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2 Sep 2022 · 5 min read

*कथा रिपोर्ट*

कथा रिपोर्ट
15 अगस्त 1987 को अमरोहा में सुनी थी पंडित रामचंद्र केशव डोंगरे जी महाराज की श्रीमद् भागवत कथा
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नाम-महात्म्य के प्रतिपादक डोंगरे जी
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पंडित रामचन्द्र केशव डोंगरे जी श्रीमद् भागवत की कथा कहते है। वह धाराप्रवाह ढाई घन्टे तक प्रवचन देते हैं और श्रोताओं को अपनी सुमधुर भक्तिमय शक्ति से बॉंधे रखते हैं। डोंगरे जी भक्तिवादी हैं। उनके व्याख्यान का अधिकांश भगवान की भक्ति-साधना को आवश्यकता को प्रतिपादित करता है। वह ईश्वर का नाम लेने को श्रेष्ठतम धार्मिक कृत्य मानते हैं। वह भागवत के मात्र किसी एक प्रसंग अथवा अनेक प्रसंगों को रस ले-लेकर आगे बढाते हुए कथा कहने वाले कथावाचकों में नहीं हैं। वस्तुतः वह श्री कृष्ण का प्रेमामृत-पान कराकर श्रोताओं को हृदय की उदारतम स्थिति में लाने के लिए प्रयासरत हैं और धर्म के व्यापक रूप से विविध पहलुओं पर अपनी टिप्पणियों-विचारों से श्रोताओं को लाभान्वित करते हैं।
पंद्रह अगस्त 1987 को सायं साढ़े चार बजे अमरोहा के जगदीश शरण हिन्दू इन्टर कालेज के विशाल प्रांगण में बने भव्य पंडाल में मुझे श्री डोंगरे जी को देखने-सुनने का सुअवसर मिला। एक सौ के करीब बिजली के पंखों से पंडाल सुसज्जित था। सात-आठ हजार की विशाल श्रोता-सभा में ऊॅंचे मंच पर शेषनाग की शैया की शैली में बने आकर्षक आसन पर पालथी मार कर बैठे डोंगरे जी परिवेश की भव्यता का स्पर्श पाकर और भी महिमामय जान पड़ते थे। कपड़ों के नाम पर केवल एक सफेद धोती पहने ओढ़े हुए थे । उनकी आवाज कुछ धुॅंधली-सी थी, भर्राई हुई-सी कह सकते हैं। जैसे डूबती हुई हो, ऐसी कुछ । और कथा कैसे कहते है वह ? जैसे गंगा की गोद में कोई नाविक नाव को धीमे-धीमे खे रहा है और कभी-कभी गंगा की विशालता पर मुग्ध होकर आप-आपे में मगन होकर खो जा रहा है। नाव का चलना रुक जा रहा है। डोंगरे जी की शक्ति आत्मिक है। माइक पर प्रभावशाली वक्तृता क्षमता का परिचय दे पाने में उनकी सामर्थ्य की कमी भले ही बहुतों को खटके, किन्तु यह निर्विवाद सत्य है कि उनके मुख से निकले शब्द उनके गहन आत्म-मथन की ही परिणति हैं। उनका मनन और आत्मचिंतन ही उन्हें ढाई घन्टे तक अपार भक्त श्रोताओं से एकाकार किए रहता है और असर छोड़ता रहता है।
स्वतंत्रता दिवस पर अपने प्रवचन में डोंगरे जी ने बहुत गहरी बात कही कि स्वर्ग का अमृत पीने से पुण्य का नाश होता है। उन्होंने कहा कि स्वर्ग का सुख भोगने से सुख-वैभव-आनंद तो मिलता है पर, वासना बढती है, मन बिगड़ता है और पाप भी बढ़ता है। डोंगरे जी ने नहीं कहा, मगर मुझे लगा कि उनका कथन राष्ट्रीय अर्थ लिए हुए भी है। आजादी को स्वार्थ और लिप्सा से जुड़कर हमने देखा और चालीस साल तक दोहन-शोषण किया सत्ता का। गुलामी में जो तप का पुण्य था, वह इसीलिए आज नष्ट हो रहा है। नया पुण्य सृजित हम कर नहीं पा रहे हैं, पुराना रख नहीं पा रहे हैं। नतीजा सामने है । एक बात और। डोंगरे जी तो खैर भक्ति और सदाचार की अलख जगाते घूम रहे हैं, पर क्या मठों की विलासिता भोगने वालों का पुण्य नष्ट नहीं हो रहा है -ऐसा प्रश्न मेरे मन में उठा ।
