सच्चा सुख
सुख पाने की चाह में,
भटक रहा इन्सान।
विरले ही पाते इसे,
बहुतेरे है अनजान।
बढ़ती सुविधा सामग्रियॉ,
इन्द्रिय भोग विलास।
इन्हें ही सुख मानकर,
करता जीवन नास ।
धन दौलत में ढूढता,
मिलता झूठा मान।
शारीरिक बलिष्ठता से,
बढ़ता ही है अभिमान।
सौन्दर्य भी सुख देता नहीं,
कहते चतुर सुजान।
पढे़ लिखे न जान सके,
सुख की क्या पहचान।
फिर सुख मिलता किसे,
भाव संवेदना का प्रश्न है।
वाह्य साधनो में सुख कहॉ,
मृग मरीचिका सदृश्य है।
सरलता,शुचिता, सात्विकता से,
जीवन होता धन्य है।
इन्हीं गुणो की त्रिवेणी में,
मिलता सच्चा सुख है।
राजेश कौरव “सुमित्र”
उ.श्रे.शि.बारहाबड़ा