वजूद
जब कभी कुछ सोचा
चाहा कुछ करने को,
लाखों अर्चनें खड़े हुए
पथ मेरे रोकने को,
समझ कंकड़ मुझे सब
हर कोई फेंक देते
कुएँ-तालाब में,
आँखो में चुभ जाता
हूँ जैसे कोई काँटा
या धूल इस जहाँ में;
क्या कहूँ ऐ खुदा
भाग भी भागे कोसों दूर,
वजूद पुछे मुझसे आज
कौन है, तेरा यहाँ क्या काज ?