संशय की बेला नहीं छुती है उनको
सिंचित लय को साध लिखते जो प्रवाह,
नहीं उपहास उन्हें डराता है,
नहीं लोभ उन्हें हँसाता है,
अंबर से मिल जो जीता आया; संदुक का गर्भ कहाँ जी पाता है ?
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संशय की बेला नहीं छुती है उनको;
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नहीं मृगतृष्णा उन्हें बुलाता है,
तय चाल की हर छाप; बुंदो से मिल धुमिल हो जाता है।
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प्रकाश मिल कोहरे से; जहाँ अँधेरे भवन को रच जाता है,
चाँद भर बस रोशनी; दिया सा जगमगाता है।
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पर सफर को तो कहीं तय है बाकी,
फिर अँधेरे में कदम बढ़ाता है…हाँ,
फिर बढ़ता जाता है…हाँ…फिर बढ़ता जाता है..?
©दामिनी नारायण सिंह ?️
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