव की तरह
अंदर ही दफन होने के अभिशप्त है।

इन पंक्तियों को समझने के लिए पाठक को अपनी पैंनी और गहरी सोच को जाग्रत करना होगा तभी इसके भाव को वे समझ सकेगें।

कवि जयप्रकाश जी अपनी अगली कविता आधुनिक मुहावरा में सोये हुऐ समाज को जगाने का अथक प्रयास करते हुऐ कहते है।

कुंभकर्ण भी निंद्रा से
कभी कभी जग जाता था
संकट के समय
भ्राता रावण से मिला कर कंधा
बराबर खड़ा हो जाता था
मेरी जाती अज्ञान की निंद्रा में
ऐसी सोई, जाग्रत कर सका न कोई।

ऐसी ही एक खूबसूरत रचना कौम के दलाल
में कवि महोदय
समाज को गुमराह करने वाले दलालो पर अपनी कलम से करारा हमला करते है जिस पर शायद मुझे प्रकाश डालने की आवश्यकता नही है क्योंकि कविता की इन पक्तियों में कवि महोदय ने स्पष्ट शब्दो मे कहा है,
कोई भी बात घुमा फिराकर कहने की उन्होंने आवश्यकता ही नहीं रखी है

जिसे मैं थोड़ा स्पष्ट करु दूँ पाठको की सुविधा के लिए,,

जैसा कि समाज की उम्मीदों और अपेक्षाओं के सौदागर सोशल मीडिया के मंच पर अकसर किसी बड़ी राजनीतिक हस्तियों के जन्मदिन या किसी मुबारक मौके पर उनको मुबारकबाद देते नज़र आते है वे ऐसा दर्शाते है मानो वे उनके बहुत ही खास है या यूँ कहे अपने को किसी का बांया हाथ होने का आभास कराया जाता है

कवि कहते है

सता के गलियारों में
कौम के दलाल
दुम हिलाते फिरते है।
पुष्पगुच्छ हाथों में थामें
इकाओं के प्रति अपनत्व
दर्शाने के अवसर खोजते है।
त्योहारों, कभी जन्मदिन पर
बधाई देने से नही चूकते है।

इसी क्रम में कवि जयप्रकाश जी अपनी अगली कविता क्रांतिरथ में शिक्षा और शिक्षा से प्राप्त उपाधि से सम्मानित होने की अपेक्षा तो करते है साथ ही आत्मसम्मान से जीने की बात पर बल देते है और कहते है सच्चाई से अवगत कराने वाली शिक्षा को ग्रहण कीजिए न कि उससे दूर भागिऐ।

वे कहते है,

शिक्षित बनना जरुरी है
उपाधि से विभूषित
हो सको तो ठीक
लेकिन
अपमानित जीवन की सच्चाईयो से
रु-ब-रु कराने वाली शिक्षा से संस्कार वश भागो मत
क्रांतिरथ को रोको मत।

कवि जयप्रकाश जी लहू के फूल संग्रह की अगली कविता अभी कोई बैठा है के माध्यम से कहते है

नव वर्ष की उजली भोर में
अज्ञानता के कोहरे में सिमटा
सुप्तकाल बनाऐं
देखो!
अभी कोई बैठा है।
चंद्र की शीतलता को छूकर
मंगल की सिंदूरी धरा पर
कदम रखने को उत्साहित
दुनियांवी शोर में
कुपमंडुक-सा अनजान
देखो!
अभी भी कोई बैठा है।

एक ओर कविता माटी का दीपक की खूबसूरत पंक्तियों में दलित दमन की पराकाष्ठा के विरुद्ध संघर्ष की ज्वाला जगा कर घोर अंधकार को मिटाने का जोश भरते है।
जयप्रकाश जी कहते है

अमावस्या की काली रात में
तामसिक पवन से संघर्ष करता
थरथराहट की लो लिए बैठा हूँ।
अमानवीयता के घोर तिमिर के इस काल में।
दलिल दमन की गिर्ध परंपराओं के विरुद्ध
जोश के प्रकाश की लौ लिए बैठा हूँ
मैं माटी का दीपक बना बैठा हूँ।

इसी तरह की एक ओर कविता पूरा सूरज में एक शोषित पीड़ित के जीवन से अंधेरे को मिटा कर एक
नई सुबह की चाहत मे कहते है जयप्रकाश वाल्मीकि जी,

