शायद स्वप्न हो पूरा
मात पिता के चरण दबाएं
सुख पाएं आशीष कमाएं।
दिव्यांगों को राह दिखाएं
बांह पकड़ मंजिल पहुंचाएं।
राह के पत्थर उठा कर फेंकें
मार्ग के कंटक उखाड़ डालें।
रोती अंखियों की बुंदियां रोकें
उदासियों को दे दें मुस्कान।
भूखे पेटों को दे दें रोटी
प्यासों की प्यास बुझा डालें।
निर्धनता की जड़ दें उखाड़
बचपन को करने न दें बेगार।
नारी पर न होने दें अत्याचार
कुछ करो कि हर सिर पर छत हो।
हर बच्चे को शिक्षा का हक हो
मंहगाई पर हो सच में अंकुश।
कृषक न हों बेबस और दुखी
शासन ऐसा हो सब रहें सुखी।
शायद…
शायद यह सोच
ले कभी सही आकार
कभी हो जाए यह स्वप्न साकार।
सुखमय हो जाए सारा समाज
ये सब सच होगा कल या आज।
तभी होगा वास्तव में सुराज
जिसे हम कह सकेंगे रामराज्य।
–रंजना माथुर दिनांक 29/11/2017
(मेरी स्व रचित व मौलिक रचना)
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