‘श…श.. वह सो गई है
(लतामंगेशकर के लिए)
बाल्मीकि रामायण पढ़ते हुए
हो गई थी मैं
जैसे
भाव विभोर
रस लिया एक एक
शब्द का
अर्थ का और उनके सौंदर्य का
राम की जल समाधि तक आते आते
लगा था
जैसे कुछ खोने जा रहा है।
कुछ छीज रहा है
बिछुड़ रहा है कोई बहुत प्रिय।
हालांकि पता था
क्या लिखा होगा आगे आदिकवि ने।
फिर भी लग रहा था
जैसे किसी प्रिय के बंद होते मुख में
टपकाना है मुझे गंगाजल दो बूंद।
ठीक उसी तरह,
हाँ! उसी तरह
आज फिर उतर रहे हैं
मेरे राम
एक बार फिर सदेह
सरयू जल में।
मैं स्तब्ध हूँ।
बालापन से सुने थे
मैंने तुम्हारे मधुमय गीत
तुम्हारे कोकिलकंठ के जादू ने
कर दिया था सजीव हर शब्द को
कब सोचा
वे शब्द किसने लिखे
बस! रच-बस गये थे मानस पटल पर
वे सुरों में ढले शब्द।
धमनियों में दौड़ते लहू की तरह
गूँजते रहे श्रवण रंध्रों में
और थिरकते रहे मेरे पग।
कहो! मैं तुम्हें कौन-सा गीत सुनाऊँ?
थक गई हो न?
सो जाओ।
हाँ!
हो गई हैं तुम्हारी पलकें भारी
और मुझे फिर से याद आ गया
राम का सरयू में उतरना।