अंधियारे को पाटने
नई सुबह लाने
इसी चाहत में
बूढ़ा गये कई।
किंतु
सदियों से शोषित -पीड़ित
अभी भी अप्रकाशित है।
वे करते भी क्या ,जुगनूओं की तरह
चमकते और बुझते रहे।

संग्रह की अगली कविता आशाओं का समंदर
में निष्क्रिय समाज पर जम कर व्यंग कसा है कवि जयप्रकाश जी ने,
शायद इस लिए कि मरे हुए समाज में अगर थोड़ी बहुत सांसे बची है तो अपने जिंदा होने का प्रमाण तो दे सके?

कवि इस कविता में कहते है
बुझी हुई राख में
चिंगारी ढूंढ़ता हूँ मैं।
मुर्दा समाज में
कहीं से हुंकार सुनने को घूमता हूँ मैं
जुगनूओं की चमक देखने को
ताकता हूँ मैं।

अगली कविता में आप देखेंगें कवि जयप्रकाश जी किस तरह से अपनी कविता गीत में मानसिक गुलामो की दासता से मुक्ति का ख्व़ाब देखते है।

वे चाहते है कैसे ही कर के शोषित समाज अपने अधिकारों के पहचाने,,,!!

मगर देखते है कवि जय प्रकाश जी अपनी इन खूबसूरत पंक्तियों से कैसे उनका स्वाभिमान का जगाने का दंभ भरते है
देखते है कवि की इन पंक्तियों को,,

गीत लिखता हूँ मैं
वैचारिक कूपमंडूकता से लोगो को बाहर लाने को।
गीत लिखता हूँ मैं
दासता से पीड़ित लोगों में स्वाभिमान जगाने को।
गीत लिखता हूँ मैं
अपने अधिकारों से वंचित लोगों को उठ खड़ा करने को।
मौजूदा दौर में संगठित रहने के
महत्व को बतलाने को।
गीत लिखता हूँ मैं
ज्ञान मंदिरों से कतराते लोगों को
शिक्षा का अर्थ समझाने को।

कविता संग्रह की अगली कविता अब नही तो कब उठोगे?

में कवि जयप्रकाश जी शोषित समाज को अपने अधिकारों के प्रति सजग, सावधान करने के लिए उनके हौसलों में जान भरने की कोशिश करते है
उनके स्वाभिमान को जगाने का भरकस प्रयास करते नज़र आते है
उनके मरे हुऐ ज़मीर को जगाने के लिए उनकी कमजोरियों पर व्यंग्य बाणों से हमला करते हुऐ दिखाई देते है ताकि समाज अपनी ताकत को पहचान सके,,,

इन पक्तियों से समाज को ठेस पंहुचाने का उनका कोई उद्देश्य नही है
जयप्रकाश जी अपनी कविता में कहते है

हमारी सदियों की चुप्पी ने
उनके हौसलो को बढ़ाया है
भंगी-चमार कह-कह कर
हमारा मान घटाया है।
जूठन-उतरन पर जीने को करते रहे मजबूर
कब तक रहेंगें बनकर इनके मजदूर।
अब नही तो कब उठोगे
और कितनी सदियों तक
अज्ञानता की निंद्रा में सोऐ रहोगे?

अगली कविता अंधविश्वासों का जंगल में कवि जयप्रकाश जी अपनी कलम की पैनी धार से धर्म और अधर्म के मेले में बापर्दा घूम रहे, पाखंडी लोग बेपर्दा हुए नजर आते हैं

कवि मनुवादी विचारधारा पर सटीक निशाना लगाते हुए कहते हैं।

सुलगती होली
नारी प्रतीक ईधन अट्टहास करता
रावण का पुतला
कितने ही जला लो
और जलाते ही रहो।
अंधविश्वास और आडंबर का
जो जंगल तुमने उगाया था
प्रथाओं के पौधो को सींचकर
उस जंगल में भटकने को
तुम्ही रहोगे अभिशप्त।

ऐसी ही बहुत सी कविताऐं लहू के फूल में समाहित है जिसका सस्पेंस जितना बना रहे उतना ही अच्छा है ताकि पाठक स्वयं उसे पढ़ और समझ कर कविता संग्रह का आनन्द उठा सके।

