वह तोड़ती पत्थर / ©मुसाफ़िर बैठा
वह तोड़ती पत्थर
देखा था उसे कवि निराला ने
उस शहर इलाहाबाद के पथ पर
जो अब अपने नए नाम में
भगवा नाम में
एक हिंदू नगर में तब्दील हो चुका है
कवि ने देखा था जिसे वर्णी सहानुभूति की नजर से
एक दलित मजदूरनी थी शायद वह इस
कविप्रिया मजदूरनी के सामने एक भव्य अट्टालिका थी
जो शर्तिया बहुजन सीकर श्रम से बनी हुई रही होगी
क्योंकि ऐसे ही आरंभ से अबतक
बहुजन श्रम ही लगता है निर्माण में
और शायद, वह अट्टालिका
किसी सामंत की ऐशगाह होगी
उस अट्टालिका का मालिक संभवतः
इस श्रमण श्रम को पैसे से तौलने वाला रहा होगा
श्रम को मान महत्व देने की तमीज उसमें नहीं रही होगी
मजदूरन जिन पत्थरों को तोड़ रही थी
उन पत्थरों को तुड़वाने का ठेका अथवा मालिकत्व भी सम्भवतः
किसी वर्णदबंग के पास रहा होगा
और, मजदूरनी को समुचित मजदूरी भी भरसक ही मिल रही होगी
इसीलिए, हे वर्णश्रेष्ठ! कवि निराला
आधा अधूरा देखा तो क्या देखा
वर्णी सहानुभूति की नज़र से देखा तो क्या देखा
अपनों को बचाते हुए
वंचितों को काव्य-सहानुभूति की ओस चटाकर
कौन सा तीर मार लिया
वंचितों को तो अपनी प्यास
सही तरीके से बुझा ले पाने की दरकार है
यह दरकार वर्णाश्रयी मनुष्य पूरी नहीं होने देते
इन दरकारों को अपनी मनोभूमि और
अपनी रचना में उतरने नहीं देते इस ढब के कवि प्रगतिशील!