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27 Aug 2023 · 5 min read

शिवाजी गुरु समर्थ रामदास – पंचवटी में प्रभु दर्शन – 04

विवाह मंडप से भागने के बाद आगे कहाँ जाएँ, क्या करें, किससे मिलें, नारायण को कुछ पता नहीं था। उन्हें खोजने के लिए बड़े भाई और बाराती ज़रूर आएँगे, यह वे भली-भाँति जानते थे। उनके हाथों पकड़े गए तो गले में वरमाला पड़ना निश्चित था। इसलिए वे एक बड़े से पीपल के पेड़ की जड़ में जाकर छिप गए।

उन्हें खोजने आए हुए लोग कुछ देर तक यहाँ-वहाँ उनकी खोज करके, मायूस होकर चले गए। सारा कोलाहल शांत होने के बाद, चार-पाँच दिन यहाँ-वहाँ छिपने के बाद नारायण उस गाँव से निकल पड़े।

अचानक ही घर छूटा था। आगे किस दिशा में जाना है, इसकी कोई योजना भी नहीं बनी थी। लेकिन घर वापसी का रास्ता अब उन्हें मंज़ूर नहीं था। विश्वकल्याण का उद्देश्य उन्हें यह करने की अनुमति नहीं दे रहा था।

अब निश्चिंत होकर साधना करने के लिए एक शांत, एकांतभरी जगह खोजने की आवश्यकता थी। उनके सामने गोदावरी तट पर बसे नाशिक चले जाने का विकल्प था।

नाशिक, जहाँ पंचवटी में प्रभु श्रीराम ने अपने वनवास का कुछ समय बिताया था। यह स्थल आदिकाल से तपस्वी और ऋषिमुनियों के लिए तपोवन रहा है। उस स्थान की आभा आध्यात्मिक प्रभाव से भरी होगी, इस आस्था के साथ नारायण पंचवटी की ओर निकल पड़े।

एक-एक गाँव पार करते हुए, चलते-चलते नारायण गोदावरी तट पर स्थित पंचवटी आ पहुँचे। गोदावरी में स्नान कर उन्होंने राम मंदिर में आश्रय लिया। मन में प्रभु राम के मंत्र का जाप निरंतर चल ही रहा था और प्रभु राम के दर्शन की आस भी तीव्र होती जा रही थी। वे उस मंदिर में ध्यानमग्न होकर बैठ गए।

कुछ ही देर में, ध्यान अवस्था में उनके सामने एक आभा प्रकट हुई। जिसे देख, नारायण ने अपने प्रभु राम को पहचान लिया। वे उनके चरणों में लोट गए। मन ही मन वे तपस्या करने के लिए प्रभु से आश्रय माँग रहे थे। प्रभु ने प्रेम से अपना हाथ उनके मस्तक पर रखा और तपश्चर्या करने का आदेश देकर वह तेजस्वी आभा अदृश्य हो गई।

ध्यान से बाहर आने के बाद नारायण को विचार आया कि कहीं यह कोई मतिभ्रम तो नहीं? प्रभु के दर्शन इतनी सहजता से कैसे हो सकते हैं! मगर प्रभु राम के आदेश की वाणी अब भी उनके कानों में गूँज रही थी। उस दर्शन से हृदय में उठा भक्ति का भाव, जो अब भी महसूस हो रहा था, उसे नकारते भी कैसे!

भूखे पेट काफी दूर तक यात्रा करने की वजह से नारायण का शरीर दुर्बल हो चुका था। साथ ही उस दिव्य दर्शन से उठे भाव की वजह से नारायण मूर्छित होकर ज़मीन पर गिर पड़े। मंदिर में आए हुए भक्तों ने बालक को होश में लाया और उसकी पूछताछ की। नारायण ने अपने बारे में कुछ नहीं बताया। एक स्त्री उन्हें अनाथ बालक समझकर अपने घर ले गई और खाना खिलाकर अपने घर में आश्रय दिया।

अगले दिन सुबह उस स्त्री को धन्यवाद देकर, नारायण मंदिर चले गए और वहीं आश्रय लेकर रोज़ाना मंदिर में साफ-सफाई का कार्य करने लगे। पूजा होने के बाद जो समय बचता, उसे वे मनन और ध्यान के लिए इस्तेमाल करते।

