व्यथा
उमर बढ़ती का असर,
अब न महकें वर्ण स्वर ।
महकती संवेदना
भुला दे या माफ़ कर ।
बात तब की और थी
थी खुशी की वो डगर ।
छुआ था हमने उन्हें
जाते हुए को दौड़ कर ।
चले जितना चल सके
और चल सकते अगर ।
गीत में साथ देती
ठुमकने को ये कमर ।
डूबते किनारों की
कौन सुघि ले कबतलक
परिस्थिति मारे जिसे
हो नहीं उसको खबर ।
दूरियां हों भले ही
एक है लेकिन शहर ।
आज भी हम छिड़कते
एक दूजे पर उमर ।