संवेदना
संवेदना
कल संवेदना से मुलाकात हो गई
पहले रुकी फिर मुस्कुराई
अपने अंदाज में बैयां में कुछ इठलाई।
पूछने लगी कहाँ ?
जाने की जल्दी है जनाब
मैं तो आपको अभी हूँ लेने आई।
हम थोड़े से डरे, सहमें
मगर फिर संभल गए
और हम पूछ बैठे आखिर
ऐसी क्या खता हमसे हुई भाई।
उसने हमें कोई उत्तर ना दिया
हमें लगा शायद बात समझ में
नहीं आई हमने अपनी बात
फिर दोहराई क्यों भाई
हमसे ऐसी क्या खता हुई?।
उसने कहा तुम इंसानों में
इंसान होकर इंसान से जलते हो
यही तो कमी है सब कुछ जानते
हुए भी अनजान बनते हो
बुरा भला तुम एक दूसरे का करते हो
उच्च नीच का भेदभाव तुम रखते हो।
मेरा -मेरा करते-करते
नीत पंख पखेरू से उड़ जाते हो
फिर सवाल तुम हमसे करते हो
छोटी सी उम्र है उस उम्र का
कितना हिस्सा तुमको जीना है
तुमको अभी क्या पता ?
कितने ग़मों का साथी बनकर
तुमको चलना है।
अब “मैं” हैरान था
उसकी बातों से अनजान था
जाने क्या सोच के वह आई थी
लेकिन मेरे लिए तो
मौत ही सबसे बड़ी लड़ाई थी
वैसे मैं तुमको क्यों समझाऊं
अपने मन की बातें क्यों बदलाऊ ।
तुम इंसान हो तुम
किसकी क्या मानो
हट्टी हो अपने जज्बातों के
उनसे ही तुम मेल बढ़ाओ
जो तुमको मौत से छीन कर ले आए।
आँख खुली और सपना टूटा
मुझको लगा जैसे मेरा
रहस्य ही मुझसे रूठा
अरे ! संवेदना नहीं वह स्वप्न था
लेकिन जो था मौत से भी बडा था।
हरमिंदर कौर, अमरोहा उत्तर प्रदेश