Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
13 Apr 2023 · 8 min read

*संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ/ दैनिक रिपोर्ट*

संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ/ दैनिक रिपोर्ट
13 अप्रैल 2023 बृहस्पतिवार प्रातः 10:00 से 11:00 तक ।
आज बालकांड दोहा संख्या 209 से दोहा संख्या 243 तक का पाठ हुआ। श्रीमती मंजुल रानी सहित अनेक महिलाओं ने पाठ में सहभागिता की।
अहिल्या उद्धार, सीता स्वयंवर

कथा-क्रम में विश्वामित्र अपने यज्ञ की रक्षा के लिए भगवान राम तथा लक्ष्मण को लेकर आश्रम पहुंचे । राम ने उन्हें निर्भय यज्ञ करने के लिए आश्वस्त किया। विश्वामित्र ने जब यज्ञ आरंभ किया तो उसमें विघ्न डालने के लिए राक्षस आ पहुंचे। राम ने उन्हें सहज मार गिराया।
राम लक्ष्मण विश्वामित्र के साथ आए तो केवल यज्ञ की रक्षा के लिए थे, लेकिन इसी बीच सीता के स्वयंवर का आयोजन जनकपुरी में हो गया और विश्वामित्र राम-लक्ष्मण को लेकर जनकपुरी चले गए । यह घटना बताती है कि अपने शिष्यों पर गुरुओं का अधिकार कितना बढ़-चढ़कर था। इतना कि वह उनका विवाह सुनिश्चित करने के लिए भी स्वतंत्र थे। महाराज दशरथ की अनुमति लिए बिना स्वयंवर के लिए जनकपुरी जाने का यही तो अर्थ है ।
जनकपुरी के मार्ग में ही अहिल्या उद्धार की अभूतपूर्व घटना हुई। हुआ यह कि राम-लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्र के साथ जनकपुरी जा रहे थे। रास्ते में एक आश्रम दिखा, जहां कोई जीव जंतु नजर नहीं आ रहा था। बस एक पत्थर की शिला दिखी। राम ने स्वयं इस सब के बारे में मुनि विश्वामित्र से पूछा अर्थात पहल राम की थी।
तुलसी लिखते हैं:-
आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तॅंह नाहीं।। पूछा मुनिह शिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा विशेषी।। (दोहा वर्ग संख्या 209)
भगवान ने तदुपरांत अपने चरण स्पर्श से गौतम मुनि की पत्नी अहिल्या का उद्धार किया। अहिल्या ने उद्धार के पश्चात भगवान से जो वर मांगा, वह एक सच्चे निष्काम भक्त के मनोभावों को प्रकट करने वाला है। क्योंकि सच्चे भक्त धन-संपत्ति, पद अथवा सांसारिक वस्तु नहीं मॉंगते। वह तो केवल ईश्वर के चरण कमलों में अनुराग की ही कामना करते हैं। इसीलिए भॅंवरे के समान भक्तों का हृदय प्रभु के चरण कमल की रज का सदैव रसपान करता रहे, यही मनोकामना अहिल्या के मुख से प्रकट हुई।
तुलसी लिखते हैं:-
विनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउॅं वर आना। पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना।। (दोहा वर्ग संख्या 210)
जनकपुरी की शोभा तथा वैभव तुलसीदास ने अपने काव्य में इस प्रकार चित्रित किया है:-
धवल धाम मनि पुरट पट, सुघटित नाना भॉंति। (दोहा संख्या 213)
अर्थात धवल महल थे और उसमें मनि अर्थात मणियों के पुरट अर्थात स्वर्ण के पट अर्थात पर्दे अथवा किवाड़ लगे हुए थे। यह सब जनकपुरी के ऐश्वर्य और वैभव को दर्शाता था।
अनेक स्थानों पर तुलसी ने स्तुति को अस्तुति कहकर अपने काव्य में लिखा है । दोहा वर्ग संख्या 210 में भी यह प्रयोग देखने को मिलता है । अस्तुति को हनुमान प्रसाद पोद्दार ने अपनी टीका में स्तुति बताया है। कारण यह है कि *स्तुति में लिखित के अनुसार 3 मात्राएं* होती हैं जबकि *अस्तुति में 5 मात्राएं* हो जाती हैं । संभवत इसीलिए काव्य के मर्मज्ञ मात्राओं पर प्रश्नचिन्ह न लगा सकें, इस कारण स्तुति को अस्तुति कहकर लिखा गया है ।
स्थान स्थान पर तुलसी ने प्रभु के दीनों पर दया करने वाले तथा उनका सब प्रकार से कपट त्याग कर भजन करने की आवश्यकता पर बल दिया है। ऐसा ही एक स्थान पर लिखा है:-
