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27 Apr 2023 · 7 min read

*संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ/ दैनिक रिपोर्ट*

संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ/ दैनिक रिपोर्ट
27 अप्रैल 2023 बृहस्पतिवार प्रातः 10:00 से 11:00 तक (रविवार अवकाश)

आज अयोध्या कांड दोहा संख्या 233 से दोहा संख्या 277 तक का पाठ हुआ। पाठ में श्रीमती मंजुल रानी तथा श्रीमती पारुल अग्रवाल की विशेष सहभागिता रही।

कथा-सार

भरत जी भगवान राम को वन से वापस लाने के लिए जा रहे हैं। तथा अपने इस दृढ़ संकल्प को भगवान राम के पास पहुॅंचकर व्यक्त करते हैं कि प्रभु ! आपको अवश्य ही अयोध्या वापस आकर राजपद सॅंभालना है। विचार-विमर्श के मध्य ही राजा जनक भी आ पहॅंचते हैं।

कथा-क्रम

त्याग में तो मानो राम और भरत में होड़ लगी हुई है ।कहना कठिन है कि कौन आगे है। अंतर केवल इतना ही है कि राम के लिए भरत प्राणों से प्रिय हैं, जबकि भरत राम के चरणों में ही अपनी शरण चाहते हैं:-
मोरे शरण रामहि की पनही (अयोध्या कांड चौपाई संख्या 233)
भरत कहते हैं कि राम के ‘पनही’ अर्थात पादुका, जूता अथवा चरण ही मेरे लिए एकमात्र शरण है।
निषादराज ने इसी बीच कुछ मंगल शगुन होते देखे और सोचने लगा कि अब कुछ अच्छा अवश्य होगा। निषादराज को दूर से ही जामुन, आम आदि के वृक्ष दिखाई देने लगे। एक वटवृक्ष भी दिखाई दिया। इस वृक्ष का वर्णन तुलसीदास जी ने इस प्रकार किया है :-
जिन्ह तरुवरन्ह मध्य बटु सोहा। मंजु विशाल देख मन मोहा।। नील सघन पल्लव फल लाला। अविरल छॉंव सुखद सब काला।। (चौपाई 236)
अर्थात पेड़ों के बीच वट अर्थात बड़ का वृक्ष मंजु अर्थात सुंदर है। नीले घने पल्लव अर्थात पत्ते हैं। लाला अर्थात लाल रंग के फल हैं ।उसकी छॉंव सब काल में सुख देने वाली है। चित्रण करते हुए प्रकृति का सुंदर परिवेश सजीव प्रस्तुत कर देना कवि की विशेषता है। इससे शब्दों के द्वारा चित्र खींचने में कवि की प्रवणता दिखाई पड़ रही है । चित्रण एक अन्य स्थान पर भी देखने को मिल रहा है। देखिए, वन में लक्ष्मण जी का कैसा सुंदर चित्र तुलसीदास जी ने खींचा है:-
शीश जटा कटि मुनि पट बांधे। तून कसे कर सर धनु कांधे।। (चौपाई 238)
शीश पर जटा है, कटि अर्थात कमर पर मुनियों के वस्त्र बांधे हैं तून अर्थात तरकश कसा है, हाथ में बाण हैं और कंधे पर धनुष है। मुनि वेशधारी लक्ष्मण का वीरोचित चित्र खींचने में तुलसीदास जी की प्रतिभा चमत्कार उत्पन्न करने वाली है।
जब भरत जी ने राम को देखा तो चरणों में गिर पड़े । बस फिर क्या था ! रामचंद्र जी ने सिर उठाकर देखा तो भरत सामने खड़े हैं । प्रेम से हृदय से लगा लिया। इस घटना को कैसे चित्रित किया जाए, इसमें कवि की विशेषता होती है । तुलसी ने लिखा है :-
उठे राम सुनि प्रेम अधीरा। कहुं पट कहुं निषंग धनु तीरा।। (चौपाई 239)