अध्यात्म की भाषा डोंगरे जी की है । वे भगवान के नाम रूपी अमृत-पान पर जोर देते हैं। श्रीकृष्ण जब कृपा करते हैं, तब भगवान में प्रीति होती है। भगवान का नाम लेना कैसा होता है? डोंगरे जी के अनुसार वह मधुर, आनन्द देने वाला, सरल, शांतिदायक, प्रेम की सृष्टि करने वाला होता है। भगवान का नाम लेने से मन का पाप मिटता है, मन शुद्ध हो जाता है। उनका कहना है कि हृदय में हमारे ईश्वर है, पर वह हमें पाप करने से नहीं रोकता। पर, राम-नाम से पाप रुकता है। क्योंकि जो वास्तव में राम का नाम लेते हैं, उनका अंतः करण शुद्ध हो जाता है, चित्त धवल हो जाता है। डोंगरे जी को सुनते-सुनते मन में स्वतः यह प्रश्न उठा कि अपने-अपने आराध्य देव का नाम जपने पर भी हमारे अंतःकरण में मलिनता, द्वेष और हिंसा क्यों शेष है ? क्यों होते हैं ईश्वर के नाम पर लड़ाई और फसाद ?क्यों कटुता उपजती है एक ही कुटुम्ब में ? क्या हम सच्चे मन से भगवान का नाम भी नहीं लेना जानते ? वह भगवान जो शांति का अपार सागर है, जो दया निधान है, जो सदा परहित-कारी है। अजामिल की कथा डोंगरे जी ने सुनाई थी। खैर, वह तो नारायण कहने मात्र से तर गया, मगर हम जो नित्य नारायण कह रहे हैं, सुन रहे हैं, कब उबरेंगे विषम परिस्थितियों से ? सद्विचार कब बदलेगा सदाचार में ?
बहुधा धन की शक्ति को आध्यात्मिक साधना में बाधक मान लिया जाता है । डोंगरे जी के कुछ भिन्न विचार हैं। उनके अनुसार माया बहुत खराब नहीं है। माया भगवान की शक्ति है। माया भक्ति में साधक है । भक्ति भी माया से होती है। माया भक्ति में बाधक नहीं, साधक है। माया का दास बनने से व्यक्ति को रोना पड़ता है । माया का गुलाम बनने से माया राक्षसी हो जाती हैं । वे कहते हैं, माया का सदुपयोग करो, माया के अधीन न बनो। उदाहरण देकर वह समझते हैं कि जैसे अग्नि के बिना रसोई नहीं बनती, तो भी अग्नि से सब दूर से ही प्रीति रखते हैं। अग्नि को जैसे चिमटे से उठाते हैं, माया को विवेक-पूर्वक उठाओ। स्पर्श में न फॅंसो । विवेक यानि मैं भगवान का हूॅं -वे कहते हैं । महर्षि अरविन्द ने दशकों पूर्व धन की शक्ति को ईश्वरीय शक्ति कहकर सम्बोधित किया था और कहा था कि महसूस करो कि सब धन मॉं भगवती का है और उसी के अर्पण होकर उसे तुम्हें खर्च करना है। गीता कहती है कि माया से कमल की तरह बर्ताव करो यानि जल में रहो मगर पानी से मत छुओ। डोंगरे जी नई बात नहीं कह रहे, पुरानी बातों को नई ताजगी से श्रोताओं के मन में भरकर एक निनाद उत्पन्न कर रहे हैं।
डोंगरे जी भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति-गाथा को गाने वाले अग्रणी ख्याति-प्राप्त जनप्रिय संत हैं। वह भक्ति-मार्ग के उपासक हैं । जैसे महाराष्ट्र के संत नामदेव भगवान विट्ठल की भक्ति में नाम-महात्म्य का उद्घोष करते रहे थे, वैसे ही डोंगरे जी नाम-महात्म्य पर विशेष बल देते हैं। वह इन्द्रिय विकारों से मुक्त होकर वासना रहित जीवन जीने का पक्ष लेते हैं। जीवन में संयम की आवश्यकता पर उनका जोर है । ऑंखें बुरा न देखें और जीभ कुस्वाद की चटोरी न बने, यह जरूरी है । वाद और स्वाद भक्ति के दो शत्रु हैं-डोंगरे जी कहते हैं। वाद अर्थात वाद-विवाद, खडन, मतभिन्नता । भक्तिमार्ग तर्कपूर्ण वैचारिक खंडन-मंडन की भूलभुलैया में न पड़कर, किसी विवाद में उलझे बिना राम-नाम जपकर, जीवन को सरल, सात्विक, संयमी और चरित्रवान बना कर भगवान को पाने का मार्ग है। डोंगरे जी की शिक्षायें मूलतः हमें भक्ति-मार्ग की ओर प्रेरित करती हैं। चिंतन की अधिकता और मतों की विविधता के कोलाहल से अशांत होकर बहुधा हमें भक्ति रस में अवगाहन करके ही शांति मिलती है ।
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लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा
रामपुर उत्तर प्रदेश
मोबाइल 99976 15451
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नोट : यह लेख सहकारी युग हिंदी साप्ताहिक रामपुर (उत्तर प्रदेश) 12 सितंबर 1987 अंक में प्रकाशित हो चुका है।

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