वसुंधरा का क्रन्दन
तन से मन से और वतन से आज है दहाड़ती।
वसुंधरा – वसुंधरा – वसुंधरा पुकारती।।
हिम से बना शीश मेरा आज है पिघल रहा,
डाल वृक्ष पुष्प तन भी आज मेरा जल रहा।
अनिल वेग उर को मेरे आज हैं झंझोरती ,
वसुंधरा – वसुंधरा – वसुंधरा पुकारती।।
जलधि नीर दिन – दिनों में मुझको है डुबो रहा,
सूर्य का यह ताप भी शरीर मेरा खो रहा ।
गिरी रुपी अस्त्र मेरे दुनिया उन्हें भेदती,
वसुंधरा – वसुंधरा – वसुंधरा पुकारती।।
पर्वतों को नष्ट करके भग्न मुझे करते हो,
वृक्ष डाल काट करके नग्न मुझे करते हो।
कटार रूपी गन्दगी है धड़ को मेरे काटती,
वसुंधरा – वसुंधरा – वसुंधरा पुकारती।।
शुद्ध पवन मेरी तुमने अशुद्ध है कर दिया,
गंगाजल को मेरे तुमने मैल से है भर दिया।
सुगंध मेरी नष्ट करदी ये गन्ध मुझे न भाति,
वसुंधरा – वसुंधरा – वसुंधरा पुकारती।।
तुम्हारी सारी गन्दगी को सहन मैं ही करती हूं,
मल – मूत्र गंध गलन प्रदूषण भी सहती हूं।।
तुम्हारी रीति – नीति मुझे कतई अब न सुहाती,
वसुंधरा – वसुंधरा – वसुंधरा पुकारती।।
दुर्गेश भट्ट