वो मां थी जो आशीष देती रही।
गज़ल
122……122……122……12
वो मां थी जो आशीष देती रही।
तभी ज़िन्दगी मुस्कुराती रही।
कहीं से भी लाती थी, लाती थी वो।
वो बच्चों को खाना खिलाती रही।
उन्हें क्या पता था है मां की दुआ,
खुशी रोज घर उनके आती रही।
नहीं कद्र जननी की वो कर सके,
वो परलोक प्रभु धाम जाती रही।
कहा जो भी बच्चों ने बस सुन लिया,
दुखों में भी वो मुस्कुराती रही।
जो देखा परेशां कभी बच्चों को,
वो परलोक में भी तड़पती रही।
खुदाया न मां सा हुआ दूसरा,
जो मां थी हमेशा वो मां ही रही।
……..✍️ प्रेमी