वन के वासी
अनपढ़ कहना ना, शिक्षा प्रकृति की झोली,
विषय उसका अलग है, भिन्न रही है बोली।
कर्म जिसमें महारथ, शाला उसकी अनोखी,
उस्ताद है हुनर का, उसने भी गठरी खोली।
कार्य अंकन कम रहा, पर रहा है अनमोल,
महल अटारी है खड़े, कला में उसका घोल,
शिक्षा भेद जो समझते, शिखर पर बैठ कर,
अनपढ़ ना समझो, देखो एकलव्य का रोल।।
निपुण कोई वनौषधि, निपुण है वन जीवन,
प्रकृति जितनी नज़दीक,उतना खिले उपवन।
उसकी भी है मंजिल ,पर कंटक प्रस्तर राह,
इसीलिए परिश्रम का, होता रहा अवमूल्यन ।।
खुलते रहे विद्यालय, खुलते है महाविद्यालय,
हुनर उसका निखरे, खुल जाये वन विद्यालय।
मूल्य श्रम का जब बने, रक्षित हो आदिम बोली,
कुछ तो उसने सीखा, बिना गुरुओं की टोली।।
अनपढ़ कहना ना , शिक्षा प्रकृति की झोली—
रचनाकार कवि:- डॉ शिव लहरी