समय और परिवेश
समय की कुछ आदत ऐसी रही.
खुद बदलता गया ..
मुझे बदलता रहा.
न खुद रुका ..
न मुझे महसूस होने दिया.
कभी काल बनकर गरजता.
कभी प्रेम बन बरसता.
कभी दीपक बन ज्ञान.
पीड़ा सब हरता गया.
साया कहे के छाया
परछाई सम देखें के बहरहाल
जीवन में देखें कि मौत
वह तरफ दोनों रहा
मेरा बीच
वह सतत नियमित रहा
मैं कभी दौडने लगा.
कभी आश तोडने लगा.
वह सफल रहा परीक्षार्थी मुझे बनाकर.
मै हंसते कभी रोते.
साथ उसके खड़ा रहा.
दिया साथ उसने कहकर,
रिश्ते मुझ जैसे बनाकर,
सकपकाया सा रह गया.
मैं उसकी योजना सुनकर.
मैं काल नहीं साथी हूँ.
काहे का धर्म.. कौन नियति,
रुपांतरण ही मेरी संगति.
तू जख्म समय मरहम
तेरा बचपन मैं नादान.
तेरी जरूरत मैं व्यवहार
तू व्यवहार मैं दुकानदार
तू पैदाइश मैं जनक जननी
…
आगे आरंभ रहेगा