वो लुका-छिपी, वो दहकता प्यार…
अब कहांँ
कभी पेड़ों की छांव में
कभी गेंदा गुलाब की झुरमुटों में
कभी नदी किनारे
कभी खेतों कुछ मेंढ़ों की आड़ में
वो प्रेम, वो प्रणय-बंधन।
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अब कहांँ
कभी बसंत के बहाने
कभी होली की आड़ में
कभी सावन की बौछारों में
कभी आम की बौरों में
कभी चहकती चिड़ियों के इशारे पर
कभी महकती ख़ुशबू के नशे में
कभी स्कूल कालेज में देरी के बहाने
कभी खेल कूद के बहाने
कभी ट्यूशन क्लास के बहाने
कभी कालेज में
ड्रामा की रिहर्सल के नाम पर
वो लुका-छिपी
वो दहकता प्यार
बदन के रोम-रोम में अंगार
मन के भीतर सपने हजार।
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अब तो
फोन पर सूखा गुलाब भेज देना है
बना बनाया रेडीमेड,
‘आई लव यू’ स्टिकर पोस्ट करना है
खुले बाजार में, टहलना फिरना है
कार्तिक के कुत्तों की भांति
प्रतिपल यायावर लोलुपता,
रोज़ दोस्त,प्रेमी-प्रेमिका बदल लेना है
तब,
इक दूजे को छूने में झिझक थी
आज,
संभोग प्रेम का प्रस्तावना है;
एक हफ़्ता, एक पखवाड़ा, एक महीना प्रेम,
बहुत हो गया तो सालभर का प्रेम
और फिर परस्पर दोष आरोप आक्षेप।
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कभी प्रेम की परिणति परिणय होती थी
आज प्रेम की परिणति
थानों और अदालतों में होती है
अर्थ तहस नहस हो गये
शब्द बेचारे यथावत् रह गये।
✍🏻श्रीधर