इसी आशा और अपेक्षा के साथ कविता संग्रह लहू के फूल की शेष कविताओं को पाठको के पढ़ने के लिए छोड़ देता हूँ।

आशा करता हूँ
कवि जयप्रकाश जी की कविता संग्रह लहू के फूल मृत पड़े शोषित समाज में एक नई जान भरने का काम करेगी।।

शोषित समाज के लोगो से आग्रह करना चाहुँगा की वे इस कविता संग्रह लहू के फूल के माध्यम से अपने खोये हुऐ अस्तित्व और स्वाभिमान को जगाने का प्रयास करेगें तथा कविता संग्रह लहू के फूल को अधिक से अधिक साथियों को भी पढ़ने के लिए प्रेरित करेगें।

समीक्षक:-

शायर:-“जैदि”
डॉ.एल.सी.जैदिया “जैदि”
बीकानेर।

प्रकाशक – न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली
पृष्ठ -128
कविताऐं:-127
मूल्य 200/-

Language: Hindi
1 Like · 126 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
You may also like:
तेरी आमद में पूरी जिंदगी तवाफ करु ।
तेरी आमद में पूरी जिंदगी तवाफ करु ।
Phool gufran
जीवन मंथन
जीवन मंथन
Satya Prakash Sharma
पढ़ाकू
पढ़ाकू
Dr. Mulla Adam Ali
माँ ( कुंडलिया )*
माँ ( कुंडलिया )*
Ravi Prakash
💐प्रेम कौतुक-279💐
💐प्रेम कौतुक-279💐
शिवाभिषेक: 'आनन्द'(अभिषेक पाराशर)
सूखा पत्ता
सूखा पत्ता
Dr Nisha nandini Bhartiya
माँ वो है जिसे
माँ वो है जिसे
shabina. Naaz
पते की बात - दीपक नीलपदम्
पते की बात - दीपक नीलपदम्
नील पदम् Deepak Kumar Srivastava (दीपक )(Neel Padam)
अपनी सोच का शब्द मत दो
अपनी सोच का शब्द मत दो
Mamta Singh Devaa
चाहत के ज़ख्म
चाहत के ज़ख्म
Surinder blackpen
करूँ प्रकट आभार।
करूँ प्रकट आभार।
Anil Mishra Prahari
# महुआ के फूल ......
# महुआ के फूल ......
Chinta netam " मन "
तब घर याद आता है
तब घर याद आता है
कवि दीपक बवेजा
हिन्द की हस्ती को
हिन्द की हस्ती को
अनिल कुमार गुप्ता 'अंजुम'
तोलेंगे सब कम मगर,
तोलेंगे सब कम मगर,
महावीर उत्तरांचली • Mahavir Uttranchali
खुशी और गम
खुशी और गम
ब्रजनंदन कुमार 'विमल'
■ जय लोकतंत्र■
■ जय लोकतंत्र■
*Author प्रणय प्रभात*
किसी की तारीफ़ करनी है तो..
किसी की तारीफ़ करनी है तो..
Brijpal Singh
गौरैया बोली मुझे बचाओ
गौरैया बोली मुझे बचाओ
सुरेश कुमार चतुर्वेदी
सोचा नहीं कभी
सोचा नहीं कभी
gurudeenverma198
डॉ अरुण कुमार शास्त्री
डॉ अरुण कुमार शास्त्री
DR ARUN KUMAR SHASTRI
खोखला अहं
खोखला अहं
Madhavi Srivastava
ज़िंदगी मो'तबर
ज़िंदगी मो'तबर
Dr fauzia Naseem shad
दिल का रोग
दिल का रोग
सुरेन्द्र शर्मा 'शिव'
"शब्द बोलते हैं"
Dr. Kishan tandon kranti
सदा बेड़ा होता गर्क
सदा बेड़ा होता गर्क
Umesh उमेश शुक्ल Shukla
शेष कुछ
शेष कुछ
Dr.Priya Soni Khare
जब कोई आदमी कमजोर पड़ जाता है
जब कोई आदमी कमजोर पड़ जाता है
Paras Nath Jha
कियो खंड काव्य लिखैत रहताह,
कियो खंड काव्य लिखैत रहताह,
DrLakshman Jha Parimal
नारदीं भी हैं
नारदीं भी हैं
सिद्धार्थ गोरखपुरी
Loading...