सनम
न सत्तर हूर की ख्वाहिश,
बहिश्त भी नहीं चाहूँ।
जहां पर वो कदम रख दें,
वहीं पर है मेरी जन्नत।
फरिश्तों को नहीं देखा
या दिखता है खुदा कैसा।
सनम का नूर देखा है
चमकता ज्यों खरा सोना।
सनम तू ही मेरा रहबर,
इबादत है फ़क़त तू ही।
तुझे जब देख लेता हूँ,
दीवाली मन जाती उस दिन।
न मंजनू हूँ न रांझा हूँ,
मगर आशिक हूँ कुछ ऐसा।
जुले खां पागल दिखती थी,
यूसुफ के प्यार में जैसे।
सनम आशिक है बनता खुद,
सनम महबूब है खुद ही।
उठा कर जब कभी देखा,
आईने में सनम दिखता।
सतीश सृजन