सच्ची मगर थी बात मेरी बात काट दी
करने नहीं दी मुझको शुरूआत काट दी
सच्ची मगर थी बात मेरी बात काट दी
चालें तमाम उसकी तो मालूम थी हमें
चालाकियां अदू की हरिक घात काट दी
मज़बूरियाँ रहीं हैं सदा ही ग़रीब को
छप्पर के उस मकान में बरसात काट दी
पैसे का था ग़रूर बड़ा उसको खामखां
किस्मत ने उसकी सारी औक़ात काट दी
बेकार आदतों से तबाही उसे मिली
ठोकर लगी तो उसने ख़ुराफात काट दी
तन्हाइयों ने रात में सोने नहीं दिया
तेरे बिना तमाम मैंने रात काट दी
रक्खे सहेज कर थे कई ख़्वाब आँख में
उल्फ़त की यादगार वो सौग़ात काट दी
‘आनन्द’ अब कोई है न मुश्किल हयात में
माँ की दुआ ने ज़ीस्त की आफ़ात काट दी
डॉ आनन्द किशोर