शीर्षक–उड़ान
शीर्षक–उड़ान
..लेखिका –मनोरमा जैन पाखी
मेहगाँव जिला भिण्ड
मध्य प्रदेश.
आज फिर अपनी छत की मुंडेर से टिकी उड़ते पक्षियों को देखने में मगन थी। उसे आसमान में उड़ते पक्षी ,उनका कलरव सदैव आकर्षित करता ।जैसे पक्षी उससे कुछ कह रहे हों।
चंदना आवाज लगाती ,हाँफती हुई आई।स्मृति को कंधों से पकड़ते बोली ,”फिर यहाँ आ गयी ..कब से ढूंढ रही हूँ।”
मूक आँखों की भाषा से माँ को देखते हुये वापस उसकी नज़र पक्षियों पर चली गयी।
“चल नीचे।कितनी बार कहा कि मुझे बताये बिना कहीं भी मत जाया कर ..।हाथों के इशारों के साथ जुबान भी चल रही थी।फिर स्मृति को खींचते हुये ले जाने लगी।एक बार स्मृति ने अपनी बाँह छुड़ाने का प्रयास करते हुये पाँव पटके।
“नहीं…चलो अब.।”
यह कोई आज ही की बात न थी ।रोज ही ऐसा होता। जब भी स्मृति उसके साथ बाजार जाती ,मंदिर जाती चंदना उसका हाथ कसके पकड़े रहती। स्मृति का मन होता और बच्चों की तरह वह भी दौड़े -भागे ..उछले ..पर माँ की डाँट और मजबूत पकड़ के आगे मन मसोस के रह जाती।
बचपन में उसे अच्छा लगता था कि माँ उसका कितना ख्याल रखतीं हैं।पर जैसे -जैसे बड़ी होती जा रही थी अन्य हम उम्र बच्चों को देख उसकी आँखें भी सपने देखने.लगीं थी। उछल कूद ,खेलना ,साइकिल चलाना।पर शाम को घर के बाहर खेलते बच्चों को देख तो सकती थी वह पर खेल नहीं सकती थी।
मन विद्रोह करने लगा था । स्पेशल गर्ल थी स्मृति ।उसके लिये स्कूल कम थे फिर भी प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था हो गयी थी। जहीन थी अतः पाँच साल की शिक्षा तीन साल में पूरी कर ली थी।डाक्टर की सलाह पर सामान्य स्कूल में एडमीशन करवा दिया गया था।प्रारंभ में बच्चों के साथ तालमेल न बैठा लेकिन उसकी बुद्धिमानी, कुशाग्रता और परीक्षा में अव्वल आने पर उसने अपना विशिष्ट स्थान.बना लिया था।
बस दुख था यह कि वह अन्य बच्चों.की तरह अकेली न आ-जा सकती थी। कभी भाई या माँ उसे छोड़ने आते वह भी हाथ पकड़ कर । साइकिल चलानी भाई ने सिखाई पर फिर भी अकेले चला कर स्कूल नहीं आ सकती थी।
यूँ हीं साल दर साल गुजरते जा रहे थे और स्मृति की स्वयं से कुछ करने की इच्छा जोर पकडती जा रही थी।
इंटर का परिणाम घोषित होने वाला था और हमेशा की तरह चंदना उसका हाथ कस के पकड़ इंटर कालेज तक आई थी। पूरे कालेज में प्रथम स्थान प्राप्त स्मृति की खुशी का ठिकाना न था।माँ भी बहुत खुश थी।लौटते वक्त मिठाई लेते वक्त स्मृति की नज़र कुछ लड़कियों पर पड़ी ।हँसते -खिलखिलाते आत्मविश्वास के साथ साइकिल से जा रहीं थीं। आज स्मृति जब्त न कर सकी। घर जाने के लिये माँ ने जैसे ही उसका हाथ पकड़ा,उसने जोर से झटक दिया।माँ ने गुस्से में देखा तो उसने भी गुस्से में हाथ की ऊंगलियों से कहा कि वह ऐसे ही चलेगी बिना हाथ पकड़े और आगे बढ़ गयी। माँ घबरा गयी और पीछे भागी।
घर पहुँच कर चंदना ने अभी सामान रख कर पल्लू से पसीना पौंछना शुरु किया ही था कि ..स्मृति ने उसके सामने जा कर ऊँगलियों की भाषा में कहा कि वह अभी साइकिल से बाजार जा रही है।
चंदना ने कहा,”अभी तो आई है घूम के।जा पापा को पास होने की मिठाई देकर आ।”
पर स्मृति पर तो भूत चढ़ा था अकेले साइकिल पर जाने का।पाँव पटक कर मुँह से गूँ गूँ करते हुये ऊँगलियाँ चलाते बोली,”न..अभी साइकिल पर जाना है …अभी..अभी।”
तब तक कमरे से अभय भी आ गये ..”क्या बात है मेरी गुड़िया को गुस्सा क्यों आ रहा है ?आज तो रिजल्ट था मेरी गुड़िया का!”
