वो लिखते हैं
ना जाने लोग कैसे लिखते हैं,
जाने अनजाने में कुछ सीखते हैं,
अपनापन पाने के लिए शब्दों में भीगते हैं,
तोड़ते हैं जोड़ते हैं विधाओं में समेटते हैं,
करते हैं कल्पना आंखों को पढ़ते हैं,
कभी लेख देते हैं काव्यों में लपेट देते हैं,
करते हैं नाटक ऐसे मंचों में बिखेर देते हैं,
महफिल सजाते हैं मेला लगाते हैं,
लिख-लिख कर कहानियां जन जन को सुनाते हैं ,
मन न भरे तो शायरी अनेक देते हैं,
लेख देते हैं डायरी भी देख लेते हैं,
पल दो पल क्या वो हर पल लिखते हैं,
आलोचना भी लिखते हैं गुस्से में दिखते हैं,
गीतों के साथ में व्यथा भी रखते हैं,
वो भी लिखते हैं ये भी लिखते हैं,
प्रेम से तो अच्छे ग़ज़ल भी लिखते हैं ,
निबंध लिखते हैं अनुभव भी झलकते हैं ,
साहित्य में उनके शौक भी पनपते हैं ,
हंसते हैं रुकते भी नहीं है ,
लिखते हैं पर थकते भी नहीं हैं ,
इसी आस में उपन्यास भी रचते हैं ,
ढेरों ढेर समाज में दिखते हैं ,
लिखने की अपनी पहचान रखते हैं ।