अर्थात प्रेम से अधीर होकर राम भरत को गले लगाने के लिए उठे । कहीं उनका पट अर्थात वस्त्र गिर रहा है, कहीं निषंग अर्थात तरकस गिर रहा है और कहीं उनके धनुष और बाण गिरे जा रहे हैं। इस दृश्य को जिसने भी देखा वह भाव-विभोर हो गया। तुलसी की कलम भला इस दृश्य को ज्यों का त्यों चित्रित करने से पीछे कैसे रहती। तुलसी ने दोहा लिखा:-
बरबस लिए उठाई उर, लाए कृपा निधान। भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान।। दोहा 240
सब अपनी सुध-बुध भूल गए । जिसने भी भरत और राम को हृदय से लगते हुए देखा, वह सचमुच विदेह हो गया।
काफी देर तक किसी के मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला। तुलसी लिखते हैं कि न कोई किसी से कुछ पूछ रहा है, न कह रहा है । सबका मन प्रेम से भरा हुआ है । वास्तव में जब हृदय में भाव बहुत गहरे भर जाते हैं, तब वाणी अवरुद्ध हो जाती है। ऐसा ही राम और भरत के मिलन पर सबके साथ हो रहा है।
राम के मन में किसी के प्रति कोई क्रोध नहीं है। वह कैकई से मिलते हैं और कैकई को सांत्वना देते हुए जो कुछ हुआ है उसका दोष विधाता के सिर पर मॅंढ़ देते हैं:-
काल कर्म विधि सिर धरि खोरी चौपाई 243
कैकेई को केवल क्षमा ही नहीं कर दिया बल्कि उसको सांत्वना देना, यह कार्य केवल राम ही कर सकते हैं। साधारण व्यक्ति तो वनवास देने वाले व्यक्ति को तथा राजपद छीनने वाले व्यक्ति को अपना शत्रु ही मानेगा। केवल राम हैं जो सोचते हैं कहते हैं और समझाते हैं कि सब विधाता की मर्जी से हो रहा है। इसमें माता कैकई ! तुम्हारा कोई दोष नहीं है।
जब पिता की मृत्यु का समाचार राम को मिलता है तब उस दिन उन्होंने निर्जल व्रत किया। उन्होंने ही क्या किसी ने भी जल ग्रहण नहीं किया। वेद के अनुसार पिता की क्रिया की और तब शुद्ध हुए। शुद्ध होने के दो दिन बाद राम ने गुरुदेव वशिष्ठ से कहा कि सब लोग वन में दुखी हो रहे हैं, अतः आप सब को लेकर अयोध्या चले जाइए। लेकिन वशिष्ठ कहते हैं कि अभी दो दिन और रुक जाते हैं। इसी बीच वन में रहने वाले कोल किरात भील आदि वनवासी लोग कंदमूल फल आदि लेकर अयोध्या वासियों की सेवा में लग जाते हैं। उनका कहना है कि हम लोग तो कुटिल -कुमति वाले हैं, लेकिन भगवान राम के दर्शनों से हमारे सारे दुख और दोष मिट गए:-
जब ते प्रभु पद पदुम निहारे। मिटे दुसह दुख दोष हमारे।। (चौपाई 250)
इधर सीता जी अपनी रिश्ते की अनेक सासों की सेवा में लग गईं। एक सीता जी भला इतनी सासों की सेवा कैसे कर पाती हैं, इसके लिए तुलसीदास लिखते हैं:-
सीय सासु प्रति वेष बनाई (चौपाई 251) हनुमान प्रसाद पोद्दार जी चौपाई के इस चरण की व्याख्या इस प्रकार करते हैं: “जितनी सासुऍं थीं, उतने ही वेश रूप बनाकर सीता जी सब सासों की आदर पूर्वक सेवा करती हैं।”
वास्तव में यह भगवान राम की माया है जिसने एक सीता जी को अनेक रूप प्रदान कर दिए तथा प्रत्येक सास को यही लगा कि सीता जी उसकी सेवा में लगी हुई हैं। यह घटना भगवान कृष्ण के रासलीला प्रसंग का भी स्मरण करा देती है जिसमें प्रत्येक गोपी को मायावश यही लगता है कि उसके साथ कृष्ण रास कर रहे हैं। सचमुच भगवान की लीला अपरंपार है।
भगवान राम के सरल व्यवहार से केकई को बहुत पछतावा हो रहा है। उसे गहरा पश्चाताप है :-