“स्मृति ने अनसुना करते हुये अभय से सिर्फ एक बात कही ईशारे से कि वह साइकिल से बाहर जाना चाहती है।”
अभय ने चंदना को देखा तो वह भन्नाई हुई थी।जोर से आवाज देकर बोली ,नवीन ,जा इसे साइकिल पर घुमा ला।”
“नही…गूँ गूँ घूँ ..।”स्मृति जोर से चिल्लाई और इंकार में हाथ हिला आँगन की ओर दौड़ गयी ।गुस्से में साइकिल निकाली और मुड़ कर माँ की तरफ देख कर इशारा किया वह अकेली जाएगी।
चंदना कुछ कहती उससे पहले अभय ने उसके कंधे पर हाथ रख रोक दिया।
अब स्मृति थी और पाँवों में साइकिल का पैडल ।पूरे आत्मविश्वास से बाजार का पूरा चक्कर लगा कर आई।रास्ते में स्कूल की कुछ लड़कियाँ मिली उनके साथ रेस लगाई। आस पास सब कुछ नज़र भर कर देखा। गोरी स्मृति की बड़ी बड़ी आँखों में आज अलग ही विश्वास था।
दो घंटे बाद लौट कर आई बेटी के चेहरे को देख अभय समझ गये कि एक कदम आगे बढ़ गयी है बेटी। उन्होंने चंदना को.देख कर उसे आश्वस्त किया।
अब आस पास से स्मृति घर का सामान भी ला देती ।जरुरी काम भी कर देती। माँ का हाथ छूटा तो विश्वास जागा।
कुछ समय बीता।सहेलियों के साथ कालेज से लौटते वक्त उसकी नज़र अचानक कुछ लोगों पर पड़ी।कुछ नवयुवक व युवतियाँ उसी की तरह बात कर रहे थे। देर तक देखती रही और फिर न जाने क्यों वह उनकी तरफ बढ़ गयी।वह लोग एकबड़े से दरवाजे से अंदर आ-जा रहे थे।उनके कपड़े जैसे कोई यूनिफॉर्म हो।उसकी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी।आखिर वह दरवाजे के पास साइकिल टिका अंदर चली गयी।
एक बड़ा सा हॉल था जिसमें करीने से टेबिल कुर्सियाँ सजी हुईं थी। बीच में खाली जगह भी बहुत थी।लोग बैठे हुये थे …।
वह कांफिडेंस के साथ काउंटर पर बढ़ गयी और इशारे से पूछने की कोशिश की।आश्चर्य हुआ जब जबाव में उसी की तरह इशारे की भाषा का प्रयोग हुआ।वह एक रेस्तराँ था जो शहर में विशेष वर्ग के लिए ट्रेनिंग के साथ उन्हें जॉब की सुविधा भी देता है ।
यह सुनकर उसकी खुशी का ठिकाना न रहा।”अब मैं भी अपने पैरों पर खड़ा हो सकूँगी।”
ट्रेनिंग फॉर्म लेकर सब नियम और शर्तें समझी।
घर आई और फार्म अभय के आगे रख दिया
“ये क्या ?अभय ने सवालिया नज़रों से देखा।जबाव में अपनी स्पेशल भाषा में स्मृति ने आशाभरी नज़रों से समझाया।अभय गंभीर हो गये ।
“बेटा…तुम यह क्यों करना चाहती हो ?क्या हमारी तरफ से कोई कमी रह रही है तुम्हारी जरूरतों के लिये ?”
नहीं पापा, आप जितना प्यार और केयर तो कोई कर ही नहींसकता। पर आप जानते हैं मैं दुनियाँ से अलग हूँ ।अपने पाँवों पर खड़ी होना चाहती हूँ कुछ नया सीखना चाहती हूँ स्वयं में कांफिडेंस लाना चाहती हूँ।पैसों के लिए नहीं..।”
अभय ने गँभीरता से स्मृति की बात को समझा। फॉर्म उठा कर बोले चलो साथ ।
दोनों उसी जगह आये ।अभय देख कर चकित रह गये कि स्मृति की उमर के लड़के लड़कियाँ कांफिडेंस के साथ वहाँ आये कस्टमर अटैंड कर रहे हैं ।
अभय ने स्वयं पूरी जानकारी ली। एक माह की फ्री ट्रेनिंग के बाद अगर इच्छा हो तो यहीं काम भी कर सकती है।
अभय ने फॉर्म भरने को कहा तो स्मृति की आँखों में खुशी के आँसू छलक आये ।आज वह भी उन आकाश में उड़ते पक्षियों सा हल्का महसूस कर रही थी वह।उसका गूंगापन आज सभी मुश्किलों से लड़ने को तैयार था।
स्वरचित ,मौलिक ,अप्रकाशित
मनोरमा जैन पाखी
गृहिणी
जैन प्रतियोगिताओं में तीन बार अंतर्राष्ट्रीय विजेता,
अन्य प्रतियोगिताओं में भी सम्मान .यथा छंद सारथी ,वीणावादिनी, गीत प्रवर ,बाबूमुकुंदराय स्मृति ..आदि एवं विभिन्न फेसबुक समूहों से लगभग 100 सम्मान पत्र ।जैन पत्रिकाओं की अतिथि संपदिका।
समीक्षक, लेखन ,संपादन ,
विधायें लघुकथा ,कहानी ,हाइकु,संस्मरण ,छंद …
पता — मनोरमा जैन पाखी
सदर बाजार ,मेहगाँव
जिला भिण्ड
मध्य प्रदेश