अस प्रभु दीनबंधु हरि, कारण रहित दयाल। तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल।। (दोहा संख्या 211)
अर्थात दयालु भगवान तो अकारण ही कृपा करते हैं। बस हमें छल-कपट छोड़कर उनकी भक्ति करने की आवश्यकता रहती है ।
भाषा का चमत्कार तुलसी के काव्य में स्थान-स्थान पर देखने को मिलता है । जब भगवान राम को जनक ने देखा तो तुलसी ने जनक की दशा को इस प्रकार दर्शाया :-
भयउ विदेह विदेह विशेषी (दोहा वर्ग संख्या 214)
अर्थात जो विदेहराज जनक थे, वह राम को देखकर देह की सुध-बुध खो कर सचमुच विदेह हो गए । जनक के लिए विदेह शब्द का प्रयोग जो किया जाता रहा है, उसका कलात्मक ढंग से देह की सुध-बुध खोने के साथ संबंध जोड़ कर तुलसी ने जो काव्य का चमत्कार उत्पन्न किया, वह विशेष रूप से अभिनंदनीय है।
इसी तरह एक स्थान पर उन्होंने राम लक्ष्मण के दर्शनों को आनंद को भी आनंद देने वाला बताकर काव्य के माध्यम से चमत्कार की सृष्टि की है । तुलसी लिखते हैं :-
सुंदर श्याम गौर दोउ भ्राता। आनॅंदहू के आनॅंद दाता।। (दोहा वर्ग संख्या 216)
उधर जब जनकपुरी की वाटिका में राम विचरण कर रहे थे तो सीता जी की सखियों ने उन्हें देखकर हृदय से यही कहा कि जानकी जी को यही वर मिलना चाहिए। लेकिन वह भी जब शंकर जी के धनुष का स्मरण करती हैं और दूसरी तरफ भगवान राम के कोमल सांवले शरीर को देखती हैं, तो फिर हृदय में एक कसक उठती है कि पता नहीं यह कैसे शिवजी का धनुष तोड़ पाएंगे ? :-
कोउ कह शंकर चाप कठोरा। ए श्यामल मृदु गात किशोरा।। (दोहा वर्ग संख्या 222)
लेकिन एक और सखी भी है जो कहती है कि जब इन्होंने अहिल्या का अपने चरण स्पर्श से ही उद्धार कर दिया तो क्या यह शिवजी का धनुष नहीं तोड़ पाएंगे? अर्थात अवश्य तोड़ देंगे :-
सो कि रहिहि बिनु शिव धनु तोरें। यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें।। (दोहा वर्ग संख्या 222)
रामचरितमानस में गुरु की सेवा भावना को भलीभांति दर्शाया गया है । मुनि विश्वामित्र के चरण दबाने का काम राम-लक्ष्मण केवल औपचारिकतावश नहीं करते हैं, अपितु हृदय से यह कार्य करते हैं। इसीलिए तो तुलसी लिखते हैं कि बार-बार जब गुरु आज्ञा देते हैं कि अब तुम चरण दबाना बंद कर दो, तब जाकर भगवान राम शयन करने के लिए उठ कर जाते हैं:-
बार-बार मुनि आज्ञा दीन्हीं। रघुवर जाइ सयन तब कीन्ही।। (दोहा वर्ग संख्या 225)
रात को गुरुदेव के चरणों को दबाकर सोना तथा उसके उपरांत सुबह-सुबह ही मुर्गे की बांग सुनकर उठ जाना, यह एक श्रेष्ठ जीवन पद्धति को दर्शाने वाला चरित्र है। राम और लक्ष्मण दोनों ही गुरुदेव के उठने से पहले ही उठ जाया करते थे। इस सुंदर जीवन-क्रम को तुलसी इन शब्दों में वर्णित करते हैं :-
उठे लखनु निसि विगत सुनि, अरुणशिखा धुनि कान। गुर तें पहिलेहिं जगतपति, जागे रामु सुजान।। ( दोहा संख्या 226)
अर्थात रात बीतने के पश्चात जब अरुणशिखा अर्थात मुर्गे की ध्वनि कान में पड़ी, तब लक्ष्मण जी जाग उठे। गुरु से पहले ही भगवान राम भी जग गए। मुर्गे के स्थान पर उसका पर्यायवाची अरुणशिखा यहां तुलसीदास जी ने काव्य की लयात्मकता की दृष्टि से प्रयोग किया है।
वाटिका में रामचंद्र जी द्वारा सीता जी को देखकर जो अंतर्मन की भावनाएं रामचंद्र जी के हृदय में उत्पन्न हुईं, उनको तुलसी ने अत्यंत मर्यादा का निर्वहन लेते हुए व्यक्त किया है। कहीं भी मर्यादा का उल्लंघन यौवन की तीव्रता के वशीभूत होकर नहीं हो सका है। तुलसी तो यहां तक लिखते हैं कि राम सीता की शोभा देखते हैं, तो हृदय से सराहते भी हैं, लेकिन उनके मुख से कोई वचन प्रकट नहीं होता :-
देखि सीय शोभा सुखु पावा। हृदय सराहत वचनु न आवा।। (दोहा वर्ग संख्या 229)
