शहीदी बेवा-बच्चे बनाम टीवी चर्चाऐं
देश के दुर्गम बार्डर पर
पाँच सैनिक मारे गये
पाँच घर परिवार अनाथ विधवा हुए
पाँच युवाओं के जीवन का,
बेकसूर अन्त हुआ
पाँच घरों के बच्चों को
अब बिना बाप जीना होगा
पाँच निर्दोष अबलाऐं
अब विधवा कुल्टा कहलाऐंगी
कुछ लोग अशुभ कहेंगे
कुछ उन्हें अपशकुन कहेंगे
वो पर्व-पूजा में दुबकी रहेंगी
तीज-त्यौहार में पीछे रहेंगी।
——
और उधर टीवी चैनल पर,
पाक हिंसा पर वार्ता के लिए
पाँच-छः नेता-विद्वान बुलाए गये
बहस वार्ता का पैनल बनवाया गया
कोई स्टूडियो एडिटर
कोई साज-सज्जा,
कोई कैमरामैन,कोई लाइटमैन
मेकअपमैन ने एंकर को सजाया
उसका लिपिस्टिक चमकाया
आइब्रो, केश, साड़ी, दुपट्टा सजाया
हर अंग को उभारा-निखारा,
मुस्कान का रिहर्सल कराया
आँखों का चाल-चलन-मटकन,
उँगलियाँ उठाने, जुल्फें संवारने का
तौर तरीका दोहराया,
नेताओं का कुर्ता संवारा
ठीक दूरी पर लाइटिंग कराई
हर नेता पर फोकस बनाया
स्टूडियो सजाया गया
एंकर से लेकर एक्सपर्ट
सभी चमके,सभी के चेहरे दकमे ।
——
अब वार्ता शुरू हुई मौत पर,
हाँ खूब सजधज कर वार्ता,
पाँच शहीदों की मौत पर वार्ता
पांँच निर्दोषों की हत्या पर वार्ता
उन पाँच युवकों की
जो पेट की भूख के वास्ते
गरीब माँ-बाप खानदान की
जरूरतों के वास्ते,
बमुश्किल दसवीं पास कर,
गाय बैल बकरी भैंस पालते-खेलते
गाँव की मिट्टी में पसीना बहाकर
किसी तरह शरीर सौष्ठव बनाकर
फौज में भर्ती हो सके थे,
गरीब के घर में ज्योत जगी थी
खुशी ही खुशी अपार खुशी
निर्धन के लिए,
वही आइएएस वही डॉक्टर इंजीनियर
वही मंत्री वही कप्तान ब्रिगेडियर
गरीब का बेटा
दसवी पास फिर फौजी
और क्या चाहिए था
अल्ला का करम, ईश्वर सबकी कृपा।
——
और आज गरीब के घर
लाड़ले की लाश लौटेगी
चार साल पुरानी पत्नी की गोद में
सिर होगा शौहर की लाश का
माँ बीस साल तक घर आँगन में पाले
अपने लाड़ले को छाती से लगाकर
रोऐगी, तड़पेगी, चीखेगी, बिलखेगी
बाप भीतर-भीतर घुटेगा छाती पफ़टेगा
गाँव बिरादरी के संग बैठा सुनेगा,
देश के लिए मरा शहीद बना
ऐसा सुपुत्र कहाँ ऐसा गर्व कहाँ
ऐसी मौत कहाँ ऐसा स्वर्ग कहाँ
और भीतर भीतर बाप,
पूछता है खुद से
ये कैसा बलिदान
ये किसके लिए निछावर
काहे की कुर्बानी कैसी शहादत
जिस मुल्क के नेता अफसर रहनुमा
65 साल तक कश्मीर के नाम पर *
चन्द मील जमीनों की सीमा तय न कर सके
इंसान से इंसान का झगड़ा न सुलझा सके
जिस मुल्क के कर्णधार,
दिल्ली में आलीशान बैठे
फौजों की लड़ाई का सेहरा
अपने सिर बाँध लेते हैं
जिस मुल्क के रहनुमा
खुद एयरकंडीशन आरामगाहों में बैठे
रिश्वतों अय्यासियों बैठकों में मदमस्त हैं
