श्रम साधना
ऊंची नीची पग डंडी पर ,
बोझ उठाकर चलने वाले ।
निठुर ठंड में ठिठुर कभी ,
और कड़ी धूप में जलने वाले ।।
जिनका लहू पसीना बनकर ,
गिरे तभी भू होती उर्वर ।
विलासिता जिनके जीवन ,
में रही सदा से ही चिर नश्वर ।।
अपना जो सर्वस्व न्योछावर ,
करके सृजन किया करते हैं।
खुद भूखे गरीब रहते पर ,
पेट अमीरों का भरते हैं ।।
जिनका जीवन रहा हमेशा ,
संकट और पीड़ा का साथी ।
उन श्रमिकों के पुरखों को भी ,
प्रगति पंथ की आशा ना थी ।।
धनबल से वो है गरीब पर ,
तन मन से हैं वैभव शाली ।
उनके जीवन की बगिया ,
में लहराती कोमल हरियाली ।।
पुष्ट बाजुओं से जिनने इस ,
जग को आलीशान बसाया ।
महलों का निर्माण किया पर ,
अपना घर खुद नहीं बनाया ।।
पर सम्पन्न घरानों में सुख ,
के सब साधन बरस रहे हैं ।
फिर भी श्रमिकों से जीवन को ,
सभी आज क्यों तरस रहे हैं ?
प्रकृति विरोधी सुख के साधन ,
समझो ये सब दुख दायी हैं ।
मानव जीवन में इनसे कई
नव विपत्तियां आयी है ।।
इन्हें छोड़कर प्रकृति शरण हम ,
जाएं तभी भला होगा ।
श्रम साधक बन कार्य करें ,
तब जीवन मधुर कला होगा ।।