तुलसी ने सीता जी की सुंदरता का वर्णन करते हुए अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी और कहा कि सारी उपमाऍं तो कवियों ने जूठी ही कर रखी हैं। अब मैं सीता जी को भला उनके सुंदर चित्रण के लिए किसकी उपमा दूॅं?:-
सब उपमा कवि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं विदेह कुमारी।। (दोहा वर्ग संख्या 229)
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि तुलसी ने राम और सीता के द्वारा एक दूसरे को देखे जाने पर राम के दाहिने अंगों को फड़कता हुआ दिखलाया है, वहीं दूसरी ओर सीता जी के बाएं अंगों को फड़कता हुआ दिखलाया गया है। इसके पीछे यह विश्वास है कि पुरुषों के दाहिने अंग फड़कने से तथा महिलाओं के बाएं अंग के फड़कने से भविष्य में शुभ होने वाला है। तुलसी लिखते हैं :-
फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता।। (दोहा 230)
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी इसकी टीका इस प्रकार लिखते हैं कि “हे भाई! सुनो मेरे मंगल दायक दाहिने अंग फड़कने लगे हैं ।”
एक अन्य स्थान पर तुलसीदास जी लिखते हैं:-
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे।। सोरठा 236
इसकी टीका हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने इन शब्दों में लिखी है :-
“सीता जी के सुंदर मंगलों के मूल उनके बाएं अंग फड़कने लगे”
श्रंगार के वर्णन को अत्यंत मर्यादित भाव से तुलसी व्यक्त कर रहे हैं । एक स्थान पर वह भगवान राम से सीता जी की अतिशय प्रीति को यह कहकर चित्रित करना चाहते हैं कि सीता जी ने भगवान राम को अपने हृदय में स्थान देने के बाद पलकों के कपाट अर्थात किवाड़ बंद कर दिए। यह श्रंगार का एक विलक्षण चित्र है। तुलसी लिखते हैं:-
लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी।। (दोहा वर्ग संख्या 231)
लोचन अर्थात नेत्र रूपी राह में राम जब और अर्थात हृदय में प्रवेश कर गए तब सयानी अर्थात चतुर सीता जी ने अपनी पलकों के कपाट अर्थात किवाड़ बंद कर दिए।
कथा-क्रम में सीता जी शिव जी के धनुष को तोड़ने की पिता की कठिन प्रतिज्ञा को ध्यान में रखकर बहुत दुखी होते हुए भगवान राम की श्याम वर्ण छवि को मन में बसाकर चलने लगीं:-
जानि कठिन शिव चाप बिसूरति। चली राखि उर श्यामल मूरति।। (दोहा संख्या 234)
जब राम स्वयंवर में आकर अपने आसन पर बैठे, तब उनको देखकर जिसकी जैसी भावना थी, उसे वैसा ही अनुभव हो रहा था। तुलसी लिखते हैं :-
जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी।। (दोहा वर्ग संख्या 240)
विस्तार से उपरोक्त पंक्तियों का वर्णन करते हुए तुलसीदास लिखते हैं कि जो कुटिल राजा थे उन्हें तो भगवान राम को देखकर बड़ा भय लग रहा था । वह रामचंद्र जी को काल के समान उपस्थित देखते थे । जबकि दूसरी ओर नगर के निवासी दोनों भाइयों को देखकर अपने लोचन अर्थात नेत्र में सुख का अनुभव करते थे । स्त्रियां भी उन्हें देखकर प्रसन्न हो रही थीं।
उसी समय तुलसी लिखते हैं कि विद्वानों ने रामचंद्र जी को विराट रूप में भी देखा अर्थात उनके संसार के स्वामी के रूप में भी दर्शन किए । तुलसी के शब्दों में :-
विदुषन्ह प्रभु विराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा।। (दोहा वर्ग संख्या 241)
इन सब के मध्य सीता जी का क्या अनुभव था, तुलसी लिखते हैं :-
उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कवि कोऊ।। एहि विधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कौशलराऊ।। (दोहा वर्ग संख्या 241)
अर्थात सीता जी अपने उर अर्थात हृदय में जो अनुभव कर रही थीं, उसे कह भी नहीं सकती थीं। ऐसे में कोई कवि अर्थात तुलसी दास जी उसका वर्णन किस प्रकार कर सकते हैं ?
