शब्दों में प्रेम को बांधे भी तो कैसे,
शब्दों में प्रेम को बांधे भी तो कैसे,
इस अलौकिक एहसास की महत्ता को जाने भी तो कैसे?
जीवन के प्रारंभ की आधारशिला है प्रेम,
और जीवन की समाप्ति का आकाश भी है ये प्रेम।
कहीं तर्पण में समर्पित सा है प्रेम,
तो कहीं तपस्या में जप बनकर गूंजता है ये प्रेम।
प्रकृति के कण-कण में समाहित है प्रेम,
तो ऊर्जा बन जीवन को सक्रिय बनाता है ये प्रेम।
कुछ मानते विकल्प, परन्तु संकल्प है प्रेम,
एक कोरी भावना नहीं एकमात्र वास्तविकता है ये प्रेम।
विश्वास की संचित धरोहर सा भी प्रेम,
निष्ठा के अटूट धागों में पिरोया गया है ये प्रेम।
हम सवालों में ढूढ़ते है प्रेम,
पर जवाब बनकर हर क्षण समक्ष रहता है ये प्रेम।
ना बिम्ब, ना आलम्बन, ना लक्षणा, ना व्यंजना है प्रेम,
आभास और कल्पना से भी परे है ये प्रेम।
कहीं एक रस, तो कहीं एक भाव में रंगा मिलता है प्रेम,
एक सुर, एक ताल में बंधा रहता है ये प्रेम।
कृष्ण का विराट स्वरूप है प्रेम,
तो सूक्ष्म ब्रह्मांड के उदाहरण में है ये प्रेम।
मुझमें समाहित आत्मतत्व है प्रेम,
और तुझमें निहित परम तत्व भी है ये प्रेम।