जिस मुल्क में फिल्मी नर्तक
क्रिकेट के खिलाड़ी,
टीवी पर कथावाचक
गली मुहल्ले के तांत्रिक ही
भगवान बना दिये जाते हैं
जिस मुल्क में
सिपाही की ऐसी पहचान कि
वे मरने के लिए ही भर्ती होते हैं
और बेवाओं को मोटी रकम मिलती है
उस पूँजी पर फिर मायका बनाम ससुराल
लड़ते-छीनते-झपटते हैं
उस मुल्क के लिए
ऐ कैसी कुर्बानी कैसी शहादत।
——
सोचता है टूटी छाती को थामा बाप,
भ्रष्ट जनता, भ्रष्ट नेता
भ्रष्ट सिस्टम अफ़सर उद्यमी
सारे भ्रष्ट सारे अय्यास मदमस्त,
धन दौलत की रौनक और लूट,
डूबे सिमटे सारे कलियुगी
न रिश्ते न नाते न धर्म न ईमान
फिर काहे की कुर्बानी
सिर्फ उसका बेटा दे गया,
बार्डर पर किसके अहंकार की
कीमत उसका बेटा चुका गया,
किसकी बेवकूफियों का प्रतिदण्ड
सैनिक दे, उसके अनाथ, उसकी बेवा दे
आरामगाह में करोड़ों ऐश करें,
कोई बेकसूर जानलेवा सीमाओं पर मरे,
आखिर कब तक?
——
और यों छाती के अंतर्द्वन्द संग,
चिता की आग बराबर जलाती रही,
बाप को मिट्टी के लोटे में,
बेटे की अस्थि-खाक मिली,
कर्म-काण्डी पंडित-पुरोहितों ने,
जले में मिर्ची पिरोया,
आखिरी प्रवचन कहा,
बोला मोक्ष मिल गया,
गंगा-जमुना में बहा लेना।
——
सरकारी अफसरों का,
छुटभैये नेताओं का,
कुछ दिनों रेला आया
सरकारी चेक आये,
रुपये पर रुपये आये,
लेकिन तेरहवीं से पहले ही
मौत की कीमत के पैसों पर,
बंटवारे का झगड़ा हो गया
परिवार बिखर गया,
मायका-ससुराल झगड़ लिया,
सास ससुर बहू देवर का बंटवारा हो गया
सिपाही के मासूम अनाथ बीबी-बच्चे
रोते-रोते बिलखते रहे,
और इस तरह
एक गरीब मासूम परिवार का भी
भारत-पाक बंटवारा हो गया।
——
उधर नेता अफसर
आलीशान दफ्तरों में बैठे
आगत की नीतियाँ लिखने लगे,
टीवी चैनल नयी ब्रेकिंग न्यूज की
तलाश में जुट गये,
अखबारों पत्रिकाओं ने इस बीच,
जब तक अगली मौतें न हुई,
सीमाओं से अगली ब्रेकिंग न्यूज तक,
फिल्मी बॉलीवुड की नंगी तस्वीरें छापी,
रूसी महिलाओं से मालिस कराने के,
मर्दाना ताकत हेतु पुरुषत्व वीर्य बढ़ाने के,
खूब सारे विज्ञापन छापे रुपये कमाए,
हत्याओं बलात्कारों की खबरों को
रोचक मसालेदार बनाकर,
खूब साया कराये, छापे, बहस कराये।
——
और यों ही खुशहाल राष्ट्र चलता रहा,
हर अगली घटना पर किसी न किसी
बेकसूर की मौत के चर्चे करता हुआ,
नक्सलियों आतंकियों के हाथों
राष्ट्रभक्ति के नाम पर
बेकसूरों की कुर्बानियाँ देखता हुआ।
-✍श्रीधर. / 2012
[सन् 2012 में एक वास्तविक दुर्घटना पर लिखी एवं छपी रचना थी, इसलिए * 65 साल लिखा गया, जो आज 74 साल हुआ, मैंने गणितीय परिवर्तन न कर, कविता को यथा रहने दिया।]