विभीषण का दुःख
विभीषण!
कम से कम हर दुर्गा पूजा के दिनों
तुम बरबस याद आते हो
रामपूजक परम्परा पोषी हिंदुओं ने
तुम्हें कहीं का न रख छोड़ा
स्वार्थहित में अपने सहोदर रावण का
न देकर साथ
आक्रमणकारी राम के तूने पुरे बांह
भजते पूजते रहे राम को
अपने अग्रज और सहोदर की इच्छाओं के विरुद्ध
और खोल दिये अपने घर के पूरे राज
नंगे उतर कर राम के पक्ष में
पर भारतीय घरों में तुम्हें
पूजा – प्रशंसा के लायक कतई नहीं समझा गया
बल्कि उलटे तिल तिल मरने की तरह
तुम्हारा किया सतत तिरस्कार
घर का भेदी लंका ढाए-मुहावरे को
कृतघ्न परम्परापोषी रामभक्तों द्वारा
रच और अपने मानस में बसा कर
अलबत्ता एक रहम की रामपूजकों ने जरूर
कि रावण और तुम्हारे अन्य भाई बांधवों की तरह
न बनाया गया तुम्हें
रामभक्ति घोर घृणा का पात्र
जिनके पुतले बनाकर सार्वजनिक दहन का
आयोजन किया जाता है दुर्गापूजन के मौके पर
बुराइयों के दहन का प्रतीक मान्य होता है यह मौका
जिसके आयोजन में समाज के सारे बुरे तत्व सफेदपोश नकाबपोश व बेखौफ विचारने वाले तक
इतनी तन्मयता से लगे होते हैं कि
अपराध का ग्राफ इन दिनों अप्रत्याशित रूप से
हत गति को प्राप्त शेयर सेंसेक्स की तरह
औंधे मुंह गिरा होता है
विभीषण!
तुम्हें कृतघ्न राम या कि अविवेकी रामभक्तों से सवाल करने यह क्यों नहीं आया
कि भक्त भक्त में यह फर्क तुम हो क्यों कर पाते
कि पात्रों के लिए भी तुम
क्यों न्याय बुद्धि नहीं अपनाते
कि वानर हनुमान में था क्या खास
जिसे तुमने देवठाठ से हुलस अपनाया
और मेरी राम आसक्ति में रही क्या कमी कसर
जो तुम राम भक्तों ने देवतुल्य न मानकर
अतिथि देवो भव – को बिसार
साबित कर इस लोकोक्ति को छुछ दुलार
और प्रतिदान में कर कृतघ्नता
मुझे दुत्कार घृणा का ओछा पात्र बनाया!