वाचाल पौधा।
पगडंडी पर चलते एक पौधा देखा ।
देख चलता चला ।
पौधे ने कहा हे ! मूढ़ कहा चला कर अनदेखा ।
मैने उस पौधे को देखा जो था बोलता ।
बोला झटपट वो क्या सुनो !
हे ! मानव समझ रखा है क्या अपने आप को ।
जी सकोगे बिन हवा, बिन पानी ।
बिन भू, बिन गगन, बिन अग्नि ।
क्या समझते हो विज्ञान है चमत्कारिक ।
बिन प्राकृतिक कुछ न होवे सर्व भ्रमकारिक ।
कामधेनु बिन पायस कहां ।
सो प्राकृतिक बिन कृत्रिमता कहां ।
मनु सुन कर बौखलाया ।
और बोला अपना सिर हिलाया ।
हवा तो हो देते तुम कैसे कहूं पानी ।
बोला पौधा धीरज धरकर ।
मैं न रहूं तो न बरसे पानी ।
बोला मनु पूर्ण समझाओ ।
तब तो समझे कहानी ।
रोपित करो जितना हमको उतना ही जल बरसे ।
देख पपीहा ,चातक और मोर तरसे ।
आक्सीजन बिन न होवे संवहन ।
हवा सहारे संवहन करवाऊं ।
तब जाकर मेघ सजाऊं ।
सो मैं पुरा गगन बनाऊं ।
बादल आए बादल जाए ।
जब तक मै न बरपाऊं ।
यदि बहो मै तीव्र तो जल बूंद प्रहर न पावे।
जब हो जाऊं शांत तो घन भारी जल बरसावे ।
यह सब मनु सोच रहा भरमाएं ।
और कहा उसने हे ! भाई तुमने क्या-क्या बनाए ।
सो तुमने यह भी कहा भू भी आप बनाए ।
बोला तरु से मनु भू भी हमने सजाए ।
तभी तो हम ग्रीन गोल्ड कहलाए ।
घन निर्माण कर वर्षा करवाऊं ।
तब सरिता मे पानी लहराऊं ।
पानी लहरे-फहरे किनारो को क्षत-विक्षत कर ।
मिट्टी काट-काटकर सरिता ।
बांगर, खादर जलोढ मृदा उपजाए ।
जाकर तब उत्तर मैदान बनाए ।
जिसमे ढेरो अन्न उगाए ।
सब जीव जिससे भूखे न रह पाए ।
आज जहां शैलेंद्र खड़ा है ।
टेथीज सागर वहां लहराए ।
तरणी कण-कण , क्षण -क्षण ।
मिट्टी को काट गिराए ।
तब जाकर महान हिमालय बन पाए ।
जो भीषण सर्द, शत्रु से हमे बचाए ।
मनु सुन बोला चुन ।
कैसे तुम पावक बनाए ।
बोला तरू मनु से झटपट ।
कोटि वर्ष पूर्व दब हमी भू मे ।
कोयला, खनिज तेल बनाए ।
कभी -कभी वनो मे घर्षण से लग जाय दावाग्नि ।
कहो ये मनु ये अग्नि कहां से आए ।
इसको तो हमने ही जलाए ।
इस जग मे जो भी है सर्व हमने बनाए ।
न हो हम यदि लोग छटपटा मर जाएं ।
करते हो जल का दुरुपयोग होने पर अति ।
विनाश काले विपरीत मति ।
सूखा है जहां वहां पर देखो परेशान जन नीर दुर्गति ।
कीमत समझ मे आवे किसी चीज के खोने पर ।
उसकी आवश्यकता होने पर ।
नही रहेगा नीर तो फिर क्या होवे ।
जब चिड़िया चुग गई खेत तो मतलब क्या पछतावे ।
बिन जल -जल मरोगे यदि हुए न सचेत ।
जीवन है हमी पर निर्भर ।
फिर भी हमको करते हो जर्जर ।
कुल्हाड़ी, ब्लेड से मार ।
हमको करते घायल ।
हममे भी जान है ।
हम भी रोते है हम भी हैं बेहाल ।
हे! मनु क्यों काट देते हो हमको ।
क्यों उजाङ देते हो पशु -पक्षियो के घर को ।
क्या बिगाङे हैं हम न हैं खबर ।
कुक्कू पखेरू बैठ हमपे गीत गाएं ।
मुझे हंसाएं मुझे नचाएं ।
हो न मक्षिका, भौरे तो खिले न फूल ।
पाओगे न फल मनु रहेगा उर मे शूल ।
हमे उजङने से बचाओ ।
चिपको आंदोलन को तुम और बढाओ ।
सुंदरलाल बहुगुणा सब बन जाओ ।
सबसे बुद्धिप्रद मनु आप ।
अच्छे-बुरे सभी की है तुमको भाप ।
मुझमे भी हैं प्राण और विरह -ताप ।
मुझे लगाओ जिससे जग बने खुशहाल ।
परंतु दिन -प्रतिदिन मनु आप ने किया उदास ।
अपने पैर पर स्वयं कुल्हाड़ी मारो न आप ।
सर्व है हम देने वाले ।
क्या-क्या न देते ?
हवा देते, दवा देते, मेवा देते और देते दुकूल ।
फल देते लकड़ी देते, छाया देते और देते फूल ।
जल बरसाते, भू सजाते, प्यार लुटाते ।
घन बना हरीतिमा फैलाते ।
दुकूल बने कपास रेशम एवं जूट ।
प्राप्त होते ये सब हमसे ही फूट ।
जो भी है परमाण्विक ।
थोरियम, अभ्रक हम ही बनाए ।
ये जल एवं भू मे समाए ।
हम भी है प्रकाश पुंज दिनकर के सहारे ।
उनसे ही मै और ये जग सारे ।
बोला न मनु कुछ ।
गिर गया पौधे के चरणतल ।
प्रेमाश्रु जल बहलाया निर्मल ।
बोला हम कितने है निर्दयी ।
जो समझ न पाए अपने मीत -हित को ।
दिन -प्रतिदिन क्षति पहुंचाते ।
होगा न अब ऐसा तरु भाई ।
आज मेरी बुद्धि है खुल आयी ।
अब मै न कटने दूंगा भले ही कट जाऊं ।
अब पूर्ण जीवन आपको बचाऊं ।
तामसिक प्रवृति के नर को समझाऊं ।
अति आतप जो व्याकुल होई ।
तरु छाया सुख जानइ सोई ।
तुम हो शांति के प्रतीक ।
इस धरा के जीवन के सीक ।
मनु बोला क्षमा करो हे ! तरु ।
अश्रु बहलाए ।
सबसे करता निवेदन ।
अगर काटना पड़े मुश्किल हालात मे पेङ भी तो ।
एक काटे कोटि लगाएं ।
पौधे सुन लहराएं ।
मनु को दिए आशीष ।
हे ! पुत्र पूर्ण करो ये अभियान ।
कृपा करे जगदीश ।
मर कर भी हो जाओ अमर ।
याद करे विश्व भर ।
बोला मनु अंततः ।
अपने तरु को अब हरगिज मिटा न सकाउं।
अब मै न कटने दूंगा भले ही कट जाऊं ।
पीपल, नीम, तुलसी, वट, आम्र जम्बू आदि वृक्ष उपजाऊ ।
जग को खुशहाल बनाउ और सजाउ ।
मनु आगे पगडंडी पर कदम आगे बढाएं ।
सब तरु प्रेम से स्व सिर झुकाए ।
अमर रहे मनु ईश विजय दिलाए ।
प्रकृति ईश्वर की सर्वोत्तम कृति है ।