विश्वास ….
विश्वास ….
क्या है विश्वास
क्या वो आभास
जिसे हम
केवल महसूस कर सकते हैं
और गुजार देते हैं ज़िंदगी
सिर्फ़ इस यकीन पर कि
एक दिन तो
उसे हम स्पर्श कर लेंगे
छू लेंगे एक छलांग में
आसमान को
या
वो है विश्वास
जिसे हम जानते हुई भी
कि वो
चाहे कितना भी
हमारी साँसों के करीब क्यूँ न हो
छोड़ देगा
हमारा साथ
निकल जाएगा चुपके से
हमारे क़दमों के नीचे से
जैसे
ज़मीन होने का
विश्वास
विश्वास और अविश्वास के मध्य
ये बात निश्चित है कि
जिस दिन
ये मैं
आभास में लुप्त हो
आसमान बन जाएगा
उस दिन
वो शाश्वत सत्य के
अंतर् में खो जाएगा
इक ज़मीन
आभास हो जाएगी
और
एक विश्वास
आसमान हो जाएगा
सुशील सरना