शिवाजी गुरु समर्थ रामदास – बाल्यकाल और नया पड़ाव – 02
माँ राणुबाई की परवरिश में दोनों बच्चे पल-बढ़ रहे थे। दिन बीतते गए और देखते ही देखते बड़ा बेटा गंगाधर विवाह योग्य हो गया। एक सुयोग्य वधु ढूँढ़कर उसका विवाह किया गया। लेकिन इससे नारायण के सामने एक समस्या उत्पन्न हो गई। अकसर घर में बड़ों की शादी के बाद छोटों के विवाह की भी चर्चाएँ शुरू होती हैं। नारायण इससे भला कैसे छूटते! बारह साल की उम्र में ही घर में नारायण के विवाह की बातें शुरू हो गईं।
बड़े भाई से अब तक नाममंत्र नहीं मिला था और ऊपर से शादी की चर्चाएँ! इससे नारायण मायूस हो गए। शादी की बातों ने जल्द ही इतना ज़ोर पकड़ लिया कि लोग उनके लिए रिश्ते लेकर आने लगे। नारायण ने सोचा, इस तरह संसारी बनने से ‘विश्व कल्याण’ का उद्देश्य उनसे दूर हो जाएगा।
एक दिन इन सब बातों से परेशान होकर, घरवालों से रूठकर वे हनुमान मंदिर में जाकर बैठ गए। ‘अब हनुमानजी को ही अपना गुरु मान लेते हैं।’, इस भावना से उनका हृदय भर आया। उन्होंने निश्चय किया कि जब तक स्वयं हनुमानजी दर्शन नहीं देते, वे वहाँ से नहीं हिलेंगे और न ही अन्न-जल ग्रहण करेंगे। मूर्ति के सामने बैठे नारायण की आँखों से आँसू बहने लगे और दिल से पुकार उठने लगी, ‘मुझे मार्ग दिखाओ भगवन्… मुझे मार्ग दिखाओ…!’
जब प्रार्थना में बल आता है तब जिस चीज़ के लिए आप प्रार्थना कर रहे हैं, वह आपके जीवन की तरफ बढ़नी शुरू होती है। कुदरत की तमाम शक्तियाँ उस चीज़ को आप तक पहुँचाने के कार्य में लग जाती हैं। घटनाएँ उस दिशा में आकार लेने लगती हैं।
नारायण के साथ भी यही हुआ। ईश्वर दर्शन की प्यास उनमें इतनी तीव्र हो चुकी थी कि मूर्ति के सामने बैठे हुए वे सहज समाधि की अवस्था में चले गए। उनकी करुणामयी पुकार काम कर गई। समाधि अवस्था में उन्हें भगवान हनुमान ने प्रत्यक्ष दर्शन दिए। उन्होंने हनुमान जी से, अपना शिष्य बनाने की विनती की लेकिन इससे भी कुछ अद्भुत होने जा रहा था।
वहाँ से हनुमान उन्हें अपने आराध्य, प्रभु रामचंद्र से मिलवाने ले गए। हनुमान की कृपा से उन्हें प्रभु श्रीराम का साक्षात्कार हुआ और स्वयं प्रभु राम ने उन्हें नाममंत्र देकर दीक्षित किया। उन्हें मिला हुआ तेरह अक्षरोंवाला वह मंत्र था, ‘श्रीराम… जय राम… जय जय राम…!’