ईश्वर की दिव्य लीला सीता स्वयंवर के मध्य विविध प्रकार से विविध रूपों में हमारे सामने आ रही है। इसमें जहां एक ओर मनुष्य के स्वभाव का दर्शन कराया गया है, वहीं दूसरी ओर राम के अलौकिक तत्व को भी प्रदर्शित करने में तुलसी पीछे नहीं रहे हैं । तुलसी के राम एक साधारण मनुष्य की तरह हाड़-मांस का शरीर लिए हुए हैं, लेकिन अंततोगत्वा वह एक अवतारी पूर्ण ब्रह्म ही हैं।
————————————–
लेखक : रवि प्रकाश (प्रबंधक)
राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर स्कूल), पीपल टोला, निकट मिस्टन गंज, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 99976 15451
—————————————-

107 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
Books from Ravi Prakash
View all
You may also like:
फिर पर्दा क्यूँ है?
फिर पर्दा क्यूँ है?
Pratibha Pandey
3060.*पूर्णिका*
3060.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
शायरी
शायरी
goutam shaw
क्या विरासत में हिस्सा मिलता है
क्या विरासत में हिस्सा मिलता है
Dr fauzia Naseem shad
*डूबतों को मिलता किनारा नहीं*
*डूबतों को मिलता किनारा नहीं*
सुखविंद्र सिंह मनसीरत
मौसम खराब है
मौसम खराब है
डॉ विजय कुमार कन्नौजे
बेवजह ही रिश्ता बनाया जाता
बेवजह ही रिश्ता बनाया जाता
Keshav kishor Kumar
कृष्ण की फितरत राधा की विरह
कृष्ण की फितरत राधा की विरह
सोलंकी प्रशांत (An Explorer Of Life)
संवेदनाओं का भव्य संसार
संवेदनाओं का भव्य संसार
Ritu Asooja
नाजायज इश्क
नाजायज इश्क
RAKESH RAKESH
जिस दिन हम ज़मी पर आये ये आसमाँ भी खूब रोया था,
जिस दिन हम ज़मी पर आये ये आसमाँ भी खूब रोया था,
Ranjeet kumar patre
वाह ! मेरा देश किधर जा रहा है ।
वाह ! मेरा देश किधर जा रहा है ।
कृष्ण मलिक अम्बाला
*आए जब से राम हैं, चारों ओर वसंत (कुंडलिया)*
*आए जब से राम हैं, चारों ओर वसंत (कुंडलिया)*
Ravi Prakash
सब कुछ छोड़ कर जाना पड़ा अकेले में
सब कुछ छोड़ कर जाना पड़ा अकेले में
कवि दीपक बवेजा
जिंदगी बंद दरवाजा की तरह है
जिंदगी बंद दरवाजा की तरह है
Harminder Kaur
चल बन्दे.....
चल बन्दे.....
Srishty Bansal
सच के साथ ही जीना सीखा सच के साथ ही मरना
सच के साथ ही जीना सीखा सच के साथ ही मरना
Er. Sanjay Shrivastava
#दोहा
#दोहा
*Author प्रणय प्रभात*
हौंसले को समेट कर मेघ बन
हौंसले को समेट कर मेघ बन
Umesh उमेश शुक्ल Shukla
Never forget
Never forget
Dhriti Mishra
यह क्या अजीब ही घोटाला है,
यह क्या अजीब ही घोटाला है,
Sukoon
चौथ मुबारक हो तुम्हें शुभ करवा के साथ।
चौथ मुबारक हो तुम्हें शुभ करवा के साथ।
सत्य कुमार प्रेमी
"पतवार बन"
Dr. Kishan tandon kranti
गज़ल सी कविता
गज़ल सी कविता
Kanchan Khanna
किसी अंधेरी कोठरी में बैठा वो एक ब्रम्हराक्षस जो जानता है सब
किसी अंधेरी कोठरी में बैठा वो एक ब्रम्हराक्षस जो जानता है सब
Utkarsh Dubey “Kokil”
दोहा-
दोहा-
डाॅ. बिपिन पाण्डेय
पैमाना सत्य का होता है यारों
पैमाना सत्य का होता है यारों
प्रेमदास वसु सुरेखा
राखी
राखी
Shashi kala vyas
"In the tranquil embrace of the night,
Manisha Manjari
रोज गमों के प्याले पिलाने लगी ये जिंदगी लगता है अब गहरी नींद
रोज गमों के प्याले पिलाने लगी ये जिंदगी लगता है अब गहरी नींद
कृष्णकांत गुर्जर
Loading...