सब तो अपने हैं ,
सब तो अपने हैं ,
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कभी-कभार मन ये सोचता,
सब तो अपने हैं ।
चाहे दूर के हो या,
नजदीक के रिश्तेदार।
सभी तो हैं बस ,
अपना ही परिवार।
सब तो है एक ही गुलाब के,
पंखुड़ियां जो अभी बिखरे पड़े हैं।
पर दूसरे ही क्षण,
कैक्टस से भरा अन्तर्मन,
घ्राण ग्रंथियों को अपने नुकीले कंटक से,
जीर्ण-विदीर्ण कर,
उन पंखुड़ियों की खुशबू को ,
मस्तिष्क तक पहुंचने ही नहीं देता।
फिर एक अंतर्द्वंद सी उठती,टीस बनकर,
परायेपन का दर्द उभरता आक्रोश बनकर।
जो आँखों की रोशनी को भी धूमिल कर जाता,
फिर सजल नेत्रों से,
आंसूओं की एक बूंद भी टपकने को तैयार नहीं।
अब मोर्चा सम्भालने की बारी श्रुतिपट की,
कैक्टस के कंटक से ज़ख्मी श्रुतिपट को,
मधुरध्वनि भी राक्षसी हंसी प्रतीत होती ।
फिर जिह्वा व मुख एक साथ मोर्चा सम्भालता,
झल्लाहट के वाण से वो अपनो को ही मूर्छित करता।
अब वो मूर्छित तन जब सचेत होता,
तो आहत मस्तिष्क में,
न्याय-अन्याय की पहचान कहाँ।
सब अपने, पराये ही लगते,
फिर ईर्ष्या, क्रोध का साम्राज्य।
उस पर से कलियुगी छाया,
कमाल का है ये दुष्चक्र,
पंचेंद्रिय युद्धभूमि में शामिल,
कलियुग में इन इंद्ररूपी पांडवों को,
राह दिखाने वाला श्रीकृष्ण मिला ही नहीं।
अतएव कुरूक्षेत्र में ये _
कौरवों के ही साथ हो गए,
और सब अपने पराये हो गए ।
कर लो यदि पथदर्शक श्रीकृष्ण की भक्ति,
फिर तो अन्तर्मन कह उठेगा,
सब तो अपने हैं ।
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
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