समाधि में प्रभु राम के दर्शन पाकर, आजकल नारायण के मुख से सहज ही भक्ति भरे पद निकलने लगे थे। सारा दिन मानो उनका चित्त हिंडोले पर सवार रहने लगा था। लोगों के बीच रहकर भी वे सबसे अलिप्त थे। अकसर इस अवस्था में सांसारिक बातें व्यर्थ लगने लगती हैं। नारायण भी इससे अछूते नहीं थे।

परिवार से दूर अकेले बालक को इस दशा में देखकर कोई उन्हें बालयोगी कहता तो कोई बैरागी। लोग सोचते थे काश, इसके माता-पिता का पता लग जाए ताकि इसे घर पहुँचा दिया जाए।

लेकिन नारायण किसी की बात माननेवाले नहीं थे। वे दिन-रात अपने कर्म करने और जप में व्यस्त रहते। जब भी कोई उनसे उनके घर-परिवार के बारे में पूछता तो नारायण का एक ही जवाब होता था… ‘प्रभु राम को सब पता है।’

लोगों को समाधानकारक उत्तर नहीं मिलता तो वे उनके बारे में तरह-तरह की बातें बनाते। नारायण ने समझ लिया कि भक्ति भाव में रहकर, तपस्या करनी है तो संसारी लोगों से और उनके कौतुहल से दूर रहना होगा। वरना वे एक दिन वापस अपने घर-जामगाँव पहुँचा दिए जाएँगे।

इस आशंका से वे पंचवटी छोड़कर गोदावरी तट पर स्थित टाकली (टाकळी) चले गए और वहाँ एक टीले पर कुदरतन बनी छोटी गुफा में रहकर तपश्चर्या करने लगे।

☤ चुनौतियाँ हरेक के जीवन में आती हैं यदि लक्ष्य के प्रति समर्पण है तो चुनौतियाँ नए मार्ग खुलने के लिए निमित्त बनती हैं।

जनीं हीत पंडीत सांडीत गेले। अहंतागुणे ब्रह्मराक्षेस झाले॥ तयाहूनि वित्पन्न तो कोण आहे। मना सर्व जाणीव सांडूनि राहे॥113॥

अर्थ – बड़े-बड़े विद्वान पंडित, लोगों का हित करने के पश्चात भी ‘मैं श्रेष्ठ हूँ।’ इस अहंकार की वजह से मोक्ष प्राप्त नहीं कर सके। मोक्ष न मिलने की वजह से वे मृत्यु पश्चात ब्रह्मराक्षस* योनि में ही अटक गए। विद्वान पंडितों का भी अहंकार की वजह से यह हाल हो सकता है इसलिए हे मन, तुम अहंभाव त्यागकर ही रहना।

अर्क – खुद को दूसरों से अलग, श्रेष्ठ मानना अहंकार है। अहंकार इंसान को शैतान बना सकता है। अहंकार ही मन के विनम्र और आज्ञाकारी होने में सबसे बड़ी बाधा है। अहंकारी मन इंसान का शत्रु तो आज्ञाकारी मन इंसान का मित्र है। अहंकार की वजह से इंसान का उच्चपद से पतन भी हो सकता है। इसलिए समर्थ रामदास ने मन को अहंकार त्यागनेे का उपदेश दिया है।

*ब्रह्मराक्षस – मान्यता के अनुसार, जिस विद्वान ब्राह्मण को मृत्यु पश्चात सद्गति न मिली हो वह ब्रह्मराक्षस (पथभ्रष्ट) बन जाता है।

तुटे वाद संवाद तेथे करावा। विवेकें अहंभाव हा पालटावा॥

जनीं बोलण्यासारखें आचरावें। क्रियापालटें भक्तिपंथे चि जावे॥115॥

अर्थ – जहाँ वाद-विवाद समाप्त होने की संभावना हो, वहाँ संवाद करो। विवेक के साथ अहंभाव को समाप्त करो। जो वाणी में है वही आचरण में लाओ। भक्तिमार्ग हमारा आचरण बदल देता है इसलिए हे मन, तुम भक्ति के मार्ग पर चलो।

अर्क – अहंकार, वाद-विवाद का कारण है, जो संवाद की पहल करने नहीं देता। जहाँ संवाद से वाद-विवाद समाप्त होनेवाले हैं, वहाँ अहंकार को बाजू में रखकर संवाद करना, विवेकपूर्ण व्यवहार है। भक्तिमार्ग पर अहंकार मिट जाता है तो वाद-विवाद समाप्त हो जाते हैं। इसलिए समर्थ रामदास मन को भक्तिमार्ग पर चलने का उपदेश देते हैं।

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