वास्तविक साथ
जीवन के हर मोड़ पर हमें किसी न किसी का साथ चाहिए ही होता है । आज की स्तिथि यह है कि हर कोई पैसे और कैरियर के लिए भागता ही जा रहा है । नेट मोबाइल टीवी ने सभी को घर के अंदर बंद कर दिया है । सब अपने में ही रहते हैं । अगर कोई साथी है तो बस मोबाइल और नेट । ये स्तिथि हमें अवसाद की तरफ ले जा रही है । क्योंकि दोस्तीऔर रिश्ते तो अब न के बराबर है और साथ है तो एक आभासी दुनिया का जिससे हमें इंटरनेट मिलवाता है । परंतु ये वो साथ कहाँ जो हमें आंतरिक ख़ुशी और सुख दे । हमारे ग़मों को बांटे खुशियों में हंसे ।
ऐसे ही एक सज्जन जो सेवानिवृत हो चुके थे हमारे सामने के पार्क में रोज गुमसुम से बैठे रहते थे । उनके बच्चों के पास समय ही नहीं था और उन्हें इंटरनेट आता नही था । क्या करते बस पार्क में बैठे रहते । बच्चों को खेलते देखते कभी फूलों और पेड़ों को । लगता जैसे उनसे ही मन की बात कर रहे हों । कुछ दिन बाद देखा उस बेंच पर एक और सज्जन उनके साथ बैठे थे । दोनों में दोस्ती हो गयी । अब वो हँसने भी लगे थे । धीरे 2 देखा वो 2 से 3 फिर 3 से 4 ऐसे करतेकरते 8-10 लोगों का ग्रुप बन गया । उनमे से एक योग एक्सपर्ट थे वो सबको योग भी सिखाने लगे । करीब 1 महीने के समय में ही एक दूसरे में वो सभी इतने मिल गए कि लगता ही नहीं था कभी ये सब अजनबी थे ।
अगर बारिश भी आ जाए तब भी मैंने सबको छाता लगाकर आते हुए देखा । शायद इनका आपसी साथ उन्हें अंदर तक ख़ुशी देता था । वो पार्क पहले बहुत उबड़ खाबड़ सा था । उन लोगों ने उसे ठीक करने का बीड़ा उठाया । एक माली लगाया और खुद भी उसे ठीक करने में लग गए । उन्हें देखकर पार्क में खेलने वाले बच्चे भी उनका साथ देने लगे । पार्क तो चमकने लगा । बच्चे भी उनसे घुलमिल जाने के कारण योग भी करने लगे । सुबह सूरज निकलने से पहले ही बच्चे उठ जाते और पार्क की तरफ भागते । उगते सूर्य को प्रणाम करते योग करते फिर स्कूल जाने के लिए घरजाते । घर में माँ बाप हैरान बच्चों में ये परिवर्तन देखकर उन्होंने भी पार्क में आना शुरू कर दिया । बहुत ही खूबसूरत नज़ारा हर उम्र के लोग एक साथ एक दूसरे का लुत्फ़ उठाते हुए खिलखिलाते हुए ।
सुबह का ये एक घंटा ऐसा होता था जब न तो कोई फ़ोन होता था न नेट न ऐसी न बिस्तर ।बस साथ था लोगों का और प्रकृति का । और जिस साथ से हमें सुकून मिलता है वही होता है वास्तविक साथ।
डॉ अर्चना गुप्ता