कुटिल रानि पछितानि अघाई चौपाई 251
वशिष्ठ उचित समय पर सबको एक साथ बिठाकर राम के राज्याभिषेक की बात करते हैं:-
सब कहुं सुखद राम अभिषेकू चौपाई 254
इसी समय जब वशिष्ठ यह कहते हैं कि राम लक्ष्मण और सीता तो अयोध्या वापस लौट जाऍं तथा भरत और शत्रुघ्न को वनवास हो जाए, तब भरत को यह सुनकर किंचित भी दुख नहीं हुआ। उन्होंने कहा :-
कानन करउॅं जन्म भरि बासु। एहि ते अधिक न मोर सुपासू (चौपाई 255) अर्थात जन्म भर भी मैं वन में रहूं तो इससे अधिक मेरे लिए सुखकर और कुछ नहीं होगा।
भगवान राम ने भरत की अनेक प्रकार से प्रशंसा की और कहा कि कहने की बात तो दूर रही, अगर हृदय में भी किसी के तुम्हारी कुटिलता के बारे में विचार आ जाता है तो उसका लोक और परलोक नष्ट हो जाएगा। तुम्हारा नाम स्मरण करने से ही लोक-परलोक में सबको सुख मिलेगा । राम ने यह भी कहा कि बैर और प्रेम छुपाने से नहीं छुपते:-
बैर प्रेम नहिं दुरई दुराऍं चौपाई 267
राम और भरत में सचमुच प्रतिद्वंद्विता चल रही है। दोनों त्याग की मूर्ति हैं। किसी को राजपद का रत्ती भर भी मोह नहीं है। भरत ने भरी सभा में यह कह डाला कि राजतिलक की सारी सामग्री अयोध्या से आई है, उसका उपयोग करके भगवान राम का राजतिलक हो जाए और फिर मैं और शत्रुघ्न दोनों वन चले जाएं अथवा प्रभु राम सीता के साथ अयोध्या लौट जाएं और हम तीनों भाई ही वन को चले जाएंगे। यह सब भरत की राज सत्ता के प्रति निर्मोही वृत्ति को दर्शाने वाली प्रवृतियां हैं। भरत हृदय की गहराइयों से चाहते हैं कि राम वन को न जाकर अयोध्या को लौट जाएं । वह किसी प्रकार भी वरदान के कारण प्राप्त होने वाले राजै सिंहासन को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। यह विचार विमर्श राम और भरत के बीच अभी चल ही रहा है कि यह समाचार आया कि राजा जनक भी वन में आ रहे हैं । आखिर वह कैसे न आते? उनकी पुत्री सीता और दामाद भगवान राम वन को जो चले गए।
सबके हृदय में एक ही भावना थी कि राम राजा बनें, सीता रानी बनें और अवध सब प्रकार से आनंद से भर जाए:-
राजा राम जानकी रानी। आनॅंद अवधि अवध रजधानी (चौपाई 272)
राजा जनक वन में पहुंचकर विदेह की स्थिति को प्राप्त करने वाले महापुरुष होते हुए भी विचलित होने लगे। तब वशिष्ठ जी ने उन्हें धीरज बॅंधाया।
वास्तव में संसार में कोई भी व्यक्ति भावनाओं से परे नहीं होता। महाराज जनक अयोध्या के पल-पल के घटनाक्रम से भली-भांति अवगत हैं। वह भरत के प्रति अपार प्रशंसा और आदर के भाव से भरे हुए हैं। विधाता की क्रूर चाल के सम्मुख सब नतमस्तक हैं। जीवन में यही होता है । विधाता ने भाग्य में जो लिखा होता है, उसे टाल सकने की सामर्थ्य अनेक बार किसी के भी हाथ में नहीं होती।
—————————————
लेखक : रवि प्रकाश (प्रबंधक)
राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर स्कूल), पीपल टोला, निकट मिस्टन गंज, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 99976 15451

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