“वो पल भर की मुलाकात”
आप दुनिया के किसी भी रास्ते से गुजर जाइये, आपको कुछ ऐसे लोग (भिक्षुक) अवश्य मिल जायेंगे जो अपनी मजबूरियों का वास्ता देकर आपसे आर्थिक मदद चाहते है। इनमे से कुछ तो वास्तव में अपनी मजबूरियों से मजबूर है तो कुछ अपनी आदत से…..।
परन्तु कुछ ऐसे भी है जो देखने में तो इनके जैसे ही लगते है पर उन्हे इनकी श्रेणी में रखना उनके साथ अन्याय होगा और हम उनके अपराधी।
कॉलेज बन्द होने के बाद मै अपने दोस्तो के साथ बस के इन्तजार में बस स्टॉप पर खडा था तभी एक स्वर हमारे कानो में पडा,भैय्या जूतों पर पॉलिश कर दूँ क्या। हमने देखा हमारे सामने लगभग सात साल का लडका खडा था जिसके कन्धे से एक फटा पुराना गन्दा सा थैला लटका था कमीज के एक दो बटन भी गायब थे और जो लगे भी थे उनका कमीज से कोई सम्बन्ध नहीं था। कमीज और पैन्ट पर पडी सलवटे उनकी वृध्दा अवस्था का प्रमाण दे रही थी। पैरों में जो चप्पलें थी उनकी शक्ल सूरत मे बहुत ज्यादा अन्तर था और दोनो ही अपनी आखरी साँसें ले रही थी। मेरे सभी दोस्तों के पोलिश कराने से मना करने पर उसके चेहरे पर निराशा फैल गयी, उसकी आँखों में पानी तो था पर इतना नहीं कि छलक पायें। यह देखकर मैनें पूछा कितना लेते हो पोलिश करने का, उसने बडें करुण स्वर में कहा पाँच रुपये। मैनें अपनी जेब में हाथ डाला और पाँच रुपये के आस-पास वाली राशि का नोट तलाशनें लगा।यूँ तो पर्स में कई नोट थे पर खुले पैसे अक्सर जेब मे यूँ ही पडें रहते थे। जब मैनें जेब से हाथ बाहर निकाला तो हाथ में दस रुपये का नोट था। शायद जेब के किसी कोने मे रहा होगा। मैनें दस रुपये का नोट उसकी ओर बढाया और कहा हमें पोलिश नहीं करानी है तुम ये ले सकते हो परन्तु उसके स्वाभिमान ने उसे इसकी अनुमति नहीं दी और आँखों के इशारें से उसने इस प्रकार पैसे लेने से मना कर दिया। परन्तु मैनें दोबारा जोर देकर कहा तुम ये रख लो तुम्हें इनकी जरुरत है। इस बार उसकी मजबूरी उसके स्वाभिमान और आत्मसम्मान पर भारी पडी और उसने हाथ बढा कर मेरे हाथ से पैसे ले लिये। पर अब उसकी आँखों के पानी पर शर्म हावी हो रही थी। क्योंकि उसकी मजबूरी उसके स्वाभिमान का कत्ल कर चुकी थी। शायद उसकी मजबूरी इतनी बडी न रही होती तो वो मुझसे कभी इस प्रकार पैसे न लेता। शर्म इस हद तक थी कि उसके बाद वो पल भर भी वहाँ ठहर न सका। मेरे सभी दोस्त मुझें अजीब सी नजरों से देख रहे थे और मै उसे…..। परन्तु उसकी शर्म से भरी आँखों में इतनी भी हिम्मत नहीं थी की पलट कर मुझें देख सकें।
वो सात साल का लडका जो शायद पढना लिखना भी नहीं जानता था मुझें समझा गया कि आत्मसम्मान और स्वाभिमान का एक व्यक्ति के जीवन मे क्या अर्थ है और उसका उम्र से कोई सम्बन्ध नहीं है।
शायद अब कभी उस से मुलाकात हो भी तो मैं उसे पहचान न सकूँ, पर उससे वो पल भर की मुलाकात मुझें सारी उम्र याद रहेंगी।
घटना वर्ष 2008
अखिलेश कुमार
देहरादून (उत्तराखण्ड)