सफ़र
जितना साथ दे हमसफ़र,
उतना ही काफ़ी है,
इस ज़िदगानी पर कब किसका इख़्तियार,
तब तक है ,जब तक सांस बाक़ी है ,
ख़्वाबों के अब्र आरज़ू़ -ए- आसमाँ में
मंडराते रहते हैं ,
ख़्वाहिशों के ज्वार एहसास -ए- समंदर में
उठते गिरते रहते हैं ,
सब कुछ पाकर भी , कुछ खोने का ग़म
जाता कभी नहीं है ,
वक्त की दहलीज़ पर लम़्हों का हिसाब
होता कभी नहीं है,
खुद ही अपनी अना से बर्बाद हुए हैं ,
मोरिद -ए -इल्ज़ाम औरों को करते रहे हैं ,
झांक कर खु़द के गिरेबाँ में कभी
हमने ना देखा है ,
औरों के दाम़न के दाग़ों को हमेशा
उजागर करते रहे हैं ,
ग़र्दिश -ए- दौराँ में एक -एक कर सब
साथ छोड़ते गए,
इस सफ़र की इंतिहा में हम फ़क़त
अकेले रह गए।