यह एक ऐसी अद्भुत कृपा है, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। समाधि में मिला हुआ यह ऐसा अनुभव था, जिसे शब्दों में बताना कठिन है। आज तक जितने भी महापुरुषों को ऐसे अनोखे अनुभव हुए हैं, उन्होंने उनका वर्णन लोकभाषा में करने का प्रयास किया है ताकि सामान्य लोग भी उसकी अनुभूति कर सकें।
हनुमान का उन्हें अपने साथ प्रभु राम से मिलवाने ले जाना, ध्यान और समाधि में मिला हुआ सूक्ष्म देह का अनुभव है। कई बार ऐसा होता है कि कोई इंसान गहरी नींद में या गहरे ध्यान में होता है और उसकी सूक्ष्म देह अलग-अलग स्थानों पर भ्रमण करती है, अलग-अलग अनुभव लेती है।
इसी अवस्था में नारायण के कुछ क्षण बीत गए। थोड़े समय में ही आस-पास के शोर की वजह से उनकी समाधि अवस्था भंग हुई। “नारायण अचानक कहाँ चला गया”, इसी परेशानी में उनके घरवाले और आस-पड़ोस के लोग उन्हें ढूँढ़ते हुए मंदिर आए थे। वहाँ नारायण को सही-सलामत देखकर सभी निश्चिंत हुए।
जब माँ ने उन्हें वापस घर चलने के लिए कहा तब वे छलाँग लगाकर पेड़ पर चढ़ गए और रुआँसा मुँह बनाकर बोले, “नहीं! मैं घर नहीं आऊँगा! तुम मेरी शादी करवा दोगी।” लोगों ने जब उन्हें मनाने की कोशिश की तो उन्होंने कुएँ में कूद जाने की धमकी दी। हालाँकि नारायण के लिए कुएँ में कूदना कोई बड़ी बात नहीं थी, वे अकसर पेड़ पर चढ़कर वहाँ से कुएँ में छलाँग लगाते थे। लेकिन उनकी यह धमकी सुनकर सभी तनाव में आ गए।
घरवालों को डराने के लिए उन्होंने कुएँ में छलाँग लगाई भी पर बड़े भाई गंगाधर उनकी सारी करामातें जानते थे। उन्होंने माँ से कहा, “तुम चिंता मत करो, मैं उसे लेकर आता हूँ।” यह सुनकर नारायण ने फिर दूसरी धमकी दी, “अगर मुझे पानी से बाहर निकालने के लिए तुम आओगे तो मैं पानी में ही डूब जाऊँगा।”
माँ ने कहा, “बेटा, ऐसा मत करो, तुला आईची शपथ आहे. (तुम्हें माँ की कसम है) कुएँ से बाहर आ जाओ, मैं तुम्हारी शादी की बात नहीं करूँगी।” जैसे ही नारायण ने यह सुना, उन्होंने चैन की साँस ली और वे कुएँ से बाहर आकर सबके साथ घर चले गए। माँ से ‘शादी की बात न करने का वचन’ पाकर, नारायण की बेचैनी को थोड़ी सी राहत मिली।
अब उनके सामने एक नया जीवन था। समाधि में अनोखा अनुभव मिल चुका था और शादी की बातें भी रुक गई थीं। तमोगुण उनमें पहले से ही नहीं था और रजोगुण सुप्त होकर सत्वगुण पूरी तरह से जागा था। इस अवस्था में वे और शांत होते गए और उन्होंने प्रभु श्रीराम से मिले हुए मंत्र का जाप करना शुरू किया–
श्रीराम… जय राम… जय जय राम…!
विपरीत घटनाओं के बावजूद भी जो अपने इरादे नहीं बदलते, उनके जीवन में चमत्कार होते हैं। ऐसे लोग दुनिया के सामने निष्ठा और विश्वास की मिसाल बन जाते हैं।
जनीं सर्वसूखी असा कोण आहे? विचारें मना तूंचि शोधूनि पाहे॥
मना त्वां चि रे पूर्वसंचीत केलें। तयासारिखें भोगणें प्राप्त झालें॥11॥
अर्थ – इस दुनिया में सर्वसुखी (पूर्ण रूप से सुखी-समाधानी) ऐसा कौन है? हे मन, तुम ही यह सोचकर खोज निकालो। आज जो भी तुम भुगत रहे हो, यह तुम्हारे ही पूर्वसंचित कर्म हैं।
अर्क – कितनी भी सुख-सुविधाएँ मिलें, मन कभी पूर्णरूप से खुश नहीं होता। एक इच्छा पूरी होने के बाद वह दूसरी इच्छा जगाता है। मन की इच्छाएँ, मन की वृत्तियाँ और उनके द्वारा इंसान से होनेवाले कर्म ही उसके जीवन की स्थिति के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। मन इच्छाओं के पूरा होने में खुशियाँ ढूँढ़ता है क्योंकि उसने असली आनंद (स्वबोध) का स्वाद चखा ही नहीं है। जब तक आत्मज्ञान नहीं मिलता, मन के अंदर सुख-दुःख का खेल चलते रहता है।
मना सांग पां रावणा काय जालें। अकस्मात तें राज्य सर्वें बुडालें॥ म्हणोनी कुडी वासना सांडि वेगीं। बळें लागला काळ हा पाठीलागीं॥13॥
अर्थ – हे मन, रावण के साथ क्या हुआ देखो। उसका साम्राज्य देखते-देखते नष्ट हो गया। इसलिए हे मन, वासना का त्याग जल्द से जल्द करो क्योंकि बलशाली काल सभी का पीछा कर रहा है।
अर्क – मन की वासनाएँ इंसान के पतन का कारण बनती हैं। सीताजी को प्राप्त करने की इच्छा रावण का साम्राज्य नष्ट होने और रावण के अंत का कारण बनी। इंसान पृथ्वी पर सीमित समय के लिए होता है। इसलिए जितना जल्दी हो सके, मन के विकारों पर कार्य होना आवश्यक है।
जय जय रघुवीर समर्थ..