वो बचपन था
खेतों से खीरा ले लेते,
बगिया से आम चुरा लेते।
वहीं बूट चने पर कब्जा था,
गन्ना चोरी का जज्बा था।
मन था अबोध पन कचपन था,
अब पता चला वो बचपन था।
पढ़ने से खूब कतराते थे,
बिन बात के डांटे जाते थे।
नङ्गे हो ताल नहाते थे
बिन न्यौता दावत खाते थे,
मन था अबोध पन कचपन था,
अब पता चला वो बचपन था।
छुटपनवृत्ति मनमौजी थी,
घूंघट वाली सब भौजी थी।
नथ पायल झुमका जेवर थे,
उन सबके हम तब देवर थे।
मन था अबोध पन कचपन था,
अब पता चला वो बचपन था।
पेप्सी,कोला न डी जे था,
मिर्चवान का शर्बत पीजे था।
नौटँकी, आल्हा, हरिकीर्तन,
सब्जी पूड़ी खुब लीजे था।
मन था अबोध पन कचपन था,
अब पता चला वो बचपन था।
रेडियो,घड़ी,सइकिल दहेज था,
रिश्तों का बहुत सहेज था।
चौका बर्तन करे चुल्हन थी,
जो मिल जाये वही दुल्हन थी।
मन था अबोध पन कचपन था,
अब पता चला वो बचपन था।
ईमान के चलते चरखे थे,
कुल के सब बूढ़े पुरखे थे।
अपने सम सबका मान भी था,
एक दूजे प्रति सम्मान भी था।
मन था अबोध पन कचपन था,
अब पता चला वो बचपन था।
एक जन घर का जब कमाता था,
परिवार सकल तब खाता था।
भले बचपन में कई कमियां थीं,
खुशियां ज्यादा कम गमियाँ थीं।
मन था अबोध पन कचपन था,
अब पता चला वो बचपन था।
अब सब बड़े ही पैदा होते,
दिल दिन दिन हैं सैदा होते।
प्रपंच ठगी छल का है चलन,
हर पग पर है रिश्तों का मलन।
सब चन्ट हैं न कोई कचपन है,
जाने कहाँ गया वो बचपन है।
सतीश सृजन, लखनऊ.